श्रद्दधाति च प्रत्येति च, रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति।
धर्मं भोगनिमित्तं, न तु स कर्मक्षयनिमित्तम्।।
—समणसुत्त : १९७
अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका गालन भी करता है, किन्तु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं करता।
अभव्य जीव चाहे कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर ले, किन्तु फिर भी वह अपनी प्रकृति (स्वभाव) नहीं छोड़ता। साँप चाहे जितना भी गुड़—दूध पी ले, किन्तु अपना विषैला स्वभाव नहीं छोड़ता।