अहिंसा की प्राचीन अवधारणा का संबंध हमारे धर्म से है। जो युगों–युगों से अविरल रूप से हमारे सामने आज भी जीवंत है। भारत में आधुनिक युग में भी ऐसे अनेक महापुरुष हुये हैं जिन्होंने चिन्तन में तथा जीवन के प्रयोगों में अहिंसा को जिया है। उनमें कतिपय चिन्तक और सन्तों के विचारबिन्दु निष्कर्ष के रूप में यहाँ प्रस्तुत हैं-
आचार्य श्री शान्तिसागरजी मुनिराज दिगम्बर जैन परम्परा के एक महान् तपस्वी आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आप अहिंसा महाव्रत के जीवन्त प्रतीक थे। आपका जन्म बुधवार, २५ जुलाई १८७२ को भोजग्राम, दक्षिण भारत में हुआ था। बाल्यकाल से ही आप धार्मिक प्रवृत्ति के थे। घर में रहकर भी जीवन को धर्म की साधना में लगाते थे। आप भगवान महावीर की परम वीतरागी नग्न दिगम्बर दशा की उत्कृष्ट साधना को अपने जीवन में उतारना चाहते थे। आत्मकल्याण के उद्देश्य से आपने गृहस्थावस्था का त्याग कर दिया और २५ जून १९१५ को क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। १५ जनवरी १९१९ को ऐलक दीक्षा ग्रहण की और २ मार्च १९२० को आप मुनि दीक्षा ग्रहण कर नग्न दिगम्बर हो गये। बुधवार, ०८ अक्टूबर १९२४ को आप आचार्य बने।
आपकी चारित्रिक तपस्या की उत्कृष्टता को देखकर चतु:संघ ने आपको चारित्र चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया। जीवन भर आपने गाँव—गाँव पैदल ही भ्रमण किया, सभी जीवों को अहिंसा का उपदेश दिया। उनके जीवन की कई घटनाएँ अहिंसा धर्म की ज्वलन्त उदाहरण हैं। आपने सभी प्रमुख आगमों का स्वाध्याय किया तथा सभी को स्वाध्याय की प्रेरणा दी। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव के महान् आध्यात्मिक ग्रंथ ‘समयसार’ के वे अनन्य उपासक थे, उन्होंने धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों का भी बहुत अभ्यास किया। समाप्तप्राय दिगम्बर साधना को आपने पुनर्जीवित किया।
आचार्य श्री शान्तिसागर मुनिराज के कुछ वचन—बिन्दु-
(१) धर्मस्य मूलं दया। जिनधर्म का मूल क्या है ?-सत्य, अहिंसा। मुख से सभी सत्य, अहिंसा बोलते हैं, पालते नहीं। रसोई करो, भोजन करो। ऐसा कहने से क्या पेट भरेगा ?-सब कार्य छोड़ो, सत्य—अहिंसा का पालन करो। सत्य में सम्यक्त्व आ जाता है। अहिंसा में किसी जीव को दु:ख नहीं दिया जाता; संयम होता है, वह व्यवहारिक बात है। इस व्यवहार का पालन करो। सम्यक्त्व धारण करो, संयम धारण करो तब आपका कल्याण होगा। इसके बिना कल्याण नहीं होगा।
(२) जिस समय जो भवितव्य है, उसे कोई भी अन्यथा नहीं परिणमा सकेगा किन्तु हमारा निश्चय का एकान्त नहीं है; दूसरों के दु:ख दूर करने का विचार करुणावश है।
(३) आगम के मार्ग को छोड़कर जाने से तथा मनमाने रूप से प्रवृत्ति करने से सिद्धि नहीं मिलती। जैसे मार्ग छोड़कर उल्टे रास्ते जाने वालों को इष्ट ग्राम की प्राप्ति नहीं होती; उसी प्रकार मोक्षनगर में जाने के लिए अहिंसा का मार्ग अंगीकार करना आवश्यक है।
(४) हिंसा आदि पापों का त्याग करना धर्म है, इसके बिना विश्व में कभी भी शान्ति नहीं हो सकती। इस धर्म का लोप होने पर सुख तथा आनन्द का लोप हो जाएगा।
आचार्यश्री के अिंहसक जीवन को देखकर तथा प्रवचनों से प्रभावित होकर कटनी (म. प्र.) के पास बिलहरी गाँव के कई हरिजनों ने आजीवन माँसाहार का त्याग कर दिया था। धौलपुर राज्य के एक गाँव में एक व्यक्ति ने इन पर प्राणघातक हमला किया, पुलिस द्वारा पकड़ लिये जाने पर भी उन्होंने उसे माफ करने को कह दिया था। आचार्य श्री शान्तिसागरजी के अिंहसक प्रयोगों के ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
इस प्रकार आचार्य श्री शान्तिसागर मुनिराज, संयम साधना की उत्कृष्ट भूमिका में सम्पूर्ण भारतवर्ष में शान्ति, अहिंसा, त्याग और संयम का सन्देश पैâलाते रहे। आप दिगम्बर जैनधर्म में मुनिराजों के लिए निर्धारित नियमों का, जैसे- चौबीस घण्टे में एक समय अन्न—जल ग्रहण करना, हाथ में शुद्धि के लिए एक कमण्डलु तथा सूक्ष्म जीवों के रक्षार्थ अहिंसा धर्म के पालन के लिए एक पीछी (मोरपंखों द्वारा निर्मित) रखना; कहीं बैठने, उठने, लेटने तथा कोई शास्त्र रखने उठाने से पहले पीछी द्वारा उस स्थान को साफ करना ताकि इन क्रियाओं से सूक्ष्म जीवों की भी हिंसा न हो, हिंसा से बचने के लिए चार हाथ आगे की जमीन देखकर कदम बढ़ाना ताकि जमीन पर चलने वाले छोटे जीव पैरों से दबकर न मर जाएँ आदि का, वे कड़ाई से पालन करते थे। जीवन में अहिंसा को जीने का इतना उत्कृष्ट स्वरूप दिगम्बर जैन मुनिराजों के अतिरिक्त कहीं भी देखने को नहीं मिलता।
श्वेताम्बर जैन परम्परा में एक आचार्य भिक्षु हुए हैं। उनका जन्म विक्रम संवत् १७८३ को हुआ था। विक्रम संवत् १८०८ में उन्होंने स्थानकवासी मुनि दीक्षा स्वीकार की। विक्रम संवत् १८१७ में तेरापंथ का प्रवर्तन किया और विक्रम संवत् १८६० को उनका देवलोकगमन हो गया।
आचार्य भिक्षु अहिंसाविषयक सूक्ष्म चिन्तन रखते हैं। उनका कहना है कि जीवरक्षा अहिंसा का परिणाम है, उद्देश्य नहीं। जीवरक्षा अहिंसा का परिणाम हो सकता है परन्तु अहिंसा से जीवरक्षा होती ही है, ऐसी बात नहीं। नदी के जल से भूमि उपजाऊ हो सकती है पर नदी इस उद्देश्य से बहती है—यह नहीं कहा जा सकता।
अहिंसा का उद्देश्य्ा क्या है-आत्मशुद्धि या जीवरक्षा ? कई विचारक अहिंसा के आचरण का उद्देश्य जीवरक्षा बतलाते हैं और कई आत्मशुद्धि। अहिंसा जीवरक्षा के लिए हो तो आत्मशुद्धि या संयम की बात गौण हो जाती है और यदि वह आत्मशुद्धि के लिए हो तो जीवरक्षा की बात गौण हो जाती है। आचार्य भिक्षु मानते हैं कि ‘अहिंसा में जीवरक्षा की बात गौण है; मुख्य बात है आत्मशुद्धि की।
एक संयमी सावधानीपूर्वक चल रहा है। उसके पैर से कोई जीव मर गया तो भी वह हिंसा का भागी नहीं होता, उसको पापकर्म का बन्ध नहीं होता। कहा है-
इरजा सुमत चालंतां साध ने, कदा जीवतणी हुवे घात।
ते जीव मूंआ रो पाप साधने, लागे नहीं असंमात रे।।
एक संयमी असावधानीपूर्वक चल रहा है, उसके द्वारा किसी भी जीव का घात नहीं हुआ फिर भी वह िंहसक है; उसके पाप कर्म का बन्ध होता है। कहा है-
जो ईर्या सुमत विण साधु चाले, कदा जीव मरे नहीं कोय।
तो पिण साध ने हिंसा छकाय री लागी, पाप तणो बन्ध होय रे।।
आचार्य भिक्षु के अहिंसा सम्बन्धी सूत्र-
(१) देह के रहते हुए पूर्णत: जीवघात से नहीं बचा जा सकता किन्तु अहिंसा की पूर्णता आ सकती है।
(२) हिंसा या अहिंसा के मूल स्रोत, आत्म की असत् और सत् प्रवृत्तियाँ हैं; जीवघात या जीवरक्षा उनकी कसौटी नहीं है।
(३) जैसे-मोक्षमार्गी को व्यवहारदृष्टि की अहिंसा से धर्म नहीं होता; वैसे ही व्यवहारदृष्टि की हिंसा से पाप नहीं होता। जीवघात होने पर भी व्यावहारिक हिंसा बन्धन का कारण नहीं होती; वैसे ही जीवरक्षा होने पर भी व्यावहारिक अहिंसा मुक्तिकारक नहीं होती।
(४) जो जीवों की रक्षा को अहिंसा का ध्येय मानते हैं, उन्हें बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों के घात में पुण्य मानना ही पड़ता है और वे मानते भी हैं; इसीलिए जीवरक्षा अहिंसा का एकमात्र ध्येय नहीं है।
(५) अहिंसा का सिद्धान्त जहाँ मात्र करुणा या जीवरक्षा से जुड़ जाता है वहाँ अहिंसा लोकप्रिय बनती है, पर पवित्र नहीं रह पाती।
(६) अहिंसा में जीवरक्षा हो सकती है पर यह उसकी अनिवार्यता नहीं है।
इस परम्परा के अन्य आचार्य—
आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना की। इसी परम्परा में आगे चलकर नवम आचार्य तुलसी हुए, जिन्होंने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया और अहिंसा धर्म की उपयोगिता को जनसामान्य में प्रतिष्ठापित करने के लिए विशाल साहित्य रचा। इनके बाद आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के नये प्रयोगों तथा अहिंसा आदि सिद्धान्तों की आधुनिक एवं आध्यात्मिक व्याख्या कर पूरे विश्व में शान्ति का सन्देश पैâलाया। आचार्य महाप्रज्ञ ने भी अहिंसा एवं विश्वशांति के लिए सैकड़ों ग्रंथ तथा हजारों निबन्ध लिखे हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के देवलोक गमन के पश्चात् आचार्य महाश्रमण अहिंसा की अलख जला रहे हैं।
दलाई लामा बौद्धधर्म के प्रमुख गुरू हैंं, उनका जन्म ०६ जुलाई, १९३५ को एक कृषक परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था से ही आप अहिंसा और अध्यात्म के उपासक रहे। आपकी छह वर्ष की अवस्था से ही तिब्बती बौद्ध भिक्षु के रूप में शिक्षा-दीक्षा हुई, पच्चीस वर्ष की आयु में आपने गेशे लाहरम्पा (पीएच. डी) की उपाधि प्राप्त की थी। जब चीनी सत्ता ने तिब्बत पर आक्रमण की धमकी दी थी, उसी समय अपने लोगों के आग्रह पर १६ वर्ष की आयु में वे राजनैतिक शासन तथा शक्ति की बागडोर सम्भालने पर बाध्य हुए।
नोरवेजियन नोबेल कमेटी ने १८८९ का नोबेल शान्ति पुरस्कार तिब्बती लोगों के धार्मिक और राजनैतिक अगुआ तेनिंसग ग्यात्सो १४वें दलाई लामा को देने का निर्णय किया। कमेटी ने इस बात पर बल दिया कि तिब्बत के स्वतन्त्रता संघर्ष में दलाई लामा ने लगातार हिंसा के प्रयोग का विरोध किया। हिंसा के स्थान पर वह अपने लोगों की ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक धरोहर को बचाए रखने में शान्तिपूर्ण उपायों के अधिवक्ता रहे हैं।
दलाई लामा ने शान्ति का यह दर्शन सभी सत्त्वों के प्रति सम्मान की भावना, मानवता व प्रकृति के प्रति सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की भावना को लेकर विकसित किया है। कमेटी के अनुसार दलाई लामा ने आन्तरिक संघर्षों, मानवीय अधिकार के प्रश्नों और विश्वस्तरीय पर्यावरण की समस्या के लिए रचनात्मक तथा प्रगतिशील सुझाव रखे हैं।
अहिंसा और शान्तिविषयक उनके प्रमुख विचारसूत्र निम्न प्रकार हैं—
(१) बोधिचित्ताभ्यासी के लिए द्वेष और क्रोध सबसे बड़ी बाधा है। बोधिसत्त्वों में कभी भी घृणा का जन्म नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें उसका विरोध करना चाहिए। इसकी प्राप्ति के लिए सहिष्णुता या शान्ति का अभ्यास बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
(२) हृदय और बुद्धि के समन्वय से ही शान्तिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण मानव परिवार का निर्माण सम्भव है।
(३) करुणा और निष्ठा के अभ्यास से ही हम सही अर्थों में बुद्धानुयायी हो सकते हैं। दूसरों के प्रति दयाभाव रखकर ही हम स्वार्थ को कम करने की शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, दूसरों के दु:खों को बाँटकर हम अन्य सभी जीवों की भलाई हेतु और संवेदनशील हो सकते हैं।
(४) यदि पर दु:ख को दूर करने के लिए अपना सुख तुम उन्हें दे नहीं सकते तो इस वर्तमान जीवन में सुख भी नहीं मिल सकता, बुद्धत्व की आशा व्यर्थ है।
(५) जिस प्रेम का सन्देश हम दे रहे हैं वह ऐसा प्रेम है जो हम उन व्यक्तियों से भी कर सकें जिन्होंने हमें हानि पहुँचाई है। इस प्रकार का प्रेम सभी सत्त्वाें से किया जाना चाहिए।
(६) विशुद्ध अहिंसा का सम्बन्ध हमारी मानसिक प्रवृत्ति से है। जब हम शान्ति की बात करते हैं, तब हमारा मन्तव्य विशुद्ध अहिंसा होना चाहिए, मात्र युद्ध का न होना नहीं। उदाहरण के लिए पिछले कई दशकों में यूरोप महाद्वीप में अपेक्षाकृत शान्ति बनी थी, पर मुझे नहीं लगता कि वह सच्ची शान्ति थी। शीतयुद्ध के परिणामस्वरूप जो भय छाया था यह शान्ति उसी से उत्पन्न हुई थी।
(७) अहिंसा की प्रकृति इस प्रकार होना चाहिए जो निष्क्रिय न होकर दूसरों के कल्याण के लिए सक्रिय हो। अहिंसा का अर्थ है कि यदि तुम दूसरों की सहायता या सेवा कर सकते हो तो तुम्हें करना चाहिए; यदि तुम नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों को हानि नहीं पहुँचाना चाहिए।
दलाई लामा का जीवन संघर्षों से भरा रहा किन्तु फिर भी उन्होंने अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ा। उनका अखण्ड विश्वास है कि जिस प्रकार पूरे विश्व से प्रेम और समर्थन जुटाने में वो सफल हुए हैं उसके पीछे सबसे बड़ा कारण उनका अिंहसक संघर्ष ही है।
भारत के समकालीन दार्शनिकों तथा वैदिक योगियों में जिनका आदर पूरे विश्व में है उनमें महर्षि अरविन्द का नाम प्रमुख है। श्री अरविन्द का जन्म १५ अगस्त १८७२ में हुआ था। श्री अरविन्द की अधिकांश शिक्षा लन्दन में सम्पन्न हुई। चौदह वर्ष बाद जब वे भारत की धरती पर वापस लौटे तब कई नौकरियाँ करने के बाद वे देशभक्ति के प्रमुख प्रेरणास्रोत के रूप में काम करने लगे। अंग्रेजों ने श्री अरविन्द को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया किन्तु जेल उनके लिए साधना और योग की भूमि बन गया। साल भर वे जेल में रहे, उनके लिए जेल जीवन वरदान साबित हुआ। उन्होंने स्वयं कहा है कि अंग्रेजी सरकार ने उन्हें बन्द करके उनके ऊपर उपकार किया है।
श्री अरविन्द का अध्यात्म मनुष्य को शक्तिशाली बनाने का था। हिंसा-अहिंसा को लेकर उनकी अपनी विशेष मान्यताएँ थीं, जिनका उल्लेख उनकी पुस्तकों में मिलता है।
महर्षि अरविन्द ने व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनैतिक जीवन में अहिंसा को एक साधन के रूप में स्वीकार किया है। गाँधीजी ने अहिंसा को साध्य बतलाया था जबकि श्री अरविन्द का कथन है कि जिस प्रकार मानव के विकास के लिए जहाँ अन्य अनेक साधन हैं, वहाँ अहिंसा भी एक साधन है। श्री अरविन्द ने राष्ट्र के उत्थान के लिए कभी-कभी युद्ध और हिंसा को भी उचित बतलाया है। अरविन्द के विचारों का सार यह है कि कोई भी सिद्धान्त कितना ही महान् क्यों न हो, उसको जन जीवन में समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता और न ही उससे सबका भला हो सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति विशेष के लिए अहिंसा कल्याणकारी हो सकती है किन्तु उसे सब कालों में, सब परिस्थितियों में, सब लोगों के लिए एक समान चरितार्थ नहीं किया जा सकता। अहिंसा एक योगी के लिए तो उपादेय हो सकती है; सामाजिक जीवन के लिए हिंसा और अहिंसा दोनों आवश्यक हैं।
श्री अरविन्द जिस आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर थे, उसमें अहिंसा की प्रधानता थी। यही कारण है कि देशभक्ति के जज्बे में स्वतन्त्रता के लिए उन्होंने िंहसकमार्ग की वकालत नहीं की। वे राष्ट्र को एक निर्जीव भूमिखण्ड नहीं, स्वयं जननी का जीवित विग्रह मानते थे। उन्होंने अपनी पत्नी को अंग्रेजी में जो पत्र लिखे, उसमें उनकी राष्ट्रभक्ति और अिंहसक चेतना के स्पष्ट दर्शन होते हैं। १७ फरवरी १९०७ को लिखे एक पत्र के एक अंश का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत हैं—
‘‘…….मैं जानता हूँ, इस पवित्र जाति के उद्धार करने का शारीरिक बल मेरे अन्दर नहीं है। तलवार या बन्दूक लेकर मैं युद्ध करने नहीं जा रहा हूँ। तलवार के स्थान पर ज्ञान का एक बल है। ब्रह्म तेज भी एक तेज है। यह तेज ज्ञान के ऊपर प्रतिष्ठित होता है। यह भाव नया नहीं है; इस भाव को लेकर ही मैंने जन्म ग्रहण किया है। यह भाव मेरी नस-नस में भरा है।……..’’
भारतवर्ष में महान् आध्यात्मिक क्रान्तिकारी विचारक स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी १८६३ को हुआ था। उनके पिता का नाम विश्वनाथदत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। प्रारम्भ में इनका मूल नाम नरेन्द्रनाथ था। इनके गुरु का नाम श्री रामकृष्ण परमहंस था।
नरेन्द्रनाथ जब श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले तो सहसा उन्हें एक महापुरुष मानने को तैयार नहीं थे किन्तु प्राणिमात्र के प्रति श्री रामकृष्ण के निष्काम प्रेम और दयाभाव ने उन्हें उनकी ओर आकृष्ट किया। उन्होंने देखा कि परमहंसजी के संसर्ग से कई लोगों का जीवन पूर्णतया बदल चुका है; अत: उन्होंने परमहंस को अपना गुरू मान लिया।
स्वामी विवेकानन्द ने पूरे भारत का भ्रमण किया और विशेषकर नवयुवकों के अन्दर आध्यात्मिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। वे युवा चेतना के मसीहा थे। विवेकानन्द ने अपने विचारों से विदेशियों को भी प्रभावित किया और विश्वशान्ति का सन्देश दिया। उन्होंने शिकागो में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में भारतीय अध्यात्म को लेकर एक ओजस्वी वक्तव्य दिया था, वह आज भी प्रसिद्ध है। विदेशों में भारत के आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान की जड़ें मजबूत करने में स्वामी विवेकानन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
प्रमाद या आसक्ति को हिंसा कहा गया है। स्वामी विवेकानन्द ने इसे अलग दृष्टि से व्याख्यायित किया। विशेष रूप से जब भारतीय नव्ायुवकों को आलसी, दुर्बल और कामचोर देखते थे, तब उनका खून खौल उठता था। उनका यह सन्देश बहुत प्रसिद्ध है—‘उठो, जागो और जब तक तुम अपने अन्तिम ध्येय तक नहीं पहुँच जाओ, तब तक चैन न लो। उठो, जागो……. निर्बलता के उस व्यामोह से जाग जाओ। वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं है। आत्मा अनन्त सर्वशक्ति-सम्पन्न और सर्वज्ञ है। इसलिए उठो, अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट करो। तुम्हारे अन्दर जो भगवान है, उसकी सत्ता को ऊँचे स्वर में घोषित करो; उसे अस्वीकार मत करो। हमारी जाति के ऊपर घोर आलस्य, दुर्बलता और व्यामोह छाया हुआ है।
अहिंसा-हिंसा को लेकर विवेकानन्द बहुत चिन्तित नहीं दिखायी देते थे। उनका विचार था कि यदि अहंकार दूर होता है, अनासक्ति प्रगट होती है और आत्मा शुद्ध बनती है तो अहिंसा के उपदेश की जरूरत नहीं है। यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है किन्तु व्यावहारिक रूप में वे अहिंसा के प्रति बहुत स्पष्ट अवधारणा रखते हैं। उनका कहना है—‘अहिंसा ठीक है, निश्चय ही बड़ी बात है। कहने में बात तो अच्छी है पर शास्त्र कहते हैं कि यदि तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई एक थप्पड़ मारे और यदि उसका जवाब तुम दस थप्पड़ों से न दो तो तुम पाप करते हो।
इस प्रकार वे गृहस्थ को विरोधी हिंसा का अधिकारी मानते थे। उन दिनों हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था। अंग्रेज भारतीयों को मारते थे; भारतीय फिर भी उनकी सेवा करते थे अत: विवेकानन्द का यह चिन्तन प्रसंग तथा परिस्थितियों के अनुकूल माना गया, वे आक्रमण सहने के पक्ष में नहीं थे।
अहिंसा की कसौटी को लेकर वे कहते थे कि ‘अहिंसा की कसौटी है—ईर्ष्या का अभाव। कोई व्यक्ति भले ही क्षणिक आवेश में आकर अथवा किसी अन्धविश्वास से प्रेरित हो या पुरोहितों के छक्के-पञ्जे में पड़कर कोई भला काम कर डाले अथवा बड़ा दान दे डाले, पर मानव जाति का सच्चा प्रेमी तो वह है, जो किसी के प्रति ईर्ष्याभाव नहीं रखता। बहुधा देखा जाता है कि संसार में जो बड़े मनुष्य कहे जाते हैं, वे अक्सर एक-दूसरे के प्रति थोड़े से नाम, कीर्ति या चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिए ईर्ष्या करने लगते हैं। जब तक यह ईर्ष्याभाव मन में रहता है तब तक अहिंसाभाव में प्रतिष्ठित होना बहुत दूर की बात है।’
वे अहिंसा के लिए आत्मज्ञान को आवश्यक मानते थे। उनका विचार था कि आत्मा के ज्ञान बिना जो कुछ भौतिक ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह सब आग में घी डालने के समान है, उससे दूसरों के लिए प्राण उत्सर्ग कर देने की बात तो दूर ही रही, इससे स्वार्थी लोगों को दूसरों की चीजें हर लेने के लिए, दूसरों के रक्त पर फलने-फूलने के लिए एक और यन्त्र, एक और सुविधा मिल जाती है।
विवेकानन्द की अहिंसा और महर्षि अरविन्द की अहिंसा काफी कुछ साम्य रखती है। यह अहिंसा स्थूल तथा व्यावहारिक अहिंसा है। राजनीति, समाज तथा जीवन व्यवहार की दृष्टि से परिस्थितिवशात् ऐसी अहिंसा की अवधारणाएँ बहुत अधिक रोचक तथा तर्कपूर्ण प्रतीत होती हैं। इस अहिंसा को हम भौतिक अध्यात्मवाद कह सकते हैं। आत्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और धर्मरक्षा के लिए हिंसा को उचित कहने वालों की परम्परा भी नयी नहीं है। प्राचीन काल से इस प्रकार की अवधारणाएँ चली आ रही हैं।
गाँधीजी के समय ही लगभग १९३० में भारत के उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त (अब पाकिस्तान) में पठान जाति के नेता खान अब्दुलगफ्फार खान बहुत प्रसिद्ध हुए; इन्होंने खासकर भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के विभिन्न वर्गों में अहिंसा का सन्देश फैलाया। गाँधीजी की ओर आकर्षित होना इनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। श्री खान ने अपना सारा जीवन अपने अनुयायियों के हृदयों में गाँधीजी की अहिंसा की मशाल जलाने में लगा दिया। आपने ‘लालकुर्ती आन्दोलन’ चालू किया जिसे ‘खुदाई खिदमतगार’ के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन के माध्यम से उन्होंने गाँधीजी की अहिंसा को व्यवहार में और अधिक अर्थवान् बनाया। ये हजारों पठानों को संगठित करने में सक्षम हुए। उग्र पठानों को अहिंसा के पुजारियों में बदल देना, इनकी नेतृत्व क्षमता का ज्वलन्त उदाहरण है। महात्मा गाँधी इन्हें ‘बादशाह खान’ के नाम से पुकारते थे। आपको सीमान्त गांधी के नाम से भी जाना जाता है।
गफ्फार खान लालकुर्ती के केन्द्र स्थापित करने के लिए गाँव-गाँव घूमे। छह माह के भीतर ही सारा प्रान्त लाल कुर्तियों से भर गया। खुदाई खिदमतगारों की संख्या ५०० से ८०,००० तक पहुँच गई और उसने बाद में १,००,००० की अिंहसक सेना का रूप ले लिया। इस सेना की नियमित परेड होती थी, उनके पास कोई हथियार नहीं होते थे, कोई अस्त्र-शस्त्र छड़ी या लाठी तक भी नहीं होती थी। उन्होंने सैनिक तौर-तरीके के लम्बे-लम्बे मार्च आयोजित किए।
अपने संगठन का सदस्य बनाते समय आप ग्यारह नियमों वाले प्रतिज्ञापत्र पर उस सदस्य से हस्ताक्षर करवाते थे, उसमें छठा नियम था—‘मैं सदा अहिंसा के सिद्धान्तों के अनुरूप जीवनयापन करूंगा।’ और आठवाँ नियम था—‘मैं अपने कर्मों में सच्चाई और पवित्रता का पालन करूंगा।
आचार्य विनोबा भावे ने १९४० में एकल सत्याग्रही के रूप में आजादी का ध्वज उठाने और धनाढ्यों के हृदयों को करुणा और ईश्वर भक्ति की ओर मोड़ने में अहिंसा का उपयोग किया। इन्होंने अगले चार दशक तक अहिंसा के आधार को बहुत विस्तार दिया। इसके लिए आचार्य विनोबा भावे ने ‘भूदान आन्दोलन’ चलाया। आचार्य विनोबा गाँधीजी के प्रिय शिष्य तथा उत्तराधिकारी के रूप में जाने जाते थे।
विनोबाजी देश भर में लाखों भूमिधरों के हृदयों को आन्दोलित करने में सफल रहे। उनकी प्रेरणा से भूमिधरों ने स्वेच्छा से चार लाख एकड़ से अधिक भूमि भूमिहीनों में बाँटने के लिए दान में दी। यह मात्रा प्रदर्शित करती है कि अहिंसा को सही परिप्रेक्ष में ग्रहण कर सही ढंग से लागू करने से इसके अत्युत्तम परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। यह आन्दोलन संसार भर में अभूतपूर्व था। अब यह माना जाता है कि इस शान्त और प्रभावशाली आन्दोलन द्वारा भूमि वितरण और स्वातन्त्र्योत्तर भारत सरकार द्वारा किए गए अन्य भूमिसुधारों के बिना, भारत के गणतन्त्र का स्वरूप वह न होता, जो आज है। भूदान आन्दोलन की सफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि इसे यश और किसी भी भौतिक लाभ की कामना से परे सन्त विनोबा जैसे पारदर्शी चरित्र वाले, नि:स्वार्थ व्यक्ति ने सञ्चालित किया था।
एक विशुद्ध अध्यात्म उनकी अहिंसा का लक्षण था। उनका जीवन धार्मिक शिष्टाचार का आदर्श नमूना था जिससे प्रमाणित होता था कि किसी सन्यासी का कर्त्तव्य मात्र एकान्त में जाकर जीवनयापन करना नहीं होता बल्कि उसे जनता में जाकर काम करना और उसे आत्मान्वेषण का सही मार्ग बताना होता है। गाँधीजी की तरह उन्होंने राजनीति, अर्थ, विज्ञान और धर्म को अध्यात्म से जोड़ना चाहा। बर्ट्रेण्ड रसेल ने उनके जीवन को ‘मानवीय मामलों में चेतना की भूमिका का प्रतीक’ बताया था।
विनोबाजी ने अहिंसा के आधार पर जो भी आन्दोलन चलाए, उसमें वे सफल रहे और उन्हें अत्यधिक ख्याति भी प्राप्त हुई।
आचार्य विनोबा जैनधर्म की अहिंसा से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने जैनधर्म के सभी सम्प्रदाय के आचार्यों से निवेदन करके सर्वसम्मतिपूर्वक ‘समणसुत्तं’ नामक ग्रंथ का निर्माण करवाया। इस ग्रंथ को उन्होंने जैन गीता के नाम से पुकारा। ‘समणसुत्तं’ का संकलन महान कृति -जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश’ के रचनाकार क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र प्रसाद जी वर्णी ने किया था। आचार्य विनोबा अपना अन्त समय अहिंसा की आराधना में ही बिताना चाहते थे; अत: उन्होंने संयम के प्रतीक ‘सल्लेखना’ व्रत को लेकर अत्यन्त संयम तथा आत्मश्रद्धा के साथ अपने शरीर का त्याग किया।
विनोबा जी ने अहिंसा, दया, करुणा, अध्यात्म बंधुता और समग्र जीवन के सार का प्रयोग मूलभूत समाज परिवर्तन तथा सम्पत्ति पर आधारित सम्बन्ध, संस्थानिक ढांचे, परम्परा एवं व्यवहार के पूर्व निर्मित आग्रह को बदलने के लिए किया। उन्होंने वर्तमान आर्थिक सम्बन्धों की विषमता के प्रति सचेत करने, सामुदायिक चेतना पर आधारित नए सम्बन्धों को विकसित करने तथा कार्यों, आय और जीवन स्तर में समानता लाने के लिए वास्तविक क्रांतिकारी शक्ति का प्रयोग एक साधन के रूप में किया। इस कार्य के लिए वे सदैव याद किये जायेंगे।