मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।
पयदस्स णत्थि बंधो, िंहसामेत्तेण समिदस्स।।
—प्रवचनसार : ३-१७ ८०३
बाहर से प्राणी मरे या जीये, अयतनाचारी—प्रमत्त को अंदर से हिंसा निश्चित है। परन्तु जो अिंहसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समिति वाला है, उसको बाहर में प्राणी की िंहसा होने मात्र से कर्मबंध नहीं है, अर्थात् वह िंहसक नहीं है।
(चीजें) उठाने—रखने में, मल—मूत्रादि त्याग करने में, उठने—बैठने व चलने—फिरने में तथा शयन करने में जो दया—भाव से काम लेते हुए सदैव अप्रमत्त रहता है, वह अिंहसक ही हुआ करता है।