अस्ति का अर्थ है-विद्यमान है और काय का अर्थ है-‘शरीर’। यद्यपि सामान्य भाषा में चमड़ी, हड्डी आदि के शरीर को काय कहते हैं, लेकिन यहाँ एक प्रदेश (एक अणु द्वारा घेरे जाने वाला स्थान) से अधिक प्रदेश वाले पदार्थों को काय कहा गया है। जैसे शरीर बहुप्रदेशी है, वैसे ही काल द्रव्य के अतिरिक्त शेष ५ द्रव्य भी बहुप्रदेशी हैं अर्थात् इन पांचों द्रव्यों में एक से अधिक प्रदेश होते हैं और जो द्रव्य सत्ता रूप होकर बहुप्रदेशी हो, वह अस्तिकाय है इसलिये इन पांचों द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश) को अस्तिकाय कहते हैं।
काल द्रव्य के परमाणु असंख्य होने पर भी ये सभी अलग-अलग रहते हैं और परस्पर कभी नहीं मिलते हैं। काल परमाणुओं में परस्पर मिलकर बहुप्रदेशी होने की योग्यता नहीं है अतः काल द्रव्य को काय नहीं कहा जाता है। शेष ५ द्रव्यों के प्रदेश एक दूसरे से मिले रहते हैं अतः वे अस्तिकाय हैं।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश पांच अस्तिकाय हैं। इन्हें ही पंचास्तिकाय कहते हैं।
आगमों में स्थान-स्थान पर विश्व व्यवस्था के संदर्भ में अस्तिकाय शब्द का प्रयोग हुआ है। अस्तिकाय जैन दर्शन का एक महत्वपूर्ण एवं पारिभाषिक शब्द है। अस्तिकाय शब्द अस्ति और काय इन दो शब्दों से बना है। यहाँ अस्ति का अर्थ प्रदेश और काय का अर्थ समूह से किया गया है अत: अस्तिकाय का अर्थ प्रदेशसमूह या अवयव समुदाय है। प्रत्येक द्रव्य का सबसे छोटा अर्थात् परमाणु जितना भाग प्रदेश कहलाता है। उनका काय अर्थात् समूह ही अस्तिकाय है। धर्म-अधर्म, आकाश और जीव के प्रदेशों का विघटन नहीं होता इसलिए वे अविभागी द्रव्य हैं। ये अवयवी इस दृष्टि से हैं कि इनके परमाणु तुल्य खण्डों की कल्पना की जाये, तो वे असंख्य होते हैं। पुद्गल विभागी द्रव्य है। उसका सबसे सूक्ष्म, शुद्ध एवं अविभाज्य रूप परमाणु है। परमाणु मिलते हैं और अलग होते हैं। इसका मतलब यह है कि परमाणु के स्कंध बनते हैं और वे टूटते भी हैं। कोई स्कंध शाश्वत नहीं है क्योंकि जो उत्पन्न होता है वह नष्ट भी होता है। जिस स्कंध में जितने परमाणु होते हैं, वह उतना ही प्रदेश होता है। द्विप्रदेशी स्कंध में दो प्रदेश, त्रिप्रदेशी स्कंध में तीन प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कंध होते हैं।
अस्तिकाय का त्रैकालिक अस्तित्व है। वे नित्य तथा त्रैकालिक भाव परिणत हैं।
एवं छब्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दव्वं।
उत्तं कालविजुत्तं, णायव्वा पंच अत्थिकाया दु।।२३।।
इस विधि से ये छह भेद रूप, जो द्रव्य कहे परमागम में।
वे जीव अजीवों के प्रभेद, से ही माने जिनशासन में।।
इनमें से कालद्रव्य वर्जित, जो पाँच द्रव्य रह जाते हैं।
वे ही अर्हंतदेव भाषित, पंचास्तिकाय कहलाते हैं।।२३।।
मूल में द्रव्य के जीव और अजीव ये दो ही भेद हैं। इसी में अजीव के पाँच भेद होने से द्रव्य के जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह भेद हो जाते हैं।
इन छहों द्रव्यों में काल द्रव्य को छोड़कर पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। ग्रंथकार स्वयं अस्तिकाय का लक्षण बतलाते हैं-
संति जदो तेणेदे, अत्थीति भणंति जिणवरा जम्हा।
काया इव बहुदेसा, तम्हा काया या अत्थिकाया य।।२४।।
जिस हेतू से ये ‘सन्ति’ हैं, इस हेतू से ही ‘अस्ति’ कहे।
इस विध श्रीजिनवर कहते हैं, ये विद्यमान ही सदा रहें।।
ये बहुप्रदेशयुत काय सदृश, इसलिए ‘काय’ माने जाते।
दोनों पद मिलकर ‘अस्तिकाय’, संज्ञा से ये जाने जाते।।२४।।
ये द्रव्य ‘सन्ति’ अर्थात् विद्यमान हैं इसलिए इन्हें ‘अस्ति’ अर्थात् ‘हैं’ ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव कहते हैं और जिस हेतु से ये काय-शरीर के समान बहुत प्रदेशी हैं उसी हेतु से ये काय इस नाम को प्राप्त हैं अत: ये पाँच द्रव्य ‘अस्तिकाय’ इस सार्थक नाम वाले हैं।
यद्यपि इन पाँचों द्रव्यों में संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदि से परस्पर में भेद है फिर भी अस्तित्व की अपेक्षा से अभेद है अर्थात् अस्तित्व की दृष्टि से सभी द्रव्य एक रूप ही हैं। इसी अस्तित्व को न समझकर ही ब्रह्माद्वैत आदि ‘अद्वैत’ मतों की स्थापना हो गई है।
प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष ऐसे दो प्रकार के गुण माने गये हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं और ज्ञान, दर्शन, रूप, रस आदि विशेष गुण हैं। शुद्ध जीवास्तिकाय में सिद्धत्व लक्षण शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है, केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं और इसी शुद्ध मुक्त जीव में अस्तित्व आदि सामान्य गुण हैं। ऐसे ही सिद्धजीव में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी होते हैं। उनमें अव्याबाध, अनंतसुख आदि अनंत गुणों की प्रगटतारूप कार्यसमयसार का उत्पाद हुआ है। रागादि विभाव रहित परमस्वास्थ्यरूप कारणसमयसार का विनाश हो गया है और कार्य-कारण समयसार दोनों के आधारभूत परमात्म द्रव्यरूप से वो ही आत्मा ध्रौव्य स्थिररूप हैं। ये तीनों एक ही समय में होते हैं।
जैसे-गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षण से सहित सिद्ध जीवों का अस्तित्व है, वैसे ही संसार अवस्था में अशुद्ध गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से सहित सम्पूर्ण जीव समूह का भी अस्तित्व है। ऐसे ही सभी द्रव्यों का भी अस्तित्व है अत: शुद्ध-अशुद्ध सभी द्रव्यों में अस्तित्व गुण समान रूप से पाया जाता है।
इस कारण छहों द्रव्य अस्तिरूप हैं किन्तु काय का लक्षण काल द्रव्य में घटित न होने से उसे छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायरूप हैं अत: पाँच द्रव्य ही ‘अस्तिकाय’ कहलाते हैं। बहुत से प्रदेशों का प्रचय (समूह) जिसमें पाया जाए, उसे ही काय संज्ञा है।
अब इसे स्पष्ट करते हैं-
होति असंखा जीवे, धम्माधम्मे अणंत आयासे।
मुत्ते तिविह पदेसा, कालस्सेगो ण तेण सो काओ।।२५।।
इक जीव धर्म व अधर्म में, माने प्रदेश हैं असंख्यात।
नभ में अनंत होते प्रदेश, औ लोकाकाश में असंख्यात।।
पुद्गल में त्रिविध प्रदेश कहे, जो संख्य असंख्य अनंते भी।
बस काल में एक प्रदेश कहा, नहिं काय नाम है अत: सही।।२५।।
एक जीव द्रव्य में, धर्मद्रव्य में और अधर्मद्रव्य में असंख्यात प्रदेश होते हैं। एक जीव में असंख्यात प्रदेश हैं यदि वे पैâल जावें तो लोकाकाश प्रमाण हो जाएं किन्तु संसार अवस्था में कर्म से सहित जीव को जितना छोटा या बड़ा शरीर मिलता है उतने ही प्रमाण में संकुचित होकर या विस्तृत होकर रहते हैं, शरीर से बाहर नहीं जाते हैं। आगम में सात प्रकार के समुद्घात कहे हैं। उन प्रसंगों में आत्मा से बाहर भी प्रदेश चले जाते हैं तथा इसी में एक केवली समुद्घात है उसकी अपेक्षा से जीव के प्रदेश पूरे लोकाकाश में पैâल जाते हैं। आकाश द्रव्य में अनंत प्रदेश हैं अर्थात् आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं। उनमें से लोकाकाश में एक जीव के बराबर असंख्यात प्रदेश हैं और अलोकाकाश में अनंत प्रदेश हैं। मूर्तिक पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनंत ऐसे तीनों प्रकार के प्रदेश हैं। काल द्रव्य का एक प्रदेश होता है इसीलिए वह ‘काय’ नहीं कहलाता है। तात्पर्य यही है कि कालद्रव्य एकप्रदेशी होने से ‘काय’ नहीं है इसीलिए वह द्रव्य तो है किन्तु अस्तिकाय नहीं है। इस बात से यह शंका सहज ही हो जाती है कि पुद्गल का परमाणु भी ‘एक प्रदेशी है’ उसे भी ‘काय’ नहीं कहना चाहिए। उसी के समाधान में आचार्य कहते हैं-
एयपदेसो वि अणू, णाणाखंधप्पदेसदो होदि।
बहुदेसो उवयारा, तेण य काओ भणंति सव्वण्हू।।२६।।
जो एकप्रदेशी भी अणु है, वह कारण बहु स्कंधों का।
उपचार विधी से कहलाता, वह बहुत प्रदेशी जो होगा।।
इसलिए काय संज्ञा अणु की, सर्वज्ञदेव बतलाते हैं।
पर कालद्रव्य में बहुप्रदेश, की शक्ती भी नहिं पाते हैं।।२६।।
अणु-परमाणु यद्यपि एक प्रदेश वाला है फिर भी वह अनेक प्रदेशी स्कंधों का कारण है अर्थात् आगे द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि होकर अनेक प्रदेशी स्कंध बन सकता है इसीलिए वह अणु भी उपचार से बहुप्रदेशी माना जाता है अत: यह अणु भी ‘काय’ संज्ञक होने से अस्तिकाय है किन्तु काल द्रव्य कभी भी दो आदि बहुत प्रदेश वाला नहीं हो सकता है, यही कारण है कि वह ‘अस्ति’ तो है किन्तु ‘काय’ नहीं है।