काल का एक विभाग
काल के दो भेद है- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । जिसमें जीवों की आयु, ऊँचाई, भोगोपभोग, संपदा और सुख आदि बढ़ते जावें वह उत्सर्पिणी और जिसमें घटते जावे वह अवसर्पिणी है। सौ करोड़ को सौ करोड़ से गुणा करने पर एक कोड़ाकोड़ी सागर होता है, दस कोड़ाकोड़ी पल्यों का एक सागरोपम होता है और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपमों का एक अवसर्पिणी काल होता है। इस दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल होता है जो कि बीस कोड़ाकोड़ी सागर का है।
अवसर्पिणी काल के छ: भेद है- सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दु:षमा, दु:षमा-सुषमा, दु:षमा और दु:षमा-दु:षमा । इसी प्रकार उत्सर्पिणी के भी दु:षमा-दु:षमा आदि को लेकर छह भेद है। इस तरह असंख्यात अवसर्पिणी,उत्सर्पिणी के बीत जाने पर हुण्डावसर्पिणी काल आता है जो कि वर्तमान में चल रहा है। यह काल परिवर्तन भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही होता है अन्यत्र नहीं होता है, जैन सिद्धान्त के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है।