तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही माता के आंगन में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़१ रत्नों की वर्षा शुरू हो जाती है। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर रत्नों की वर्षा करता है। भगवान का जन्म होते ही सौधर्मेन्द्र असंख्य देव-देवियों के साथ आकर पहले नगरी की तीन प्रदक्षिणा देते हैं पुन: पिता के घर में प्रवेश कर इंद्राण्ाी को प्रसूतिगृह में भेजकर तीर्थंकर शिशु को प्राप्त कर वैभव के साथ सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक शिला पर तीर्थंकर शिशु को बिठाकर १००८ कलशों से जन्माभिषेक करते हैं।
ऐसे रत्नों की वर्षा अयोध्या में पाँच बार पाँच तीर्थंकरों के समय पंद्रह-पंद्रह महीने तक हुई है। आज भी जो कुबेर टीला (मणि पर्वत) कहलाता है, ‘‘जनश्रुति रही है कि यहाँ पर कुबेर देव रत्नवृष्टि करते रहे हैं’’ इसलिए इसे कुबेर टीला कहते हैं। अयोध्या तीर्थ की प्रदक्षिणा पाँचों तीर्थंकरों के कल्याणक महोत्सवों में इंद्रों ने की है। भगवान ऋषभदेव के व उनके पुत्र भरत के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष (५००²४·२००० हाथ) थी। उनका सर्वतोभद्र महल ८१ मंजिल का था। आप स्वयं चिंतन करें कि महल की ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई कितनी रही होगी?
उसी अयोध्या में भरत चक्रवर्ती का वैभव, ९६ हजार रानियाँ, सभी के पुत्र-पुत्रियाँ, पौत्र आदि के निवास, कितने रहे होंगे। १८ करोड़ घोड़े, ८४ लाख हाथी आदि चक्रवर्ती का वैभव कितना बड़ा रहता है। आदि……….।अत: उस समय अयोध्या कितनी विशाल थी, अर्थात् बहुत ही विशाल थी। श्रीरामचंद्र ये आठवें बलभद्र हुए हैं। आज से लगभग ९ लाख वर्ष पूर्व का इतिहास है। अयोध्या में श्रीराम ने हजारों जिनमंदिर१ बनवाये थे व बहुत से विद्यालय-महाविद्यालय२ बनवाये थे। उस समय अयोध्या की आबादी सत्तर करोड़३ की थी। अर्थात् श्रीरामचंद्र के समय भी अयोध्या बहुत ही विशाल नगरी-राजधानी रही है, ऐसा पद्मपुराण-जैन रामायण में वर्णन है। आज से लगभग डेढ़ सौ, दो सौ वर्ष पूर्व अयोध्या में सौ जैनमंदिर थे, ऐसा इतिहासकारों ने लिखा है।अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार सन् १३३० में अयोध्या में अनेक जैन मंदिर थे। महाराजा नाभिराज का मंदिर, पार्श्वनाथ बाड़ी, गोमुखयक्ष, चक्रेश्वरी यक्षी की रत्नमयी प्रतिमा, सीताकुंड, सहस्रधारा, स्वर्गद्वार आदि अनेक जैनायतन विद्यमान थे।