अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ—उत्पत्तिस्थान है। जीववध आत्मवधो, जीवदयाऽत्मनो दया भवति। तस्माद् सर्वजीवहिंसा, परित्यक्ताऽऽत्मकामै:।।
जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अत: आत्म—हितैषी (आत्म—काम) पुरुषों ने सभी तरह की जीव हिंसा का परित्याग किया है। तुंगं न मन्दरात् , आकाशाद्विशालकम नास्ति। यथा तथा जगति जानीहि, धर्मोऽहिंसासमो नास्ति।।
जैसे जगत में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अिंहसा के समान कोई धर्म नहीं है। सर्वेषामाश्रमाणां हृदयं, गर्भो वा सर्वशास्त्राणाम्। सर्वेषां व्रतगुणानां, पिण्ड: सार: अहिंसा हि।।
अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत सार है। रागादीममणुप्पा अिंहसगत्तं।
रागादिक का उत्पन्न न होना वस्तुत: अिंहसा है। अत्ता चेव अहिंसा।
(शुद्ध, निर्विकार) आत्मा ही अहिंसा है।