जन्मभूमि – | हस्तिनापुर (जिला मेरठ) उत्तर प्रदेश |
पिता – | महाराजा सुदर्शन |
माता – | महारानी मित्रसेना |
वर्ण – | क्षत्रिय |
वंश – | कुरुवंश |
देहवर्ण – | तप्त स्वर्ण सदृश |
चिन्ह – | मछली |
आयु – | चौरासी हजार वर्ष |
अवगाहना – | एक सौ बीस हाथ |
गर्भ – | फाल्गुन कृ.३ |
जन्म – | मगसिर शु.१४ |
तप – | मगसिर शु. १० |
केवलज्ञान – | कार्तिक शु. १२ |
मोक्ष – | चैत्र कृ. अमावस्या |
मोक्षस्थल – | सम्मेद शिखर पर्वत |
वन एवं वृक्ष – | सहेतुक वन एवं आम्र वृक्ष |
प्रथम आहार – | चक्रपुर के राजा अपराजित द्वारा (खीर) |
समवसरण में गणधर – | श्री कुभार्य आदि ३० |
समवसरण में मुनि – | पचास हजार |
समवसरण में गणिनी – | आर्यिका यक्षिला |
समवसरण में आर्यिका – | साठ हजार |
समवसरण में श्रावक – | एक लाख साठ हजार |
समवसरण में श्राविका – | तीन लाख |
जिनशासन यक्ष – | महेन्द्र देव |
जिनशासन यक्षी – | विजया देवी |
इस जम्बूद्वीप में सीता नदी के उत्तर तट पर एक कच्छ नाम का देश है। उसके क्षेमपुर नगर में धनपति राजा राज्य करता था। किसी दिन उसने अर्हन्नन्दन तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से धर्मामृत का पान किया, जिससे विरक्त होकर शीघ्र ही जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। ग्यारहअंगरूपी महासागर का पारगामी होकर सोलह कारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अन्त में प्रायोपगमन संन्यास के द्वारा मरण करके जयंतिविमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
इसी भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगरी है। यहाँ सोमवंश में उत्पन्न हुए काश्यप गोत्रीय राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी मित्रसेना नाम की रानी थी। रानी ने रत्नवृष्टि आदि देवसत्कार पाकर फाल्गुन कृष्ण तृतीया के दिन गर्भ में अहमिन्द्र के जीव को धारण किया। उसी समय देवों ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। रानी मित्रसेना ने नव मास के बाद मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्यनक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने बालक को सुमेरूपर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव करके भगवान का ‘अरनाथ’ नाम रखा। भगवान की आयु ८४ हजार वर्ष की थी। तीस धनुष ऊँचा अर्थात् १२० हाथ ऊँचा शरीर था। सुवर्ण के समान शरीर की कांति थी।
भगवान के कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मंडलेश्वर के योग्य राज्यपद प्राप्त हुआ, इसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ। इस तरह भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया, तब शरद ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय होना देखकर भगवान को वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों के द्वारा स्तुत्य भगवान अपने अरविन्द कुमार को राज्य देकर देवों द्वारा उठाई हुई ‘वैजयंती’ नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुँचे। तेला का नियम कर मगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर के अपराजित राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया।
जब भगवान के छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष बीत गये, तब वे दीक्षावन में कार्तिक शुक्ल दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में आम्रवन के नीचे तेला का नियम लेकर विराजमान हुए और घातिया कर्मों का नाशकर केवली बन गये। देवों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। भगवान के समवसरण में तीस गणधर, पचास हजार मुनि, साठ हजार आर्यिकाएँ, एक लाख साठ हजार श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। इस तरह बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान अरनाथ ने बीस हजार नौ सौ चौरासी वर्ष केवली अवस्था में व्यतीत किये। जब एक माह की आयु शेष रही, तब भगवान सम्मेदशिखर पर जाकर प्रतिमायोग से स्थित हो गये। चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्व भाग में सम्पूर्ण कर्मों से रहित अशरीरी होकर सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ सातवें चक्रवर्ती थे। तीर्थंकर से पूर्व तीसरे भव में ये भगवान धनपति नाम के राजा थे, दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया था पुन: जयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर अरनाथ तीर्थंकर हुए हैं। इनका मत्स्य का चिन्ह है। इन अरनाथ के भी गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर नगर में ही हुए हैं। इनको मुक्त हुए लगभग सौ अरब, पैसठ लाख, छ्यासी हजार, पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ भगवान सदा हम सबकी रक्षा करें।