-स्थापना-गीता छन्द-
अरिहंत प्रभु ने घातिया को, घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह, दोष का सब क्षय किया।।
शत इन्द्र नित पूजें उन्हें, गणधर मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम अर्चना, के हेतु अभिनंदन करें।।१।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननं।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं श्री अर्हत्परमेष्ठि समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं-स्रग्विणी छंद
साधु के चित्त सम स्वच्छ जल ले लिया।
कर्ममल क्षालने तीन धारा किया।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।१।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध सौगंध्य से नाथ को पूजते।
सर्व संताप से भव्यजन छूटते।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।२।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धौत अक्षत लिये स्वर्ण के थाल में।
पुंज धर के जजूं नाय के भाल मैं।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।३।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
केतकी कुंद मचकुंद बेला लिये।
कामहर नाथ के पाद अर्पण किये।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।४।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुद्ग मोदक इमरती भरे थाल में।
आत्म सुख हेतु मैं अर्पिहूँ हाल में।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।५।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण के दीप में ज्योति कर्पूर की।
नाथ पद पूजते मोह तम चूरती।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।६।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप को अग्नि में खेवते शीघ्र ही।
कर्म शत्रू जलें सौख्य हो शीघ्र ही।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।७।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव अँगूर दाड़िम अनन्नास ले।
मोक्ष फल हेतु जिन पाद पूजूँ भले।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।८।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य लेकर जजूँ नाथ को आज मैं।
स्वात्म संपत्ति का पाऊँ साम्राज मैं।।
सर्व अरिहंत को पूजहूँ भक्ति से।
कर्म अरि को हनूँ भक्ति की युक्ति से।।९।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
जिन पद में धारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांती धारा जगत में, आत्यन्तिक सुख देत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हर सिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र–ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
—दोहा—
श्री अरिहंत जिनेन्द्र का, धरूँ हृदय में ध्यान।
गाउँ गुणमणिमालिका, हरूँ सकल अपध्यान।।१।।
—शम्भु छंद—
जय जय प्रभु तीर्थंकर जिनवर, तुम समवरण में राज रहे।
जय जय अर्हत् लक्ष्मी पाकर, निज आत्मा में ही आप रहे।।
जन्मत ही दश अतिशय होते, तन में न पसेव न मल आदी।
पयसम सित रुधिर सु समचतुष्क, संस्थान संहनन है आदी।।२।।
अतिशय सुरूप, सुरभित तनु हैं, शुभ लक्षण सहस आठ सौ हैं।
अतुलित बल प्रियहित वचन प्रभो, ये दश अतिशय जन मन मोहें।।
केवल रवि प्रगटित होते ही, दश अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक-इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधानो।।३।।
हो गगन गमन, नहिं प्राणीवध, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखें सब विद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़े प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चौदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।४।।
सर्वार्ध मागधीया भाषा, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब ऋतु के फल औ फूल खिलें, दर्पणवत् भूरत्नाभ धरें।।
अनुकूल सुगंधित पवन चले, सब जन मन परमानंद भरें।
रजकंटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधोदक वृष्टी देव करें।।५।।
प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर, शाली आदिक बहु धान्य फलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर धर्मचक्र चलता आगे।
वसुमंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।६।।
तरुवर अशोक सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चौंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रत्रय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, औ दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।७।।
क्षुध तृषा जन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चऊ घाति घात नवलब्धि पाय, सर्वज्ञ प्रभु सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम धुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के, भव भव के कलिमल धोते हैं।।८।।
मैं भी भवदु:ख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूँ।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूँ।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाधी पूर्वक हो।
हो केवल ‘ज्ञानमती’ सिद्धी, जो सर्व गुणों की पूरक हो।।९।।
—दोहा—
मोह अरी को हन हुए, त्रिभुवन पूजा योग्य।
नमो नमो अरिहंत को, पाउँâ सौख्य मनोज्ञ।।१०।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्य: जयमाला महार्घ्यं….।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्री अरिहंत की, नित भक्ति से अर्चा करें।
वे भवभ्रमण को दूर कर, सम्यक् गती प्राप्ती करें।।
पंचमगती को प्राप्त कर, लोकाग्र पर निज में रमें।
सज्ज्ञानमति आर्हन्त्य सुख आनन्त्यगुणमय परिणमें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।