द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ कर में नवीना है।
पूजतां पाप छीना है, भानुमल जोर कीना है।।
दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दश ता विषै छाजै।
सातशत बीस जिनराजै, पूजतां पाप सब भाजै।।१।।
ॐ ह्रीं पाँच भरत, पाँच ऐरावत, दश क्षेत्र के विषै तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
-छन्द-घत्तानन्द-
जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्रनहूतैं, थुति पूरी न करी है।
द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार,
सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मंझार।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज।
ॐ ह्रीं सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ, ऋषभानन, अनन्तवीर्य, सूरप्रभ, विशालकीर्ति, वङ्काधर, चन्द्रानन, चंद्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयशोऽजितवीर्येतिविंशतिविद्यमान-तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध परमेष्ठी (संस्कृत)
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणै: संगं वरं चंदनं,
पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम्।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वांछितम्।।
ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध परमेष्ठी (भाषा)
जल फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा।
मेटो भवफंदा सब दुखदंदा, हीराचंदा तुम वंदा।।
त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवन नामी, अंतरयामी अभिरामी।
शिवपुर विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी शिरनामी।।
ॐ ह्रीं श्री अनाहतपराक्रमाय सर्वकर्मविनिर्मुक्ताय श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच बालयति
सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ, अरघ बनावत हैं,
वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नशावत हैं।।
श्री वासुपूज्य मलि नेम, पारस वीर अती,
नमूँ मन वच तन धरि प्रेम, पाँचों बालयती।।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर स्वामि,
श्री पंचबालयति तीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय चौबीसी
जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों।
तुमको अरपों भवतार, भव तरि मोक्ष वरों।।
चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही।
पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्ष मही।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि-वीरांत-चतुा\वशतितीर्थंकरेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोलकारण
जल फल आठों दरब चढ़ाय, ‘द्यानत’ वरत करों मनलाय।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।।
दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद-पाय।
परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।।
ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचमेरु जिनालय
आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत’ पूजौं श्रीजिनराय।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय।।
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करो प्रणाम।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय।।
ॐ ह्रीं श्री सुदर्शन-विजय-अचल-मन्दर-विद्युन्मालि-पंचमेरुसंबंधि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदीश्वरद्वीप जिनालय
यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हों।
‘द्यानत’ कीज्यो शिवखेत, भूमि समरपतु हों।।
नन्दीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों।
वसु जिनप्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरों।।
ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशलक्षणधर्म
आठों दरब संभार, ‘द्यानत’ अधिक उछाहसों।
भव-आताप निवार, दस-लक्षन पूजौं सदा।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सप्तर्षि
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना।
फल ललित आठों द्रव्य-मिश्रित, अर्घ कीजे पावना।।
मन्वादि चारण ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूँ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निवार्ण क्षेत्र
जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं।
‘द्यानत’ करो निरभय जगतसों, जोर कर विनती करौं।।
सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि वैâलाशकों।
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुा\वशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस्वती
जल चंदन अक्षत फूल चरु, अरु दीप धूप अति फल लावै।
पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर ‘द्यानत’ सुख पावै।।
तीर्थंकर की ध्वनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वाणी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन-मानी पूज्य भई।।
ॐ ह्रीं श्री जिन-मुखोद्भव-सरस्वतीदेव्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आदिनाथ जिनेन्द्र
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हरषाय।
दीप धूप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय।।
श्रीआदिनाथ के चरण कमल पर, बलिबलि जाऊँ मनवचकाय।
हो करुणानिधि भव दुख मेटो, यातैं मैं पूजों प्रभु पाय।।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र
वसु अर्घ्य रजत के पुष्प, थाल भराय लिया।
परिपूर्ण ‘ज्ञानमति’ हेतु, आप चढ़ाय दिया।।
भगवन् ! सुपार्श्व जिनराज, मेरी अर्ज सुनो।
दे दीजे निज साम्राज्य, मैं तुम चरण नमो।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्र
जग गंध तंदुल पुष्प चरु ले, दीप धूप फलौघही।
कन थाल अर्घ बनाय शिव सुख, ‘रामचंद्र’ लहै सही।।
श्रीचंद्रप्रभु दुतिचंद को पद, कमल नखससिलगि रह्यो।
आतंक दाह निवारि मेरी, अरज सुनि मैं दुख सह्यो।।
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्र
मिले नीर गंधादि चाँदी कुसुम भी, चढ़ाऊँ तुम्हें अर्घ्य हो ‘ज्ञानमति’ भी।
मिले पूर्ण शांती महा ज्ञानधारा,सभी दुःख नाशें मिले सौख्य सारा।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र
जलफल दरब मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई।
शिवपदराज हेत हे श्रीपति! निकट धरों यह लाई।।
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई।
बालब्रह्मचारी लखि जिनको, शिवतिय सनमुख धाई।।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र
जल फलादि वसु द्रव्य संवारे, अर्घ चढ़ाये मंगल गाय।
‘बखत रतन’ के तुम ही साहिब, दीजे शिवपुर राज कराय।।
शांतिनाथ पंचम चक्रेश्वर, द्वादश मदन तनो पद पाय।
तिनके चरण कमल के पूजे, रोग शोक दुख दारिद जाय।।
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र
जलफल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय।
अष्टम छिति के राज करन को, जजों अंग वसु नाय।।
दाता मोक्ष के, श्री नेमिनाथ जिनराय।।दाता.।।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र
नीर गंध अक्षतान् पुष्प चारू लीजिये।
दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तें जजीजिये।।
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री महावीर जिनेन्द्र
जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरों।
गुणगाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरों।।
श्री वीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मति दायक हो।।
ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री ऋषि मण्डल
जल फलादिक द्रव्य लेकर, अर्घ सुन्दर कर लिया।
संसार रोग निवार भगवन्, वारि तुम पद में दिया।।
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजैं, पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दुख नहिं कदा।।
ॐ ह्रीं श्री सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय, रोग-शोक-सर्व-संंकटहराय, सर्वशांतिपुष्टिकराय, श्रीवृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अरिहंतादि पंचपद, दर्शन-ज्ञान-चारित्र, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्ट ऋद्धि संयुक्त ऋषि, बीस चार सूर, तीन ह्रीं, अर्हंतबिम्ब, दशदिक्पाल यंत्र संबंधि परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं देव श्री अर्हंत पूजूँ, सिद्ध पूजूँ चाव सों।
आचार्य श्री उवझाय पूजूं, साधु पूजूूं भाव सों।।१।।
अर्हन्त भाषित बैन पूजूँ, द्वादशांग रचे गनी।
पूजूँ दिगम्बर गुरुचरन, शिव हेतु सब आशा हनी।।२।।
सर्वज्ञ भाषित धर्म दशविधि, दया-मय पूजूँ सदा।
जजूँ भावना षोडश रत्नत्रय, जा बिना शिव नहिं कदा।।३।।
त्रैलोक्य के कृत्रिम-अकृत्रिम, चैत्य-चैत्यालय जजूँ।
पन मेरु नंदीश्वर जिनालय, खचर सुर पूजत भजूँ।।४।।
वैâलाश श्री सम्मेद श्री गिरनार गिरि पूजूँ सदा।
चम्पापुरी पावापुरी, पुनि और तीरथ सर्वदा।।५।।
चौबीस श्री जिनराज पूजूँ, बीस क्षेत्र विदेह के।
नामावली इक सहस-वसु जपि, होय पति शिव गेह के।।६।।
-दोहा-
जल गंधाक्षत पुष्प चरु, दीप धूप फल लाय।
सर्वपूज्य पद पूजहूँ, बहुविधि भक्ति बढ़ाय।।७।।
ॐ ह्रीं महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।