सिद्धों की श्रेणी में आकर, जिनने इतिहास बनाया है।
सिद्धी कन्या का परिणय कर, आत्यंतिक सुख को पाया है।।
उन सिद्धशिला के स्वामी पारसनाथ प्रभू को नमन करूँ।
उनकी उपसर्ग विजय भूमी, अहिच्छत्र तीर्थ को नमन करूँ।।१।।
इतिहास पुराना है लेकिन, हर पल हमको सिखलाता है।
शुभ क्षमा धैर्य अरु सहनशीलता, का संदेश सुनाता है।।
अपनी आतमशांती से शत्रू, भी वश में हो सकता है।
क्या दुर्लभ है जो कार्य क्षमा के, बल पर नहिं हो सकता है।।२।।
अहिच्छत्र तीर्थ उत्तरप्रदेश के, जिला बरेली में आता।
जिसके दर्शन-वंदन करके, भक्तों को मिलती सुख साता।।
धरणेन्द्र और पद्मावति ने, जहाँ फण का छत्र बनाया था।
उपसर्ग निवारण कर प्रभु का, सार्थक अहिच्छत्र बनाया था।।३।।
है वर्तमान में भी अतिशय, वहाँ पाश्र्वनाथ तीर्थंंकर का।
मंदिर तो है अवलम्बन बस, कण-कण पावन है तीरथ का।।
इस तीरथ के पारस प्रभु को, कहते तिखाल वाले बाबा।
प्रतिमा छोटी है किन्तु वहाँ, भक्तों का बड़ा लगे तांता।।४।।
अब चलो करें उस तीरथ की, यात्रा हम सब अन्तर्मन से।
अनुभव ऐसा होगा जैसे, सचमुच हम उस तीरथ पर हैं।।
यहाँ एक विशाल जिनालय में, बीचोंबिच पाश्र्वप्रभू राजें।
जहाँ भक्त मनोरथ सिद्धि हेतु, चालीसा करने हैं जाते।।५।।
भावों से शीश झुका अपने, पारस प्रभु की जयकार करो।
प्रात: उठकर मंदिर में जा, अभिषेक व पूजन पाठ करो।।
केवल भौतिक सुख की इच्छा, मत करना जिनवर के सम्मुख।
जैसा प्रभु ने पाया वैसा, मांगे हम भी आध्यात्मिक सुख।।६।।
इस मूलवेदि के बाद चलो, महावीर प्रभू की वेदी पर।
ऐसे ही दूजी ओर विराजे, पाश्र्वनाथ इक वेदी पर।।
इन दोनों जिनप्रतिमाओं को, झुककर पंचांग प्रणाम करो।
फिर आगे समवसरण रचना के, दर्शन कर मन शांत करो।।७।।
सर्पों के फणयुत बनी कमल-वेदी पर पाश्र्वनाथ काले।
पद्मासन मुद्रा में राजें, सांवरिया सार्थक गुण वाले।।
आगे दो बंद वेदियों में, प्राचीन बहुत हैं प्रतिमाएँ।
जो गदर सतावन के युग की, घटना दिग्दर्शन करवाएँ।।८।।
तीनों पूरब मुख वेदी के ही, बीच में पद्मावति देवी।
अपने अतिशय को दिखा रहीं, पारसप्रभु की शासन देवी।।
लौकिक सुख की इच्छा से सारे, भक्त पूजते हैं इनको।
प्राचीन पद्धती है यह ही, मिथ्यात्व न तुम समझो इसको।।९।।
पूरे मंदिर में घूम-घूमकर, प्रदक्षिणा जिनवर की करो।
भव भव का भ्रमण मिटाने को, मंगल आरति प्रभुवर की करो।।
जैसे निसही निसही कहकर, मंदिर के अंदर जाते हैं।
असही असही कहकर वैसे ही, वापस बाहर आते हैं।।१०।।
इस सात शिखर युत मंदिर की, सीढ़ी से अब नीचे उतरो।
फिर चलो तीस चौबीसी मंदिर, के अंदर प्रभु दर्श करो।।
हैं सात शतक अरु बीस मूर्तियाँ, दश कमलों पर राज रहीं।
सब अलग-अलग पंखुडियों पर, पद्मासन वहाँ विराज रहीं।।११।।
इस मंदिर के बीचों बिच में, खड्गासन पाश्र्वनाथ प्रतिमा।
प्रभु के शरीर अवगाहनयुत, होने से उसकी है महिमा।।
यह मंदिर बना ज्ञानमति माताजी की पुण्य प्रेरणा से।
उनके ही द्वारा दिये गये, प्रभु नाम यहाँ उत्कीर्ण भी हैं।।१२।।
यह अद्वितीय रचना लखकर, हर दर्शक आनंदित होता।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती के, प्रति वह सदा विनत होता।।
ढाईद्वीपों के पाँच भरत, पंचैरावत की प्रतिमाएँ।
दश क्षेत्रों के त्रैकालिक सात सौ-बीस जिनेश्वर कहलाए।।१३।।
इनका वंदन करने से इक दिन, खुद का भी वंदन होगा।
इनका अर्चन करने से इक दिन, निज का भी अर्चन होगा।।
है एक तीस चौबीसी का, मण्डल विधान भी सुखकारी।
इस रचना के सम्मुख उसको, करके हो प्राप्त पुण्य भारी।।१४।।
धीरे-धीरे सब कमलों के, सम्मुख जाकर वंदना करो।
फिर श्री पाश्र्वनाथ के चरणों में, कुछ देर बैठ अर्चना करो।।
इस जिनभक्ती की तुलना कोई, पुण्य नहीं कर सकता है।
इस भक्ती के द्वारा मानव, भवसागर से तिर सकता है।।१५।।
यहाँ ह्रीं बिम्ब के दर्शन करके, मंदिर से बाहर निकलो।
इस ग्यारह शिखरों युत मंदिर के, बाद तृतिय मंदिर में चलो।।
श्री पाश्र्वनाथ पद्मावति मंदिर, नाम से इसकी ख्याती है।
जहाँ पाश्र्वनाथ के साथ मात-पद्मावति पूजी जाती हैं।।१६।।
जिनवर के आजू-बाजू में, धरणेन्द्र व पद्मावति प्रतिमा।
बतलाती हैं अहिच्छत्र तीर्थ , सार्थकता की गौरव-गरिमा।।
मंदिर के संग-संग तीरथ पर, निर्मित हैं कई धर्मशाला।
जिनमें रह करके पुण्य कार्य, करता है हर आने वाला।।१७।।
यह तीर्थ वंदना पढ़कर प्रभु को, सदा-सदा स्मरण करूँ।
पाश्र्वनाथ के अगणित गुण में से, क्षमा भाव को ग्रहण करूँ।।
हे प्रभो! किसी से वैर का बदला, लेने के नहिं भाव बनें।
‘‘चन्दनामती’’ इस जीवन में,अहिच्छत्र तीर्थ वरदान बने।।१८।।