जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो गया है तथा जो पूर्वसंचित कर्मों से (बंध से) सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे अयोगी केवली कहलाते हैं। स तस्मिन् चैव समये, लोकाग्रे ऊध्र्वगमन—स्वभाव:। संचेष्टते अशरीर:, प्रवराष्टगुणात्मको नित्यम्।। अष्टविधकर्मविकला:, शीतीभूता निरंजना नित्या:। अष्टगुणा कृतकृत्या:, लोकाग्रनिवासिन: सिद्धा:।।
इस (चौदहवें) गुणस्थान को प्राप्त कर लेने के उपरांत उसी समय ऊध्र्वगमन स्वभाव वाला वह अयोगी केवली अशरीरी तथा उत्कृष्ट आठ गुणसहित होकर सदा के लिए लोक के अग्रभाग पर चला जाता है। (उसे सिद्ध कहते हैं।)