श्री विद्यानंद स्वामी का यह कहना है कि एक अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिए। अन्य हजारों ग्रन्थों को सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक अष्टसहस्री ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय और परसमय का स्वरूप जान लिया जाता है। महान् आचार्य श्री उमास्वामी जी ने महान् ग्रंथराज तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ की रचना के प्रारंभ में ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये’ इस मंगल श्लोक को रचा है। श्री समंतभद्र- स्वामी ने इस मंगलाचरण श्लोक का आधार लेकर ‘आप्त मीमांसा’ नाम से एक स्तोत्र रचा है, जिसका अपरनाम ‘देवागमस्तोत्र’ भी है। श्री भट्टाकलंक देव ने आप्तमीमांसा स्तुति पर ‘अष्टशती’ नाम से भाष्य बनाया है जो कि जैन दर्शन का एक अतीव गूढ़ ग्रंथ बन गया है। इसी भाष्य पर आचार्यवर्य श्री विद्यानंद महोदय ने ‘अष्टसहस्री’ नाम से अलंकार टीका बनाई है, जो कि जैन दर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ कहलाता है। इसमें दश परिच्छेद में १. भाव-अभाव, २. द्वैत-अद्वैत, ३. नित्य-अनित्य, ४. भेद-अभेद, ५. अपेक्षा-अनपेक्षा, ६. हेतु-आगम, ७. अंतरंगार्थ-बहिरंगार्थ, ८. दैव-पुरुषार्थ, ९. पुण्य-पाप, १०. अज्ञान-ज्ञानवाद, इन एक-एक प्रकरणों के एकांतों का पूर्वपक्षपूर्वक निरसन करके सर्वत्र स्याद्वाद प्रक्रिया से वस्तु तत्त्व को समझाया गया है। वास्तव में तत्त्व-अतत्त्व को तत्त्व में समझने के लिए यह न्याय ग्रंथ एक कसौटी का पत्थर है और अधिक तो क्या कहा जाये, स्वामी श्री समंतभद्राचार्यवर्य ने आप्त और अनाप्त की मीमांसा करते हुए आप्त अर्हंतदेव को ही न्याय की कसौटी पर कसकर सत्य आप्त सिद्ध किया है, देखिए-
अतिशय गुणों से युक्त भगवान की स्तुति करने के इच्छुक श्री समंतभद्रस्वामी स्वयं अपनी श्रद्धा और गुणज्ञता लक्षण प्रयोजन से ही इस देवागम स्तव में आप्त की मीमांसा करते हुए भगवान से प्रश्नोत्तर करते हुए के समान ही कहते हैं अर्थात् मानो भगवान् यहां प्रश्न कर रहे हैं कि हे समंतभद्र! मुझ में देवों का आगमन, चमर, छत्रादि अनेकों विभूतियाँ हैं फिर भी तुम मुझे नमस्कार क्यों नहीं करते हो ? तब उत्तर में स्वामी जी कहते हैं कि ‘‘हे भगवन्! आपके जन्मकल्याणक आदिकों में देव, चक्रवर्ती आदि का आगमन, आकाश में गमन, छत्र, चामर, पुष्पवृष्टि आदि विभूतियाँ देखी जाती हैं किन्तु ये विभूतियाँ तो मायावी जनों में भी हो सकती हैं अतएव आप हमारे लिए महान-पूज्य नहीं हैं। इस पर भगवान मानो पुन: प्रश्न करते हैं कि हे समंतभद्र! बाह्य विभूतियों से तुमने हमें नमस्कार नहीं किया तो न सही किन्तु मरकरी आदि में असंभवी ऐसे अंतरंग में पसीना आदि का न होना एवं बहिरंग में जो गंधोदकवृष्टि आदि महोदय हैं जो कि दिव्य और सत्य हैं वे मुझ में हैं अत: आप मेरी स्तुति करिये। इस पर श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं कि अंतरंग और बहिरंग शरीरादि के महोदय भी रागादिमान देवों में पाये जाते हैं अत: इनसे भी आप महान नहीं हैं अर्थात् देवों के शरीर में भी पसीना, मलमूत्रादि नहीं है उनके यहाँ भी गंधोदक वृष्टि आदि वैभव होते हैं अत: इन महोदय से भी आप हमारे पूज्य नहीं हैं।
मानो पुन: भगवान कहते हैं
मानो पुन: भगवान कहते हैं कि हे समंतभद्र! रागादिमान देवों में भी असंभवी ऐसे तीर्थकृत संप्रदाय को चलाने वाला ‘मैं तीर्थंकर हूूँ’ अत: मैं अवश्य ही तुम्हारे द्वारा स्तुति करने के योग्य हूँ। इस पर श्री समंतभद्र- स्वामी प्रत्युत्तर देते हुए के समान कहते हैं कि हे भगवन्! आगमरूप तीर्थ को करने वाले सभी तीर्थंकरों के आगमों में परस्पर में विरोध पाया जाता है अत: सभी तो आप्त हो नहीं सकते अर्थात् बुद्ध, कपिल, ईश्वर आदि सभी ने अपने-अपने आगमों को रचकर अपना-अपना तीर्थ चलाकर अपने को तीर्थंकर माना है किन्तु सभी के आगम में परस्पर में विरोध होने से सभी सच्चे आप्त नहीं हो सकते हैं इसलिए इन सभी में कोई एक ही परमात्मा-सच्चा आप्त हो सकता है, ऐसा अर्थ ध्वनित कर देते हैं। इस कारिका की अष्टसहस्री टीका में श्री विद्यानंद महोदय ने बहुत ही विस्तार से सभी सम्प्रदायों का परस्पर में विरोध दर्शाया है। अन्य सम्प्रदायों में वेदों को प्रमाण मानने वाले वैदिक संप्रदायी हैं। उनमें मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक एवं सांख्य वैदिक कहलाते हैं और चार्वाक, बौद्ध आदि वेद को नहीं मानने वाले अवैदिक कहलाते हैं। आजकल कुछ लोग वेद के मानने वालों को आस्तिक एवं नहीं मानने वालों को नास्तिक कहते हैं और उसमें जैन को भी नास्तिक में लिया है क्योंकि जैन भी वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते हैं किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है, जो आत्मा, मोक्ष, परलोक आदि के अस्तित्व को मानते हैं वे आस्तिक एवं आत्मा आदि के अस्तित्व को न मानने वाले नास्तिक कहलाते हैं अत: चार्वाक और शून्यवादी नास्तिक हैं बाकी सभी आस्तिक की कोटि में आ जाते हैं। अस्तु! सभी के सम्प्रदायों के परस्पर विरोध का यहाँ किंचित् दिग्दर्शन कराते हैं।
चार्वाक-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु
इन चार जड़ तत्वों को ही मानता है। उसका कहना है कि इन्हीं भूतचतुष्टयों के मिलने से संसार बना है और इन्हीं भूतचतुष्टयों से आत्मा की उत्पत्ति होती है। ये चार्वाक परलोक गमन, पुण्य पाप का फल आदि नहीं मानते हैं। वेदांती एक ब्रह्मरूप ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, उनका कहना है कि एक परम ब्रह्म ही तत्व है। संपूर्ण विश्व में जो चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं हम और आप सभी उस एक परमब्रह्म की ही पर्यायें हैं। यह चर-अचर जगत् मात्र अविद्या का ही विलास है इत्यादि। बड़े आश्चर्य की बात है कि एक जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति मान रहा है तो दूसरा चैतन्य ब्रह्म से अचेतनोें की उत्पत्ति मान रहा है, दोनों में सर्वथा परस्पर विरोध है। ऐसे ही बौद्ध सभी वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं उनका कहना है कि एक क्षण के बाद सभी वस्तुएँ जड़-मूल से नष्ट हो जाती हैं, जो उनका ठहरना द्वितीय आदि क्षणों में दिख रहा है वह सब कल्पना मात्र है। वासना से ही ऐसा अनुभव आता है। इधर सांख्य कहता है कि सभी वस्तुएँ सर्वथा नित्य ही हैं कोई वस्तु नष्ट नहीं होती है किन्तु तिरोभूत हो जाती है एवं उत्पत्ति भी नहीं है। वस्तु का आविर्भाव ही होता है। मिट्टी से घट बनता नहीं है बल्कि मिट्टी में घट सदा विद्यमान है। कुम्हार के प्रयोग से प्रगट हो गया है इत्यादि। इन दोनों में भी सर्वथा ३६ का आंकड़ा है।
वैशेषिक-एक सदाशिव महेश्वर
वैशेषिक-एक सदाशिव महेश्वर को मानकर उसे सृष्टि का कर्ता मानते हैं तो मीमांसक सर्वज्ञ के अस्तित्त्व को न मानकर वेद वाक्यों से ही सम्पूर्ण सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का जानना मानते हैं। वेद को प्रमाण मानने वालों में भी उन वेद वाक्यों को पृथक्-पृथक् अर्थ करके कई लोग आपस में विसंवाद करते हैं। भाट्ट वेद वाक्यों का अर्थ भावना करते हैं। प्रभाकर उन्हीं वाक्यों का अर्थ नियोग करते हैं और वेदांती उन्हीं वाक्यों से ब्रह्मवाद को पुष्ट करते हैं। अतएव श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं कि सभी के सम्प्रदायों में परस्पर में विरोध होने से सभी आप्त नहीं हो सकते हैं किन्तु कोई एक ही आप्त-सच्चा देव हो सकता है। पुन: मानों भगवान यह प्रश्न करते हैं कि सच्चे आप्त में आप क्या गुण चाहते हैं ? तो समंतभद्र स्वामी कहते हैं कि वह सर्वज्ञ होना चाहिए। सूक्ष्म-परमाणु आदि, अंतरित-राम, रावण आदि और दूरवर्ती-हिमवन, सुमेरु आदि पदार्थ अनुमान ज्ञान से जाने जाते हैं जैसे कहीं पर धुएं को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है तो वह अग्नि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य है और जिनके ये सूक्ष्मादि पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं, वे ही सर्वज्ञ हैं। पुन: प्रश्न होता है कि हम संसारी प्राणी अल्पज्ञ हैं तो सर्वज्ञ कैसे बन सकते हैं ? इस पर आचार्य कहते हैं कि दोष और आवरणों का अभाव किसी जीव में सम्पूर्ण रूप से हो सकता है क्योंकि हम लोगों में दोष-रागादि भाव और आवरण-कर्मों की तरतमता देखी जाती है। किन्हीं में रागादि दोष कम हैं किन्हीं में उससे भी कम हैं। इससे यह अनुमान लगता है कि किसी जीव में ये दोषादि सर्वथा भी नष्ट हो सकते हैं जैसे कि अपने निमित्तों से स्वर्ण पाषाण से किट्ट और कालिमा का सर्वथा अभाव हो जाता है और सुवर्ण शुद्ध हो जाता है।
प्रश्न-दोष और आवरण में क्या अन्तर है ?
उत्तर-कर्म के उदय से होने वाले जीव के राग-द्वेष, अज्ञात आदि परिणाम दोष कहलाते हैं। इन्हें भावकर्म भी कहते हैं। ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक कर्म आवरण कहलाते हैं इन्हें द्रव्य कर्म कहते हैं। इन दोनों में परस्पर में कार्य कारण भाव निश्चित है जैसे बीज से अंकुर एवं अंकुर से बीज की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। उसी प्रकार से दोष से आवरण और आवरण से दोष होते रहते हैं। बौद्ध-अज्ञानादि दोष स्वपरिणाम के निमित्त से ही होते हैं इसमेें आवरण (कर्म का उदय) कुछ भी नहीं कर सकता है। जैनाचार्य-ऐसा नहीं है, यदि दोषों को स्वनिमित्तक ही मानोगे तो इनका कभी अभाव नहीं हो सकेगा पुन: इसके नाश के बिना मोक्ष होना भी असंभव हो जावेगा। जैसे-जीव के जीवत्व आदि भाव स्वनिमित्तक होने से कभी नष्ट नहीं होते हैं इसलिए दोषों को आवरणनिमित्तक मानना ही चाहिए। सांख्य-अज्ञान आदि दोष परनिमित्तक ही हैं क्योंकि ये स्वयं प्रधान-प्रकृति-जड़ के परिणाम हैं, आत्मा के नहीं। जैनाचार्य-ये दोष सर्वथा पर पुद्गल के निमित्त से ही हों, ऐसी बात नहीं है अन्यथा मुक्त जीवों में भी इनका प्रसंग आ जावेगा क्योंकि पुद्गल वर्गणाएं तो वहाँ भी मौजूद हैं किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है। उन सिद्धों में अज्ञान आदि दोष के न होने से केवल पुद्गल के निमित्त से वहाँ पर कर्मबंध नहीं होता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि राग-द्वेष आदि से कर्मबंध होता है और कर्म के उदय से दोष होते हैं। जैसे-ज्ञानावरण कर्म के उदय से जीव में अज्ञान, दर्शनावरण के उदय से अदर्शन, दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व, चारित्रमोहनीय के उदय से अचारित्र आदि दोष होते हैं। वैसे ही प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अंतराय आदि भावों के निमित्त से ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है। केवली, श्रुत, संघ, धर्म आदि को झूठा दोष लगाने से दर्शनमोहनीय का एवं कषायों की तीव्रता से चारित्रमोहनीय का आस्रव होकर बंध होता है। इस प्रकार से भावकर्म के लिए निमित्त कारण द्रव्यकर्म हैं एवं द्रव्यकर्म के लिए निमित्त कारण भावकर्म हैं, ऐसा निश्चय हो जाता है। जो लोग ऐसा समझते हैं कि मेरी भूल से ही संसार है कर्म का उदय मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता, उन्हें अपनी एकांत मान्यता को हटा देना चाहिए।
प्रश्न-जैसे किसी जीव में दोष और आवरण का पूर्णतया नाश हो सकता है, ऐसे ही किसी जीव में बुद्धि ज्ञान का भी पूर्णतया नाश मान लेना चाहिए ?
उत्तर-ठीक है, हम स्याद्वादी हैं। किसी जीव ने पृथ्वीकाय आदि को शरीररूप से ग्रहण करके छोड़ दिया है अत: उन पाषाण, मिट्टी आदि में चैतन्य ज्ञान का सर्वथा अभाव हो गया। इससे यह समझना चाहिए कि भस्म, लोष्ठ आदि पृथ्वीकाय सर्वथा अजीव हैं। पृथ्वीकायिक में ही जीव विद्यमान रहता है। दूसरी बात यह है कि मति, श्रुत आदि रूप क्षयोपशम ज्ञान का अभाव हो जाता है किन्तु पूर्ण-केवलज्ञान का किसी जीव में अभाव होना संभव नहीं है क्योंकि ज्ञान यह जीव का स्वाभाविक परिणाम है। आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं-स्वाभाविक और आगंतुक। अनंतज्ञान आदि गुण स्वाभाविक हैं और अज्ञान आदि मल आगंतुक हैं। आगंतुक मिथ्यात्व, राग-द्वेष, अज्ञान आदि दोष के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन आदि गुणों की वृद्धि हो जाने से दोषों का अभाव हो जाता है। मीमांसक-सम्पूर्ण कर्मों से रहित भी आत्मा परमाणु, धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को कैसे जानेगा ? इनका ज्ञान तो वेदवाक्यों से ही होता है अत: विश्व में कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। जैनाचार्य-सूक्ष्म परमाणु आदि और राम-रावण, सुमेरु आदि पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि वे अनुमान ज्ञान के विषय हैं। सर्वज्ञ भगवान अतीन्द्रिय ज्ञान से ही सूक्ष्मादि पदार्थों को जानते हैं, इन्द्रिय ज्ञान से नहीं क्योंकि इन्द्रियाँ तो वर्तमान और नियत पदार्थ को ही विषय करती हैं, भूत, भविष्यत् के अनंत पदार्थों को नहीं। वेद-वाक्यों से सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञान मानने में तो सबसे पहले वेद को सर्वज्ञ का वाक्य कहना होगा अन्यथा हम आप जैसे अल्पज्ञ का कथन निर्दोष नहीं हो सकेगा। अत: कोई न कोई कर्ममल कलंक रहित अकलंक आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है, वही निर्दोष है यह बात सिद्ध हो जाती है। अब वह निर्दोष, सर्वज्ञ आत्मा कौन हो सकता है ? इस बात की सिद्धि करते हैं-
वे निर्दोष सर्वज्ञ आप ही हैं
”चार्वाक”-कोई तीर्थंकर प्रमाण नहीं हैं, न कोई आगम हैं, न वेद हैं अथवा न कोई तर्क अनुमान ही है बस एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन भूतचतुष्टय से ही चैतन्य की उत्पत्ति होती है। जैनाचार्य-यह बात ठीक नहीं है, देखिए। यदि आप प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं तब तो कोई भी प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अच्छा! आप पहले इन्द्रिय प्रत्यक्ष से सारे विश्व में घूमकर देख लो कि कहीं भी सर्वज्ञ तीर्थंकर नहीं हैं, तभी आपका कहना सत्य होगा और यदि आपने सारे विश्व को देख लिया, जान लिया तब तो आप स्वयं ही सर्वज्ञ बन गये क्योंकि ‘सर्वं जानातीति सर्वज्ञ:’ जो सभी को जानता है, वही सर्वज्ञ है। तत्त्वोपप्लववादी-सभी प्रमाण प्रमेय उपप्लुत ही हैं अर्थात् अभावरूप ही हैं इसलिए सर्वज्ञ कोई है ही नहीं। जैनाचार्य-आप सभी प्रमाण-ज्ञान, प्रमेय-जीवादि वस्तुओं का अभाव मानते हैं, तब आप अपना और अपनी मान्यता-शून्यवाद का अस्तित्त्व स्वीकार करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं तब तो सर्वथा शून्यवाद नहीं रहा। यदि अपना तथा अपनी मान्यता का भी अस्तित्त्व स्वीकार नहीं करते हैं, तब तो आपका कथन भी अस्तित्त्व रहित होने से कैसे माना जायेगा, जैसे कि आकाश का कमल नहीं माना जा सकता है। विशेष-मीमांसक, चार्वाक और तत्त्वोपप्लववादी ये तीनों सर्वज्ञ को मानते ही नहीं हैं एवं बौद्ध सांख्य, वैशेषिक और ब्रह्मवादी ये लोग सर्वज्ञ को तो मानते हैं किन्तु उनकी मान्यताएं गलत हैं, इस बात का स्पष्टीकरण आगे समयानुसार होगा। हे भगवन्! जो आत्मा कर्ममलरहित, निर्दोष और सर्वज्ञ है वह आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं। वह आपका अविरोध इष्ट-शासन, प्रसिद्ध-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित नहीं होता है अर्थात् घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशता ये तीन गुण आप अर्हंत में ही घटित होते हैं अन्यत्र किसी में घटित नहीं होते हैं इसलिए आप अर्हंत ही निर्दोष सर्वज्ञ हैं क्योंकि आपके वचनोें में किसी प्रकार का विरोध न होने से आपका मत बाधारहित सर्व प्राणी को हितकर है और आपके शासन में संसार और मोक्ष तथा संसार के कारण और मोक्ष के कारण ये चार तत्त्व बाधारहित हैंं। ये चारों बाधारहित कैसे हैं ? इनकी समीक्षा देखिए-
मोक्ष की समीक्षा
सांख्य-प्रकृति और पुरुष का भेद ज्ञान हो जाने पर चैतन्य मात्र स्वरूप में आत्मा का अवस्थान हो जाना मोक्ष है। सर्वज्ञता प्रधान-जड़ का स्वरूप है आत्मा का नहीं क्योंकि ज्ञानादि अचेतन हैं। वे प्रकृति के ही स्वरूप हैं। जैनाचार्य-यह आपका कथन असंभव है। हमारे यहाँ तो अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वरूप चैतन्य में अवस्थान हो जाने को ही मोक्ष कहा है क्योंकि ज्ञानादि आत्मा के स्वभाव हैं, जैसे -चैतन्य। वे ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र अचेतन में नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान से ही आत्मा सुख-दु:ख का अनुभव करता है। ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानने पर तो आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा। वैशेषिक-बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव विशेष गुणों का नाश हो जाना ही मोक्ष है क्योंकि बुद्धि आदि आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, आत्मा से भिन्न हैं। जैनाचार्य-यह आपका कथन असंभव है। हमारे यहाँ तो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वरूप चैतन्य में अवस्थान हो जाने को ही मोक्ष कहा है क्योंकि ज्ञानादि आत्मा के स्वभाव हैं, जैसे-चैतन्य। वे ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र अचेतन में नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान से ही आत्मा सुख-दु:ख का अनुभव करता है। ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानने पर तो आत्मा का अस्तित्त्व ही समाप्त हो जायेगा। यदि मुक्ति में बुद्धि-ज्ञान और सुख का ही विनाश माना जायेगा तब मुक्ति के लिए कौन बुद्धिमान प्रयत्न करेगा। ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है कर्ता और करण की अपेक्षा के कथंचित् ही भिन्न है। हाँ! इतनी बात अवश्य है कि क्षायोपशमिक ज्ञान और सातावेदनीयजन्य सुख का तो हम लोग भी मुक्ति में विनाश मान लेते हैं किन्तु क्षायिक-पूर्ण ज्ञान और अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख का तो मोक्ष में अभाव नहीं है प्रत्युत ज्ञान और सुख की पूर्णता के लिए ही मोक्ष के लिए प्रयत्न किया जाता है। वेदांतवादी-मुक्त जीव के अंनत सुख संवेदनरूप ज्ञान तो है किन्तु उन्हें बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है। जैनाचार्य-पहले यह बताओ कि मुक्त जीव के इन्द्रियों का अभाव है इसलिए बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है या बाह्य पदार्थ का अभाव है इसलिए उनका ज्ञान नहीं है ? यदि बाह्य पदार्थ का अभाव कहें तो सुख का भी अभाव हो जायेगा क्योंकि आप अद्वैतवादियों ने सुख को भी बाह्य पदार्थ ही माना है। यदि इन्द्रिय का अभाव कहो तब तो उन्हें सुख का अनुभव कैसे होगा ?
बौद्ध-आस्रवरहित चित्त की उत्पत्ति ही मोक्ष है।
जैनाचार्य-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान क्षणों में अन्वय पाया जाता है तथा निरन्वय क्षण क्षय (अन्वय रहित क्षण-क्षण में क्षय होने की व्यवस्था) को एकान्त से स्वीकार करने पर आपके द्वारा मान्य मोक्ष की सिद्धि बाधित ही है। इस प्रकार से अन्य मतावलंबियों द्वारा मान्य मोक्ष तत्त्व में बाधा आती है अत: जैनों द्वारा मान्य ‘कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षौ मोक्ष:’ सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष है, वहाँ पर अनंत गुणों की सिद्धि हो जाती है। मोक्ष के कारण की समीक्षा-सांख्य ज्ञान मात्र को ही मोक्ष का कारण मानते हैं, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि सर्वज्ञ भगवान के क्षायिक अनंत ज्ञान की पूर्णता हो जाने पर भी अघातिया कर्मों के शेष रहने से उनका परमौदारिक शरीर पाया जाता है, यदि ज्ञान उत्पन्न होते ही मोक्ष हो जावे तो यहाँ पर सर्वज्ञ का रहना, उपदेश आदि देना नहीं घटेगा तथा यदि एकांत से ज्ञान ही मोक्ष का कारण मान लिया जावे तो सभी के आगम में दीक्षा आदि बाल चारित्र का अनुष्ठान एवं सकल दोषों के अभावरूप अभ्यन्तर चारित्र का जो वर्णन है, वह सब व्यर्थ हो जावेगा किन्तु सभी ने तो दीक्षा ग्रहण, गेरुआ वस्त्र धारण और ध्यान आदि को माना ही है। ऐसे ही कोई मात्र सम्यग्दर्शन से या कोई-कोई मात्र चारित्र से, क्रियाकांड से ही मुक्ति मानते हैं। उन सबकी मान्यता गलत है। हम जैनों ने तो ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ इस आगम सूत्र से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोें की एकता को ही मोक्ष माना है और यही मान्यता सुसंगत है इसलिए जैनाचार्य द्वारा मान्य मोक्ष के कारण तत्त्व ठीक ही हैं। कोई मोक्ष को अकारणक ही कहते हैं किन्तु यह मान्यता बिल्कुल गलत है क्योंकि अनिमित्तक मोक्ष होने से तो हमेशा ही सभी जीवों को मोक्ष हो जावेगा पुन: कोई संसारी और दु:खी रहेगा ही नहीं किन्तु ऐसा तो प्रत्यक्ष से ही बाधित है।
संसार की समीक्षा
सांख्य कहता है कि प्रकृति-जड़ को ही संसार है आत्मा को नहीं है किन्तु ऐसी एकांत मान्यता गलत है। हम देखते हैं कि जड़ के संसर्ग से यह संसारी आत्मा संसार में जन्म, मरण आदि अनेकों दु:खों को उठा रही है। ‘संसरणं संसार:’ संसरण करना-एक गति से दूसरी गति में गमन करना इसी का नाम संसार है। इसके पंच परिवर्तन की अपेक्षा पाँच भेद हैं-द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार। इनका विवेचन फिर कभी किया जावेगा, इसलिए संसार तत्त्व भी सिद्ध ही है। संसार के कारण की समीक्षा-सांख्यों ने मिथ्याज्ञान मात्र को ही संसार का कारण माना है, सो ठीक नहीं है क्योेंकि मिथ्याज्ञान का अभाव हो जाने पर भी राग आदि दोनों का अभाव न होने से संसार का अभाव नहीं होता है। यह बात स्वयं सांख्यों ने भी मान ली है एवं हम जैनों को मान्य संसार के कारण आगम में प्रसिद्ध हैं ‘मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव:’ मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बंध के कारण हैं। बंध से ही संसार होता है अत: बंध के कारण ही संसार के कारण माने गये हैं। किन्हीं का कहना है कि संसार के कारण मिथ्यात्व आदि अनादिकालीन हैं अत: ये निर्हेतुक हैं किन्तु ऐसी बात नहीं है यद्यपि ये संसार के कारण अनादि हैं फिर भी अहेतुक (अकारक) नहीं हैं। इनके कारण द्रव्य कर्म मौजूद हैं तथा द्रव्यकर्म के कारण ये भावकर्म हैं, इनमें परस्पर में कार्य कारण भाव पाया जाता है इसीलिए इन मिथ्यात्व आदि कार्यों का सम्यग्दर्शन आदि कारणों से विनाश भी हो सकता है अन्यथा निर्हेतुक का विनाश होना असंभव ही हो जाता। इस प्रकार से आप्त-अर्हंत भगवान् के शासन में मोक्ष और मोक्ष के कारण तथा संसार और संसार के कारण ये चार तत्त्व अबाधित रूप से सिद्ध हैं अत: आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी सिद्ध हैं और इसीलिए आप निर्दोष परमात्मा हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है। हे भगवन्! अपने शासनरूपी अमृत से जो बहिर्भूत हैं और ‘‘मैं आप्त हूँ’’ इस प्रकार अभिमान से दग्ध हैं, उन एकांतवादियों का शासन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित है। जैसे कि- सांख्य कहता है कि सुखादि अचेतन हैं क्योंकि वे उत्पन्न होते हैं किन्तु जैनाचार्य सुख, ज्ञान आदि को चैतन्य आत्मा में ही मानते हैं अन्यत्र नहीं और प्रत्येक द्रव्य को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक मानते हैं।
बौद्ध कहता है कि वर्ण
आदि परमाणु ही निर्विकल्प ज्ञान में झलकते हैं, वे ही हैं, स्कंध नाम की कोई चीज नहीं है। किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि परमाणु अत्यंत सूक्ष्म हैं। वे सर्वज्ञ के अथवा मन:पर्यय ज्ञानी, अवधिज्ञानी के ही ज्ञान का विषय हो सकते हैं अन्य मति, श्रुत ज्ञान के विषय नहीं हो सकते हैं। दो, तीन, चार से लेकर अनंतानंत परमाणुओं का मिलकर स्कंध बनता है, उसमें भी कुछ स्कंध अचाक्षुष हैं। शब्दादि स्कंध भी दृष्टि के विषय नहीं हैं मात्र चक्षु इन्द्रिय गम्य स्थूल स्कंध ही अपने ज्ञान में झलकते हैं और कल्पना मात्र नहीं हैं। चार्वाक भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है किन्तु चैतन्य तत्त्व अनादिनिधन है। ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्म से ही चेतन-अचेतन की उत्पत्ति मानता है किन्तु सर्वथा चेतन-अचेतन द्रव्य अपनी सत्ता को लिए हुए पृथक्-पृथक् ही हैं। हे नाथ! नित्य अथवा अनित्य आदि एवंत मान्यताओं के दुराग्रही स्व और पर के वैरी मिथ्यादृष्टि जनों में किसी के यहाँ भी पुण्य-पापादि क्रियाओं एवं परलोक आदि भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं।
यदि कोई कहे कि शून्यवादियों ने और अद्वैतवादियों ने तो स्वयं ही पुण्य-पाप, परलोक आदि को माना ही नहीं है अन्यथा उनका शून्यवाद नहीं टिकेगा और द्वैतवाद आ जायेगा। आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उन लोगों ने भी पुण्य-पाप आदि को और परलोक को भी संवृत्ति (कल्पना) से माना है और अद्वैतवादियोें ने अविद्या से प्राय: सुख-दु:ख, पुण्य-पाप और इहलोक, परलोक को स्वीकार किया ही है किन्तु ये सब एकांतवादी दुराग्रही हैं अत: इनके यहाँ किसी भी तत्त्व की सिद्धि असंभव है। सांख्य सभी तत्त्वों को भावरूप ही मानता है उसके यहाँ अभाव या विनाश नाम की कोई चीज नहीं है उसका कहना है कि मिट्टी में घट विद्यमान है, कुंभार, दण्ड, चाक आदि निमित्तों से वह घट आविर्भूत हुआ है न कि उत्पन्न। कुम्हार, चाक आदि दीपक की तरह ज्ञापक निमित्त हैं कारक निमित्त नहीं हैं इत्यादि। आचार्य कहते हैं कि यदि ‘अभाव’ को नहीं माना जाएगा, तो प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव इन चारों अभावों का लोप हो जावेगा जो कि सर्वथा विरुद्ध है। अब इन अभावों के लक्षण बताते हैं-
सांख्य एकांत से पदार्थों को भावरूप ही मानता है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि सभी पदार्थों को भावरूप ही मानने पर तो अभावों का लोप हो जायेगा। अभाव के चार भेद हैं-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव। प्रागभाव को नहीं मानने पर तो सभी कार्य अनादि हो जायेंगे। प्रध्वंस धर्म का लोप करने पर सभी अनंत हो जायेंगे। इतरेतराभाव के अभाव में सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे तथा अत्यंताभाव के न मानने से सभी पदार्थ अस्वरूप-अपने स्वभाव से शून्य हो जायेंगे। प्रागभाव-कार्य का उत्पन्न होने के पहले न होना प्रागभाव है। जैसे-घट बनने के पहले मिट्टीरूप कारण में घटरूप कार्य का अभाव है वह प्राक्-पहले अभाव न होना प्रागभाव है। द्रव्य की अपेक्षा प्रागभाव अनादि है और पर्याय की अपेक्षा आदि है। घट बनाने के लिए मिट्टी के पिंड को चाक पर रखकर घुमाया। उसकी स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायें बनीं उनमें जिस क्षण के बाद ही घट बनने वाला है उस क्षण को ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से प्रागभाव कहते हैं इसके पूर्व-पूर्व पर्यायों को भी प्रागभाव कहते हैं किन्तु अन्तिम क्षण की पर्याय का विनाश होने पर ही घट बनता है इसलिए प्रागभाव का अभाव होकर घट बनता है। यदि मिट्टी में घट का प्रागभाव न मानें तो घटद्रव्य अनादिकाल से मिट्टी में बना रहेगा। प्रागभाव के न मानने पर कार्य-द्रव्य अनादि हो जायेंगे अत: प्रागभाव मानना जरूरी है। प्रध्वंसाभाव-यदि प्रध्वंस को न मानें तो घट आदि कार्यों का कभी भी नाश नहीं होगा पुन: वे अनंत हो जायेंगे किन्तु ऐसा नहीं है। विद्यमान घट में प्रध्वंसाभाव का अभाव करके अर्थात् घट का प्रध्वंस करके कपाल उत्पन्न होते हैं इसलिए प्रध्वंसाभाव भी वास्तविक है। इतरेतराभाव-एक पर्याय का दूसरी पर्याय में न होना इतरेतराभाव है। जैसे-पुद्गल की पुस्तक पर्याय में चौकी पर्याय का अभाव है। जीव की मनुष्य पर्याय में देव पर्याय का अभाव है। यदि इस इतरेतराभाव को न माना जाय तो एक मनुष्य पर्याय में देव, नारक आदि पर्यायें आ जायेंगी पुन: सभी पदार्थ स्वरूप हो जावेंगे अत: इतरेतराभाव भी मान्य है। अत्यंताभाव-एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अभाव अत्यंताभाव है। जैसे-जीव द्रव्य पुद्गलरूप नहीं होता है। पुद्गल जीवरूप नहीं होता है। सांख्यमत बौद्ध आदि मत रूप नहीं होता है, इत्यादि रूप से यदि अत्यंताभाव को नहीं मानेंगे तो सभी वस्तुएँ पर स्वभाव के मिश्रण हो जाने से अपने स्वभाव से शून्य हो जायेंगी, तो वे अवस्तु हो जावेंगी अत: यह भी आवश्यक है।
भावार्थ-जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति होवे, वह प्रागभाव है। जिसके होने पर नियम से कार्य का विनाश होवे वह प्रध्वंस है। जिसके सद्भाव में दूसरी अनंतों पर्यायों का अभाव रहे वह इतरेतराभाव है। घट-घट का परस्पर मेें इतरेतराभाव है। भिन्न-भिन्न द्रव्य में अत्यंताभाव है। जीव स्वरूप से अस्तित्वरूप होकर भी पुद्गलादि से अभावरूप है क्योंकि सभी पदार्थ स्वरूप से भावरूप और पररूप से अभावरूप लक्षण वाले ही हैं। मीमांसक शब्द को नित्य मानता है अत: उसमें प्रागभाव नहीं मानता है किन्तु जैनाचार्यों ने शब्द को पौद्गलिक शब्द वर्गणा रूप होने से नित्य माना है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य माना है इसलिए शब्द में प्रागभाव घटित हैं। वक्ता के तालु आदि प्रयत्न से शब्द उत्पन्न होते हैं और विनष्ट भी होते हैं। नैयायिक अभाव को सर्वथा तुच्छाभावरूप ही मानता है किन्तु जैनाचार्य अभाव को भावांतररूप मानते हैं। जैसे-‘अजैन:’ कहने से जैन के बजाय और किसी अन्य धर्म वाले व्यक्ति का बोध होता है न कि सर्वथा अभाव का। दीपक के बुझने पर प्रकाश का अभाव हुआ मतलब अंधकार का सद्भाव हुआ। प्रकाश और अंधकार दोनों पुद्गल की ही पर्यायें हैं अत: जैनाचार्यों द्वारा मान्य अभाव भावांतर (भिन्न भाव) रूप ही है। नैयायिक शब्द को अमूर्तिक आकाश का गुण अमूर्तिक ही मानता है उसका कहना है कि ‘शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है सुखादि के समान’ यदि शब्द को पुद्गल की पर्याय मानोगे तब तो उनका चक्षु से देखना, मर्यादा को उल्लघंन कर आगे भी फैलना, बिखरना, कर्ण में भर जाना, एक ही श्रोत्रेन्द्रिय में प्रवेश हो जाना आदि अनेक दोष आते हैं। शब्द तो निश्छिद्र महल के भीतर से निकल जाते हैं एवं आभ्यंतर में बाहर से आकर प्रवेश कर जाते हैं, व्यवधान का भेदन भी नहीं करते हैं अतएव वे पौद्गलिक नहीं हैं।
जैनाचार्य
शब्द पुद्गल की ही पर्याय हैं अत: मूर्तिक ही हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से सहित हैं क्योंकि ‘‘स्पर्शरसगंधवर्णवन्त: पुद्गला:’ यह सूत्र है। बहुत से पुद्गल स्कंध भी ऐसे अचाक्षुष हैं जिनका स्पर्श आदि व्यक्त नहीं है एतावता उनको अमूर्तिक नहीं कह सकते एवं न उनका अभाव ही कर सकते हैं तथा शब्द से प्रतिघात भी देखा जाता है। कोई मोटी एवं कड़ी पूड़ी आदि खा रहा है, उसके कड़-कड़ शब्दों से प्राय: प्रतिघात देखा जाता है। जैसे-कोई पुरुष उच्च ध्वनि से पाठ कर रहा है और दूसरा धीरे-धीरे बोल रहा है, तो उसकी ध्वनि दब जाती है अत: शब्द का स्पर्श नहीं मानना गलत है। जो आपने ‘चक्षु आदि से दिखना चाहिए’ इत्यादि दोष दिये हैं वे भी दोष गंध परमाणुओं में भी मानने पड़ेंगे क्योंकि गंध परमाणु भी पुद्गल की पर्याय हैं, वे भी नहीं दिखते हैं। यदि आप कहें कि गंध परमाणु अदृश्य हैं अत: चक्षु इन्द्रिय से नहीं देखे जाते हैं पुन: शब्दों को भी तथैव मानो, क्या बाधा है ? पवन से प्रेरित होने पर उन शब्दों का विस्तृत होना आदि मानो तो गंध परमाणुओं में भी मानना पड़ेगा। भित्ति आदि से परमाणुओं का प्रतिघात प्रसिद्ध है तथैव शब्दों का भी प्रतिघात प्रसिद्ध है एवं जो आपने कहा कि स्कंध रूप से परिणत मूर्तिमान शब्द परमाणुओं के द्वारा श्रोता का कान पूर्णतया भर जायेगा एवं पौद्गलिक शब्द एक ही श्रोता के कान में प्रविष्ट हो जावेंगे पुन: उसी योग्य देश में स्थित अन्य श्रोताओं को कुछ भी शब्द सुनाई नहीं पड़ेंगे, इत्यादि दोष तो आपके गंध परमाणुओं में भी आ जावेंगे। वे भी गंध परमाणु नाक में भर जावेंगे तो स्वांस लेना ही कठिन हो जावेगा एवं वे नाक में भी घुस जावेंगे तो अन्य किसी सूंघने वाले को कुछ भी गंध नहीं आ सकेगी, इस पर नैयायिक ने कहा कि हमारे यहाँ ऐसा माना है कि सदृश परिणाम वाले गंध परमाणु सब तरफ फैल जाते हैं अत: उक्त दोष नहीं आते हैं। यदि समान परिणाम वाले गंध परमाणु सब तरफ फैल जाते हैं अत: उक्त दोष नहीं आते हैं तब तो समान परिणाम वाले शब्द परमाणु भी नाना दिशाओं में फैल जाते हैं अत: एक श्रोता को ही सुनाई देवे इत्यादि दोष नहीं आते हैं। यदि आप कहें कि गंध परमाणुओं को ज्ञान विशेष की अन्यथानुपपत्ति होने से निश्चय हो जाता है उसमें भाग्य की कल्पना नहीं है किन्तु शब्द के आगमन में भाग्य की कल्पना कीजिए। इस पर आचार्यों का कहना है कि-श्रोताओं के जिन-जिन श्रुत ज्ञानावरणरूप शब्दावरण का क्षयोपशम होता है उसी प्रकार से उपलब्धि योग्य परिणाम विशेष के होने से उन-उन ही अक्षरों का सुनना होता है।
जो आपने कहा कि निश्छिद्र
महल से निकलना आदि होने से शब्द पुद्गल नहीं है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि छिद्ररहित भवन से निकलना एवं प्रविष्ट होना पुद्गल में विरुद्ध नहीं है क्योंकि वे शब्द पुद्गल सूक्ष्म स्वभाव वाले हैं जैसे तेल, घी आदि चिकने पदार्थ निश्छिद्र घड़े से बाहर निकलकर घड़े को चिकना कर देते हैं एवं उष्ण, शीत, स्पर्श आदि निश्छिद्र घड़े में प्रविष्ट होकर उसकी अभ्यंतर की वस्तु गर्म या ठंडी कर देते हैं यह बात सर्वजन सुप्रसिद्ध है। तत्त्वार्थसूत्र में ‘‘शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च’’ इस सूत्र में शब्द को पुद्गल की पर्याय सिद्ध किया है। अत: शब्द आकाश का गुण नहीं है और न अमूर्तिक ही है, ऐसा समझना चाहिए। यही कारण है कि आजकल शब्दों को टेपरिकार्डर में भर लेते हैं, रेडियो, टेलीफोन आदि द्वारा हजारों मील दूर पहुँचा देते हैं यह सब पौद्गलिक शक्ति का ही विकास हो रहा है। इन सभी आविष्कारों से भी शब्द पौद्गलिक और मूर्तिक सिद्ध हो रहे हैं। अष्टसहस्रीकार आचार्यवर्य श्री विद्यानंद महोदय ने ग्रंथ के प्रथम अध्याय में भावैकांत का खंडन किया है अर्थात् जो सांख्य आदि सभी पदार्थों को सर्वथा सद्भावरूप ही स्वीकार करते हैं उनका खंडन करके प्रागभाव आदि चार प्रकार के अभावों को सिद्ध किया है पुन: जो लोग सभी पदार्थों को अभावरूप ही मानते हैं उनका निरसन कर रहे हैं। बौद्धों के यहाँ माध्यमिक नाम का एक भेद है। ये लोग सभी जगत को सर्वथा शून्य रूप ही मानते हैं। उनका कहना है कि ‘यह जगत सर्वथा शून्यरूप ही है जो कुछ भी प्रतिभास हो रहा है वह असत्य है। जो चेतन-अचेतन तत्व दिख रहे हैं, वे संवृति (कल्पना) रूप हैं एवं शून्यवाद को सिद्ध करने में जो आगम, अनुमान आदि प्रमाण हैं वे भी काल्पनिक हैं। इस पर जैनाचार्य प्रश्न करते हैं कि आप बौद्धों के यहाँ वह ‘संवृति’ क्या चीज है ? यदि कहो कि संवृति का अर्थ है अपने स्वरूप से होना’ तब तो हमने भी सभी वस्तुओं का स्वरूप से अस्तित्व माना है। यदि कहो कि ‘संवृति-पररूप से न होना’ यह अर्थ भी हमारे अनुकूल ही है क्योंकि हम लोग भी वस्तु में पररूप से नास्ति धर्म मानते हैं। यदि कहो कि ‘विचारों का न होना संवृति है’ तब तो शून्य के साधक वाक्य भी कैसे बनेंगे ? अत: बड़े आश्चर्य की बात है कि दिग्नागाचार्य आदि आज भी इस शून्यवाद को सिद्ध करने में लगे हुए हैं इसमें उनके मोहनीय कर्म के तीव्र उदय के सिवाय और कोई भी कारण नहीं हो सकता है क्योंकि जब सर्वथा शून्यवाद ही है तब आपके बुद्ध भगवान, आगम आदि भी वैकैसे सिद्ध हो सकेगे ?
बौद्ध-वास्तव मेें हमारे यहाँ
बुद्ध भगवान और आगम आदि सभी विभ्रमरूप ही हैं। ये सभी संवृति से ही मान्य हैं अर्थात् काल्पनिक हैं। जैन-तब तो प्रश्न यह होता है कि इस विभ्रम में विभ्रम है या अविभ्रम ? यदि विभ्रम में अविभ्रम है तो सभी विभ्रमरूप नहीं रहे और यदि विभ्रम में भी विभ्रम है तो विभ्रम कैसे रहेगा ? अपितु विभ्रम में विभ्रम के हो जाने से अविभ्रम-सत्य ही सिद्ध हो जायेगा इसलिए सर्वथा नैरात्म्यवाद श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि उसके मानने वाले तो सबसे पहले अपना, अपने भगवान का, सभी का ही घात कर लेते हैं। कोई-कोई भाट्ट लोग भाव और अभाव इन दोनों को भी मान रहे हैं किन्तु दोनों को परस्पर निरपेक्ष मानते हैं, इसलिए उनकी मान्यता भी गलत है। क्योंकि सभी वस्तु स्वरूप के समान पररूप से अस्तिरूप एवं पररूप के समान स्वरूप से नास्तिरूप नहीं है तथा अस्ति धर्म नास्तित्व की एवं नास्ति धर्म अस्तित्व की अपेक्षा रखता है इसलिए ‘उभयैकात्म्य’ भी गलत है। कोई बौद्ध लोग वस्तु को सर्वथा सत्-असत् धर्म से रहित होने से अवक्तव्य मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु सर्वथा ‘अवाच्य’ है क्योंकि शब्दों से उसका कथन नहीं कहा जा सकता है किन्तु यह एकान्त भी श्रेयस्कर नहीं है। जैनाचार्य वस्तु को सत्रूप-भावरूप भी मानते हैं, असत्-अभावरूप भी मानते हैं, भावाभाव-उभयात्मक भी मानते हैं तथा अवक्तव्य-अवाच्य भी मानते हैं। सो कैसे ? भावाभावाद्यनेकांत सिद्धि हे भगवन्! आपके शासन में सभी वस्तुएँ कथंचित् भाव-अस्ति-सत्रूप हैं और वे ही सभी वस्तुएँ कथंचित्-अभाव-नास्ति-असत्रूप हैं, कथंचित् उभय आदि सप्तभंगरूप से प्रसिद्ध हैं। यथा- ‘प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना-सप्तभंगी’ प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोधरूप से विधि और निषेध की कल्पना सप्तभंगी कहलाती है। इस सप्तभंगी को जीव द्रव्य में घटित करते हैं- १. स्यात् जीव द्रव्य अस्तिरूप है, २. स्यात् जीव द्रव्य नास्तिरूप है, ३. स्यात् जीव द्रव्य अस्तिनास्तिरूप है , ४. स्यात् जीव द्रव्य अवक्तव्य है, ५. स्यात् जीव द्रव्य अस्ति अवक्तव्य है, ६. स्यात् जीव द्रव्य नास्ति अवक्तव्य है, ७. स्यात् जीव द्रव्य अस्तिनास्ति अवक्तव्य है,
यहाँ पर अस्तित्वादि एकान्त का
निषेधक और अनेकांत का द्योतक ‘कथंचित्’ इस अपरनाम वाला ‘स्यात्’ शब्द बहुत ही महत्वशाली है, उसी का स्पष्टीकरण- प्रथम भंग में जीव द्रव्य स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्तिरूप है। द्वितीय भंग में वही जीव द्रव्य पर-अजीवादि द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्तिरूप है अर्थात् जीव द्रव्य में पर-अजीव का अस्तित्व नहीं है। वही जीव द्रव्य क्रम से स्व और पर दोनों की अपेक्षा करने से अस्तिनास्ति रूप है। वही जीव द्रव्य युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से अवक्तव्य-अवाच्यरूप है। वही जीव द्रव्य स्वचतुष्टय से तथा युगपत् स्वपरचतुष्टय से विवक्षित करने से ‘अस्ति अवक्तव्य’ इस पाँचवें भंगरूप है। वही जीवद्रव्य परचतुष्टय तथा युगपत् स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा से नास्ति अवक्तव्यरूप है। वही जीवद्रव्य स्वपरचतुष्टय की क्रम और युगपत् अपेक्षा रखने से ‘अस्तिनास्ति अवक्तव्य’ इस सातवें भंगरूप है। यह कथन बिल्कुल ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्येक वस्तुएँ स्वरूप से सत्रूप एवं पररूप से असत्-अभावरूप हैं तथा अस्ति धर्म नास्तित्व का अविनाभावी है वैसे ही नास्ति धर्म अस्तित्व के बिना नहीं रह सकता है। जब प्रथम भंग में भाव प्रधान रहता है, तब शेष छहों भंग गौण हो जाते हैं एवं जब द्वितीय भंग का अभाव धर्म प्रधान रहता है, तब भी शेष छह भंग गौण हो जाते हैं। इस प्रकार से ‘अर्पितानर्पितसिद्धे:’ सूत्र के अनुसार अर्पित-विवक्षित धर्म प्रधान रहता है तथा अनर्पित-अविवक्षित धर्म गौण रहता है तभी वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है। जैसे जीव का जब नित्य धर्म प्रधान किया जाता है, तब अनित्य धर्म नष्ट न होकर गौण हो जाता है एवं जब अनित्य धर्म विवक्षित-कहा जाता है तब नित्य धर्म अविवक्षित गौण हो जाता है। ये अस्ति नास्ति नित्य-अनित्य आदि धर्म यद्यपि परस्पर विरोधी दिखते हैं लेकिन प्रत्येक वस्तु में पाये ही जाते हैं।
प्रश्न-एक वस्तु में प्रत्यक्षादि से विरुद्ध भी विधि प्रतिषेध कल्पना कर लेना चाहिए ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि सूत्र में ‘अविरोधेन’ पद है, जिसका अर्थ है प्रत्यक्ष अनुमान और आगम आदि से अविरुद्ध धर्मों में ही सप्तभंगी घटित करना। प्रश्न-प्रत्येक वस्तु में अनंत धर्म हैं अत: ‘अनंत भंगी’ हो जावें, सात ही भंग क्यों ? उत्तर-प्रत्येक वस्तु के अनंत धर्मों में से प्रत्येक धर्म में सप्तभंगी घटित होती है इसलिए अनंत भंगी नहीं होंगी। भंग सात ही क्यों ? शिष्यों के द्वारा उतने ही प्रश्न होते हैं। सात ही प्रश्न क्यों ? तो सात प्रकार की ही जिज्ञासा होती हैं। जिज्ञासा सात प्रकार की ही क्यों ? तो सात प्रकार का संशय होता है। संशय सात प्रकार का ही क्यों ? तो उस संशय के विषयभूत वस्तु के धर्म सात प्रकार के ही हैं। इस प्रकार से सप्तभंगी से सिद्ध वस्तु ही अर्थ क्रियाकारी हैं अन्यथा वह वस्तु-अवस्तु-आकाश पुष्पवत् सर्वथा ही अभावरूप हो जाएगी अत: हे भगवन्! सभी प्रकार के विरोध आदि दोषों से रहित आपका स्याद्वाद शासन जयवंत होवे। (द्वितीय परिच्छेद का सार)
अद्वैत-द्वैत एकांत का निराकरण और स्याद्वाद सिद्धि
एक ब्रह्माद्वैतवादी जनों का सम्प्रदाय है ये लोग कहते हैं कि ‘सर्वं वै खलु इदं ब्रह्म नेह नानास्ति कश्चनं’। यह सारा जगत् एक ब्रह्म स्वरूप है, यहाँ भिन्न वस्तुएँ कुछ नहीं हैं। ये चेतन-अचेतन जितने भी पदार्थ दिख रहे हैं वे सब एक ब्रह्म की ही पर्याय हैं। ऐसे ही शब्दाद्वैतवादी सारे जगत को एक शब्द ब्रह्मस्वरूप ही मानते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी सारे जगत को एक ज्ञान मात्र ही मानते हैं, चित्राद्वैतवादी सारे जगत को चित्रज्ञान रूप कहते हैं और शून्याद्वैतवादी सब कुछ शून्यरूप ही मानते हैं। ऐसे ये पाँच अद्वैतवादी हैं, ये लोग एक अद्वैत के सिवाय द्वैतरूप (दो रूप) कोई चीज नहीं मानते हैं, इनका कहना है कि जो भी द्वैतरूप संसार दिख रहा है वह सब अविद्या या कल्पना से ही है, वास्तविक नहीं है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि पुण्य पाप, बंध-मोक्ष, सुख-दु:ख, विद्या-अविद्या आदि रूप से सर्वत्र दो चीजें ही उपलब्ध होती हैं। इसमें एक को काल्पनिक कहने पर दूसरी भी काल्पनिक होने से कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तथा आपने आगम से ब्रह्म तत्त्व को सिद्ध किया तो आगम और ब्रह्म दो हो गये। यदि आगम को ब्रह्मा का स्वभाव कहो तो भी स्वभाव और स्वभाव वाले की अपेक्षा दो हो गये। दूसरी बात यह है कि जैसे जैन के बिना अजैन नहीं बनता, वैसे ही द्वैत के बिना अद्वैत की सिद्धि नहीं होती है तथा जिस अविद्या से ये भेद दिख रहे हैं वह अविद्या परम ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न कहो तो द्वैत हो गया और यदि अभिन्न कहो तो तुम्हारा ब्रह्म अविद्या से अभिन्न होने से अविद्यारूप हो गया इसलिए आपका ब्रह्म अविद्यारूप हो जाने से हमारा विद्यारूप द्वैत तत्त्व ही सिद्ध हो गया। यौग के दो भेद हैं-नैयायिक और वैशेषिक। ये लोग द्रव्य से गुण को सर्वथा भिन्न मानते हैं। उनके मत से अग्नि से उष्णता सर्वथा भिन्न है किन्तु जैनाचार्य पूछते हैं कि उष्णता के संबंध के पहले अग्नि उष्ण थी या ठंडी ? यदि उष्ण थी, तो उष्णता के संबंध ने क्या किया, यदि अग्नि ठंडी थी और उष्णता ने उष्ण किया, तो वह पूर्व में उष्ण गुण और ठंडी अग्नि उपलब्ध नहीं होते हैं। वास्तव में उष्णता के बिना अग्नि का अस्तित्व ही असंभव है इसलिए जैनमत में द्रव्य से गुण को अभिन्न माना है और संज्ञा आदि के भेद से ही भिन्न माना है।
बौद्ध ने कार्य-कारण को
परस्पर में सर्वथा भिन्न माना है, उसका कहना है कि मिट्टी का सर्वथा नाश होकर घड़ा बना है परन्तु यह बात किसी के गले नहीं उतरती है तथा इन्होंने कार्य (घड़े) के अणु-अणु को भी सर्वथा भिन्न-भिन्न माना है किन्तु ऐसा मानने से तो घड़े में पानी कैसे भरा जा सकेगा ? अभिप्राय यह हुआ कि ब्रह्माद्वैतवादी चेतन, अचेतन, संसारी, मुक्त कार्य कारण आदि सभी में अद्वैत-एकरूपता सिद्ध करते हैं। योग और सभी द्रव्य, गुण आदि में और कार्य, कारण आदि में द्वैत यानी पृथक्-पृथक्पना सिद्ध करते हैं। मीमांसक सर्वथा अद्वैत और पृथक्रूप उभय का एकान्त मानता है। बौद्ध भेदाभेद को सर्वथा अवाच्य अवक्तव्य कहते हैं। इन चारों की मान्यताएं कथमपि संभव नहीं हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार सभी चेतन-अचेतन वस्तुरूप जगत अद्वैत एकरूप है क्योंकि सभी वस्तुएँ सत् सामान्य की अपेक्षा अस्तिरूप हैं। सभी वस्तुएँ पृथक्त्वरूप हैं क्योंकि संज्ञा संख्या, लक्षण आदि से सभी में भेद हैं। सभी वस्तुएँ उभयरूप हैं क्योंकि क्रम से अद्वैत और भेदरूप द्वैत की अपेक्षा है। सभी वस्तुएँ अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ अद्वैत और द्वैत दोनों धर्म को कह नहीं सकते। सभी वस्तुएँ अद्वैत अवक्तव्यरूप हैं क्योंकि क्रम से अद्वैत की और युगपत् उभय की विवक्षा है। सभी वस्तुएँ द्वैत अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से द्वैत की और युगपत् दोनों धर्मों की विवक्षा है। इस प्रकार सभी वस्तुएँ कथंचित् भेदाभेदात्मक होकर ही प्रमाण का विषय हैं क्योंकि मुख्य और गौण की विवक्षा पाई जाती है। जब वस्तुओं में अभेद धर्म विवक्षित होता है, तब वह प्रधान हो जाता है और द्वैत धर्म गौण हो जाता है। जब द्वैत प्रधान होता है, तब अद्वैत गौण हो जाता है, यही स्याद्वाद प्रक्रिया है। (तृतीय परिच्छेद का सार)
नित्यैकांत-अनित्यैकांत का खंडन और स्याद्वाद सिद्धि
सांख्य सभी पदार्थों को सर्वथा कूटस्थ नित्य मानते हैं, उनका कहना है कि आत्मा जाननेरूप क्रिया का भी कत्र्ता नहीं है। ज्ञान और सुख प्रकृति (जड़) के धर्म हैं केवल आत्मा इनका भोक्ता अवश्य है। ये लोग कारण में कार्य को सदा विद्यमानरूप ही मानते हैं। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि सभी पदार्थों में परिणमन दिख रहा है अत: वे सर्वथा नित्य नहीं हैं तथा ज्ञान और सुख ये आत्मा के ही स्वभाव हैं, आत्मा से भिन्न नहीं हैं। मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ इत्यादि रूप से जो स्वसंवेदन होता है वह ज्ञान के द्वारा ही होता है और वह अनुभव सर्वथा नित्य नहीं है। प्रत्येक वस्तु पूर्वाकार को छोड़कर उत्तराकार को ग्रहण करती है और उन दोनों अवस्थाओं में अन्वय संबंध पाया जाता है, इस अन्वय स्वभाव से वस्तु नित्य है तथा पूर्वाकार, उत्तराकार के त्याग और ग्रहणरूप से व्यय और उत्पाद स्वरूप भी है, अत: अनित्य भी है। जीव ने मनुष्य पर्याय को छोड़कर देव पर्याय ग्रहण की तथा दोनों अवस्थाओं में अन्वयरूप जीवात्मा विद्यमान है, ऐसा स्पष्ट है तथा मिट्टी से कुंभार घट बनाता है, घट उसमें विद्यमान था कुंभार ने प्रगट कर दिया, यह कल्पना गलत है। हाँ मिट्टी में घट शक्ति रूप से अवश्य है अर्थात् मिट्टी में घट बनने की शक्ति अवश्य है, कारक निमित्तों से प्रकट हो जाती है अत: आत्मा आदि पदार्थ द्रव्य दृष्टि से नित्य हैं, पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं। बौद्ध का कहना है कि सभी पदार्थ सर्वथा क्षण-क्षण में नष्ट हो रहे हैं। उनमें जो कहीं स्थायित्व दिख रहा है वह सब वासनामात्र है तथा ये लोग कारण का जड़मूल से विनाश मानकर ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि सभी पदार्थों को सर्वथा क्षणिक मानने पर तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि सिद्ध नहीं होंगे, प्रात: अपने घर से निकलकर कोई भी व्यक्ति पुन: यह वही घर है, जिसमें मैं रहता हूँ, ऐसा स्मृतिपूर्वक प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकने से वापस नहीं आ सकेगा पुन: सारे लोक व्यवहार समाप्त हो जावेंगे तथा मृत्पिंड के सभी परमाणु का सर्वथा नाश हो गया पुन: घट किससे बना ? यह प्रश्न होता रहेगा, कारण के विनाश के बाद कार्य की उत्पत्ति मानने से तो मिट्टी से ही घट क्यों बने ? तंतु से घट और मृत्पिंड से वस्त्र भी बन जायेंगे, जौ के अंकुरों से चने पैदा होने लगेंगे, कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी अत: कारण का कार्यरूप परिणत हो जाना ही कार्य है। तंतु ही वस्त्ररूप परिणत होते हैं, यही सिद्धांत सत्य है।
बौद्ध कहता है कि वस्तु सत् है
असत् है, उभयरूप है, अनुभयरूप है, ये चार विकल्प ही हो सकते हैं और ये चारों ही विकल्प अवाच्य हैं-कहे नहीं जा सकते अत: ‘वस्तु अवाच्य है।’ जैनाचार्य कहते हैं कि भाई! ‘वस्तु अवाच्य हैं’ इस वाक्य से भी पुन: तुमने कैसे कहा, इस वाक्य से वाच्य कर देने से वह अवाच्य कहां रही, यह तो ऐसा है कि कोई मुँह से कहे कि ‘मैं मौनव्रती हूँ’ बौद्ध की एक और मान्यता बहुत ही विचित्र है वह कहता है कि ‘विनाश अहेतुक है’ घड़े पर मुद्गर का प्रहार हुआ वह फुट गया, तो उसका कहना है कि मुद्गर के निमित्त से घड़ा नहीं फूटा है, प्रत्युत स्वभाव से ही फूटा है। हाँ, मुद्गर के निमित्त से कपाल टुकड़े अवश्य उत्पन्न हुए हैं। जैनाचार्य तो घड़े के फूटने में और कपाल के उत्पन्न होने में दोनों में ही एक मुद्गर को ही हेतु मानते हैं क्योंकि इन्होंने पूर्वाकार घट का विनाश और उत्तराकार कपाल का उत्पाद इन दोनों को एक हेतुक और एक समय में ही माना है। घट का फूटना ही तो कपाल का उत्पाद है।
इस बेचारे बौद्ध ने तो
कार्य को ही सहेतुक मान लिया है किन्तु आजकल कुछ ऐसे भी लोग हैं जो विनाश और उत्पाद दोनों को ही अहेतुक कह देते हैं, उनका कहना है कि कार्य का उत्पाद होना था तब निमित्त उपस्थित हो गया, वह सर्वथा अकिंचित्कर है, उस बेचारे ने क्या किया है ? ऐसा कहने वालों की दशा तो बौद्धों से भी अधिक शोचनीय है। बौद्ध के सर्वथा क्षणिकमत में अपने किये हुए को नहीं भोगना और दूसरे के किए हुए का फल पाना ये दोष भी आ जाते हैं। जैसे-किसी व्यक्ति की आत्मा ने हिंसा का भाव किया, वह उसी क्षण नष्ट हो गई, दूसरी आत्मा ने आकर हिंसा कर दी, वह भी नष्ट हो गई, तीसरी आत्मा को पाप का बंध हो गया, उसी क्षण वह भी नष्ट हो गया, चौथी आत्मा ने आकर उसका फल दु:ख भोगा। अहो! यह सिद्धान्त बहुत ही हास्यास्पद है। सप्तभंगी प्रक्रिया-जैन सिद्धान्त के अनुसार तो सभी पदार्थ कथंचित् नित्य हैं क्योंकि द्रव्यार्थिक नय से वे कभी नष्ट नहीं होते हैं। सभी पदार्थ कथंचित् अनित्य हैं क्योंकि पर्यायों का विनाश और उत्पाद देखा जाता है। सभी पदार्थ कथंचित् नित्य और अनित्य उभयरूप हैं क्योंकि क्रम से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की अपेक्षा है। सभी पदार्थ कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ दोनों नयों की विवक्षा होने से दोनों धर्म एक साथ कहे नहीं जा सकते हैं। सभी पदार्थ कथंचित् नित्य और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से द्रव्यार्थिक नय और युगपत् दोनों की विवक्षा है। सभी पदार्थ कथंचित् अनित्य और अवक्तव्य इस छठे भंग रूप हैं क्योंकि क्रम से पर्यायार्थिक नय और युगपत् दोनों नयों की विवक्षा है। सभी पदार्थ कथंचित् नित्यानित्य और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से दोनों नय और युगपत् दोनों नयों की अपेक्षा है। इस प्रकार सप्तभंगी प्रक्रिया से सभी बातें व्यवस्थित हैं। (चतुर्थ परिच्छेद का सार)
भेदैकांत और अभेदैकांत का खंडन और स्याद्वाद सिद्धि
योग कहता है कि कार्य-कारण, गुण-गुणी, अवयव-अवयवी आदि सभी परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं। यह समवाय नाम का एक संबंध मानता है जिसका अर्थ है ‘अयुतसिद्ध में संबंध होना’ उस समवाय से ही सब के संबंध मानता है। जैसे-जीव से ज्ञान भिन्न है समवाय से ईश्वर संबंधित हुआ है किन्तु जीव में ज्ञान के संबंध के पहले जीव का तथा ज्ञान का पृथक्-पृथक् अस्तित्व दिख नहीं रहा है जैसे-दंड के संबंध के पहले मनुष्य और दंड दोनों अलग-अलग दिख रहे हैं पीछे उनका संबंध हो जाने से ‘दंडी’ यह संज्ञा हो जाती है वैसे यहाँ गुण-गुणी पृथक् रूप से दिखते नहीं है। कार्य कारण में भी सर्वथा भिन्नता नहीं है कथंचित् ही है। इनका समवाय भी सिद्ध नहीं होता है जिसे हम जैन वादात्म्य संबंध कहते हैं उसे समवाय भले ही कह दो किन्तु अलग से यह कोई समवाय संबंध सिद्ध नहीं है। सांख्य का कहना है कि महान् अलंकार आदि कार्य हैं और प्रधान कारण है, इन दोनों में परस्पर में एकत्व ही है। आचार्य कहते हैं कि कार्य कारण में सर्वथा एकत्व मानने से तो दोनों में से कोई एक ही रहेगा और दूसरे का अभाव हो जावेगा। पुन: एक के अभाव में दूसरा भी नहीं रह सकेगा अत: कार्य, कारण आदि को सर्वथा एकरूप नहीं मानना चाहिए। योग परस्पर निरपेक्ष भिन्नता और अभिन्नता दोनों ही मान लेते हैं। बौद्ध कहता है कि वस्तु सर्वथा अवाच्य ही है किन्तु जैनाचार्य परस्पर सापेक्षरूप से तत्त्व को भिन्न-भिन्न उभयात्मक मानते हैं और एक साथ दोनों धर्मों को न कह सकने से चतुर्थ भंगरूप से कथंचित् ‘अवाच्य’ भी मान लेते हैं सर्वथा नहीं। सभी वस्तुएँ व्यंजन पर्याय की अपेक्षा वाच्य हैं और अर्थ पर्याय की अपेक्षा से अवाच्य हैं। अद्वैतवादी का कहना है कि द्रव्य एक है वही वास्तविक है, पर्यायें अनेक हैं वे अवास्तविक हैं। द्रव्य उन पर्यायों से भिन्न है। सौगत का कहना है कि वर्णादिकरूप अनेक पर्याये हैं, वे ही वास्तविक हैं किन्तु द्रव्य नाम की तो कोई चीज ही नहीं है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् एकत्व है क्योंकि उन दोनों को पृथक्-पृथक् करना अशक्य है। तथैव द्रव्य और पर्यायों में कथंचित् भिन्नपना भी है क्योंकि दोनों का लक्षण भिन्न है, प्रयोजन आदि से भी भिन्नता है। द्रव्य का लक्षण सत् है, तो पर्याय का लक्षण है-उस-उस प्रतिविशिष्टरूप से होना। सहभावी गुण होते हैं और क्रमभावी पर्यायें होती हैं। द्रव्य अनादि अनंत एक स्वभाव है, पर्यायें सादि सांत अनेक स्वभाव वाली हैं। फिर भी द्रव्य से निरपेक्ष केवल पर्यायें रह नहीं सकतीं और पर्याय निरपेक्ष द्रव्य का अस्तित्व भी असंभव है। गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन त्रयात्मक ही द्रव्य है। सप्तभंगी प्रक्रिया-द्रव्य और पर्यायों का पृथक्-पृथक् विवेचन करना अशक्य होने से दोनों में कथंचित् एकत्व है। असाधारणरूप स्वस्वलक्षण के भेद से कथंचित् दोनों में नानापना सिद्ध है। क्रम से दोनों नयों की अर्पणा करने से द्रव्य और पर्यायें कथंचित् एकत्व भिन्नत्वरूप उभयात्मक हैं। युगपत् दोनों नयों की अर्पणा करने से कहना ही अशक्य है अत: कथंचित् द्रव्य और पर्यायें दोनोें अवक्तव्य हैं। भिन्न-भिन्न लक्षण और एक साथ दोनों नयों की अर्पणा करने से कथंचित् नानात्व अवक्तव्य है। दोनों का पृथक्-पृथक् अशक्य विवेचन होने से और एक साथ दोनों नयों की अर्पणा करने से द्रव्य-पर्यायों में कथंचित् एकत्व अवक्तव्य है। क्रम से तथा अक्रम से अर्पित दोनों नयों से द्रव्य पर्याय कथंचित् नाना एकत्व अवक्तव्यरूप है। इस प्रकार से द्रव्य और पर्यायों में प्रमाण तथा नय से अविरुद्ध सप्तभंगी सुघटित है। (पंचम परिच्छेद का सार)
एकांतरूप अपेक्षा-अनपेक्षा का खंडन और स्याद्वाद सिद्धि
बौद्ध का कहना है कि धर्म और धर्मी परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा से ही सिद्ध होते हैं। जैसे कि मध्यमा और अनामिका अंगुली अत: ये धर्म-धर्मी कल्पित हैं, वास्तविक नहीं हैं क्योंकि ये निर्विकल्प ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होते हैं। ये तो निर्विकल्प के अनंतर होने वाले विकल्प ज्ञान से कल्पित किये गये हैं। योग का कहना है कि धर्म और धर्मी सर्वथा अनापेक्षिक ही हैं-कदाचित् भी एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं। इस पर जैनाचार्यों का कथन है कि धर्म और धर्मी का स्वरूप स्वत: सिद्ध है, वह स्वरूप तो एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है किन्तु धर्म और धर्मी का अविनाभाव परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा ही सिद्ध होता है। जैसे कारक के अंग कर्ता और कर्म स्वत: सिद्ध हैं। कर्ता का स्वरूप कर्म की अपेक्षा नहीं रखता है अन्यथा कर्ता के स्वरूप का अभाव हो जाने से कर्म के स्वरूप का भी अभाव हो जायेगा अत: कथंचित् ये दोनों आपेक्षिक सिद्ध नहीं हैं। उसी प्रकार योग इन दोनों को सर्वथा अनापेक्षिक ही मानता है, सो भी ठीक नहीं है। कर्ता का व्यवहार कर्म के व्यवहार की अपेक्षा अवश्य रखता है क्योंकि कर्म के निश्चयपूर्वक ही कर्ता जाना जाता है। जैसे- ज्ञानादि गुण धर्म हैं और जीव धर्मी है, ये धर्म और धर्मी अपने-अपने स्वरूप से स्वत: सिद्ध हैं अत: परस्पर आपेक्षिक नहीं हैं। जीव का स्वरूप चैतन्य है और ज्ञान का स्वरूप जानना है। ये अपने-अपने स्वरूप में एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं किन्तु धर्मी के बिना धर्म अथवा धर्म के बिना धर्मी नहीं रह सकते हैं अत: कथंचित् एक-दूसरे की अपेक्षा से भी सिद्ध होते हैं। स्याद्वाद प्रक्रिया-कथंचित् धर्म और धर्मी आपेक्षिक सिद्ध हैं क्योंकि एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। कथंचित् ये दोनों अनापेक्षिक सिद्ध हैं क्योंकि इन दोनों का स्वरूप स्वत: सिद्ध है। कथंचित् ये दोनों अनापेक्षिक दोनों रूप हैं। एक साथ दोनों अपेक्षाओं का कथन न हो सकने से कथंचित् ये अवक्तव्य हैं। क्रम से आपेक्षिक और युगपत् दोनों की विवक्षा होने से कथंचित् आपेक्षिक अवक्तव्य हैं। क्रम से अनापेक्षिक और युगपत् दोनों की विवक्षा से कथंचित् अनापेक्षिक अवक्तव्य हैं। क्रम से और युगपत् दोनों की विवक्षा होने से कथंचित् आपेक्षिक-अनापेक्षिक अवक्तव्य हैं। इस प्रकार से स्याद्वाद के द्वारा ही वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है। (छठे परिच्छेद का सार)
एकांतिक हेतुवाद और आगमवाद का खंडन तथा स्याद्वाद सिद्धि
बौद्ध हेतु से ही तत्त्व की सिद्धि मानते हैं, ब्रह्माद्वैतवादी आगम से ही परम ब्रह्म को सिद्ध करते हैं। वैशेषिक तथा बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों से ही तत्त्वों की सिद्धि मानते हैं। आचार्य इन सबका क्रम से खंडन करते हैं। बौद्ध-सभी उपेय तत्त्व हेतु से ही सिद्ध हैं प्रत्यक्ष से नहीं क्योंकि जो युक्ति से घटित नहीं होता, उसे हम देखकर भी श्रद्धा नहीं करते हैं। जैन-आपके यहाँ हेतु को ही प्रमाण मानने से तो प्रत्यक्ष आगम आदि सभी अप्रमाण हो जावेंगे पुन: अनुमान ज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकेगा तथा शास्त्र के उपदेश से भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा और तब तो आपके बुद्ध भगवान भी अप्रमाण हो जावेंगे क्योंकि बुद्ध भगवान का ज्ञान हेतु से नहीं हो सकता है। ब्रह्माद्वैतवादी-सभी तत्त्व आगम से ही सिद्ध हैं क्योंकि अनुमान से सिद्ध भी वाक्य यदि आगम से बाधित है, तो वह अग्राह्य है। जैसे-‘‘ब्राह्मण को मदिरा पीना चाहिए क्योंकि वह द्रव्य-द्रव्य है, दूध के समान’’ यह कथन अनुमान से तो सिद्ध है किन्तु ‘‘ब्राह्मणो ने सुरा पिबेत्’’ इत्यादि आगम से बाधित है और हमारे यहाँ परम ब्रह्म भी तो आगम से ही सिद्ध है। जैन-इस प्रकार आगम को ही प्रमाण मानने पर तो आपके यहाँ अन्य लोगों द्वारा विरुद्ध अर्थ को कहने वाले आगम भी प्रमाण हो जावेंगे क्योंकि आगम-आगम से तो सभी समान हैं। यदि आप अपने आगम को ही समीचीन कहो तो उसकी समीचीनता का निर्णय भी तो युक्ति-हेतु से ही किया जायेगा अत: आपका आगम भी तो हेतु सापेक्ष ही रहा अत: एकांत मान्यता ठीक नहीं है। वैशेषिक-सौगत-प्रत्यक्ष और अनुमान से ही तत्त्वों की सिद्धि होती है, आगम से नहीं। जैन-यह कथन भी सारहीन है क्योंकि ग्रहों के संचार एवं चंद्रग्रहण आदि ज्योतिष शास्त्र से ही सिद्ध हैंं अत: हेतु, आगम, प्रत्यक्ष और अनुमान इन सभी से ही उपेय तत्त्व सिद्ध होते हैं। इन दोनों का निरपेक्ष उभयैकात्म्य भी श्रेयस्कर नहीं है तथा स्याद्वाद के अभाव में अवाच्य तत्त्व कहना भी असंभव है। स्याद्वाद सिद्धि-वक्ता के आप्त न होने पर जो हेतु से सिद्ध होता है, वह हेतु साधित है एवं वक्ता जब आप्त होता है तब उसके वाक्य से जो सिद्ध होता है वह आगम साधित है। ‘यो यत्र अवंचक: स तत्राप्त:’ जो जिस विषय में अवंचक-अविसंवादक है वह आप्त है, इससे भिन्न अनाप्त हैं। कथंचित् सभी वस्तुएँ हेतु से सिद्ध हैं क्योंकि उनमें इन्द्रिय और आप्त वचन की अपेक्षा नहीं है। कथंचित् सभी आगम से सिद्ध हैं क्योंकि इन्द्रिय और हेतु की अपेक्षा है। कथंचित् उभयरूप हैं क्योंकि क्रम से दोनोें की विवक्षा है। कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि युगपत् दोनों की विवक्षा है। कथंचित् हेतु से सिद्ध और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से हेतु की और युगपत् दोनोें की विवक्षा है। कथंचित् आगम से सिद्ध और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से आगम की और युगपत् दोनों की विवक्षा है। कथंचित् उभयरूप और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से और युगपत् दोनों की विवक्षा है। भावार्थ-जैन सिद्धांत में ‘प्रमाणनयैरधिगम:’ सूत्र के द्वारा प्रमाण और नयों से वस्तु तत्त्व को समझने का उपदेश दिया गया। प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा दो भेद हैं। इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को कहीं (न्याय ग्रंथों में) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये परोक्ष प्रमाण हैं। इन सभी के द्वारा वस्तु तत्त्व को ठीक से समझना चाहिए। (सातवें परिच्छेद का सार)
अंतरंगार्थ एवं बहिरंगार्थ के एकांत का खंडन एवं स्याद्वाद सिद्धि
विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध कहता है कि अंतरंगार्थ विज्ञान मात्र ही एक तत्त्व है किन्तु दिखने वाले बहिरंग पदार्थ कुछ भी नहीं हैं ये तो कल्पना मात्र हैं। ये सब बाह्य पदार्थ इंद्रजालिया के खेल के समान हैं अथवा स्वप्न के राज्य समान हैं। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि आपकी इस एकांत मान्यता से तो हेतु और आगम से सिद्ध मोक्ष तत्त्व एवं अनुमान, आगम आदि सभी प्रमाण आदि मिथ्या हो जायेंगे तथा बाह्य पदार्थ भी प्रत्यक्ष में जो दिख रहे हैं वे सर्वथा काल्पनिक नहीं हैं अन्यथा नर-नारकादि पर्यायें और उनके निमित्त से होने वाले सुख-दु:ख भी काल्पनिक ही कहे जायेंगे और तब संसार भी काल्पनिक ही सिद्ध होगा तथा संसार को ही रहेगा। इस व्यवस्था से तो आपके बुद्ध भगवान काल्पनिक कहने पर तो मोक्ष भी काल्पनिक एवं आपका मत भी काल्पनिक ही हो जायेगा। कोई बाह्य पदार्थवादी है-जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे सब ज्ञान से संबंधित हैं क्योंकि ज्ञान विषयाकार होता है अत: बाह्य पदार्थ ही वास्तविक हैं ज्ञान स्वतंत्र कोई चीज नहीं है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यदि आप सभी पदार्थों को ज्ञान से संबंधित मानेंगे तब तो प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही खत्म हो जायेंगे। तृण के अग्रभाग पर सौ हाथी बैठे हैं, इत्यादि ऊटपटांग वाक्यों का ज्ञान एवं स्वप्न का ज्ञान अपने-अपने पदार्थ से संबंधित नहीं है क्योंकि इन ज्ञानों में विसंवाद देखा जाता है। इन अंतरंग-ज्ञानतत्त्व और बहिरंग-बाह्य पदार्थ को परस्पर निरपेक्ष मानने वाले उभयैकात्म्यवादी का सिद्धांत भी विरुद्ध ही है। उसी प्रकार दोनों तत्त्वों को एकांत से अवाच्य मानना भी अघटित ही है। स्याद्वाद की अपेक्षा अंतरंग और बहिरंग दोनों ही तत्त्व वास्तविक हैं। सभी ज्ञान स्वरूपसंवेदन की अपेक्षा से एवं सत्व प्रमेयत्वादि की अपेक्षा से प्रमाणरूप ही हैंं अतएव अंत: प्रमेय की अपेक्षा से प्रमाणाभास कुछ भी नहीं है किन्तु जब बहि: प्रमेय-बाह्य पदार्थों को प्रमेय करते हैं, तब ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए अंतस्तत्त्व और बहिस्तत्त्व दोनों ही सिद्ध हैं।
जीव के अस्तित्व की सिद्धि
चार्वाक-जीव अपने स्वरूप से रहित है, वह शरीर इन्द्रिय आदि के समूहरूप ही है। जन्म के पूर्व और मरण के अनंतर चैतन्य नामक कोई तत्त्व नहीं है अत: अनादिनिधन कोई आत्मा नहीं है। चैतन्य भी सत् है और भूतचतुष्टय भी सत् है। सत् रूप से दोनों समन्वित हैं अत: जीव भूतचतुष्टय से उत्पन्न होता है किन्तु भूतचतुष्टय तो परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं। उन चारों में एक विकारी समन्वय नहीं है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों तत्त्व भिन्न-भिन्न ही हैं। जैनाचार्य-यह आपका कथन सर्वथा असत् है। जीव गया, जीव विद्यमान है, इत्यादि रूप से यह जीव शब्द लोकव्यवहार का आश्रय लेता है। यह व्यवहार शरीर, इन्द्रिय आदि में नहीं हो सकता है। वैसे ही जन्म से पहले और मरण के अनंतर भी चैतन्य का अस्तित्त्व सिद्ध है, किसी को जातिस्मरण होता हुआ देखा जाता है, बालक माता का स्तनपान करता है इत्यादि बातें भी संस्कार से मानी जाती हैं। आपने जो भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानी है, वह भी सर्वथा गलत है क्योंकि अचेतन से चेतन की उत्पत्ति होना असंभव है तथा ये चारों भूतचतुष्टय परस्पर में सजातीय होने से एक-दूसरेरूप भी परिणत हो सकते हैं इसलिए ये सर्वथा भिन्न-भिन्न भी नहीं हैं। चंद्रकांत मणि रूप पृथ्वी से जल की उत्पत्ति, सूर्यकांत से अग्नि की उत्पत्ति आदि तथा जलबिन्दु से सीप में मोती की उत्पत्ति आदि देखी जाती है अत: अनादिनिधन जीव तत्त्व सिद्ध है वह ज्ञान, दर्शन, उपयोग स्वभाव वाला है। ऐसे ही सांख्य जीव को कूटस्थ नित्य अपरिणामी ज्ञान शून्य मानते हैं। वे ज्ञान को प्रकृति (जड़) का धर्म मानते हैं। योग जीव को स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा नहीं जानने योग्य-अस्वसंविदित मानते हैं। ब्रह्मवादी कहते हैं कि सभी शरीर में एक अभिन्न रूप (परमब्रह्म) जीवात्मा है। बौद्ध आत्मा को प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न ही मानते हैं। इन सब के द्वारा जीव शब्द बाह्यार्थ सहित नहीं है क्योंकि यह सब मान्यता केवल कपोलकल्पित ही है। इस प्रकार जीव तत्त्व की सिद्धि हो जाने से अंतरंग तत्त्व सिद्ध हो जाता है उसी प्रकार से बाह्य पदार्थ भी परमार्थ सत्य है क्योंकि साधन और दूषण का प्रयोग देखा जाता है। बाह्य पदार्थ के होने पर ही ज्ञान एवं शब्द प्रमाणरूप हैं, बाह्य पदार्थ के अभाव में प्रमाणभूत नहीं हैं। इस प्रकार से अर्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति से ही सत्य और असत्य की व्यवस्था हो जाती है। भावार्थ-जीव तत्त्व वास्तविक है अन्यथा ‘न जीव: अजीव:’ इस नियम से अजीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा तथा जीव के बिना बाह्य पदार्थों को बतलाने वाला भी कोई नहीं रहेगा अत: जीव तत्त्व की निर्बाध सिद्धि हो जाने से बाह्य पदार्थ भी निर्बाधरूप से सिद्ध हो जाते हैं। (आठवें परिच्छेद का सार)
दैव और पुरुषार्थ के एकांत का खंडन एवं स्याद्वाद की सिद्धि
कोई मीमांसक भाग्य से ही सभी कार्यों की सिद्धि मानते हैं। चार्वाक पुरुषार्थ से ही सभी कार्यों की सिद्धि कहते हैंं। कोई विशेष मीमांसक स्वर्गादि को भाग्य से एवं कृषि आदि को पुरुषार्थ से मानते हैं और कोर्ई बौद्ध लोग कार्यों की सिद्धि में इन दोनों को भी न मानकर अवक्तव्य से ही सिद्धि मानते हैं। यहाँ सबसे प्रथम भाग्येकांत पक्ष का निराकरण करते हैं- मीमांसक-सभी कार्य भाग्य से ही सिद्ध होते हैं पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता है। जैन-तब तो पुण्य और पापरूप आचरण के द्वारा भाग्य का निर्माण कैसे होता है ? मीमांसक-पूर्व-पूर्व के भाग्य से ही आगे-आगे के भाग्य का निर्माण होता है न कि पुण्य-पाप आदि आचरणों से। जैन-तब तो इस प्रक्रिया से पूर्व-पूर्व के भाग्य से आगे-आगे के भाग्य का निर्माण होते रहने से भाग्य का अभाव कभी भी नहीं हो सकेगा और तब तो मोक्ष कभी नहीं हो सकेगा तथा मोक्ष के लिए किये गये पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जावेंगे ? मीमांसक-पुरुषार्थ से भाग्य का निर्मूल नाश हो जाता है इसलिए मोक्ष की सिद्धि और उसके पुरुषार्थ सफल हैं। जैन-तब आपने भी पुरुषार्थ को तो मान ही लिया पुन: भाग्य का एकांत कहाँ रहा ?
पुरुषार्थ एकांतवाद का निराकरण
चार्वाक-सभी कार्य पुरुषार्थ से ही सिद्ध होते हैं। जैन-यह भी एकांत ठीक नहीं है क्योंकि एक साथ अनेकों जन खेती करते हैं किन्तु किसी को विशेष लाभ और किसी को हानि भी होती हुई देखी जाती है किन्तु पुरुषार्थ तो सभी के समान हैं पुन: ऐसा अन्तर क्यों है ? इसलिए एकांत से पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि मानना गलत है। कोई-कोई दैव-पुरुषार्थ को मान करके भी दोनों को परस्पर निरपेक्ष मानते हैं, सो भी ठीक नहीं है। एकांत से अवक्तव्य मानने पर भी स्ववचन विरोध आता है। अतएव स्याद्वाद की पद्धति से वस्तुतत्त्व की सिद्धि होती है-
बिना बिचारे अनायास ही जब अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य सिद्ध हो जाते हैं तब उनमें भाग्य की प्रधानता है और जब बुद्धिपूर्वक अनुवूâल या प्रतिवूâल कार्यों की सिद्धि होती है तब उनमें पुरुषार्थ की प्रधानता है। ये भाग्य और पुरुषार्थ एक-दूसरे की अपेक्षा रखने वाले होने से ही सम्यक् कहलाते हैं अन्यथा परस्पर निरपेक्ष होने से मिथ्या एकांतरूप हो जाते हैं अत: ये दोनों सापेक्ष ही कार्यों की सिद्धि में समर्थ होते हैं, ऐसा समझना।
सप्तभंगी की प्रक्रिया
(१) कथंचित् सभी कार्य दैवकृत होते हैं क्योंकि अनायास ही सिद्ध हुए हैं। (२) कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थकृत होते हैं क्योंकि बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से सिद्ध हुए हैं। (३) कथंचित् सभी कार्य भाग्य और पुरुषार्थ दोनों कृत हैं क्योंकि दोनों की विवक्षा है। (४) कथंचित् सभी कार्य अवक्तव्य हैं क्योंकि इन दोनों को एक साथ कह नहीं सकते हैं। (५) कथंचित् दैवकृत और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से दैव की युगपत् दोनों की विवक्षा है। (६) कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थकृत और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से पुरुषार्थ की और युगपत् दोनों की विवक्षा है। (७) कथंचित् सभी कार्य दैव और पुरुषार्थकृत अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से दोनों की और युगपत् दोनों की विवक्षा है। इस प्रकार स्याद्वाद की अपेक्षा से भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही सापेक्ष होकर कार्य साधक होते हैं अन्यथा नहीं, ऐसा समझना चाहिए। (नवमें परिच्छेद का सार)
पुण्य और पाप के एकांत का निराकरण एवं स्याद्वाद की सिद्धि
भाग्य दो प्रकार का है-एक पुण्य और दूसरा पाप। वही प्राणियों के सुख और दु:ख का कारण है। ‘‘सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं। अतोऽन्यत्पापम्’’। सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र, ये पुण्यरूप हैं और इनसे विपरीत असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और नीच गोत्र तथा चारों घातिया कर्म, ये पापरूप हैं। कोई एकान्त से कहता है कि पर जीवों में दु:ख उत्पन्न करने से पाप एवं पर में सुख उत्पन्न करने से पुण्य ही होता है। तो आचार्य कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार की मान्यता से तो अचेतन दूध, घी आदि पदार्थ अन्य जीवों को सुख उत्पन्न करते हैं इसलिए उनके पुण्यबंध मानना पड़ेगा और विष, वंâटक आदि पदार्थ दु:ख उत्पन्न करते हैं, उनके पाप बंध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि चेतन ही बंध के योग्य हैं, अचेतन नहीं तो भी वीतरागी मुनिराज के पर के सुख-दु:ख के निमित्त से कर्मों का बंध होने लगेगा अर्थात् कोई महामुनि ध्यान में लीन हैं उन्हें देखकर भक्तजन प्रसन्न हो जाते हैं और अज्ञानीजन निंदा करते हैं, उनसे दु:ख अनुभव करते हैं एतावता ये परजीवों के सुख-दु:ख में निमित्त तो हो रहे हैं किन्तु स्वयं वीतरागी हैं इनके भी कर्मबंध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि उन मुनिराज का वैसा सुख-दु:ख देने का मानो अभिप्राय नहीं है तब तो पर में सुख-दु:ख करने से ही पुण्य बंध होता है, ऐसा आपका एकान्त कहाँ रहा ? इससे विपरीत कोई कहता है कि अपने में दु:ख को उत्पन्न करने से पुण्य एवं सुख को उत्पन्न करने से पाप बंध ही होता है। इस पर भी आचार्य कहते हैं कि ऐसा एकान्त भी श्रेयस्कर नहीं है। देखो! यदि ऐसा ही एकांत मानोगे तो वीतरागी मुनिराज त्रिकाल योग के अनुष्ठान से और उपवास आदि से अपने में दु:ख उत्पन्न करते हैं तो इन्हें पुण्य बंध हो जावेगा और विद्वान् मुनिजन तत्त्वज्ञान से संतोष लक्षण सुख को अपने में प्राप्त करते हैं तो उन्हें पाप का बंध मानना पड़ेगा। यदि आप कहें आसक्ति नहीं है अतएव ये वीतरागी और विद्वान मुनिराज पुण्य पाप से नहीं बंधते हैं, तब तो तुम्हारा एकांत समाप्त हो जाता है और यदि एकांत लेते ही हो तब तो कषायरहित वीतराग छद्मस्थ महामुनि को भी बंध होने लगेगा पुन: कदाचित् भी पुण्य-पाप का अभाव न होने से किसी को भी मुक्ति नहीं मिल सकेगी। कोई-कोई लोग एकांत से परस्पर निरपेक्ष उपर्युक्त दोनों बातों को मानते हैं, इस पर भी आचार्यश्री का कहना है कि यह उभयैकात्म्य भी परस्पर में विरुद्ध होने से ठीक नहीं है। उसी प्रकार से कोई लोग इन पुण्य पाप के बंध की व्यवस्था को एकांत से अवाच्य कह देते हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि एकांत से अवाच्य के मानने पर पुन: उसे ‘अवाच्य’ इस शब्द से वाच्य कर देने पर तो स्ववचन बाधित दोष आता है अत: यह अवाच्य एकांत पक्ष भी गलत ही है। अब आचार्य इन पुण्य-पाप के विषय में सही मान्यता को स्पष्ट करते हैं- विशुद्धि के कारण, कार्य और स्वभाव ये विशुद्धि के अंग कहलाते हैं और संक्लेश के कारण, कार्य तथा स्वभाव संक्लेश के अंग कहे जाते हैं। इस विशुद्धि के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दुखा चाहे निज में हो, चाहे पर में हो अथवा चाहे उभय में हो, वही पुण्यास्रव का हेतु है। उसी प्रकार संक्लेश के निमित्त से होने वाला सुख अथवा दु:ख चाहे अपने में हो या चाहे उभय में हो, वही पापास्रव का हेतु है।
प्रश्न-संक्लेश क्या है ? एवं विशुद्धि क्या है ?
उत्तर-आर्त और रौद्र ध्यान को संक्लेश कहते हैं एवं धर्म तथा शुक्लध्यान को विशुद्धि कहते हैं। उनमें भी आर्तध्यान के इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदनाजन्य और निदान ऐसे चार भेद हैं और रौद्रध्यान के भी हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी और परिग्रहानंदी ऐसे चार भेद हैं तथा ‘मिथ्यादर्शन१, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के हेतु कहे गये हैं। ये पाँचों ही संक्लेश परिणाम कहलाते हैं। संक्लेश के अभाव में सम्यग्दर्शन आदि के निमित्त से विशुद्धि होती है। उन धर्म, शुक्लध्यानरूप विशुद्धि के द्वारा आत्मा में स्थिरता का होना संभव है। ‘‘विवाद की कोटि को प्राप्त काय आदि की क्रियाएँ स्व पर में सुख अथवा दु:खहेतुक संक्लेश की कारण हैं या कार्य हैं या स्वभाव हैं तो वे प्राणियों में अशुभ फलदायी पुद्गल परमाणुओं के संबंध में हेतु हैं क्योंकि वे संक्लेश की कारण हैं जैसे-विषभक्षण आदि। वैसे ही ‘‘विवाद की कोटि को प्राप्त कायादि क्रियाएँ स्व पर में सुख या दु:ख हेतुक भले ही हों, यदि वे विशुद्धि की कारण हैं या कार्य हैं या स्वभाव हैं तो वे प्राणियों को शुभ फलदायी पुद्गलवर्गणाओं का संबंध कराने में हेतुक हैं क्योंकि वे विशुद्धि का अंग हैं, जैसे-पथ्य आहार आदि’’।
अब आचार्य सप्तभंगी प्रक्रिया के द्वारा स्याद्वाद को सिद्ध करते हैं-कथंचित् स्व पर में स्थित सुख या दु:ख पुण्यास्रव के हेतु हैं क्योंकि वे विशुद्धि के अंग हैं। कथंचित् स्व पर में स्थित सुख या दु:ख पापास्रव के हेतु हैं क्योंकि वे संक्लेश के अंगस्वरूप हैं। कथंचित् स्व पर में स्थित सुख और दु:ख पुण्यास्रव और पापास्रव दोनों में हेतु हैं क्योंकि क्रम से दोनों की विवक्षा है। कथंचित् अवक्तव्यरूप हैं क्योंकि युगपत् दोनों को कह नहीं सकते हैं। कथंचित् पुण्यास्रव हेतुक और अवक्तव्यरूप हैं क्योंकि क्रम से विशुद्धि की और एक साथ दोनों की विवक्षा है। कथंचित् पापास्रव हेतुक और अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से संलेश की और युगपत् दोनों की विवक्षा है। कथंचित् उभयरूप और अवक्तव्यरूप हैं क्योंकि क्रम से दोनों की और युगपत् दोनों की अपेक्षा है। यहाँ निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि धर्मध्यान आदि रूप विशुद्ध परिणामों से किसी को या अपने को दु:ख भी हो जाता है, जैसे-उपवास आदि कराने में या शिष्यों को हित के लिए फटकारने में दु:ख भी है फिर भी पुण्यास्रव ही होगा और यदि आर्त, रौद्र ध्यान के निमित्त से परिणामों में संक्लेश हो रहा है तो चाहे अपने में चाहे पर को सुख भी क्यों न हो, परन्तु उससे पाप का आस्रव ही होता है इसलिए परिणामों को विशुद्ध बनाना चाहिए। (दशवें परिच्छेद का सार)
अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष के एकांत का विचार एवं स्याद्वाद की सिद्धि
सांख्य का कहना है कि अज्ञान से ही बंध होता है और ज्ञान से ही मोक्ष होता है। इस पर जैनाचार्य का कहना है कि यदि आप अज्ञान से बंध अवश्यंभावी मानोगे तो ज्ञेय पदार्थ तो अनंत हैं पुन: उनको जानने वाला कोई नहीं हो सकेगा और यदि अल्पज्ञान से ही मोक्ष मानो तो बचे हुए अवशिष्ट अज्ञान से मोक्ष हो जावेगा अथवा सभी प्राणियों में कुछ न कुछ ज्ञान संभव ही है अत: सभी जीव मुक्त हो जावेंगे। नैयायिक का कहना है कि दु:ख जन्म प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान का उत्तरोत्तर अभाव हो जाने से मोक्ष हो जाता है क्योंकि दु:खादिकों का अभाव तत्त्वज्ञानपूर्वक ही होता है। मिथ्याज्ञान से दोषों की उद्भूति अवश्य होती है। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि मिथ्याज्ञान का संपूर्णतया अभाव कैसे होगा ? पुन: मिथ्याज्ञान से दोष आदि परम्परा चलती ही रहेगी। स्याद्वाद का आश्रय लेने वाले जैनाचार्यों का कहना है कि जो एकांत से यह कहा जाता है कि अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष होता है सो असंभव है क्योंकि सभी को किसी न किसी विषय में अज्ञान तो है ही है पुन: किसी न किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा इसलिए वास्तविक चीज तो यह है कि मोहसहित अज्ञान से बंध होता है किन्तु मोहरहित रागद्वेषादि कषायों से रहित अज्ञान अर्थात् अल्प ज्ञान से मोक्ष होता है क्योंकि मोह कर्मरहित उपशांतकषाय और क्षीणकषाय वाले ऐसे ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में यद्यपि अज्ञान है फिर भी उनके बंध नहीं होता है इन दोनों गुणस्थानों में केवलज्ञान न होने से अज्ञान है ही है। वस्तुत: केवलज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान अल्प ही हैं। वह अल्पज्ञान मोहरहित छद्मस्थ वीतरागी के चरम समय में मौजूद है, उसी से ही उत्तर क्षण में तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है जिसे कि आर्हंत्य लक्षण-अपर मोक्ष कहते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि से लेकर दशवें गुणस्थान तक मोहसहित ज्ञान कर्मबंध का ही कारण है अत: स्याद्वाद प्रक्रिया से समझना चाहिए।
(१) कथंचित् अज्ञान से बंध होता है क्योंकि वह मिथ्यात्व कषायादि से सहित है।
(२) कथंचित् अज्ञान से बंध नहीं होता है क्योंकि वह मिथ्यात्व कषायादि से रहित है।
(३) कथंचित् अज्ञान से बंध होता है और नहीं होता है क्योंकि क्रम से मिथ्यात्वादि सहित और रहित दोनों की विवक्षा है।
(४)कथंचित् अवक्तव्य है क्योंकि दोनों अपेक्षाओं को एक साथ कह नहीं सकते हैं।
(५)कथंचित् अज्ञान से बंध और अवक्तव्य है क्योंकि क्रम से मोहसहित की तथा युगपत् दोनों की विवक्षा है।
(६) कथंचित् अज्ञान से अबंध और अवक्तव्य है क्योंकि क्रम से मोहरहित और युगपत् दोनों की अपेक्षा है।
(७) कथंचित् अज्ञान से बंध और अबंध तथा अवक्तव्य है क्योंकि क्रम से मोहसहित और रहित की तथा युगपत् दोनों की अपेक्षा है। इसी प्रकार से मोहसहित अल्पज्ञान से मोक्ष नहीं होता है तथा मोहरहित अल्पज्ञान से भी मोक्ष होता है, इसमें भी सप्तभंगी प्रक्रिया घटित करना चाहिए।
प्रमाण और नय
हे भगवान्! आपके सिद्धान्त में तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है। उसमें युगपत् सभी पदार्थों का अवभासन-प्रकाशन करने वाला केवलज्ञान है और स्याद्वाद नय से संस्कृत मति, श्रुत आदि शेष ज्ञान क्रमभावी हैं। यहाँ पर तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहने से अज्ञान निराकार दर्शन, संशय आदि ज्ञान इन सबका निराकरण हो जाता है। इस प्रमाण से प्रत्यक्ष-परोक्ष ऐसे दो भेद होने से परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये ज्ञान भी प्रमाण रूप हैं। केवलज्ञान का फल तो उपेक्षा है। शेष ज्ञानों का फल ग्रहण करना, त्याग करना तथा उपेक्षा करना इन तीनों रूप है अथवा अपने-अपने विषय में अज्ञान का अभाव होना ही ज्ञान का फल है। हे भगवन्! आपके यहाँ ‘स्यात्’ यह पद निपात से सिद्ध है। वाक्यों में अनेकांत उद्योतित करने वाला है एवं अपने अर्थ से सहित होने से अर्थ के प्रति समर्थ विशेषण है। सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि रूप सर्वथा एकांत का निराकरण करने वाला अनेकांत है। जैसे ‘स्याज्जीव:’ ऐसा कहने से उसका प्रतिपक्षी अजीव भी जान लिया जाता है। सर्वथा एकांत के त्याग से ही स्याद्वाद होता है। ‘कथंचित्’ आदि शब्द इसी के पर्यायवाची हैं, यह सप्त भंगों की अपेक्षा करके स्वभाव और परभाव के द्वारा वस्तु के सत्-असत् आदि धर्मों की व्यवस्था करता है। विरोध रहित स्याद्वादरूप आगम प्रमाण के द्वारा विषय किये गये पदार्थ विशेष का जो व्यंजक है वह नय कहलाता है अर्थात् जिसके द्वारा जानने योग्य अर्थ का ज्ञान होता है वह नय है।
अनेकरूप अर्थ को विषय करने वाला
अनेकांतरूप ज्ञान प्रमाण है। अन्य धर्मों की अपेक्षा करते हुए वस्तु के एक अंश का ज्ञान नय है और अन्य धर्मों का निराकरण करके वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाला दुर्नय है क्योंकि यह विपक्ष का विरोधी होने से केवल स्वपक्ष मात्र का हठाग्रही है। यदि कोई कहे कि मिथ्या-एकांत का समुदाय मिथ्यारूप ही है तो हमने ऐसा नहीं माना है। हमारे यहाँ निरपेक्ष नय मिथ्या है और उनका समूह भी मिथ्या ही है। यदि वे ही नय सापेक्ष हैं तो सम्यव हैं, वास्तविक हैं। नय के मूल में दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दो के ही सात भेद हो जाते हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। जो द्रव्य को ही विषय करे, जिसकी दृष्टि में पर्यायें गौण हों, वह द्रव्यार्थिक नय है तथा जो पर्याय मात्र को विषय करे, वह पर्यायार्थिक नय है। जैसे-द्रव्यार्थिक नय से जीव नित्य है। जन्म-मरण से रहित है तथा पर्यायार्थिक नय से जीव अनित्य है, उसकी पर्यायों का उत्पाद-विनाश होने से वह जीव से भिन्न नहीं है। स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखने वाला है, देय और उपादेय के भेद को करने वाला है तथा सभी तत्त्वों को केवलज्ञान के समान प्रकाशित करता है।
अर्थ-स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ही सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं। अंतर केवल इतना ही है कि केवलज्ञान साक्षात् सम्पूर्ण तत्त्वों को प्रकाशित करता है और स्याद्वाद असाक्षात् परोक्षरूप से प्रकाशित करता है। स्याद्वाद आगम परोक्षरूप से सभी पदार्थों का ज्ञान करा देता है। यहाँ पर ‘सर्व’ इस पद से उनकी सम्पूर्ण गुण पर्यायों को नहीं लेना चाहिए क्योंकि ‘मतिश्रुतयोर्निबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु’ मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का विषय सभी द्रव्य और उनकी कुछ-कुछ पर्यायें हैं, ऐसा सूत्रकार का वचन है अत: प्रमाण का विषय धर्मांतरों को ग्रहण करना है, नयों का विषय धर्मांतरों का त्याग करना है क्योंकि प्रमाण से तत्-असत् स्वभाव का ज्ञान होता है, नय से तत् एक अंश का ज्ञान होता है तथा दुर्नय से अन्य का निराकरण करके निरपेक्ष एक अंश का ज्ञान होता है। इसलिए- हे भगवन्! जिन्हें हमने निर्दोषरूप से निश्चित किया है, वे निर्दोष आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं। आप ही मोक्षमार्ग के प्रणेता कर्मभूभृत् के भेत्ता एवं विश्व तत्त्वों के ज्ञाता सिद्ध हैं, इस कारण से आप ही भगवान् अर्हंत सर्वज्ञ सिद्ध हैं, स्याद्वाद के नायक हैं यह बात सिद्ध हो गई। इस प्रकार से हित की इच्छा करने वालों के लिए मैंने यह आप्त की मीमांसा कही है, जो कि सम्यक् और मिथ्या उपदेश के अर्थ विशेष को समझने के लिए है। विशेष-अष्टसहस्री ग्रंथराज के कुछ सरल और मधुर प्रकरणों को साररूप में समझाने का प्रयास किया गया है, जो विशेष जिज्ञासु हैं उन्हें हिन्दी अनुवाद सहित अष्टसहस्री का स्वाध्याय करना चाहिए। स्याद्वाद के रहस्य को समझने के लिए यह एक अनूठा ग्रंथ है।
अष्टसहस्री ग्रंथराज का महत्व
श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की आदि में ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये।।’’ इत्यादि रूप से मंगलाचरण किया है, उसी मंगलाचरण पर आचार्यवर्य श्री समंतभद्रस्वामी ने आप्तमीमांसा नाम के स्तोत्र की रचना की है, उसमें श्री समंतभद्राचार्य ने दश अध्यायों में मुख्यरूप से दश प्रकार के एकांत का निरसन करके स्याद्वाद की सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित किया है। उन एक-एक परिच्छेद में मुख्य-मुख्य एकांतों के खण्डन में उभयकात्म्य तथा अवाच्य का खण्डन करते हुए ‘विरोधान्नोभयैकात्म्यं’ इस कारिका को प्रत्येक स्वाध्याय में लिया है अत: यह कारिका दस बार आ गई है। जैसे प्रथम अध्याय में मुख्यता से भावैकांत-अभावैकांत का खंडन है पुन: उभयैकात्म्य का खंडन एवं अवाच्य का खण्डन करते हुए ‘‘विरोधान्नोभयैकात्म्य’’ इत्यादि कारिका की गई है। पुन: कथंचित् भाव-कथंचित् अभाव को सिद्ध करके सप्तभंगी प्रक्रिया घटित की है तथा इस भाव-अभाव के खण्डन में अनेक अन्य विषय भी स्पष्ट किये हैं। द्वितीय में एकत्व पृथक्त्व को एकांत से न मानकर प्रत्येक वस्तु कथंचित् एकत्व पृथव्âत्वरूप ही है यह प्रगट किया है। तृतीय परिच्छेद में नित्यानित्य को दिखाया है, चतुर्थ में भेदाभेदात्मक वस्तु को बताया है, पाँचवें में कथंचित् आपेक्षिक-अनापेक्षिकरूप वस्तु को सिद्ध किया है, पुन: छठे में हेतुवाद आगम को स्याद्वाद से सिद्ध करके सातवें में अंतस्तत्व-बहिस्तत्त्व का अनेकांत बताया है, आठवें में दैव पुरुषार्थ को स्याद्वाद से प्रगट करके नवमें में पुण्य-पाप का अनेवंत उद्योतित किया है, दशवें में ज्ञान-अज्ञान से मोक्षबंध की व्यवस्था को प्रकाािश्त किया है। स्याद्वाद और नयों का उत्तम रीति से वर्णन किया है। तात्त्पर्य यही है कि इस अष्टसहस्री ग्रंथ में जिस रीति से स्याद्वाद का वर्णन प्रत्येक स्थान पर किया गया है वैसा वर्णन अन्यत्र न्यायग्रंथों में कहीं पर भी नहीं है, प्रत्येक अध्याय में सप्तभंगी प्रक्रिया बहुत ही अच्छी मालूम पड़ती है। अंत में आचार्य ने यह बताया है कि मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिए यह आप्त मीमांसा-सर्वज्ञ विशेष की परीक्षा की गई है क्योंकि मुख्यरूप से मोक्ष ही हितरूप है और उसकी प्राप्ति के कारणभूत रत्नत्रय को भी हितरूप माना गया है अत: सम्यक्त्व और मिथ्यात्व विशेष का ज्ञान कराने के लिए यह आप्तमीमांसा प्रधान ग्रंथ है क्योंकि सत्य-असत्य तत्त्व का एवं आप्त का पूर्णतया निर्णय हो जाने के बाद ही यह जीव असत्य को छोड़कर सत्य मार्ग का या सत्य आप्त का आश्रय लेता है अत: यह अष्टसहस्री ग्रंथ आर्हंत्य लक्ष्मी की परिसमाय्यि-प्राप्ति पर्यंत स्वार्थसंपत्ति को सिद्ध करने वाला है इसलिए शास्त्र की आदि में स्तुति किये गये मोक्षमार्ग के प्रणेता कर्मभूभृद्भेत्ता और विश्वतत्त्वों के ज्ञाता सिद्ध हुए अर्हंत भगवान् ही निर्दोष आप्त हैं उन्हीं के गुणों को प्राप्त करने के लिए उन्हें ही नमस्कार करना उचित है अन्य को नहीं।
स्वयं विद्यानंदि आचार्यवर्य ऐसा कहते हैं कि एक अष्टसहस्री ग्रंथ को ही सुनना चाहिए, अन्य हजारों ग्रंथों के सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि जब तक इस एक ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय अपने स्याद्वाद जैन सिद्धांत और परसमय पर परिकल्पित अनेक एकांत तत्त्वों को समझ नहीं लेंगे तब तक हम अपना सिद्धांत भी अत्यंत सूक्ष्मतया स्याद्वाद की कसौटी पर कस नहीं सकेगे और जब तक सप्तभंगी स्याद्वाद प्रक्रिया से हम अपने तत्त्वों को नहीं समझ लेंगे तब तक एकांतवाद के किसी प्रवाह में बहने का डर बना ही रहेगा। आगम और तर्वâ दोनों की कसौटी पर कसा गया तत्त्व ही शुद्ध सत्य सिद्ध होता है अन्यथा नहीं। केवल सिद्धांत अथवा केवल अध्यात्मरूप आगम से जाना गया तत्त्व कदाचित् बेमालूम ही एकांत के गड्ढे में डाल सकता है किन्तु आगम और तर्वâ दोनों के द्वारा समझा गया तत्त्व सम्यक् श्रद्धान से कथमपि च्युत् नहीं कर सकता। श्रीसमंतभद्राचार्यवर्य ने अपनी रचनाओं को भगवान की स्तुति का रूप देते हुए प्रौढ़तया न्याय के ग्रंथरूप बना दिया है। यह विशेषता केवल एक समंतभद्रस्वामी में ही थी कि न्यायपूर्ण शब्दों के द्वारा निर्भीकतया भगवान के साथ भी वार्तालाप करते हुए उन्हीं सर्वज्ञ भगवान की भी परीक्षा करने का साहस कर डाला है। सो ठीक ही है क्योंकि जब उन्होंने स्वयंभूस्तोत्र की रचना के द्वारा शिवपिंडी से भगवान चन्द्रप्रभु को ही प्रगट कर लिया था तब उनका इस पद्धति से भगवान को ही न्याय की कसौटी पर कस देना कोई बड़ी बात नहीं है। सचमुच में यह कोई साधारण व्यक्ति का काम नहीं कि भगवान की परीक्षा शुरु कर देवे, श्रीसमंतभद्र जैसे महान मुनिपुंगवों का ही यह काम है। इस ग्रंथ में भगवान को ही निर्दोष आप्त सिद्ध करके अंत में यह बतलाया है कि-
हित-मोक्ष सुख की इच्छा करने वाले भव्य पुरुषों के लिए ही की गई है क्योंकि सम्यक् और मिथ्या उपदेश विशेष की जानकारी होने से मिथ्यात्व का त्याग और सम्यक्त्व का ग्रहण शक्य है अन्यथा नहीं। अपने जैन सिद्धांत के ही एक-एक कणरूप एक-एक अंश को लेकर मिथ्यावादी जन हठाग्रही बन जाते हैं, वे अपेक्षावाद कथंचित्वादरूप सिद्धांत को नहीं समझ पाते हैं। एक-एक के आग्रह से ही नित्यैकांतवादी, क्षणिवैâकांतवादी आदि बन जाते हैं। जैसे सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय से हमारे यहाँ प्रत्येक वस्तु अर्थपर्यायरूप से प्रतिक्षण होने वाली अर्थ-पर्याय एक समयवर्ती क्षणिक है किन्तु यह नय अन्य नयों से सापेक्ष होने से ही सम्यग्नय है। यदि वह अन्य नयों की अपेक्षा न करे तो मिथ्या नय है इसी एक नय के हठाग्रही बौद्धजन हैं जिन्होंने अपना क्षणिक सिद्धांत ही बना लिया है इत्यादि। इन सब एकांतों का खण्डन करके यह अष्टसहस्री ग्रंथ अपने स्याद्वाद को पद-पद पर पुष्ट करता है अतएव आचार्य विद्यानंदि महोदय ने यह श्लोक सार्थक ही दिया है कि-इसी एक ग्रंथ से ही सभी स्वसमय और परसमय का ज्ञान हो जाता है अत: इसका अष्टसहस्री महान ग्रंथ सार्थक ही नाम है। इसमें १४४ कारिकाओं से श्री समंतभद्राचार्यवर्य ने देवागम स्तोत्र रचना की है उस स्तोत्र के ऊपर श्रीभट्टाकलंकदेव ने अष्टशती नाम से ८०० श्लोक प्रमाण में टीका की हैै पुन: उस अष्टशती सहित देवागम स्तोत्र की श्री विद्यानंदि स्वामी ने ८००० (आठ हजार) श्लोक प्रमाण से अष्टसहस्री नाम की टीका की है इसका नाम आपने कष्टसहस्री भी दिया है क्योंकि न्याय के प्रत्येक प्रकरण इसमें बहुत ही क्लिष्ट और जटिल हैं, बड़े ही कष्टसाध्य हैं तथा आपने इसे ‘अभीष्ट सहस्री पुष्यात्’ कहा है कि यह ग्रंथ नित्य ही हजारों मनोरथों को पुष्ट करे अत: इस अष्टसहस्री ग्रंथराज का नित्य ही मनन करना चाहिए तथा देवागम स्तोत्र को भी नित्य ही पढ़ना चाहिए। इस स्तुति के प्रसाद से ही इसका अर्थ समझ सकेगे।