भारतीय वैज्ञानिकों ने हाल के अध्ययनों से इस प्रचलित धारणा को गलत साबित किया है कि उपवास अथवा भूखा रहने से शारीरिक कमजोरी आती है। यहाँ स्थित कौशिकीय और आणविक जीवविज्ञान केन्द्र में किये गये अध्ययनों से पता चला है कि हमारा शरीर उपवास अथवा भूखा रहने के दौरन आंत में ग्लूकोज के रूप में मौजूद ‘संग्रहीत खाद्य’ से अधिक अंश ग्रहण करता है। इन अध्ययनों से पता चलता है कि संग्रहित आहार हमारे शरीर में ग्लूकोज के रूप में ग्लाइकोजीन–सा जिगर में जमा होता रहता है, जो संकट के समय काम आता है। जब हमारे शरीर को भोजन नहीं मिलता अथवा जब भूखा रहना पड़ता है, तब ग्लाइकोजीन कुछ एंजाइमों की मदद से ग्लूकोज के रूप में विघटित हो जाता है और हमारे शरीर को जरूरी ऊर्जा मिल जाती है। इन अध्ययनों के प्रभारी डॉ. पी.डी. गुप्ता ने यूनीवार्ता को बताया कि जो व्यक्ति कभी भी उपवास नहीं रखता अथवा कभी भी भूखा नहीं रहता, उसके शरीर की एंजाइम प्रणाली सक्रिय नहीं भी रह सकती है। इस प्रणाली की मदद से ही ग्लाइकोजीन ग्लूकोज में परिवर्तित होता है। डॉ० गुप्ता ने कहा कि नियमित ढंग से उपवास रखना हमारे शरीर के लिए हमेशा लाभकारी होता है, क्योंकि उपवास से हमारी एंजाइम प्रणाली सक्रिय रहती है। डॉ० गुप्ता ने बताया कि जब जिगर में संग्रहित ग्लाइकोजीन समाप्त हो जाती है तब भूखे रहने वाले व्यक्ति के ‘वसा–उत्तक’ (एडीपोस टिश्यू) काम में आते हैं। जब व्यक्ति अधिक दिनों तक भूखा रहे और सभी वसा उनके समाप्त हो जाएं तो व्यक्ति को कुछ खास तरह के रोग होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है, इसलिए अधिक समय तक उपवास करना शारीरिक दृष्टि से उचित नहीं है। डॉ० गुप्ता ने बताया कि भुखमरी के दौरान आंत्र कोशिकाओं की झिल्लियों का इस तरह का पुनर्विन्यास हो जाता है, ताकि अधिक से अधिक ऊर्जा प्राप्त हो। भुखमरी के दौरान कोलेस्ट्रोल की मात्रा घट जाती है, जिसके कारण कोलेस्ट्राल झिल्लियाँ और अधिक द्रवित हो जाती हैं। इनके अधिक द्रवित होने से ये शरीर को आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। उपवास से न केवल पाचन-संबंधी रोगों को ठीक होने में मदद मिलती है, बल्कि केंसर जैसे रोग भी दूर हो सकते हैं। उन्होंने बताया कि उपवास से जिगर से केंसर जन्य ‘प्रोनेओ प्लास्टिक कोशिकाएं’ मरने लगती हैं। उन्होंने कहा कि आस्टे्रलिया में हाल में किये गये एक अध्ययन से भी यह साबित होता है कि आहार में कमी लाये जाने से केंसर जन्य कोशिकाओं का निर्माण धीमा पड़ जाता है। उन्होंने कहा कि डॉ० डुसीकराउप के नेतृत्व में पशुओं पर किये गये प्रयोगों से यह साबित हुआ है और यह मनुष्यों के लिए भी सत्य है।
साभार उद्धृत, राष्ट्रीय सहारा, नयी दिल्ली,
मंगलवार २ मई १९९५ प्राकृत विद्या अप्रैल-जून १९९५ अंक १