अहिंसा एवं सदाचार से विश्व में शांति की स्थापना संभव है
संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दु:ख से डरता है।
इसी सुख शांति को प्राप्त करने के लिए मानव भी रात-दिन प्रयास करता है, तरह-तरह के उपक्रम करता है पर विश्वधर्म को प्रतिपादित करने वाले संतों ने ऐसी सुख-शांति का यदि कोई मूल आधार माना है तो वह है-अहिंसा और सदाचार अर्थात् जब तक जीवन में मन से, वचन से तथा शरीर से किसी भी प्राणी को दु:ख न पहुंचाने की अहिंसक वृत्ति का एवं क्षमा, दया, सहनशीलता आदि गुणों रूप सदाचरण का उदय नहीं होता है तब तक न व्यक्ति के अपने जीवन में शांति आती है और न ही समाज, राष्ट्र एवं विश्व में शांति स्थापित हो सकती है।
युग के प्रारंभ में जबकि मानव भोग प्रधान जीवन जी रहा था और उसकी सारी आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों अर्थात् इच्छित फल प्रदान करने वाले वृक्षों के द्वारा सहज में ही पूरी हो जाती थी, तब मानव को किसी भी प्रकार के संघर्ष, वैमनस्य इत्यादि का सामना ही नहीं करना पड़ता था, सब ओर स्वयं ही शांति का, सुख का वातावरण था पर धीरे-धीरे काल के प्रभाव से कल्पवृक्षों की शक्ति घटने लगी और जनसमुदाय को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में कठिनाई होने लगी, ऐसे संक्रामक काल में एक महान पुरुष का धरती पर अवतरण हुआ, जिनका नाम था ‘‘भगवान ऋषभदेव’’।
भारतभूमि की अयोध्या नगरी में पिता ‘नाभिराय’ एवं माता ‘मरुदेवी’ से जन्मे ऋषभदेव ही मानवीय संस्कृति के आद्य प्रणेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए और उन्हें ही युगादि पुरुष, आदिब्रह्मा, आदिसृष्टा आदि नामों से जाना गया, वैदिक (हिन्दू) ग्रंथों ने उन्हें अष्टम अवतार माना तो मुस्लिम समुदाय ने उन्हें आदम-बाबा कहकर पुकारा। वस्तुत: यही थे इस युग में जैनधर्म के प्रथम प्रवर्तक-आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव।
प्रजा की कठिनाइयों को जानकर महाराज ऋषभदेव ने जीवन जीने की कला को सिखाने के लिए षट्क्रियाओं का उपदेश दिया। वे षट् क्रियाएँ थीं-असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प।
‘असि’ अर्थात् ‘अपने रक्षण के लिए युद्ध क्रिया’, ‘मसि’ अर्थात् ‘लेखन क्रिया’, ‘कृषि’ अर्थात् ‘अपने पुरुषार्थ द्वारा फल, सब्जी, मेवा इत्यादि उत्पन्न करना’, ‘विद्या’ अर्थात् ‘विभिन्न प्रकार की कलाओं-विद्याओं का उपार्जन, ‘‘वाणिज्य’ अर्थात् ‘आर्थिक व्यापार’ तथा ‘शिल्प’ अर्थात् ‘ग्रह निर्माण’ आदि क्रियाएँ।
भगवान ऋषभदेव ने बहुत ही दूरदर्र्शितापूर्वक इन छह क्रियाओं का प्रतिपादन किया था, जिसमें एक-दूसरे के प्रति परिपूर्ण अहिंसक वृत्ति रखते हुए सदाचरण रूप व्यवहार करना ही मूल आधार था। ऐसे आदिपुरुष द्वारा उपदेशित क्रियाओं का मूल मर्म संसार को बहुत ही सम्यक् प्रकार से समझना होगा।
‘असि’ क्रिया में भगवान ने युद्ध का निर्देश तो किया है पर वह ‘युद्ध’ है अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए, न कि बलपूर्वक दूसरे के अधिकार क्षेत्र को छीनने के लिए। इसी प्रकार ‘कृषि क्रिया’ में अपने शारीरिक श्रम द्वारा शाकाहाररूप अनाज, फल, सब्जी, मेवा एवं अन्य भोज्य पदार्थों को उत्पन्न करके भगवान ने सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा जीविको पार्जन की बात कही थी।
विस्तृत रूप से यदि देखा जाये तो इन छह क्रियाओं के आधार को लेकर ही सारे विश्व में हर क्षेत्र में आधुनिक स्तर तक की उन्नति हुई है पर यह काल का ही दोष कहना होगा कि उन मूल क्रियाओं के स्वरूप में अनेक प्रकार की विसंगतियाँ भी उत्पन्न हो गर्इं, जिसके कारण सारे विश्व में आज असंतुलन, असुरक्षा, हिंसा, वैमनस्य एवं कटुता की भावनाएँ बहुत रूप में अनुभव की जा रही हैं, देश-देश के बीच युद्ध का माहौल बना हुआ है, विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा भाग गरीबी से अभिशप्त है और पर्यावरण भी नित-प्रति दूषित होता चला जा रहा है।
आज के मानव को एक बार गंभीरतापूर्वक सारी स्थितियों का चिंतन करना होगा और कुछ सिद्धान्तों को सदैव के लिए आत्मसात करना होगा। सन् २००० में यू.एन.ओ. में विश्व भर के धर्माचार्यों द्वारा किया गया ‘विश्वशांति शिखर सम्मेलन’’ इसी बात का परिचायक है।
जिन सिद्धान्तों को सदैव के लिए अपनाना है वे कोई नवीन नहीं हैं वरन् भगवान ऋषभदेव जैसे महापुरुषों द्वारा प्रारंभ से प्रणीत अहिंसा, सहिष्णुता, पारस्परिक मैत्री-सौहार्द, सदाचार से युक्त सद्व्यवहार ही हैं। इनके आधार से ही पूर्व में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में शांति व समरसता स्थापित हुई है तथा आगे के लिए भी यही पथप्रदर्शक हैं, सही बात तो यही है कि इन सिद्धान्तों से भटक जाने के कारण ही विश्व की स्थिति प्रतिकूलताओं से घिर गई है।
यदि इतिहास उठाकर देखें तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि हिरोशिमा-नागासाकी पर गिरे बमों से क्या शांति स्थापित हो सकी ? भारत का स्वतंत्रता आंदोलन तो जगप्रसिद्ध है, जलियावाला बाग, अमृतसर में सैकड़ों निर्दोष लोगों पर गोली चलवाकर भी क्या अंतत: भारत को पराधीन रखा जा सका, बल्कि अंत में महात्मा गांधी जैसे महापुरुष के अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन इत्यादि के माध्यम से ही असंभव लगने वाला देश की आजादी का लक्ष्य भी संभव सिद्ध हो सका।
युद्ध की विभीषिका
युद्ध की विभीषिका में जलते आज के विश्व के लिए भी यदि कोई मलहम है तो वह अहिंसा की भावना से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है। सभी देशों के धर्माचार्य यदि यह प्रयास करें कि उनके अनुयायियों में प्राणीमात्र के लिए दु:ख न पहुँचाने की अहिंसात्मक भावना व्याप्त हो जाए तो संसार की युद्ध संबंधी आधी से ज्यादा समस्याएँ स्वत: ही सुलझ सकती हैं, क्योंकि दूसरे के अधिकार को बलपूर्वक हरण करने की इच्छा से भी न जाने कितनी लड़ाइयाँ विश्व भर में चल रही हैं।
जनसमुदाय को यह समझाने की आवश्यकता है कि नरसंहार से, रक्तपात से, युद्ध-विभीषिका से न आज तक किसी को शांति मिली है और न मिल सकती है, युद्ध तो प्यास बुझाने के लिए रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान है जो शांति का छलावा हो सकते हैं, शांति नहीं।
वास्तविकता तो यह है कि आज की धरती पर निरंतर चल रहे नरसंहार, पशुओं पर होने वाले अत्याचार, बूचड़खानों में नितप्रति मरते जीवों के करुण क्रंदन से ही धरती माँ का कलेजा इतना आहत होता जा रहा है कि जिसकी परिणति निरंतर भूकंपों, बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आती है।
वैज्ञानिक रूप से भी इस तथ्य को पोषित करने वाले प्रमाण मिले हैं। जब तक इस अहिंसा की भावना को जन-जन के द्वारा महत्व नहीं दिया जायेगा, अपने जीवन में उतारा नहीं जायेगा, तब तक पारस्परिक सामंजस्य स्थापित नहीं होगा और ऐसे मैत्रीपूर्ण सौहार्द भाव के बिना शांति की कल्पना नहीं की जा सकती।
अहिंसा की भावना किसी सदाचारी मानव का प्रमुखतम गुण है, इस गुण के विकसित होने से अन्य नैतिक भावों जैसे करुणा, सहनशीलता, दया, क्षमा, प्रेम आदि भावनाएँ तो स्वत: ही विकसित हो जाती हैं और मानव के सदाचारी बनते ही संसार को स्वर्र्ग बनते क्या देर लगे ? अत: धर्माचार्यों को ही अपने प्रभाव से अपने अनुयायी भक्तों में इन सब गुणों को भरने का सद्प्रयास करना होगा और इस प्रकार से विश्वशांति की परिकल्पना को साकार करना होगा।
जहाँ तक गरीबी से अभिशप्तता का प्रश्न है
जहाँ तक गरीबी से अभिशप्तता का प्रश्न है,वहाँ पर आज के आधुनिक युग में अहिसंक कृषि को मुख्य व्यवसाय के रूप में अपनाने का सुझाव इसलिए कार्यकारी है क्योंकि सीमित साधनों के द्वारा जहाँ अपनी आजीविका का प्रश्न हल हो जाता है, वहाँ पर ही पूरे समाज के लिए उपयोगी अन्न के उत्पादन से राष्ट्र की आर्थिक प्रगति भी सुचारू हो सकती है तथा इस स्वावलम्बन से अन्य बहुत सी समस्याएँ स्वत: ही हल हो जाती हैं।
परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माता जी एक ऐसी महान दिव्य विभूति है कि जो अपने सम्पूर्ण जीवन में अहिंसात्मक एवं वैराग्मयी चर्या का पालन करके जहाँ भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए ‘जिओ और जीने दो’ का संदेश प्रदान करती रही हैं वहीं उनके विराट व्यक्तित्व ने विश्व भर में एक कीर्तिमान स्थापित किया है।
उन्होंने अपने ६२ वर्ष के दीक्षित जीवनकाल में उत्तर भारत के हस्तिनापुर नामक प्रसिद्ध तीर्थ पर ‘जम्बूद्वीप’ नामक जैन भूगोल रचना का निर्माण करवाकर देश-विदेश के वैज्ञानिकों को सृष्टि की खोज का एक विषय प्रदान किया है, ४०० ग्रंथों की उन्होंने रचना की है तथा राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन करके विश्वमैत्री का संदेश जन-जन तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त की है।
वे सदैव कहा करती हैं कि इस भारत भूमि की पवित्र धरा पर जहाँ कि ऋषभदेव, राम, हनुमान, महावीर, बुद्ध एवं गांधी जैसी महान सदाचारी आत्माओं ने जन्म लिया है, उस धरा के धर्माचार्य सदैव अखिल विश्व को उच्चतम नैतिक आदर्शों का समय-समय पर संदेश प्रदान करते रहते हैं। इन्हीं सद्प्रयासों से जन-जन का जीवन सुख-शांति-समृद्धि एवं अध्यात्म से परिपूरित हो जाये, यही मेरी मंगलकामना है।