( मातृवंदना )
जिनकी त्याग साधना से, पावन हो जाता मन है।
पूज्य आर्यिका रत्नमती को, वंदन अभिनंदन है।।टेक.।।
पावन भारत वसुन्धरा का है इतिहास गवाही।
जिसको मिटा न पाया कोई ऐसी अमिट है स्याही।।
जिस नारी की शक्ती से सुरपति भी हिल जाता है।
रत्नमती माताजी का चारित्र ये बतलाता है।।
भौतिक सुख को ठोकर मारी धन्य किया जीवन है।
सौ सौ बार नमन है, पूज्य र्आियका रत्नमती को वंदन अभिनंदन है।।१।।
जिन्हें वासना का बन्धन किंचित् भी बाँध न पाया।
आत्म तपोबल से अपना जीवन आदर्श बनाया।।
चन्दनबाला राजुल सा इनमें संयम का पानी।
युग युग तक युग दोहराएगा इनकी विशद कहानी।।
लख संसार असार सभी का पहचाना क्रन्दन है।
सौ सौ बार नमन है, पूज्य आयका रत्नमती का वंदन अभिनंदन है।।
प्रान्त अवध का धन्य है जिस पर माँ ने जनम लिया है।
जैनधर्म का ध्वज फहराकर निज उत्थान किया है।
इसी धरा की पुण्य धरोहर सच्चरित्र हितकारी।
गौरवशाली महामनीषी मृदुभाषी सुखकारी।।
हस्तिनागपुर की माटी ये, मधुर हुई चन्दन है।
सौ सौ बार नमन है, पूज्य आर्यिका रत्नमती को वंदन अभिनंदन है।।
समय :— प्रात:काल स्थान — महमूदाबाद में सेठ सुखपालजी का घर, लगभग १६ वर्ष की उम्र वाली कन्या मोहिनी बैठी हुई शास्त्र स्वाध्याय कर रही है।
माँ — बेटी मोहिनी, अकेली क्या पढ़ रही है? मेरे पास आ, मुझे भी कुछ स्वाध्याय सुना दे।
मोहिनी —(माँ के पास शास्त्र की चौकी लेकर जाती हुई) सुनो माँ, यह पद्मनन्दि पंचविंशतिका शास्त्र है। पिताजी ने इसका स्वाध्याय करने के लिए कहा है। इसमें तो बहुत अच्छी—अच्छी बातें लिखी हुई हैं। सुनो, मैं तुम्हें भी सुनाती हूँ।
बहिर्विषयसंबंध: सर्व: सर्वस्य सर्वदा। अतस्तद्भिन्नचैतन्यबोधयोगो तु दुर्लभौ।।
सब बाह्य विषयों का सदाकाल से सभी प्राणियों के साथ सम्बन्ध चला ही आ रहा है किन्तु उससे भिन्न चैतन्य और समीचीन ज्ञान इन दोनों को प्राप्त करना ही दुर्लभ है। शास्त्र को सुनाकर माँ—बेटी दोनों गृहस्थी के कार्य में लग जाती हैं, दूसरे दिन मोहिनी अपनी बड़ी बहन विवाहित राजदुलारी के साथ मंदिर दर्शन करने जाती है तो भगवान् के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगती है।
मोहिनी—(मंदिर में पहुँचकर दर्शन पाठ बोलते हुए नमस्कार करती हुई) हे भगवान् ! बड़ी दुर्लभता से मनुष्य जन्म मिला है जिसे पाने के लिए इन्द्र भी तरसते हैं। (मन में चिन्तन करते हुए) कुछ दिनों में पिताजी मेरी शादी कर देंगे। मैं ससुराल चली जाऊंगी, फिर भी हे भगवन् ! मैं आपकी साक्षीपूर्वक आजीवन शीलव्रत धारण करती हूँ और यह प्रतिज्ञा करती हूँ कि एक अपने पति के सिवाय किसी परपुरुष का मन में ध्यान भी नहीं लाऊँगी और हाँ! एक बात और भी है कि प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी एवं पर्व के दिनों में मैं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करूँगी। (पुन: नमस्कार करती हुई।)
बड़ी बहिन—अरी मोहिनी, अब बहुत देर हो गई, चलो घर चलते हैं। (दोनों बहनों का मंदिर से प्रस्थान) (घर में पति पत्नी में बहस चल रही है )
सुखपालजी—(कई फोटो दिखाते हुए) अरे, मोहिनी की माँ ! बताओ तो सही, तुम्हें कौन सा लड़का पसन्द है ? धर्मपत्नी मत्तोदेवी मुझे तो टिकैतनगर के धनकुमार जी का लड़का छोटेलाल पसन्द है। लड़का भी सुन्दर है और उनका परिवार भी धर्मात्मा है।
सुखपाल जी —बस तो रिश्ता पक्का रहा। बेटा महीपाल, भगवानदास, शादी की तैयारियाँ करो। अब तुम्हारी बहन मोहिनी दुल्हन बनेगी। (शादी के बाजे बजते हैं।
मोहिनी माता—पिता के चरण छूकर अंतिम आशीर्वाद लेती है।)
सुखपाल जी—(बेटी को गले लगाते हुए) बेटी मोहिनी, तेरे जाने से तो मेरे घर की रौनक ही चली जा रही है। ओह ! मैं कैसे तेरे बिना रह सकूगा। (कलेजा थामते हुए) मेरी मोहिनी, ले मैं तुझे यह तेरा प्रिय ग्रंथ पद्मनन्दि पंचविंशतिका दे रहा हूँ, यही मेरा दहेज है, तुम इसका प्रतिदिन स्वाध्याय करना। (विनयपूर्वक ग्रंथ लेकर मोहिनी माँ के चरण स्पर्श कर रही है)
माँ—(विह्वल होकर बेटी को छाती से चिपकाती हुई) बेटी, अब तुम जिस घर में जा रही हो वही तुम्हारा अपना घर होगा। तुम सास—ससुर को ही अपने माता—पिता मानना और पति को देवता। यह तो विधाता की लीला है कि इतने वर्षों तक बेटी को पाला पोसा जाता है फिर उसे पराई बना दिया जाता है। बेटी ! तेरे जाने से हमारा घर तो जरूर सूना हो जाएगा किन्तु धनकुमार के घर में एक नई बहार आ जाएगी क्योंकि मुझे विश्वास है कि मेरी मोहिनी जहाँ भी जाएगी सभी का मन मोह लेगी। यहाँ मोहिनी के विवाह का दृश्य दिखाएँ मोहिनी अपने भाई, बहन, माता—पिता सभी का मोह अपने दिल में समेटे हुए ससुराल को जाती हुई
समय :— मध्याह्न मोहिनी घर में काम करती हुई कुछ गीत की पंक्तियाँ गुनगुना रही है। यह तन जाए तो जाए, मेरा शील रतन नहि जाए………. सासूजी—बहू ! क्या गा रही हो ? तुम तो हर समय अपने स्वाध्याय और पाठ में लीन रहती हो। बेटी ! कभी मुझसे भी तो कुछ बोला करो। मैने तो पहले से ही तुम्हारी बहुत प्रशंसा सुन रखी है।
मोहिनी—नहीं नहीं अम्मा जी, यह तो सब आप लोगों का आशीर्वाद है। मैं तो कुछ नहीं जानती। माँ जी ! घर में मेरे पिताजी मुझे भजन वगैरह सिखाते थे और कहते थे कि खाना बनाते समय और सभी काम करते हुए इनको पढ़ा करो तो घर का वातावरण सुखी और शान्त रहता है। आप बुरा मत मानना माँ जी, मेरी वही आदत पड़ी हुई है।
सासूजी—नहीं बहू, इसमें बुरा मानने की क्या बात है ? तुम तो जबसे इस घर में आई हो, मेरे घर की रौनक ही बदल गई है। बेटी, तुम्हीं बहुएँ तो इस घर की लक्ष्मी हो। तुम मुझे भी यह सब धर्म की बातें जरूर सुनाया करो। इसी प्रकार खुशहालीपूर्वक मोहिनी के २ वर्ष निकल गए। अब तो इस घर के सभी लोग उसके अपने हो गए थे। एक दिन मोहिनी ने प्रथम सन्तान के रूप में एक कन्या को जन्म दिया। सभी लोगों ने कन्या को रत्न मानकर घर में खुशियाँ मनाई। मोहिनी उस कन्या को लेकर अपने पीहर गई तो उसके रूप लावण्य और बालसुलभ लीलाओं को देखकर उसके नाना ने नाम रखा ‘‘मैना’’। मैना जब कुछ बड़ी हुई तो वह भी माँ मोहिनी के समान धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने लगी। यह तो आप सभी जानते हैं कि वही मैना आज गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में लोकप्रसिद्ध साध्वी हैं। उन्हें प्रारम्भ में वैराग्य कैसे हुआ ? यह बात यहाँ संक्षेप में बतलाई जा रही है। लगभग ९—१० वर्ष की एक लड़की प्रक पहने हुए मैना के रूप में।
मैना—माँ, देखो, मेरी सब सहेलियाँ बाहर खेल रही हैं मुझे भी खेलने जाने दो न।
मोहिनी—बेटी इन खेलों में क्या रखा है ? आओ मेरे पास, ये शीलकथा, दर्शन कथा पढ़ो, इनमें बड़ा आनन्द आता है और मेरे साथ घर के काम किया करो जिससे तुम एक होशियार लड़की बन सको।
मैना—(इन कथाओं को पढ़ती है और फिर माँ के पद्मनन्दि पंचविंशतिका ग्रंथ को भी पढ़ती हुई बड़ी प्रसन्न होकर कहती है।) माँ, देखो कितनी वैराग्यपूर्ण बात इसमें लिखी हैं— ‘‘इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनय:।’’ अर्थात् हे देव ! मैंने चिरकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए बहुत बार उत्तम इन्द्र पद प्राप्त किया है तथा निंद्य निगोदपर्याय भी अनन्त बार प्राप्त कर— करके दु:ख उठाए हैं। ओह ! अब मैं सोचती हूँ कि किस प्रकार से इस संसार को जल्दी से जल्दी समाप्त करके कब मैं भगवान बन जाऊँ ? जिससे कि मुझे संसार में कभी वापस न आना पड़े। ड बस यहीं से मैना के हृदय में वैराग्य के अंकुर उत्पन्न होने लगे और आखिर एक दिन उन अंकुरों को पुष्पित और फलित होने का अवसर भी मिल गया अर्थात् कुछ दिनों बाद सन् १९५१ में आचार्य श्री देशभूषण महाराज के दर्शन करने गई और सबसे पहले मैना ने महाराज से पूछा यहाँ नाटक में महाराज के स्थान पर फोटो या स्टेचू रखें। मैना—नमोस्तु महाराज जी ! महाराज, मैं दीक्षा लेना चाहती हूँ।
महाराज—सद्धर्मवृद्धिरस्तु। (आशीर्वाद देकर उसकी ओर देखते हुए) बेटी ! तुम्हारा ललाट उज्जवल भविष्य की सूचना दे रहा है। तुम्हारा मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा ड फिर तो मैना को अपने और भी भाव प्रकट करने का साहस प्राप्त हुआ, वह बोली मैना—मुनिवर ! मैं आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेकर ब्राह्मी सुन्दरी के पथ पर चलना चाहती हूँ किन्तु परिवार और समाज वाले न जाने क्यों विरोध कर रहे हैं।
महाराज—मैना ! जो आत्मकल्याण का इच्छुक होता है वह इन संघर्षों की परवाह नहीं करता। केवल तुम अपने में दृढ़ रहो सब काम बन जाएगा।
मैना—(मस्तक झुकाकर) गुरुवर का आशीर्वाद मुझे अवश्य शक्ति प्रदान करेगा। इसके कुछ दिन पश्चात् आचार्यश्री का संघ टिकैतनगर से विहार कर गया और बाराबंकी शहर में चातुर्मास हुआ। इधर मैना किसी प्रकार अपना कार्य सिद्ध करना चाहती है क्योंकि घर में उसके विवाह की चर्चाएँ शुरू हो गई हैं कि जल्दी से जल्दी गृहस्थी के बन्धन में इसेफसा दिया जाए। मैना और परिवार वालों में राग वैराग्य का मूक द्वन्द चल रहा है। दोनों पक्ष अपनी—अपनी मनोभावनाओं को सफल करने में लगे हैं। अन्ततोगत्वा एक दिन मैना आचार्यश्री के दर्शन करने जबरदस्ती माता—पिता की आज्ञा लेकर छोटे भाई कैलाशचंद को साथ में लेकर चल दीं। जाते समय माँ कहती हैं—
मोहिनी—(रोती हुई) मैना बेटी, तुम्हीं मेरी सबसे बड़ी सन्तान हो। देखो। यह मालती तो अभी २२ दिन की है, घर में इन सभी बच्चों के अलावा और छोटे—छोटे दो बच्चे हैं, कौन संभालेगा इनको? तुम आज शाम तक जरूर आ जाना।
मैना—(बाहर जाती हुई) हाँ हाँ माँ, तुम चिन्ता मत करो, मैं आ जाऊंगी। चलो कैलाश, नहीं तो बस निकल जाएगी। (भाई बहन दोनों बाराबंकी आचार्यश्री के चरणों में पहुँच गए, दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। बन्धुओं, मैना का यह घर से अंतिम प्रस्थान था। सारा परिवार बाराबंकी में आचार्यश्री और मैना के विरोध में लगा रहा। महमूदाबाद से मैना के दोनों मामा भी आ गए उन्होंने मोह के आवेश में बहुत सारे अपशब्द भी कहे लेकिन मैना टस से मस नहीं हुई। उसने चतुराहार त्याग कर दिया और मंदिर में जाकर भगवान के पास ध्यानस्थ हो गई। अन्तत: मैना की ही विजय हुई। सारा परिवार रोता बिलखता रहा और आश्विन शुक्ला पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) को जब मैना अपने जीवन के १८ वर्ष पूर्ण कर चुकी थी, संयोगवश आज भी वही दिवस था जब मैना ने आचार्यश्री के पास श्रीफल चढ़ाकर सप्तम प्रतिमा के व्रतरूप आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। पास में खड़ी हुई माता मोहिनी आचार्यश्री से निवेदन कर रही हैं।) मोहिनी—महाराज ! इसे समझा दीजिए कि अभी घर में ही रहे अन्यथा इसके पिताजी मुझे बहुत परेशान करेंगे। महाराज ! मैना के बिना मेरा घर उजड़ जाएगा। महाराज—अरे ! बाई, आज तेरा मातृत्व धन्य हो गया। (मुस्कुराकर) मोहिनी, तुमने ही तो पहले इसे धर्मग्रंथ पढ़ा—पढ़ाकर इसके अन्दर ठूंस—ठूंसकर वैराग्य की भावना भर दी और आज तुम मुझसे इसे समझाने को कह रही हो, अरे, इसे तो असली वैराग्य हो चुका है इसे ब्रह्मा भी नहीं हिला सकता।
रोते हुए परिवार वालों का और मैना का संवाद एक गीत में
मैना—अम्मा रूठे पापा रूठे, रूठे भाई और बहना, मैं दीक्षा लेने जाऊँगी, तुम देखते रहना।।
माँ— मानो बेटी बात हमारी, आयू अभी थोड़ी है।
इतनी आयू में क्यों बिटिया त्याग से ममता जोड़ी है।
दीक्षा में हैं कष्ट घनेरे तुमरे बस की ना सहना।
मैं दीक्षा नहिं लेने दूंगी तुम देखती रहना।।
मैना— कष्टों का ही नाम है जीवन, क्यों घबराती हो माता।
झूठे सांसारिक सुख हैं, और झूठा है जग का नाता।
वीरा के चरणों में बीते मेरे दिन और रैना।
मैं दीक्षा लेने जाऊंगी तुम देखते रहना।।
पिताजी— ऐसा ना सोचो बिटिया तुम, बड़े लाड से पाली हो।
सम्पन्न है परिवार ये सारा, फिर भी कोठी खाली हो।
हम बेटी हैं बाप तुम्हारे, कहना मान लो अपना।
मैं दीक्षा नहिं लेने दूँगा, तुम देखती रहना।
सभी भाई— माँ बाप का कहना मानों जीजी, हम सब तुमरे चरण पड़े।
कैसे मन को कड़ा करोगी, जब हम रोएंगे खड़े—खड़े।।
रक्षाबन्धन जब आएगा, मेरे याद आए बहिना।
हम दीक्षा नहिं लेने देंगे, तुम देखती रहना।।
अन्य कोई— समझाया सब घर वालों ने, कोई रहा नहीं बाकी।
छोटा भाई भी रोता आया, हाथ में लेके इक राखी।।
इसको बहना बांधती जाओ, ये है प्यार का गहना।
ये दीक्षा लेने जाएंगी, सब देखते रहना।
सभी लोग अनन्य प्रयास करने के बावजूद भी मैना को वापस घर नहीं ले जा सके, हारकर सबको वापस घर जाना पड़ा। मैना तो अब रात—दिन अपना सम्पूर्ण समय ज्ञान ध्यान में बिताती थी। ब्रह्मचारिणी के वेश में एक आर्यिका का ही रूप थी। फिर कुछ ही दिनों में महावीरजी तीर्थक्षेत्र पर उन्हें दीक्षा भी मिल गई और बन गर्इं क्षुल्लिका वीरमती जी। आचार्यश्री से क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त कर लगभग दो—ढाई वर्षों के बाद चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की सल्लेखना देखने के लिए क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी के साथ यह कुंथुलगिरि पहुँचीं। वहाँ पर आचार्यश्री का आशीर्वाद और शिक्षाएँ प्राप्त कीं। पुन: उनकी समाधि के पश्चात् उन्हीं के पट्ट शिष्य आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के पास माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा प्राप्त की। तब से पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में साधु जगत में अलौकिक कार्यों के द्वारा अपना नाम अमर कर रही हैं।
समय :— मध्याह्न मोहिनी अपने घर में विचारमग्न हैं क्योंकि मैना के घर से जाने के ९—१० वर्ष पश्चात् उनकी एक पुत्री मनोवती भी गृहबन्धन को ठुकराकर ज्ञानमती माताजी के पास चली गई थीं। उन्होंने भी धीरे—धीरे दीक्षा धारण कर ली और आर्यिका श्री अभयमती माताजी बन गर्इं। ड दोनों माताजी के चित्र रखें अब तक मोहिनी १३ संतानों की माँ बन चुकीं थीं और गृहस्थी के खट्टे— मीठे अनुभवों से एवं अपनी दो—दो पुत्रियाँ के दीक्षा ले लेने पर उनका मन घर में नहीं लगता था। गृहस्थी की जिम्मेदारी होने के नाते उन्होंने पुत्रों एवं पुत्रियों कैलाश, श्रीमती, कुमुदनी, कामिनी, प्रकाश, सुभाष आदि के विवाह कर दिए। २५ सितम्बर सन् १९७० में इनके पति श्री छोटेलाल जी का स्वर्गवास हो गया। उस समय मोहिनी ने अपने असली कर्तव्य का निर्वाह किया। उन्होंने महामंत्र का पाठ सुनाते हुए एक साध्वी की तरह उनकी समाधि कराई। एक वर्ष बाद माँ को घर में विक्षिप्त देखकर एक दिन बड़े पुत्र कैलाशचन्द्र माँ से बोले—
कैलाशचंद—माँ, आप कहें तो कुछ दिन ज्ञानमती माताजी के पास चलकर साधुओं के दर्शन किए जाएं।
माँ—(प्रसन्नतापूर्वक) बेटा ! तुमने तो मेरे मन की बात कह दी। मैं यही सोच रही थी। देखो ! तुम्हारे पिताजी भी मुझे लेकर माताजी के पास जाकर १५—१५ दिन चौका लगाते थे। चलो, बहू को भी साथ में ले चलो फिर हम सब साधुओं की वैयावृत्ति कर धर्मलाभ प्राप्त करेंगे। लेकिन पता नहीं, कहाँ होंगी आजकल ज्ञानमती माताजी ?
कैलाशचन्द—माँ, मुझे पता है माताजी कहां पर हैं। इतना कहकर उन्होंने जाने की तैयारी की और माँ, पत्नी, पुत्र आदि के साथ—साथ छोटी बहन कु. माधुरी और त्रिशला को साथ लेकर अजमेर (राज.) में पूज्य माताजी के पास आ गए। वहाँ आचार्यश्री एवं समस्त संघ के दर्शन किए। बस दूसरे दिन से ही सास—बहू दोनों ने मिलकर चौका लगाना शुरू कर दिया। चौके में प्रतिदिन २—४ साधुओं का पड़गाहन होता, माँ मोहिनी आहारदान देकर फूली नहीं समाती। चौके से बचा शेष समय मोहिनी अपनी पुत्री ज्ञानमती माताजी और अभयमती माताजी के पास बितातीं। कैलाशचंद मुनियों की वैयावृत्ति का लाभ प्राप्त करते रहे। पर्यूषण पर्व भी सम्पन्न हो गया। इस प्रकार १५ दिन देखते—देखते निकल गए तब एक दिन कैलाशचन्द ने माँ से कहा—
कैलाशचन्द—माँ, अब कई दिन हो गए हैं। आपकी आज्ञा हो तो घर चलने को प्रोग्राम बनाया जाए।
माँ—हाँ, अब तुम्हारे व्यापार का भी समय आ गया है। घर में सब बच्चे भी इन्तजार करते होंगे। कैलाश और बहू ने मिलकर सारा सामान बांध लिया। वापस जाने का दिवस भी आ गया तो कैलाश ने माँ से कहा—
कैलाशचन्द—माँ, समय हो रहा है घर चलने का। अभी तक तुम्हारा सामान भी नहीं बंधा, लाओ मैं जल्दी—जल्दी बांध देता हूँ।
माँ— कुछ रूआंसी हैं बेटा, मेरी इच्छा है कि मैं अब कुछ दिन ज्ञानमती माताजी के पास रहकर इनकी सेवा कर लूं। देखो, ये चौबीस घण्टे अपने शिष्य—शिष्याओं को पढ़ाती रहती हैं, कैसी कमजोर हो गई हैं ? मेरी बेटी जब से घर से निकली है मैंने कभी भी तो इसकी खबर नहीं ली है।
कैलाशचन्द—(घबड़ाते हुए ) ओह माँ, यह आप क्या कह रही हैं ? घर में पिताजी भी नहीं हैं। ( रोते हुए) और आप भी इस तरह हम लोगों को छोड़ देंगी। नहीं, नहीं, मैं अकेला घर नहीं जा सकता, सब भाई मुझे क्या कहेंगे? जल्दी चलो माँ जल्दी चलो, अब मैं तुम्हें यहाँ कभी नहीं लाऊंगा, नहीं तो ज्ञानमती माताजी ऐसी चुम्बक हैं कि वे तुम्हें हम सबसे छीन लेंगी।
बहू—माँ के पैर पकड़कर रोती हुई मांजी ! हम लोग इन चरणों के बिना कैसे रह सकते हैं ? फिर यहाँ आपकी सेवा भी कौन करेगा ? आप तो ज्ञानमती माताजी से भी ज्यादा कमजोर हैं। आपको अपनी सेहत का भी कुछ पता नहीं है, माँ ! मैं आपको लिए बिना घर नहीं जा सकती।
माँ—बेटे ! तुम लोग इतने अधीर क्यों हो रहे हो ? (थोड़े दिन में) किसी बच्चे को भेज देना मैं आ जाऊँगी।
कैलाशचन्द—अरे माँ ! क्या भरोसा ! यहाँ माताजी की संगति में रहकर कहीं आप भी वैसी ही न बन जाएं, मुझे सन्देह हो रहा है।
माँ—दीक्षा लेना कोई हंसी मजाक है क्या ? ( थोड़ी नाराजी की मुद्रा में।) तुम लोग कुछ भी कहो, मैंने काफी जिन्दगी तुम सबकी सेवा कर ली, अब क्या मैं अपनी इच्छा से कुछ दिन यहाँ नहीं रह सकती ? मैं अभी तो घर जाऊंगी नहीं। सारी उम्र तुम्हारे पिताजी की आज्ञा पालन में बिताई तो क्या अब बेटों की आज्ञा में मुझे रहना पड़ेगा ?
कैलाशचन्द—(कुछ सहमे हुए) नहीं माँ ! मेरा कोई ऐसा गलत अभिप्राय नहीं है। मुझे तुम पर पूरा विश्वास है कि १०—१५ दिन बाद जब मैं छोटे भाई को यहाँ भेजूंगा तब तुम उसके साथ जरूर आ जाओगी। ड प्रश्न भरी मुद्रा से माँ को देखते हुए।
माँ—हाँ बेटा, तुम समझदार हो। देखो, अब मुझे भी तो अपनी आत्मा के लिए कुछ पुरुषार्थ करना चाहिए। वैसे मैं थोड़े ही दिन में जरूर आ जाऊंगी, तुम चिन्ता मत करना। बड़े भाई के नाते परिवार में सबके साथ पिता जैसे कर्तव्य को निभाना। उदासचित्त मन में विश्वास का दीप जलाकर कैलाश अपने परिवार के साथ छोटी बहन माधुरी और त्रिशला को लेकर घर आ गए। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि अजमेर के इस प्रवास के मध्य १३ वर्षीय कु. माधुरी ने ज्ञानमती माताजी के पास अपनी कुछ त्याग भावना को बतलाकर उनकी प्रेरणा से किसी से पूछे बिना ही सुगन्धदशमी के दिन चुपचाप आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया जिसकी प्रकटता काफी दिनों बाद हुई। आज वह माताजी के पास ही गृहविरक्त होकर सप्तम प्रतिमा आदि व्रतों का निर्वहन कर दीक्षा धारण कर आर्यिका चन्दनामती के रूप में मैं स्वयं पूज्य माताजी की छत्रछाया में ज्ञानार्जन कर रही हैं। घर में कैलाशचन्द के वापस आने पर माँ के नहीं आने का समाचार सुनकर सब भाई—भाभियाँ और बच्चे बहुत दु:खी हुए। बड़े भाई कैलाश ने अपने स्नेह से सान्त्वना प्रदान की और दिन बीतने लगे। लगभग एक महीना निकल गया। एक दिन प्रकाशचन्द ने कहा—
प्रकाशचंद—भैया, अब मैं माँ को लेने जाऊँगा। ड शाम के समय सभी भाई बैठकर प्रकाश को अजमेर भेजने का कार्यक्रम बनाते हैं कि दो दिन बाद ये माँ को लेने जाएंगे किन्तु दूसरे ही दिन अकस्मात् अजमेर से एक श्रावक पत्र लेकर आए।
कैलाशचन्द—घर में आकर घबड़ाए हुए स्वर में भाईयों, यह क्या हुआ ? अमजेर से पत्र आया है कि अगहन वदी तीज को तुम्हारी माँ की दीक्षा है ? ओह ! आखिर वही हुआ न जिसकी मुझे आशंका थी।
प्रकाशचन्द—ड गुस्से से भरे हुए देखता हूँ कैसे दीक्षा दी जाती है ? मैं आज ही जाता हूँ आचार्यश्री के विरोध में बड़े—बड़े पोस्टर छपवाकर सारे अजमेर में तहलका मचा दूँगा।
सुभाषचन्द—हाँ, दीक्षा देना कोई हंसी खेल है। बिना हम लोगों की अनुमति के दीक्षा देने वाले आचार्य कौन होते हैं ? हम सब जबरदस्ती माँ को पकड़कर घर ले आएंगे। गुस्से में ये जैन साधु किसी की घर गृहस्थी को उजड़ते हुए देखकर तरस भी नहीं खाते हैं। ओह ! यह कैसी अनहोनी हो रही है, भगवान् तुम जरूर हमारा साथ देना। यहाँ यह ज्ञात करना आवश्यक होगा कि चौथे भाई रवीन्द्र कुमार जो कुंवारे थे, वे बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर कुछ दिन पूर्व ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने गए थे तब माताजी ने उन्हें धार्मिक शास्त्री परीक्षा का कोर्स पढ़ने के लिए रोक लिया था। अजमेर में इस समय रवीन्द्र मौजूद थे और माँ की दीक्षा का खूब विरोध कर रहे थे, तभी इधर से सारा परिवार भी अजमेर पहुँच गया। महमूदाबाद से मोहिनी के छोटे भाई भगवानदास और न जाने कितने लोग पहुँच गये। अजमेर का उस समय का करुण क्रन्दन जनमानस के हृदय को विदीर्ण कर देता था। सभी बेटियाँ, दामाद, बेटे, बहुएँ, नाती, पोते मोहिनी को पकड़—पकड़कर करुण विलाप कर रहे थे।
भाई भगवानदास खड़े—खड़े रोते हुए बहन की भिक्षा माँग रहे थे। पुत्र सुभाषचन्द तो बेहोश पड़े थे, बच्चे दादी—दादी कहकर बिलख रहे थे जिन्हें देखने वाला हर व्यक्ति रो—रोकर आचार्यश्री से कहता था कि महाराज यह दीक्षा कभी नहीं होनी चाहिए, आप तो करुणा के सागर हैं, इन बच्चों को इनकी माँ वापस दे दीजिए। इक बार सभी के होठों से , यह शब्द अवश्य निकल जाता। ऐसी दीक्षा मत होने दो इनको दे दी इनकी माता।। आचार्यश्री भी धर्मसंकट में थे किन्तु मोहिनी तो मानो हाड़—माँस की नहीं पत्थर की बन गई थीं। वे सबसे पीछा छुड़ाने के लिए चतुराहार त्यागकर बैठ गईं। अब सभी परिवारजन ज्ञानमती माताजी के पास जाकर यद्वा—तद्वा बकने लगे और माँ को छुड़ाने का सारा श्रेय माताजी को ही दिया।
‘‘लेकिन मोहिनी प्रतिज्ञा का, पालन करके दिखलाएगी।
मोहिनी आज निर्मोहिनि बन, गृह पिंजड़े से उड़ जाएगी।।’’
अन्ततोगत्वा सबके प्रयास असफल रहे। मोहिनी की दृढ़ प्रतिज्ञा के आगे सबको झुकना पड़ा और निश्चित तिथि के अनुसार आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज ने उन्हें दीक्षा प्रदान करके ‘‘र्आियका रत्नमती’’ नाम घोषित किया। लगभग ५० हजार की विशाल भीड़ के सामने ऊँचे मंच पर माँ मोहिनी का कैशलोंच उनकी ही पुत्रियों आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी एवं श्री अभयमती माताजी ने किया और अब मोहिनी जगत्माता ‘‘रत्नमती’’ बन गर्इं। माँ की दीक्षा के ३—४ महीने के पश्चात् ही रवीन्द्र कुमार ने आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज से नागौर (राज.) में आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत प्राप्त कर लिया जो ज्ञानमती माताजी के पास रहकर प्रारम्भ से ही जम्बूद्वीप रचना निर्माण के मूल स्तम्भ रहे हैं और आज भी दशवीं प्रतिमा के व्रत लेकर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अध्यक्ष पदभार और अनेक संस्थाओं के उत्तरदायित्व को संभालते हुए संस्थान की चहुँमुखी प्रगति में संलग्न हैं।़ यह पूज्य रत्नमती माताजी का अति संक्षिप्त जीवन परिचय दर्शाया गया। उनकी १३ सन्तानों में से ४ सन्तानों ने अपना जीवन धर्म एवं समाज सेवा के लिए तथा निज आत्मकल्याण के लिए सर्मिपत किया। पूज्य माताजी के जीवन की सर्वाधिक विशेषता यही रही कि उन्होंने गृहस्थ के समस्त कर्तव्य पालन के पश्चात् ५८ वर्ष की उम्र में र्आियका दीक्षा धारण कर अपने जीवन को सफल बनाया एवं अपनी निर्दोष चर्या का पालन करते हुए १५ जनवरी १९८५ को हस्तिनापुर में सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण करके अपने नरभवरूपी स्वर्णमन्दिर के ऊपर मणिमयी कलश का आरोहण किया। धन्य हैं वह रत्नप्रसूता माता, माता रत्नमती। अब इस संसार में उनके द्वारा प्रदत्त रत्न दिव्य ज्ञानमयी प्रकाश प्रदान कर रहे हैं।
गीत अन्त में सभी पात्र मिलकर गीत गाते हैं
-शेरछंद-
सुखपाल जी दहेज में यदि ग्रंथ न देते,
तो रत्नमती माँ के हमें दर्श न होते।
उस शास्त्र ने जो रत्नमति को बोध दे दिया,
उस बोध ने ही ज्ञानमति को गोद में दिया।।१।।
जिसने धरा में ज्ञान का प्रकाश भर दिया,
निज आत्मा का त्याग से विकास कर लिया।
कितने ही भव्य जीवों को आदर्श बनाया, मुनि,
आर्यिका, श्रावक बना शिवमार्ग बताया।।२।।
तुम भी दहेज देते समय ध्यान ये रखना,
कन्या के हाथ में धरम का ग्रंथ भी रखना।
लाखों की संपत्ती से अधिक वह अमोल है,
माँ रत्नमती जीवनी का यही मूल्य है।।३।।