हमारे शरीर में आंखें अत्यंत नाजुक अंग हैं । प्रकृति ने इनकी सुरक्षा के लिए ही शायद आंसू रूपी संरक्षण शक्ति को भर दिया है। अत्यधिक खुशी हो या अत्यधिक दु:ख , दोनों ही स्थितियों में आंखों से आंसू टपक पड़ते हैं । सुख एवं दु:ख दोनों ही स्थितियों की अभिव्यक्ति आंखों के माध्यम से हो जाया करती है। वैज्ञानिकों के अनुसार आंसू में ८४ प्रतिशत पानी होता है और शेष में कुछ क्षार तथा ‘लाइसोजाइम’ नामक रासायनिक तत्व पाया जाता है। लाईसोजाइम की मात्रा खून में भी होती है । इस रसायन में क्रमिनाशक अनुपम शक्ति पायी जाती है। आंख में उपस्थित नमी का प्रमुख कार्य यह है कि वह आंख के कोरों को निरन्तर धोये तथा उसमें पहुँचने वाले दर्द गुब्बरों को हटाते हुए बाहरी वातावरण से आने वाले कीटाणुओं को नष्ट कर दें वैज्ञानिकों का मानना है कि सौ गैलन पानी में अगर एक चम्मच आंसू डाल दिया जाये तो उस जल के सभी कीटाणु मर जाते हैं। आंसू में क्रमिनाशक शक्ति इतनी तीव्र होती है कि उसकी शक्ति हजार गुना जल में मिश्रित होने पर भी बनी रहती है। अन्य क्रमिनाशक पदार्थों की तुलना में आंसू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह काफी समय तक कीटाणुओं से लड़ता रहता है और जब तक कीटाणु जीवित रहते हैं, तब तक आंसू उनको नष्ट करने की अपनी चेष्टा बंद नहीं करता। अब प्रश्न यह उठता है कि हम रोते क्यों हैं ? अमेरिका के ‘ऑर्गेनिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक व बॉयोकेमिस्ट विलियम फ्रेंक का कहना है कि आंसू बहाने के बाद व्यक्ति हल्का—फुल्का और तनावरहित महसूस करता है क्योंकि भावनात्मक तनाव—दबाव के दौरान बने रसायनों को आंसुओं के माध्यम से शरीर से बाहर निकलने का मौका मिल जाता है। यूं तो आंसू आंखों को नम रखने, संक्रमण से बचाव करने तथा आंख में पड़े विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालने के लिए भी निकल पड़ते हैं लेकिन मनोवैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि किसी का अपनी तरफ ध्यान आकृृष्ट करने के लिए भी आंसुओं का इस्तेमाल किया जाता है। जब हर्ष अथवा विषाद से हमारी भावनायें उमड़ पड़ती हैं तो हमारी आंख के कोनों में एक तीखा वाष्पीय पदार्थ पैदा होने लगता है । उस तीखे वाष्प के कारण आंसुओं को नियमित करने वाली ‘लेक्रिमल ग्रंथि’ शरीर में मैगनीज खनिज बाहर निकालने का काम करती है।फ्रेंक का कहना है कि रक्त सीरम की तुलना में यह खनिज आंसुओं में तीस गुना अधिक पाया जाता है। उल्लेखनीय है कि इस खनिज को ‘मूड’ के परिवर्तन के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जाता है। वैज्ञानिक फ्रेक ने विभिन्न परिस्थितियों में निकले आंसुओं का भी अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने कुछ लोगों को दुखान्त भावनाप्रधान फिल्में दिखायीं तथा इस तरह निकले हुये आंसुओं की तुलना जलन के कारण निकले आंसुओं से की। उन्होंने पाया कि भावनात्मक आंसुओं का रासायनिक गठन मिर्च की जलन से उत्पन्न आंसुओं से अलग था । उनमें प्रोटीन की सांद्रता चौबीस प्रतिशत अधिक थी। फ़्रेक ने अनुसंधान में यह भी पाया कि दोनों किस्म के आंसुओं में शरीर द्वारा दबाव—तनाव के दौरान पैदा तीन मुख्य रसायन थे। पहला ‘ल्यूसिन एंकेपेक़लिन’ जो पीड़ा की अनुभूति से राहत पहुंचाता है, दूसरा ‘ए. सी. टी. एच.’ नामक हारमोन , जो शरीर के तनाव एवं दबाव का सूचक है। तथा तीसरा ‘प्रोलेक्टिन’ नामक हारमोन जो स्तनधारियों में दुग्ध उत्पादन नियमित करता है। ‘प्रोलेक्टिन’ आंसुओं के पैदा होने में सक्रिय भूमिका निभाता है। फ़्रेक का कथन है कि एक वयस्क स्त्री का सीरम प्रोलेक्टिन स्तर एक वयस्क पुरुष की अपेक्षा ६० प्रतिशत अधिक होता है और संभवत: यही कारण है कि स्त्रियों की आंखों में हर समय आंसू मौजूद रहते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जो आदमी कभी नहीं रोता, वह साधारण आदमी नहीं होता । न रोना मस्तिष्क की विकृति मानी जाती है। जन्म लेते ही जो बच्चे नहीं रोते, उनके जीवित रहने की संभावना बहुत कम होती है । अगर जीवित रह भी जायें तो उनके अंगों का विकास बहुत कम होता है। ऐसे बच्चे को चिकित्सक ‘फैमिलियल डिसटोमिया’ नामक रोग से ग्रसित मानते हैं। ऐसे बच्चों के अपराधी निकलने की संभावना अधिक रहती है। इसे मस्तिष्क की विकृति का रोग माना जाता है। रोने से तनाव से होने वाली बीमारियां जैसे अल्सर और बड़ी आंत की सूजन होने की संभावना कम होती है । रोने का असर पेट की मांसपेशियों तथा डायफ्रम पर पड़ता है। परीक्षणों से यह भी पता चला है कि बिलख—बिलख कर रोने से त्वचा के रंग व रसायनिक संरचना में भी बदलाव आ जाता है। न रोने वाले के शरीर पर फोड़े—फुंसियां अधिक होते हैं । प्राचीन काल में मिश्र में एक प्रथा थी कि महिलायें अपने आंसू बोतलों में एकत्र करके रखा करती थीं । उस अश्रुजल को लोग परम पवित्र मानते थे। सोलहवीं सदी में कुछ देशों में यह प्रथा थी कि जब किसी नारी का पति युद्ध में जाता था तो वह अपने पति—प्रेम एवं सतीत्व का प्रमाण देने के लिए विरह काल के आंसू सुन्दर बोतलों में यत्न के साथ एकत्र करके रखा करती थीं और जब पति वापस लौटता था तो उस अश्रुजल से उसका अभिषेक करती थीं ताकि वह युद्ध के मैदान के वायरसों से मुक्त हो जाये। इस प्रकार आंसू हमारे स्वास्थ्य के लिए परम आवश्यक तत्व है।