मैं एक हूँ, मैं शुद्ध हूँ, ज्ञानादर्शन युक्त हूँ, सदा अरूपी हूँ परमाणु मात्र भी अन्य पदार्थ मेरा नहीं है।
६. एक: सदा शाश्वतिको ममात्मा। विनिर्मल: साधिगमस्वभाव।
बहिर्भवा सन्त्यपरे समस्ता न शाश्वत: कर्मभवा: स्वकीया:।। द्वात्रिंशतिका २६
मेरी आत्मा सदा एक है, अविनाशी है, पूर्ण निर्मल और ज्ञान स्वभाव वाली है। बाह्य पदार्थ जो कर्मों के कारण उत्पन्न हुये हैं, वे सब मेरे नहीं हैं। वे अभिनाशी भी नहीं हैं।
मैं शरीर नहीं हूँ, मन नहीं हूँ वचन नहीं हूं। मैं इन तीनों का कारण नहीं हूँ , कराने वाला नहीं हूँ और मैं इनका अनुमोदन करने वाला भी नहीं हूँ।
९. तिक्काले चदु पाणा इंदिय—बल—माउ—आणपाणो य।
ववहारा सो जीवो णिच्चय—णयदो दु चेदणा जस्स।।३ द्रव्यसंग्रह
जिसके भूत, भविष्यत और वर्तमान काल में इंद्रिय, बल—आयु तथा श् वास और उच्छ् वास ये चार प्राण होते हैं, वह व्यवहारनय से जीव है। निश्चयनय से जिसके चेतना पाई जाती है वह जीव है।
आत्मा ब्राह्माण नहीं है, वैश्य नहीं है, क्षत्रिय नहीं है, शुद्र नहीं है। वह पुरुष नहीं है, नपुंसक नहीं है और स्त्री नहीं है। वह सम्पूर्ण वस्तुओं का जाता है।
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मैं सिद्ध हूँ, मैं शुद्ध हूँ। मैं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि गुणों से सम्पन्न हूँ। मैं देह प्रमाण, अविनाशी संख्यात् प्रदेशवाला तथा मूत्र्ति रहित हूँ।
आत्मा, स्पर्शन आदि इन्द्रियों को विषयों से रोककर, मन की एकाग्रता से आत्मा के स्वरूप में स्थिर होकर अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा का, ध्यान करे।
२०. प्रमेयत्वादि भिर्धमैं—रचिदात्मा चिदात्मक:।
ज्ञान दर्शनस्तस्मात् चेतनाऽ चेतनात्मक:।।स्वरूप संबोधन ३
यह आत्मा प्रमेयत्व, वस्तुत्व आदि गुणों की अपेक्षा अचित् रूप (अचेतन) है। ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा चेतनात्मक है। इस कारण यह चेतन और अचेतन दोनों रूप है (यहां अचेतन का अर्थ जड़ नहीं है। चैतन्य भिन्न अन्य गुण रूप है)
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योगी अन्तरात्मा बनने पर परमात्मा में सोऽहं—वह परमात्मा मैं हूँ इस प्रकार की भावना के द्वारा अपना संस्कार बनाता है और परमात्मा में दृढ़ संस्कार द्वारा अपनी आत्मा में स्थिरता प्राप्त करता है।
हे जिनेन्द! आपके प्रसाद से मुझे ऐसी शक्ति प्राप्त हो, कि जिस प्रकार तलवार म्यान से भिन्न रहती है, इस प्रकार मैं दोष रहित, अनन्त शक्तियुक्त अपनी आत्मा को शरीर से पृथक कर सकू।
२३. न में मृत्यु: कुतो भीतिर्न में व्याधि: कुतो व्यथा।
नाहं बालो न वृद्धोहं न युवैतानि पुद्गले।।२९ इष्टोपदेश
मेरी आत्मा की मृत्यु नहीं होती; इसलिये मैं क्यों भय धारण करूँ ? मेरी आत्मा के कोई रोग नही है इसलिये में क्यों पीड़ा का अनुभव करूँ? मैं बालक नहीं हूँ, मैं वृद्ध नहीं हूँ। ये अवस्थाएँ पुद्गल में पाई जाती है।
२४. अहमेको न मे कश्चित नैवाहमपि कस्यचित्।
इत्यदीनमना: सम्यगेकत्वमपि भावयेत् ।।३८—१८४ महापुराण
इस संसार में मैं अकेला हूँ मेरा कोई नहीं है तथा मैं भी किसी का नहीं हूँ। इस प्रकार धैर्य धारण कर भली प्रकार आत्मा के एकत्वपने की भावना करे।
हे भद्र! मैं अकिंचन रूप हूँ—कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है। इस प्रकार की भावना कर, इससे तू त्रिलोक का स्वामी हो जायेगा। मैंने तुझे योगिगम्य परमात्मपद का रहस्य कहा है।
जो आत्मा सर्वपरिग्रह का त्याग करके आत्मा मेरी है इस प्रकार आत्मा का घ्यान करता है तथा कर्म और नौ कर्म मेरे नहीं हैं, ऐसा मानता है, वह आत्म के एकत्व का चिन्तवन करता है।
२७. देहहं पेक्खवि जरमरणु मा भय जीवकरेहि।
जो अजरामरु बंभ परु सो अप्पाणु मुणेहि।।७१ परमात्मप्रकाश
हे जीव! शरीर की वृद्धावस्था और मृत्यु को देखकर तु भयभीत मत हो। जो परब्रह्म अजर ओर अमर है, उस रूप अपनी आत्मा को जान।
जो आत्मा का कल्याणकारी तत्त्व है, वह इंद्रियों के विषय—भोगों में नहीं हैै फिर भी अज्ञानी जीव अज्ञान भावना से उन इंदियों के विषयों में प्रेम करता हैं।
२९. त्वमेव कर्मणां कर्ता भोक्ता च फलसंतते:।
मोक्ता च तात किं मुक्तौ स्वाधीनायांन चेष्टसे।।११—४५क्षत्रचूड़ामणि
हे आत्मन् ! तू ही कर्मों का कत्र्ता है और फलों का भोगने वाला है। तू ही मोक्ष प्राप्त करनेवाला है। हे तात! अपने आश्रित मोक्ष के लिये क्योें नही प्रयत्न करता है?
३०. बंधाणां च सहावं वियाणिओ अप्पणो सहावं च।
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणई।।२९३ समयसार
जो बन्ध के स्वरूप को और आत्मा के स्वरूप को जानकर बन्ध के कारणों से विरक्त होता है, वह आत्मा कर्मों का पूर्ण रीति से क्षय करता है।
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जैसे बन्धन में बन्धा हुआ पुरुष अपने बन्धनों के विषय में केवल विचार करता हुआ मोक्ष नहीं पाता, उसी प्रकार यह जीव भी बन्ध का चिंतवन करता हुआ मोक्ष नहीं पाता है।
जो जीव ममता भाव युक्त है, वह कर्मों के बन्धन को प्राप्त करता है तथा जिसके ममकार भाव नष्ट हो गया है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। इसलिए पूर्ण प्रयत्न करते निर्ममत्व रूप से आत्मा का चिंतवन करे।
अनादिकाल से मूर्ति रहित आत्मा का कर्मों के साथ निरन्तर सम्बन्ध होने पर एक रूपता होने के कारण आत्म को मूर्ति युक्त भी माना गया है।
३८. तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात्।
न हि अमूर्तस्य नभसो मदिरा मदकारिणी।।५—११तत्त्वार्थसार
आत्मा मूर्तिमान है, क्योंकि मूर्तिमान मदिरा के द्वारा आत्मा प्रभावित होती हुई देखी जाती है। मदिरा के द्वारा मूर्ति रहित आकाश में उन्मत्तता का दर्शन नहीं होता।
आत्मन्! अपनी आत्मा को अपने रूप से तथा उससे भिन्न शरीर को अपने से भिन्न रूप में देखते हुए पर वस्तु के त्याग में अपनी बुद्धि को लगा। अन्य नष्ट होने वाले कार्यों से क्या लाभ है?
४३. परत्यागकृतो ज्ञेया: सानगाराऽगारिण:।
गात्रमात्रधना: पूर्वे सर्व सावद्य वर्जिता:।।१९
पर वस्तु को त्याग करने वाले अनगार (मुनि) तथा गृहस्थ जानने चाहिए। इनमें मुनिराज सम्पूर्ण पापों के त्याग करने वाले कवेल शरीर मात्र सम्पत्ति के स्वामी होते हैं।
४४. सम्यक्त्वममल—ममला—न्यणुगुण—ाqशक्षाव्रतानि मरणान्ते।
सल्लेखना च विधिना पूर्ण: सागारधर्मोयम् ।।१—१२ सागारधर्मामृत
निर्मल सम्यदर्शन, निर्दोष रूप से अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत रूप श्रावकों के द्वादश व्रतों का परिपालन तथा विधिपूर्वक मरणान्त मसय में समाधि का होना यह परिपूर्ण गृहस्थ—धर्म है।
गृहस्थों के अहिंसा, सत्य, आचौर्य, स्वस्त्री सन्तोष और सीमित पदार्थों का संग्रह तथा शराब,मांस और शहद का त्याग ये आठ मूल गुण कहलाते हैं।
४९. मद्य पल मधु निशाशन पंचफली विरिति पंचकाप्त नुती।
जीवदया जलगालन मिति च क्वचिदष्ट मूल गुणा:।। सागार धर्मामृत
मद्य, मांस, शहद, रात्रि भोजन, पीपल, बड़, ऊमर, कठ ऊमर और पाकर रूप पंच जीव युक्त फलों का त्याग, पंच परमेष्ठि की पूजा, जीवदया तथा जलगालन को किन्ही आचार्यों ने गृहस्थ के आठ मूल गुण कहे हैं।
दान तथा पूजा श्रावक के मुख्य धर्म हैं। इनके बिना श्रावक नहीं होता है। ध्यान और अध्ययन मुख्य रूप से मुनि के धर्म हैं। इनके बिना मुनि नहीं होते हैं।
५४. अभीष्टं फलमाप्नोति व्रतवान्परजन्मनि।
न व्रतादपरो बंधु नाव्रतादपरो रिपु:।।७६—३७४ उत्तरपुराण
व्रती पुरुष आगामी भव में मनोवांछित फल को प्राप्त करता है। अहिंसा आदि व्रतों के समान जीव का कोई बन्धु नहीं है। हिंसा आदि पापाचरण के समान अन्य शत्रु नहीं है।
जब तक इंद्रियो के द्वारा विषयों का सेवन नहीं होता है, तब तक के लिए पुन: प्रवृत्ति पर्यन्त उनका त्याग करे। दैववश व्रत युक्त मरण हो गया तो परलोक में जीव सुखी रहेगा।
शरीरदि में आत्मापने का भ्रम युक्त जीव बहिरात्मा है। चित्त, रागादि दोष तथा आत्मा के विषय में भ्रांति रहित अन्तरात्मा है। समस्त दोषों से रहित अत्यन्त निर्मल परमात्मा है।
संसार के दु:खों का मूल शरीर में ही आत्म बुद्धि है। इस मिथ्या धारणा को त्याग कर बाह्य पदार्थों में इंद्रियों की प्रवृत्ति को रोककर अपनी आत्मा में प्रवेश करना चाहिए।
इस प्रकार अन्तरात्मा बाहरी वचनों का त्यागकर पूर्ण रूप से अंतर्जल्प का भी त्याग करे। इस प्रकार संक्षेप से बहिरंग व अन्तरंग वचनालाप का त्याग रूप योग परमात्मा के स्वरूप का प्रकाशक दीपक है।
जिस समय तपस्वी के मोह के कारण राग तथा द्वेष उत्पन्न होते हैं, उसी समय अपने स्वरूप में स्थित हो आत्मा की भावना करे। इससे क्षण भर में राग—द्वेष शांत हो जाते हैं।
मिथ्यात्व, सासादन तथा मिश्रा गुणस्थान में बहिरात्मा कहा है। चौथे गुणस्थान में अन्तरात्मा का जघन्य है। उपशांत कषाय पर्यन्त मध्यम अन्तरात्मा है। क्षीण कषाय में उत्तम अन्तरात्मा है। जिनेन्द्र भगवान (केवली) तथा सिद्ध परमात्मा ‘स्व समय’ हैं।
एक जीव कर्म का बंध करता है। वही जीव अकेला अंनत संसार में भ्रमण करता है। एक जीव उत्पन्न होता है। वही जीव मृत्यु को पाता है। वह अकेला कर्म के फल को भोगता है।
यह जीव जिन भगवान द्वारा प्रदर्शित मार्ग का परिज्ञान न कर जन्म, जरा, मरण, रोग, तथा भय परिपूर्ण द्रव्य, क्षेत्र काल,भव और भाव संसार में चिरकाल तक भ्रमण करता है।
इस जीव ने पुद्गल परावर्तन रूप संसार में संपूर्ण पुद्गलों का अनन्त बार भोग कर उनका परित्याग किया है। ऐसा एक भी पुद्गल नहीं है जिसे जीव ने अनन्त बार न भोगा हो।
६७. सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पण्णं।
उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्त संसारे।।२६।।
सर्वंस्मिन् लोक क्षेत्रे क्रमश: तन्नास्ति यत्र न उत्पन्न:।
अवगाहनेन बहुश: परिभ्रमित: क्षेत्र संसारे।।
संपूर्ण लोक रूपी क्षेत्र में ऐसा स्थान नहीं है जहां इस जीव ने उत्पन्न होकर तथा उस स्थान में शरीर धारण कर अनेक बार क्षेत्र रूपी संसार में परिभ्रमण न किया हो।
हत्वा जीवराशि को मारकर मधु, मांस तथा मदिरा का पान करता है, दूसरे का धन और पत्नी को ग्रहण कर संसार में भ्रमण करता है।
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अमृत मंथन
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७१. जत्तेण कुणइ पावं विसय णिमित्तं च अहणिसं जीवो।
मोहंध—यार सहिओ तेण दु परिपडदि संसारे।।
यत्नेन करोति पापं विषय निमित्तं च अहर्निशं जीव:।
मोहन्धकार सहित: तेन तु परिपततिसंसारे।।
यह जीव दिन रात विषयों के निमित्त यत्नपूर्वक पाप कार्य करता है (यह रत्न पूर्वक धर्म कार्य नहीं करता ) इस कारण यह मोह रूपी अंधकार सहित संसार में डूबता है।
७२. संसार मदिक्वंतो जीवो—वादेय मिदि विचिंतेज्जो।
संसार—दुहक्वंतो जीवो सो हेय मिदि वििंचतेज्जो।।३८।।
संसार अतिक्रान्त: जीव उपादेयमिति विचिंतनीयम्।
संसार दु:खाक्रान्त: जीव: स हेय इति विचिंतनीय:।।
संसार से अतिक्रान्त जीव उपादेय है ऐसा िंचतवन करे। सांसारिक दु:खों से आक्रान्त जीव हेय है ऐसा विचार करे।
अशुभ भाव से यह जीव नरक और तिर्यंच पर्याय को पाता है। शुभ उपयोग से स्वर्ग तथा मनुष्य पर्याय के सुख को भोगता है। शुद्ध भाव से मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार लोक के विषय में विचार करें।
पंच महाव्रत युक्त मनोवृत्ति द्वारा अविरति भाव का निरोध होता है तथा कषाय रहित परिणामों से नियम पूर्वक क्रोध, मान, माया, लोभ द्वारा होने वाले आस्रवों का द्वार बंद होता है।
अशुभ परिणामों का पूर्ण रूप से त्याग कर जो व्रत, समिति, शील तथा संयम के भाव होते हैं, वह शुभ मनोयोग जानना चाहिये।
८०. संसार छेदकारण—वयणं सुहवयणमिदि जिणुद्दिट्ठं।
जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्ठा।।५५।।
संसारच्छेद—कारण—वचनं शुभ वचन मिति जिनोद्दिष्टम्।
जिनदेवादिषुत पूजा शुभ काय मिति च भवेत् चेष्टा।।
संसार के विनाश करने में कारण वचन शुभ वचन योग है। जिनेन्द देव की पूजा आदि शुभ कार्य रूप चेष्टा शुभ योग है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है।
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अमृत मंथन
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८१. इदि णिच्छय—ववहारं जं भणियं कुन्दकुन्द मुणिणाहे।
जो भावइ सुद्धमणों सो पावइ परम णिव्वाणं।।९१।।अनुप्रेक्षा
इति निश्चय—व्यवहारं यत् भणितं कुंकुंद मुनिनाथेन।
य: भावयति शुद्ध मना: स प्राप्नोति परम निर्वाणम्।
इस प्रकार कुन्दकुन्द मुनीश्वर ने व्यवहार और निश्चय दृष्टि से कथन किया है। उसके अनुसार जो शुद्ध मन होकर द्वादश भावनाओं का चिंतवन करता है, वह परम निर्वाण को प्राप्त होता है।
आत्मा अपनी आत्मा की आराधना (अभेद आराधना) द्वारा परमात्मा बनती है, जैसे वृक्ष आपस मेंं संधर्ष युक्त हो अग्निरूप स्वयं परिणत होता है।
८७. तिल मध्ये यथा तैलं दुग्ध मध्ये यथा घृत:।
काष्ठ मध्ये यथा वह्नि: देह मध्ये तथा शिव:।।
जैसे तिल के भीतर तेल रहता है, दूध के भीतर घृत रहा करता है तथा काष्ठ के भीतर अग्नि (शक्ति रूप से ) विद्यमान रहती है, उसी प्रकार इस शरीर के भीतर परमात्मा रहता है।
जिनके निर्धनता—अिंकचनतापना ही धन है और समाधि सहित मरण सच्चा जीवन है, उन ज्ञान नेत्र युक्त सत्पुरुषों का दैव क्या करेगा घ्
९२. करोतु न चिरं घोरं तप: क्लेशासहो भवान्।
चित्त साध्यान् कषायारीन् न जयेद्यदज्ञता।२१२ अ. शा.
आत्मन! तपस्या के महान कष्ट सहन करने में असमर्थ होने से तू तप मत कर; किंतु मन के द्वारा जीतने योग्य कषायरूपी शत्रुओं को यदि वश में नहीं करता है तो यह तेरी अज्ञानता है।
शरीरादि पर पदार्थ है अर्थात् आत्मा से भिन्न हैं। पर वस्तु से जीव को दु:ख प्राप्त होता है, आत्मा जीव की निज वस्तु है, उससे सुख प्राप्त होता है, इसलिए महापुरुष आत्मोपलब्धि के लिए उद्योग करते हैं।
तीर्थंकर भगवान ने सम्पूर्ण जगत के लिए हितकारी धर्म का निरूपण किया है। इस जगत् में जो मानव निर्मल हृदय होकर उसका पालन करते हैं, वे धन्य हैं।
९८. उत्तमा स्वात्म चिन्ता स्यात् मोहचिन्ता च मध्यमा।
अधमा काय चिन्ता स्यात् पर चिन्ताऽधमाधमा।।४।।परमानन्द स्तोत्र
आत्मा के बारे में चिन्ता करना श्रेष्ठ कार्य है। मोह की चिन्ता करना मध्यम कार्य है। शरीर की चिन्ता करना मध्यम कार्य है। शरीर की चिन्ता करन जघन्य कार्य है। बाहरी वस्तुओं की चिंता करना महान अधम कार्य है।