पुन: ११ फरवरी २०१६ से १७ फरवरी २०१६, माघ शुक्ला तृतीया से माघ शुक्ला दशमी तक इनका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। जिसमें चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज की मूल अक्षुण्ण परम्परा के सप्तम पट्टाचार्य श्री अनेकांतसागर जी महाराज सहित १२५ साधु-साध्वियों का गौरवमयी सानिध्य प्राप्त हुआ। पुन: १८ फरवरी २०१६ से प्रारंभ हुआ प्रथम महामस्तकाभिषेक ६ फरवरी २०१७ तक (माघ शुक्ला ग्यारस से माघ शु. दशमी तक) लगातार १ वर्ष तक इस महामस्तकाभिषेक ने एक नूतन कीर्तिमान स्थापित किया है।
६ मार्च २०१६ को गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज इस १०८ पुâट प्रतिमा का संरक्षण करना आप सभी दिगम्बर जैन समाज का परम कर्तव्य है। इस प्रतिमा के संदर्भ में विशेष ज्ञातव्य है-
१. प्रत्येक ६ वर्ष में इनका महामस्तकाभिषेक महोत्सव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्पन्न किया जायेगा।
२. वह मस्तकाभिषेक प्राचीन आर्षपरम्परानुसार पंचामृत सामग्री से किया जायेगा।
३. इसके अतिरिक्त भगवान के श्रीचरणों का अभिषेक भी पंचामृत से होता रहेगा।
४. भगवान के आजू-बाजू में निर्मित शासन देव (गोमुख यक्ष) एवं शासन देवी (चव्रेâश्वरी माता) सदैव अवस्थित रहेंगे एवं उनका पदयोग्य सम्मान (अघ्र्य आदि समर्पण करके) होता रहेगा।
५. मूर्ति निर्माण कमेटी के द्वारा यह आर्षमार्गीय बीसपंथ परम्परा हमेशा चलाई जावेगी तथा आने वाले श्रद्धालु भक्तों के लिए बीसपंथ-तेरहपंथ का भेदभाव नहीं रहेगा, वे अपनी-अपनी श्रद्धानुसार केवल जलाभिषेक करें अथवा केशर-दूध आदि से अभिषेक कर सकते हैं।
इस प्रकार पंथ के भेद भाव को छोड़कर इस सर्वोच्च दिगम्बर जैन प्रतिमा के दर्शन-वंदन करके आप सभी भक्तगण आत्मोन्नति की ओर अग्रसर हों तथा जिनधर्म की व्यापक प्रभावना इस प्रतिमा के माध्यम से हो, यही सम्पूर्ण जैन समाज के लिए संदेश एवं आशीर्वाद है। मैंने सन् १९९६ में २७ अक्टूबर, शरदपूर्णिमा के दिन अपने चिंतन के आधार पर इन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की पूर्वाभिमुखी १०८ फुट प्रतिमा बनाने की प्रेरणा सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज के समक्ष प्रदान की थी।
पुन: मेरे शिष्यत्रय (आर्यिका चन्दनामती माताजी, जम्बूद्वीप के प्रथम पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर महाराज एवं कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी ने मेरी भावनानुसार वन विभाग द्वारा पर्वत की भूमि को क्रय करके दिगम्बर जैन समाज को जोड़कर सभी के सहयोग से ३ मार्च २००२, फाल्गुन वदी ५, वी. नि. सं. २५२८, विक्रम सं. २०५८ को शिलापूजन की धार्मिक विधि के साथ कार्य का शुभारंभ किया पुन: १० वर्ष तक पर्वत खण्ड से पाषाण को काट-छांटकर अखण्ड पाषाण शिला प्राप्त हुई तब २५ दिसम्बर २०१२, मगसिर शुक्ला त्रयोदशी, वी. नि. सं. २५३९, विक्रम सं. २०६९को भारत के प्रसिद्ध शिल्पकार मूलचंद रामचंद नाठा-जयपुर के शिल्पियों ने उस शिला पर मूर्ति बनाने का कार्य शुरू किया।
३ वर्ष-१ माह के पश्चात् २४ जनवरी २०१६ माघ कृ. एकम् को पुष्टा नक्षत्र के पवित्र योग में मेरी आँखों के सामने प्रतिमा बनकर पूर्ण हुई, वे रोमांचक क्षण मेरे लिए तथा सम्पूर्ण उपस्थित जनसमूह के लिए अप्रतिम थे।