उत्तर प्रदेश का फतेहपुर जनपद पूर्व में कौशाम्बी तथा पश्चिम में कानपुर नगर व कानपुर देहात जनपदों के मध्य स्थित है। इसकी उत्तरी व दक्षिणी सीमाएँ गंगा तथा यमुना नदियों द्वारा रेखांकित होती हैं। यद्यपि क्षेत्रफल में यह छोटा, किन्तु पुरातात्विक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण भूभाग है। छठीं शताब्दी ई.पू. में यह क्षेत्र वत्स महाजन पद का अभिन्न अंग था। जैन परम्परा के अनुसार छठें तीर्थंकर पद्मप्रभ का जन्म कौशाम्बी में हुआ था, किन्तु उन्होंने कौशाम्बी से ८ किमी. पश्चिम स्थित प्रभासगिरि (पभोसा) में तप किया और वहीं एक वट (प्रियंगु) वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्यज्ञान मिला था। यमुना तट पर प्रभासगिरि से सटा एक वट वृक्ष आज भी स्थित है। सम्भवत: यह वृक्ष उसी मूल वृक्ष के स्थान पर है जिसकी छाया में पद्मप्रभ को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ था। सम्भवत: इसी कारण अहिछत्र के शासक आषाढसेन ने द्वितीय शताब्दी ई.पू. में इस वटवृक्ष के ठीक ऊपर काश्यपीय अर्हतों के प्रयोगार्थ गुफा का निर्माण एवं जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण कराया था। प्राचीन काल में प्रभासगिरि ‘सहस्राम्रवन’ के नाम से भी विख्यात था। कालान्तर में यमुना नदी के वाम तट पर स्थित उक्त दोनों ही स्थान जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र बन गये थे और वहाँ से जल मार्ग द्वारा जैन धर्म का प्रचार—प्रसार सम्पूर्ण उत्तर भारत में हुआ था। यद्यपि फतेहपुर जनपद में अब तक अनेक ब्राह्मण धर्मी पुरास्थल प्रकाश में आये हैं, किन्तु आश्चर्य है कि असोथर के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थान से जैन धर्म सम्बन्धित पुरावशेष जैसे स्तूप, मन्दिर, मूर्तियाँ आदि नहीं मिले। असोथर (२५० ४५’ उत्तर— ८०० ५३’ पूर्व) जिला मुख्यालय से लगभग ३६ किमी. दक्षिण—पूर्व में छोटा सा कस्बा है। फतेहपुर में वहाँ सड़क मार्ग से पहुँचा जा सकता है। यमुना नदी के निकट स्थित होने के कारण सम्भव है कि पूर्वमध्यकाल में जैन साधु एवं साध्वियाँ कौशाम्बी एवं पभोसा से जलमार्ग द्वारा असोथर अपने शिष्यों एवं शिक्षिकाओं को धार्मिक शिक्षा देने हेतु प्राय: यात्रा किया करते थे। असोथर स्थित दिगम्बर जैन प्रतिमाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है—
(१) मस्तक विहीन ऋषभनाथ की यह प्रतिमा पद्मासन में सिंहासनारूढ़ है। दोनों भुजाएँ व पैर आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हैं। लांक्ष्ना वृषभ दाहिनी ओर मुख किये चरण चौकी के नीचे अंकित है।दो बैठे सिंहों के मध्य धर्मचक्र उत्कीर्ण है। प्रतिमा के ऊध्र्वभाग में अलंकृत प्रभामण्डल तथा क्षतिग्रस्त त्रिछत्र हैं। परिकर के उपरी भाग में विभिन्न देवताओं, विद्याधरों आदि की क्षतिग्रस्त आकृतियाँ हैं। मूल नायक के पार्श्व भाग में उत्कीर्ण पंच परमेष्ठियों की आकृतियाँ क्षतिग्रस्त दशा में हैं। बलुआ पत्थर पर निर्मित इस प्रतिमा का आकार १४३ सेंर्मी. ४३ सेमी. है। कला की दृष्टि से इसका काल १०वीं शती ई. निर्धारित करना सम्भव है। वर्तमान में यह पांचों पाण्डव नामक चबूतरे पर स्थापित है।(चित्र १)
(२) मस्तक विहीन जैन तीर्थंकर प्रतिमा एक अलंकृत पीठ पर पद्मासन में है जिनका दाहिना हाथ, वक्षस्थल तथा त्रिछत्र पूर्णत: क्षतिग्रस्त हैं। बायाँ हाथ व दोनों पैर आंशिक रूप से टूटे हैं। उनका लांछन तथा दो बैठे सिंहों के मध्य उत्कीर्ण धर्मचक्र पूर्ण रूप से नष्ट हो गये हैं। उनके पाश्र्व भाग में उत्कीर्ण पंचपरमेष्ठियों की आकृतियाँ आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हैं। उनके पृष्ठ भाग में कमलाकार प्रभामण्डल उत्कीर्ण है।प्रतिमा के ऊध्र्व भाग में हाथी पर आरूढ़ इन्द्र तथा एक अन्य देवता दर्शाये गये हैं। परिकर के वाम भाग में उत्कीर्ण रथिका का एक अलंकृत स्तम्भ कमलशीर्ष से युक्त है। शिखर का मध्य लहर भाग चन्द्रशालिकाआ द्वारा निर्मित जाल से आच्छादित है। बलुआ पत्थर पर निर्मित इस प्रतिमा का आकार १३५ सेंर्मी. १७ सेमी. है। शैली के आधार पर इसका काल निर्धारण १०वीं शती ई. में करना उचित होगा। वर्तमान में यह पाँचों पाण्डव नामक चबूतरे पर स्थापित है।(चित्र २)
(३) मस्तक विहीन नेमिनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में एक पूर्ण विकसित कमल के मध्य स्थित है। त्रिरथ पादपीठ के मध्य भाग में दो शंखों के मध्य एक कलात्मक धर्मचक्र उत्कीर्ण है। नेमिनाथ के लांछन शंख को दर्शाने की यह शैली सर्वप्रथम राजगृह स्थित गुप्तकालीन नेमिनाथ की मूर्ति में दृष्टिगोचर होती है। त्रिरथ पादपीठ के पार्श्वभाग में विभिन्न दृश्य, नृत्य आदि अंकित हैं। नेमिनाथ की दोनों भुजाएँ, धड़ का ऊपरी भाग व दोनों पैर क्षतिग्रस्त हैं। नेमिनाथ के दोनों पार्श्वभाग में पंच परमेष्ठियों एवं चामरधारी यक्षों की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण थी, जो अब क्षतिग्रस्त हैं। बलुआ पत्थर पर निर्मित इस प्रतिमा का आकार १४० सेंर्मी. ४३ सेमी. है। कला के आधार पर इसे १०वीं शती ई. में रखना सम्भव है। वर्तमान में यह पाँचों पाण्डव नामक चबूतरे पर स्थापित है।(चित्र ३)
(४) किसी खण्डित तीर्थंकर प्रतिमा का मस्तक, जिसके केश कुंचित तथा अर्धमीलित नेत्र ध्यानावस्था में हैं । बलुआ पत्थर पर निर्मित इस प्रतिमा का आकार २० सेंर्मी. १७ सेमी. है। कलात्मक दृष्टि से इसका समय १०वीं शती है। वर्तमान में यह पाँचों पाण्डव नामक चबूतरे पर स्थापित है। उक्त चार प्रतिमाओं के अतिरिक्त कुछ मस्तकविहिन जैन तीर्थंकर प्रतिमाएँ कस्बे के बाहर दक्षिण दिशा में खेतों में भी पड़ी हैं। उनका अभी तक अध्ययन नहीं हुआ है। सन्दर्भित प्रतिमाओं के आधार पर यह कहना युक्तिसंगत होगा कि पूर्वमध्यकाल में दिगम्बर जैन मतावलम्बियों का असोथर में वास था और उन्होंने कतिपय जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। उस समय प्रभासगिरि जैन मूर्तिकला का महत्वपूर्ण निर्माण केन्द्र था। अतएव पूर्ण सम्भावना है कि असोथर स्थित जैन प्रतिमाओं का निर्माण प्रभासगिरि के शिल्पियों द्वारा किया गया था। और वहाँ से जलमार्ग द्वारा असोथर लाई गई थीं। असोथर के जैन मन्दिरों एवं उनकी मूर्तियों का संहार सम्भवत: तुर्क आक्रमणकारियों द्वारा १०वीं—११वीं शती ई. में हुआ था। यह मूर्तियाँ इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि फतेहपुर जनपद में अन्य किसी स्थान में जैन प्रतिमाएँ अभी तक प्रकाश में नही आयी हैं। इसके सम्भवत: दो कारण हो सकते हैं। प्रथम, पूर्वमध्यकाल में इस भूभाग में ब्राह्मण धर्म इतना अधिक प्रबल था कि बौद्ध व जैन धर्म जैसे सम्प्रदाय यहाँ परिपल्लवित नहीं हो सके।द्वितीय इस जनपद का पुरातात्विक सर्वेक्षण अभी तक उचित ढंग से संपादित नहीं हुआ है। यदि भविष्य में इस क्षेत्र का सघन सर्वेक्षण किया जाये तो बौद्ध एवं जैन पुरावशेषों के प्रकाश में आने की पूर्ण सम्भावना है।