आज विश्व में हिंसा की वारदातें बढ़ रही हैं। पिछले दिनों एक ओर अमरीकी जहाजों ने एक छोटे से देश लीबिया में जबर्दस्त बमबारी की तो दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने जांबिया, जिम्बाब्बे और वोत्स्याना पर शर्मनाक हमला बोल दिया। सैकड़ों निर्दोष—निरपराध मारे गए। भारत में भी आतंकवाद अपना सिर उठा रहा है। सुबह—सुबह अखबार खोलते ही देश में हत्याओं के समाचार सुर्खियों में पढ़ने को मिलते हैं। अखबार का हर पन्ना बलात्कार, चोरी, डवैâती, हत्या, आत्महत्या, लूटपाट, दंगे या बहुओं के जला देने की खबरों से रंगा रहता है। यह सब पढ़-सुनकर दिल काँप उठता है और मन का स्वाद बिगड़ जाता है।
मानव की बुद्धि आज भाँति-भाँति की विषैली गैसों, प्रक्षेपणास्त्रों और बमों के आविष्कार में लगी हुई है। उसके भयंकर दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। भोपाल की गैस त्रासदी जिन्होंने भोगी है, वे क्या कभी उसकी कटु स्मृतियों से उबर सकेंगे ? रूस की एक परमाणु भट्टी से हुई रिसन से एक लाख लोगों के वैंâसरग्रस्त होने की सम्भावनाएँ व्यक्त की जा रही है। बम विस्फोटों का परिणाम विकलांगता के रूप में सामने आ रहा है। हिंसा दानव के इस बढ़ते दबाव से मनुष्य का जीवन वैâसा असहाय और कितना असुरक्षित हो गया है।
आचार्य शुभचन्द्र ने ठीक ही कहा था—‘हिंसैव दुर्गतेर्द्वारं’। यह दुर्गति आज सर्वत्र दिखाई दे रही है। इस जगह मानवीय संवेदना और सहानुभूति मिटती जा रही है। उसका स्थान नृशंसता, क्रूरता और कठोरता ने ले लिया है। ऐसी परिस्थिति में एक बार फिर दुनिया के विचारक अहिंसा के महत्त्व पर नए सिरे से विचार करने के लिए विवश हो रहे हैं, अयुद्ध—सन्धि और नि:शस्त्रीकरण की चर्चायें इसी का प्रतिफल है। लोगों में यह समझ बढ़ी है कि अहिंसा ही इस महाविनाश से मानवता को बचा सकती है। अहिंसा विश्वधर्म का एक सदाबहार तत्त्व है। उसका त्रैकालिक महत्त्व है। अतीत से भी अधिक महत्त्व आज है। सूर्य के प्रकाश में मोमबत्ती की रोशनी भले ही अधिक महत्व न रखती हो किन्तु अमावस की अंधेरी रात में तो उसकी उपयोगिता के बारे में किसी को भी सन्देह नहीं हो सकता। आज हिंसा की अमावस ने निराशा की काली चादर धरती पर पैâला दी है। उनसे बचने के लिए अहिंसा की टार्च हाथ में लेकर चलने पर ही उससे त्राण मिल सकता है।
‘ज्ञानार्णव’ में कहा गया अहिंसा लक्षणो धर्म:, तद्विपक्षश्च पातकम्’ अर्थात् धर्म अहिंसा लक्षण वाला है और उससे विपरीत जो भी है, वह सब पाप है। अहिंसा से बड़ा कोई धर्म और हिंसा से बढ़कर पाप दूसरा नहीं हो सकता। यूँ तो कहने को भगवान महावीर ने पाँच अणुव्रतों का उपदेश दिया था परन्तु वास्तव में उनका सबसे अधिक जोर अहिंसा पर ही था। ‘एक हि साधे सब सधे’ के अनुसार अहिंसा की पूर्णता में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भी सहज ही सध जाते हैं। कोई अिंहसक व्यक्ति झूठ वैâसे बोल सकता है, चोरी वैâसे कर सकेगा, शील से डिगने का प्रश्न ही उसके सामने नहीं उठता तथा आवश्यकता से अधिक का संग्रह बिना दूसरों को कष्ट में डाले सम्भव ही नहीं है। अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाला पहले ही यह संकल्प कर लेता है कि वह किसी को सताएगा नहीं अत: शेष व्रतों का पालन उसके द्वारा स्वत: ही हो जाता है इसीलिए तो पंचाणुव्रतों में अहिंसा को सिरमौर कहा गया है।
आचार्य शुभचन्द्र ने ‘अिंहसैव जगन्मात’ कहकर अहिंसा को ममतामयी ‘माँ ’ के समकक्ष रख दिया है। संसार में माँ से बढ़कर हितैषी और कौन हो सकता है ? जो रक्षा करे वह माँ कहलाती है। स्वयं कष्ट सहकर भी माता जिस तरह बालक की रक्षा करती है उसी तरह तीन लोक की रक्षा अहिंसा द्वारा ही सम्भव है। आचार्य श्री गुणभद्र ने ‘आत्मानुशासन’ में लिखा है कि जब तक मनुष्य के मन में अहिंसा धर्म रहता है तब तक वह मारने वालों को भी नहीं मारता किन्तु जब अहिंसा धर्म उनके दिल और दिमाग से निकल जाता है तब औरों की कौन कहे, प्रिय पुत्र को पिता मार डालता है और पिता की हत्या पुत्र कर देता है। श्रीकृष्ण और जरत्कुमार तथा श्रेणिक महाराज और कुणिक अजातशत्रु के उदाहरण हमारे सामने हैं अत: यह निश्चित है कि इस विश्व की रक्षा का मूल आधार धर्म है और वह अहिंसा मय है। स्वामी समन्तभद्र तो सबसे आगे बढ़कर कहते हैं—‘अहिंसा भूतानां जगतिविदितं ब्रह्मपरमम्’ अर्थात् जीवों की अहिंसा (रक्षा) ही परमब्रह्म परमात्मा है और यह बात संसार में प्रसिद्ध है। इस तरह हमारे मनीषी आचार्यों ने अहिंसा को सदैव सर्वोपरि धर्म के रूप में स्वीकार किया है।
अहिंसा का सामान्य अर्थ है—दूसरों को न सताना किन्तु यह केवल इसका एक पक्ष है। जिस तरह बिजली के तार ‘निगेटिव’ और ‘पोजीटिव’ दो तरह के होते हैं, उसी तरह अहिंसा का ‘निगेटिव’ पक्ष है—दूसरों को न सताना और ‘पॉजिटिव’ पक्ष है—दूसरों की यथाशक्ति सेवा-भलाई करना। मैत्री, करुणा, सहिष्णुता, सहानुभूति आदि सब शब्द अहिंसा के ही पर्याय हैं। अहिंसा का एक तीसरा सबसे बड़ा पक्ष और भी है, वह है—स्वयं को न सताना। स्वयं को सताये बिना आदमी दूसरों को सता ही नहीं सकता। जब भी हम दूसरों को मारने या सताने की सोचते हैं तभी हमारी रात की नींद गायब हो जाती है। पहले हम स्वयं दुखी होते हैं तब दूसरों को कष्ट होता है। दूसरों को कष्ट हो ही, यह निश्चित नहीं है किन्तु स्वयं को कष्ट होना अनिवार्य है। दूसरों पर कीचड़ फेंकने से यह जरूरी नहीं कि दूसरा गन्दा ही हो किन्तु फेंकने वाले के हाथ तो गन्दे होते ही हैं।
जैनाचार्यों ने रागादि परिणामों को स्विंहसा तथा षट्काय के जीव हनन को परिंहसा कहा है। यह भी कहा है कि स्विंहसा के बिना परिंहसा सम्भव नहीं है। अहिंसा वस्तुत: स्वसेवा ही है और स्वसेवा ही सबसे बड़ी सेवा है। एक चिन्तक ने व्यंगपूर्वक कहा है कि दूसरों पर दया करने का दम्भ करने वाला आज का आदमी खुद की हिंसा करता रहता है। इस व्यंग के पीछे जो तत्त्व छिपा हुआ है, उस पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। किसी ने सच कहा है—
‘‘अरे सुधारक ! जगत की चिन्ता मत कर यार।
तेरा मन ही जगत है, पहले इसे सुधार।।’’
स्वयं का सुधार सबसे बड़ी अहिंसा है। जिसका चित्त जगत भर की कल्याण कामना से भरा हुआ है, वह महामानव है। एक सच्चा जैन प्रतिदिन शान्ति पाठ के माध्यम से संसार की कल्याण कामना करता है—‘‘संपूर्ण प्रजाओं को क्षेम हो, राजा (या मंत्रीगण) बलवान और धार्मिक हो तो मेघ समय पर वर्षा करें, व्याधियों का नाश हो, क्षण भर के लिए भी अकाल, चोरी और महामारी संसार के प्राणियों को पीड़ित न करे तथा विश्व को सुख प्रदान करने वाले जिनेन्द्र का धर्मचक्र निरन्तर प्रसारित हो।’’ इस प्रकार हम प्रात:कालीन उपासना द्वारा भी ‘अहिंसा ’ की ही वन्दना करते हैं।
विश्व में ऐसा कौन सा धर्म है, जिसमें अहिंसा के गीत न गाए गए हों ? आज स्कूल-पाठशालाओं, मन्दिरों और सभाभवनों की दीवालों पर जो एक वाक्यांश प्राय: लिखा हुआ दीख पड़ता है—‘अहिंसा परमो धर्म:’—यह महाभारत के आदिपर्व के एक श्लोक का पहला चरण है। इस श्लोक में ‘‘मा हिंस्यात् सर्वभूतानि’’ अर्थात् किसी जीव की हिंसा मत करो, ऐसा आदेश दिया गया है। महाभारत के ही शान्तिपर्व में ‘न वैरं कुर्वेत् केनचित्’’ की प्रेरणा भी अहिंसा को बल प्रदान करने के लिए ही है। अिंहसक जीवन के लिए उपायों की विवेचना करते हुए मनुस्मृति में कहा गया है—‘‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’। कन्फ्यूशियस ने इसी का अनुवाद करते हुए अपने अनुयायियों को आदेश दिया—‘‘तुम्हें जो चीज नापसन्द है, वह दूसरों के लिए हर्गिज मत करो। सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय के अनुशीलन से पता चलता है कि अहिंसा सर्वोपरि है।
‘धम्मपद’ में कहा गया है—‘‘न तेन आरियो होति येन पाणाणि हिंसति’ अर्थात् जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह ‘आर्य’ कहलाने का अधिकारी नहीं है। तथागत बुद्ध स्वयं करुणा की मूर्ति थे। उनके सम्बन्ध में एक प्रसंग प्रसिद्ध है। एक बार वह किसी रसाल—पादप के नीचे बैठे थे। वृक्ष आम्र फलों से लदा था। पास में खेलते हुए कुछ लड़कों ने आम का फल पाने के लिए एक ढेला फेंककर मारा। निशाना चूक जाने से ढेला फल को न लगकर महात्मा बुद्ध के माथे पर लगा। माथे से खून रिसने लगा। लड़के डरते-डरते उनके पास आए। उन्होंने देखा कि बुद्ध की आँखों में आँसू हैं। रोते हुए वे बोले—‘‘महात्माजी, हमें क्षमा कर दीजिए। हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई है। आइन्दा ऐसी गलती कभी नहीं होगी।’’ बुद्धदेव ने सान्त्वना देते हुए कहा—‘‘बच्चों ! मेरे माथे में चोट लगी इसलिए मैं नहीं रो रहा हूँ। ढेला मारने पर वृक्ष बदले में मीठा फल देता है। मेरे ढेला लगा लेकिन मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं तो वृक्ष से भी गया-बीता हूँ, इसलिए मैं रोता हूँ।’’ इसलिए प्रसिद्ध है कि सम्राट् अशोक ने महात्मा बुद्ध के अहिंसा मय उपदेशों का देश-देशान्तरों में प्रचार कराया था। ‘मज्झिमनिकाय’ में निर्दिष्ट तप के चार भेदों में से जुगुप्सा तप का अर्थ ही है हिंसा का पूर्णरूपेण तिरस्कार।
इस्लाम धर्म में भी जीव दया का संदेश स्थान-स्थान पर मिलता है। कुरान शरीफ में ‘विस्मिल्लाह रहमानुर्रहीम’ लिखकर खुदा को रहम का देवता कहा गया है। बताया जाता है कि कुरान में रहतम और रहम जैसे शब्दों का प्रयोग चार सौ से भी अधिक बार हुआ है। किसी के प्रति बुरा बोलने या गाली देने को भी वहाँ गुनाह कबूल किया गया है। हजरत मुहम्मद साहब की दयालुता के बारे में एक किस्सा मशहूर है। किसी शिकारी ने एक हिरनी को पकड़ लिया। उसकी कातर दशा से द्रवित होकर मुहम्मद साहब ने शिकारी से कहा—‘‘इस हिरनी के बच्चे भूखे हैं। इसे इतनी मोहलत दे दो कि यह उन्हें दूध पिलाकर लौट आए। तब तक के लिए मैं अपनी जान को अमानत के रूप में तुम्हें सौंपता हूँ।’’ अहिंसा के प्रति कितनी अगाध निष्ठा थी उनके हृदय में, इस घटना से यह पता चलता है।
इस्लाम धर्म में कुर्बानी का उपदेश कब, किसने और क्यों दिया, यह विचारणीय है। मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी हजरत अली साहब ने तो पशु-पक्षियों तक पर रहम करते हुए फर्माया है—‘रे इंसान ! तू पशु-पक्षियों की कब्र अपने पेट में मत बना।’’ दीनेइलाही के प्रवर्तक सम्राट् अकबर ने भी शब्दान्तर से यही दुहराया है। कुरानशरीफ में खुदा (परमात्मा) को सारे खल्क (दुनिया) का खलिक (पिता) तथा समस्त प्राणियों को उसका बन्दा (पुत्र) बताया गया है। कोई खलिक अपनी ही औलाद को सताने या मारने की सीख वैâसे दे सकता है ? इस्लाम धर्म में गोश्त की तो कौन कहे, शराब पीने तक की मनाही है। इस्लाम अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ ‘शान्ति में प्रवेश करना’ होता है।
ईसामसीह ने अपने दुश्मनों से भी प्यार करने का उपदेश दिया है। उनकी दृष्टि में प्रेम के बदले प्रेम करने में कोई मार्वेâ की बात नहीं है। वह कहते हैं—‘‘अपने वैरी से प्रेम कर और सताने वाले के लिए प्रार्थना कर,…… जो तुझे शाप दे, उन्हें आशीर्वाद दे। जो तुम्हारी चादर छीन ले, उन्हें अपना कुर्ता भी ले लेने दे। …… यदि तू बुरी नीयत से किसी को देखता है तो तू उससे व्यभिचार कर चुका। अच्छा हो कि तू उस आँख पर हमेशा के लिए पट्टी बाँध दे, ताकि सारा शरीर तो नरक में जाने से बच जाए।’’
ईसा का अहिंसा के प्रति लगाव बहुत गहरा था। एक जगह वह कहते हैं—‘‘यदि तू चर्च जा रहा हो और रास्ते में तुझे याद आ जाए कि यहाँ अमुक से तेरी खटपट या अनबन है तो चर्च जाने से पहले उससे अपराध की क्षमा माँग। अपराध या भूल को स्वीकार किए बिना प्रार्थना करने का तुझे कोई अधिकार नहीं है’’ उन्होंने स्पष्ट कहा है—‘‘धन्य हैं वे, जो दयावान हैं क्योंकि उन पर ही दया की जाएगी।’’
यहूदी, पारसी आदि मतों की बुनियाद में भी अहिंसा की भावना पाई जाती है। इनके धर्मग्रंथों में कहा गया है कि किसी आदमी का अपमान करना उतना ही बड़ा पाप है, जितना उसका खून कर देना। पशुओं को मारने और बदले की भावना रखने का निषेध सर्वत्र किया गया है।
विश्व के प्राय: सभी धर्मों में अहिंसा के स्वर मुखरित हुए हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि जैनदर्शन में अहिंसा की जितनी सूक्ष्म और निर्दोष—निर्मल व्याख्या मिलती है, उतनी दुनिया के किसी अन्य धर्म में नहीं मिलती। उदाहरणार्थ वैदिक मान्यतानुसार कृतयुग में ज्ञान यज्ञ का प्रचलन था। उसमें किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती थी। त्रेतायुग में कुछ स्वार्थी लोगों ने हिंसा को उत्तेजना दी। स्व. श्री रामधारीिंसह जी ‘दिनकर’ ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है—‘‘वैदिक काल में हिंसा और अहिंसा का संघर्ष चल रहा था। कुछ ब्राह्मणों ने हिंसा का पक्ष लिया क्योंकि यज्ञ से उनकी रोजी चलती थी और हिंसा के बिना यज्ञ सम्पन्न नहीं किया जा सकता था। ऐसे में निरीह पशुओं की रक्षा का भार क्षत्रियों पर आ पड़ा और वे अहिंसा वाद के नेता हुए।’’
अहिंसा आत्मा का आलोक है। ‘भगवती आराधना’ में तो कहा है—‘अत्ता चेव अहिंसा ’—आत्मा ही अहिंसा है। जैनदर्शन के अनुसार हिंसा या अहिंसा का सम्बन्ध दूसरों से उतना नहीं, जितना स्वयं से है। महर्षि व्यास, महात्मा बुद्ध, यीशु, नानक आदि सभी ने एक स्वर से एक ही बात कही—‘‘दूसरों को बचाओ, प्राणियों की रक्षा करो।’’ किन्तु भगवान महावीर ने जोर देकर कहा—‘‘पहले स्वयं बचो, अपनी रक्षा करो।’’ जो स्वयं सुरक्षित नहीं है, वह दूसरों को भी सुरक्षा नही दे सकता। ‘जिओ और जीने दो’ के नारे के पीछे भी यही भावना निहित है। यहाँ पहले स्वयं जीने को कहा गया है, बाद में दूसरों को जिलाने की बात है। जो स्वयं मृत हो, वह दूसरों को वैâसे जिलाएगा ? यह आत्महत्या सबसे बड़ी हिंसा है। जिसे अपना जीना ही पसन्द नहीं है वह दूसरों को जिला सकेगा, ऐसा सोचना ही हास्यास्पद है। जो अपने प्रति इतना क्रूर है, क्या वह दूसरों के प्रति दयालु हो सकता है ? जिस दीपक की लौ प्रकाशित है, वह तो बुझे हुए सैकड़ों-हजारों अन्य दीपकों को भी रोशनी बाँट सकता है लेकिन एक बुझे हुए दीपक में दूसरे दीपकों को प्रकाशित करने की क्षमता नहीं होती।
हमारे आचार्यों ने कहा है—‘‘आत्मा में आकुलता का उत्पन्न होना ही हिंसा है। सभी धर्म प्राणों के घात को हिंसा कहते हैं किन्तु यह भूल जाते हैं कि प्राण दूसरे के ही नहीं, अपने पास भी मौजूद हैं। दूसरों के प्राणों का विघटन तो बाद में होगा, पहले अपने ही प्राणों का विघटन होता है और अपने प्राणों का विघटन होना ही वस्तुत: हिंसा है।’’ उनके इस कथन को बहुत गहराई से समझने की आवश्यकता है। हिंसा और अहिंसा के व्यापक अर्थों की छानबीन एवं विश्लेषण में तभी हम सफल हो सकते हैं।
संस्कृत वाङ्मय के आदि सूत्रकार आचार्य श्री उमास्वामी ने हिंसा की परिभाषा देते हुए एक सूत्र लिखा है—‘‘प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा’’ अर्थात् प्रमाद के वश होकर किसी के प्राणों को पीड़ा देना हिंसा है। यह पद बड़े मार्वेâ का है। प्रमाद को अनर्थों की जड़ कहा जाता है। यह प्रमाद है किस चिड़िया का नाम ? आचार्य श्री पूज्यपाद सकषाय अवस्था को प्रमाद कहते हैं (प्रमाद: सकषायत्व) तथा आचार्य अकलंकदेव के अनुसार अच्छे कार्यों के करने में आदर भाव का न होना प्रमाद कहलाता है। (स च प्रमादं कुशलेष्वनादर:)। इसका सीधा सा अर्थ हुआ है कि कषाय भाव से की जाने वाली क्रिया हिंसा कहलाएगी। हिंसा से बचना है तो कषाय से बचना होगा। कहा भी है—‘आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय।’ कषाय मानसिक मलिनता का ही दूसरा नाम है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अन्त:करण की अशुद्धि हिंसा और परिणाम विशुद्धि अहिंसा है। कोई भी आदमी जब क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों के फेर में पड़ जाता है तो वह कोई अच्छा कार्य कर ही नहीं सकता और कदाचित् करना भी पड़े तो वह उसे बेमन से करता है। आचार्यों ने किसी सत्कार्य को अनिच्छा या अनुत्साह से करने को भी हिंसा कहा है। कषाय से उत्पन्न यह हिंसा ही बन्ध का कारण है। जिसने कषाय की, वह बँध गया बैचेनी और अशान्ति से। कषायी जीव का निराकुल होना असम्भव है।
ऐसे प्रमाद के वश होकर प्राणों को पीड़ा देना हिंसा है। प्राण किसे कहते हैं ? धवला में कहा है—‘प्राणिति जीवति एभिरिति प्राणा:’ अर्थात् जिनके द्वारा जीव जीता है, उन्हें प्राण कहते हैं। जैसा कि हमने पहले कहा कि प्राण दूसरों के ही नहीं, अपने भी पास होते हैं। ये प्राण दो प्रकार के हैं—(१) द्रव्य प्राण और (२) भाव प्राण। द्रव्य प्राण के दस भेद हैं—पाँच इन्द्रियां, तीन बल (मन-वचन-काय बल,) आयु और उच्छ्वास। भाव प्राणों से तात्पर्य है आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख-शान्ति, निराकुलता आदि गुण। किसी को सताने का विचार मात्र करना आत्मविकलता को न्योता देना है। इस विकलता का उत्पन्न होना ही हिंसा कहलाता है। दियासलाई की तीली रगड़ खाकर जल उठती है। स्वयं जलने के बाद सूखे घास-फूस को जलाने लगती है। तीली के जलते ही यदि तेज हवा का झोंका आ जाए तो घास-फूस जलने से बच भी सकता है किन्तु तीली स्वयं तो जले बिना रहती नहीं, इसीलिए हमारे शास्त्रकारों ने कहा है कि जीवन की सबसे बड़ी बुराई भाव हिंसा है।
(१) संकल्पी, (२) आरम्भी (३) उद्योगी और (४) विरोधी। इनमें गृहस्थ को केवल संकल्पी हिंसा का त्याग करना होता है।
‘सागारधर्मामृत’ में सोदाहरण यह बात इस प्रकार कही गई है—
‘‘आरम्भेऽपि सदा हिंसा, सुधी: सांकल्पिकीं त्यजेत्।
ध्नतोऽपि कर्षकादुच्चै:, पापोऽध्नन्नपि धीवर:।।’’
अर्थात् सुधीजन आरम्भ या गृहस्थोचित कार्यों यथा—भोजन-पाक, घर की सफाई आदि कार्यों में संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करें। एक धीवर मछलियों के मारने के संकल्प से नदी में जाल डालता है। एक भी मछली जाल में न पँâसे तो भी धीवर को हिंसा का पाप लगता ही है किन्तु एक किसान की नीयत अन्नोत्पादन की है, उसके हल की नोंक से जीवों की विराधना होने पर भी वह पाप का भागी नहीं होता।
एक न्यायाधीश भी मनुष्य के भावों के आधार पर ही अपना निर्णय सुनाता है। तीन ‘ड कार’ का उदाहरण देखें। एक ड्राइवर मोटर चला रहा है। उसी समय एक मोड़ से कोई बच्चा निकलकर सड़क पार करने लगता है। ड्राइवर उसे बचाने की कोशिश करता है किन्तु बच्चा मोटर की चपेट में आकर मर जाता है। एक डाकू किसी मुसाफिर को लूटता है। प्रतिरोध करने पर उसे गोली से उड़ा देता है। एक डाक्टर रोगी की प्राण रक्षा के लिए आपरेशन करता है किन्तु बचाने की हरसम्भव कोशिश करने पर भी रोगी मर जाता है। ये तीनों मामले कोर्ट में पेश होते हैं। तीनों मृत्यु के मामले हैं किन्तु सबका पक्ष सुनने के बाद जज का पैâसला अलग-अलग होता है। तनिक सी असावधानी के लिए वह ड्राइवर को छ: मास का कारावास तथा डाकू को उसकी क्रूरता के लिए फाँसी की सजा देता है एवं डाक्टर को निर्दोष होने से रिहाई मिल जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि फल क्रिया के अधीन नहीं भावों के अधीन है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने अपने ग्रंथ ‘पुरुषार्थसिद्ध्युपाय’ में हिंसा—अहिंसा का बड़ा ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी विवेचन किया है। उन्होंने अनेक सम्भावनाओं की चर्चा की है—
हिंसा न करते हुए भी किसी-किसी जीव को हिंसा का बन्ध होता है, जैसे—आयुध निर्माता अपने आयुधों से स्वयं कोई हिंसा नहीं करता किन्तु हिंसा का फल तो उसे भोगना ही पड़ता है।
हिंसा हो जाने पर भी कोई-कोई जीव हिंसा के फल को नहीं भोगता, जैसे—डाक्टर अथवा आरम्भी, उद्योगी, विरोधी हिंसा में
यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्त या ईयासमिति से चलता हुआ साधु।
हिंसा तो करे कोई एक जीव किन्तु फल अनेक को भोगना पड़े,—जैसे—देवी के सामने किसी पशु की हत्या (या बलि) तो करे कोई एक आदमी किन्तु उसका फल भोगना पड़े उन सैकड़ों को, जो इस हत्या से हर्षित हो उसका अनुमोदन कर रहे हैं।
बहुत से लोग मिलकर हिंसा करें किन्तु फल एक को मिले, जैसे—युद्ध में लड़ती तो है सेना किन्तु उसका फल मिलता है कमाण्डर या सेनापति को। हिटलर स्वयं किसी को मारने नहीं गया, किन्तु हजारों लोगों को सैनिकों ने उसकी आज्ञा से मार डाला। इस महापाप का फल भोगने से हिटलर बच नहीं सकता।
हिंसा करने पर भी फल अहिंसा का मिले, जैसे—किसी दीन, अनाथ, अबला या साधु की रक्षा के लिए की गई हिंसा में मिलता है।
हिंसा हो या न हो किन्तु पाप का बन्ध अवश्य हो, जैसे—धीवर को होता है। शास्त्रों में तन्दुल मच्छ का उदाहरण आता है, वह आकार में छोटा होने से किसी को मारता नहीं किन्तु भावों से मारने की कल्पना करते रहने से रौरव नरक में उसे जाना पड़ता है।
ऐसे-ऐसे अनेक भंग (अपेक्षा) आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने प्रस्तुत किए हैं, जिनसे भावों की महिमा पर बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है। सुप्रसिद्ध विचारक श्री अमर मुनि ने ठीक ही लिखा है—‘‘जब किसी की आत्मा में किसी के प्रति रोष जगा तो हिंसा हो गई तथा किसी भी रूप में झूठ बोलने, चोरी करने या व्यभिचार का दुर्भाव आया अथवा कभी क्रोधादि चतुष्टय की भावनाएँ, जो जीवन को अपवित्र बनाती हैं, उठीं तो इसी को हिंसा कहा जाता है।’’ यह भाव हिंसा मिथ्यात्व या अज्ञान दशा की सूचक है इसीलिए ‘‘ज्ञानार्णव’ में ‘हिसैव गहन: तम:’ कहकर इससे बचने की सलाह दी गई है। अज्ञान दशा में आदमी स्वार्थी हो जाता है। अधीनस्थ व्यक्तियों से अधिक समय तक काम लेना, शक्ति से अधिक काम लेना, उनका शोषण करना या उचित वेतन न देना आदि कार्य स्वार्थ प्रेरित हिंसा के ही प्रतिफल हैं। कोई भी अिंहसक प्राणी दूसरों के प्रति कठोर नहीं होता।
भावों का प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता ही है। एक व्यक्ति रोता है तो उसे देखकर दूसरों को भी रोना आ जाता है। एक हँसने वाला व्यक्ति दूसरों को भी हँसाता है। स्वयं झूठ बोलने वाला दूसरों को सत्य का पाठ नहीं सिखा सकता। क्या कोई कायर शिक्षक अपने विद्यार्थियों को बहादुर बना सकता है ? किसी भोगी से आत्म निग्रह की सीख नहीं मिल सकती। महात्मा गाँधी ने अहिंसा को जीवन का अमृत कहा है। स्वच्छ हृदय वाले अिंहसक लोग ही एक शिष्ट और संयत समाज की रचना कर सकते हैं। अहिंसा का दर्शन जीवन की हर क्रिया में प्रतिपल-प्रतिक्षण सोते-जागते और उठते-बैठते होते रहना चाहिए। गाँधीजी ने लिखा है—‘‘अहिंसा तो मानो मेरी माला के मनको में धागे की तरह है जो मेरे सारे कामों में ओतप्रोत है।
एक वैद्य के पास एक ऐसा रोगी पहुँचा, जिसकी आँखें दुख रही थीं और एक पैर में गठिया का दर्द था। वैद्यजी ने उसे दो दवायें दीं, पर उस मूर्ख ने पैर पर लगाने वाला लेप तो आँखों में आँज लिया और आँख की दवा पैर पर मल ली। उसे जो मजा इससे आया होगा, उसे आसानी से समझा जा सकता है। हिंसा और अहिंसा को लेकर भी आज कुछ ऐसा ही हुआ है। हिंसा, जो अन्याय और अनाचार के फोड़े पर मलने-मसलने की चीज थी, उसे तो हमने जाने-अनजाने अपने जीवन व्यवहार में अपना लिया है और अहिंसा , जो सदा सर्वदा, क्षण-प्रतिक्षण पालनीय-आचरणीय थी, उसे हमने उपदेश की वस्तुमात्र बनाकर रख छोड़ा है। अहिंसा अब शास्त्रों के पन्नों में वैâद होकर रह गई है। ध्वनि विस्तारक यन्त्रों की सहायता से हम उसे सभा-सम्मेलनों में जोर-शोर से उछालते हैं। हम दूसरों को तो अिंहसक देखना चाहते हैं किन्तु रोज—रोज अपने द्वारा होने वाली हिंसा को प्राय: अनदेखा करते रहते हैं।
अपने जैन समाज को ही लें। रात्रि को भोजन न करने वालों का प्रतिशत निरन्तर घटता जा रहा है। ब्याह-बारातों में सूर्यास्त के बाद गोधूलि बेला में ही नहीं, दिया बाती हो जाने के बाद तक भी ज्यौनार में जीमते हुए जैनियों को कहीं भी देखा जा सकता है। पानी छानकर पीने वालों का औसत नगण्य रह गया है। आलोकितपान भोजन की बात आज केवल साधुओं तक सिमट कर रह गई है। हमें एक घटना याद आ रही है। एक आदमी के पेट में दर्द था। वह इलाज के लिए डाक्टर साहब के पास गया। डाक्टर साहब ने उससे पूछा—‘आज आपने भोजन में क्या लिया है ?’ उसने बताया कि आज दोस्तों के साथ बाजार में चाट-पकौड़ी और तली हुई चटपटी—मसालेदार चीजें ज्यादा मात्रा में खा ली हैं। डाक्टर ने अपने कम्पाउण्डर से कहा—इसकी आँख में दवा डाल दो।’ मरीज चौंककर कहने लगा—‘जी, दर्द आँख में नहीं, पेट में है।’ डाक्टर ने कहा—‘‘जानता हूँ। आँखों से देखकर खाओगे तो कभी पेट में दर्द नहीं होगा। पहले पेट दर्द का नहीं, तुम्हारी आँखों का इलाज जरूरी है।’’ भक्ष्याभक्ष्य का विचार किए बिना चाहे जो और चाहे जब खाने-चबाने वालों पर इस घटना में वैâसा तीखा व्यंग्य छिपा हुआ है।
हमारी अधिकांश बीमारियों का कारण भोजन सम्बन्धी हिंसा भी है। अण्डा सेवन से हार्ट अटैक, धूम्रपान से वैंâसर, मद्यपान से गुर्दों का निष्क्रिय होना, माँस भक्षण से स्नायु दौर्बल्य जैसी बीमारियाँ बढ़ रही हैं। यह वैâसा विरोधाभास है कि आज विश्व के वैज्ञानिक और चिकित्सक तो शाकाहार के लाभों पर शोध कर रहे हैं किन्तु भारत में अण्डा-माँस-मछली के विज्ञापन की संस्कृति फल-फूल रही है। ‘मछली की खेती’ और ‘अण्डों की पैदावार’ सरीखे शब्द प्रचलित हो गए हैं। चमड़े की बनी वस्तुओं, शैम्पू, लिपिस्टिक आदि के माध्यम से होने वाली हिंसा का तो अभी पूरा हिसाब भी नहीं लगाया जा सकता है।
किसी शिष्य ने पूछा था—‘सर्वत्र जीवों के सद्भाव में अहिंसा वैâसे पले ? आचार्य महाराज ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है
‘‘जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सए।
जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण वज्झई’’।।
ठीक प्रकार से चलने, खड़े होने, बैठने, सोने, खाने और बोलने वाला पापबन्ध को प्राप्त नहीं होता अर्थात् विवेकपूर्ण क्रिया करने वाला हिंसा के दोष से बचा रहता है। दैनिक कार्य-व्यवहार में समितियों के पालन की बात इसी दृष्टि से कही गई है। जैन मान्यता के अनुसार पाँच समितियाँ अहिंसा की रक्षा कवच के रूप में हैं। वे विवेक की प्रतीक हैं। चीजों को उठाने-धरने, सभा में बैठने-उठने, समाज में बोलने-चालने का भी एक विज्ञान है और उसका सम्बन्ध अहिंसा से है। परनिन्दा, चुगली, विकथा, कठोर वचन आदि का प्रयोग अहिंसक के लिए वर्जित है। जीवन की हर छोटी-बड़ी क्रिया में यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने वाला ही अहिंसक हो सकता है। ‘भागवत के इस श्लोक से भी इसका समर्थन होता है—
‘‘दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं पिवेज्जलम्।
सत्यपूतं वदेद् वाचं मन:पूतं समाचरेत्।।’’
मद्य-माँस-मधु का त्याग अहिंसा की पहली शर्त है। महाकवि बाल्मीकि ने श्रीराम के बारे में लिखा है—‘न मांसं राघवो भुक्ते, न चैवं मधु सेवते।’ मधु संचय में जो हिंसा होती है, उसे कोई आँख से देख ले तो उल्टी हो जाएगी। कपड़ों पर खून का एक धब्बा लग जाता है तो जब तक उसे धो नहीं लेते तब तक मन में ग्लानि बनी रहती है। खून सने कपड़ों से मन्दिर, मस्जिद या चर्च में प्रवेश नहीं हो सकता। जिसके शरीर से रक्त बह रहा है, उसे कौन अपने पास बिठाएगा ? वैâसा आश्चर्य है कि जिह्वा के क्षणिक स्वाद के लिए यह जीव खून से लथपथ माँस के लोथड़ों को अपने पेट में रख लेता है। जार्ज बर्नार्ड शा, गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे मनीषियों को, जो पहले माँसाहारी थे, माँस से ऐसी घृणा हुई कि वे कट्टर शाकाहारी बन गए।
सिगरेटों पर लिखा रहता है कि ‘धूम्रपान विष है’। टेलीविजन, सिनेमा आदि के द्वारा प्रचारित किया जाता है कि ‘मद्यपान विष है’ किन्तु लोगों ने न तो सिगरेट पीना कम किया और न मद्यपान में ही कहीं कोई कमी आई। सिगरेट और शराब सरकार के लिए राष्ट्रीय आय के साधन हैं। विदेशी मुद्रा के लालच में बन्दरों, मेढ़कों आदि का निर्यात क्या सरकार की अहिंसा नीति के खोखलेपन को ही व्यक्त नहीं करता ? गाँधीजी ने कहा था—‘साधन और साध्य दोनों ही पवित्र होने चाहिए, आज यह पवित्रता सर्वांग में कहीं दिखती है क्या ?
‘अहिंसा ’ आत्मा की खुराक है तो ‘रोटी’ शरीर की। जो रोटी न्यायपूर्वक, बिना दूसरे को पीड़ा दिए हुए, दूसरों का हक सुरक्षित रहे, इस भावना से कमाई जाती है, वह खाने योग्य है। भोजन का उद्देश्य बल या आयु बढ़ाना, शरीर पुष्टि और स्वाद नहीं, बल्कि संयम-ध्यान-ज्ञान की साधना में उसका सहकारी होना है। जो पाप, बेईमानी और कपट से कमाई रोटी खाता है उसका तो पतन होता ही है, जिस परिवार में ऐसी रोटी आती है वहाँ भी धर्म नहीं टिक पाता। खान-पान का अहिंसा के साथ गहरा सम्बन्ध है।
कुछ लोग अहिंसा की व्यावहारिकता पर संदेह करते हैं। उनका तर्क होता है कि अहिंसा तो साधु-सन्यासियों का धर्म है। राजधर्म में अहिंसा का क्या काम ? यदि सरकार आतताइयों को दण्ड न दे तो संसार में जुल्म की वृद्धि होगी, सज्जन कष्ट पाएँगे, अधर्म का बोलबाला और धर्म का ह्रास होगा। ऐसे सन्देहों का निवारण करते हुए स्व. पं. गोपालदास जी बरैया ने ‘जैन मित्र’ में लिखा था—‘‘किसी बालक के पेट में कृमि हो गए हैं तो उनसे मुक्ति के लिए धर्म यह कभी नहीं कहता कि उसे औषधि नहीं देनी चाहिए क्योंकि औषधि देने से जो कृमि मरेंगे उस हिंसा में प्रमत्त योग नहीं होगा। वहाँ बालक के स्वास्थ्य लाभ का लक्ष्य है, कृमि मारने का नहीं’’।
वैसे भी गृहस्थ विरोधी हिंसा का त्यागी नहीं होता। राम ने रावण से और पाण्डवों ने कौरवों से युद्ध किया, उसमें हिंसा तो हुई किन्तु उस हिंसा का कारण साम्राज्य विस्तार, धनसंग्रह, यशोलिप्सा या निजी स्वार्थ नहीं था। वे दोनों युद्ध क्रमश: सतीत्व और स्वत्व की रक्षा के लिए लड़े गए थे। युद्ध से पहले राम के दूतों ने रावण को तथा पाण्डवों की ओर से श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को समझाने की भरसक कोशिश की थी किन्तु जब मदान्धों पर समझाने का असर नहीं होता तब युद्ध अनिवार्य और अनिर्वार हो जाता है। ऐसे युद्धों का उद्देश्य कुछ निश्चित आदर्शों की रक्षा करना होता है। अहिंसा में उसका निषेध नहीं है। सम्राट खारवेल, सेनापति चामुण्डराय आदि को भी युद्ध लड़ने पड़े थे। द्वेषरहित होकर समबुद्धि से लोक कल्याण के लिए दिया गया दण्ड या प्राण हनन हिंसा की कोटि में नहीं आता। हाँ, गाँधीजी के शब्दों में—‘‘यदि हमारी महत्त्वाकांक्षा साम्राज्य पैâलाने की है, यदि हमारी आँखे दूसरों की सम्पत्ति पर गड़ी हैं, यदि भूखे पड़ोसियों के प्रति हमें कोई हमदर्दी नहीं है, हम अपने ही स्वार्थ में रत रहकर भोगों के पीछे पड़े हुए हैं तो फिर यहाँ अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है।’’
आज संसार में शान्ति स्थापित करने के लिए बहुत प्रयत्न किए जा रहे हैं किन्तु वे सफल क्यों नहीं हो रहे ? उन सभी प्रयत्नों की असफलता का कारण भय और अविश्वास की भावना है। अहिंसा तो समर्पण और निर्भयता चाहती है। अभी कुछ वर्षों पहले पंजाब से भागकर आये हिन्दुओं को पंजाब के एक मंत्री ने सलाह दी—‘‘तुम्हें अपने प्रदेश में लौटना चाहिए। हम करेंगे तुम्हारी सुरक्षा। तुम डरते क्यों हो ?’’ एक पलायित हिन्दू ने पूछा—‘‘क्या आप स्वयं सुरक्षित हैं ? यदि हाँ, तो आपके पीछे-पीछे यह सुरक्षा गार्ड और हथियारबंद सैनिक क्यों चल रहे हैं ? इससे तो यही मालूम होता है कि आप स्वयं भयभीत हैं। जिसे स्वयं अपनी सुरक्षा का भरोसा न हो वह दूसरों की गारण्टी वैâसे दे सकता है ? मंत्रीजीr बेचारे निरुत्तर मुँह लटकाये लौट गए।
गाँधीजी जहाँ भी हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते थे, वहाँ निर्भय होकर पहुँच जाते, उनके साथ फौज तो क्या, रिवाल्वर भी नहीं होती थी। आत्मबल और अनशन—सत्याग्रह के अिंहसक अस्त्र से वह अनेक बार बलवाइयों का हृदय परिवर्तन करने में सफल हुए थे।
बुराइयों से संघर्ष करना ही अहिंसा है और यह अहिंसा ही सर्वोपरि धर्म है।