संसारी जीव अनादिकाल से स्वयं के किये हुए कर्मों से बंधा है और अपने जीव के स्वभाव से अलग थलग हो, कर भ्रमण कर रहा है, स्वयं की अज्ञानता के कारण, और नही जानता कि वह कौन—कौन से कर्म किस—किस अवस्था में कैसे बांधता है। कर्मबंध की यह क्रिया अत्यन्त जटिल है और समझ पाना अत्यन्त ही कठिन । फिर भी यदि हम जान जाएँ कि किन—किन कर्मों से वो क्या—क्या बंध कर रहा हैं, तो संभव है कि वह उन कर्मों को सही दिशा दे सके। इस प्रयास में सर्वप्रथम तो यह जानना आवश्यक हो जाता है कि कर्म हमें संसार का परिभ्रमण किस प्रकार कराते हैं । कुछ कर्म हम करते हैं, कुछ कर्म हम भोगते हैं तथा कुछ कर्म नये बांध लेते हैं और यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है जब तक कि कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त न हो जाए। तो आइए जानें कि कर्म हमें किन—किन गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। आगम में गतियां चार ही बताई गई है। यथा—देव गति , मनुष्य गति, नरक गति और तिर्यंच गति। पांचवी गति कर्म—बन्धन मुक्त है इसलिये इस लेख में उसका उल्लेख युक्तिसंगत नहीं है। अब जानें कि संसार में जीव का इन गतियों में परिभ्रमण कौन—कौन से कर्म के कारण होता हैं। वे हैं— १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय। पहले से ४ तक धातिया कहलाते हैं जबकि ५ से ८ तक अघातिया। संसार भ्रमण का मुख्य कारण तो घातिया कर्म ही है। अघातिया कर्म तो स्वयमेव ही नष्ट हो जाते हैं। तत्वार्थ सूत्र के अध्याय ६ सूत्र १० में कहा गया है।
‘‘तत्प्रदोष निन्हव— मात्सर्यान्तराया—सादनोपघाता ज्ञान— दर्शनावरणयो’’
अर्थात प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात—ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आश्रव तथा बंध के कारण हैं। वेदनीय कर्म दो प्रकार के बताये गये हैं। १. साता वेदनीय और २. असाता वेदनीय सूत्र ११ में बताया है :—
‘‘दु:ख शोक—तापाक्रन्दन— वधपरिदेवना— न्यात्म— परोभय— स्थान्यसद्वेद्यस्य’’
अर्थात दुख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदना— से असाता वेदनीय के कर्मों का आश्रव और बंध कर कारण बनते हैं तथा सूत्र १२
‘‘भूत—व्रत्यनुकम्पादान—सराग संयमादियोग: क्षांति: शौचमिति सद्वेद्यस्य’’
अर्थात् प्राणी/ व्रती व्यक्तियों पर विशेष अनुकम्पा, दान देना, सराग संयम के चारित्र को पालना, क्षान्ति और शौच साता वेदनीय के कर्मों के आश्रव और बंध का कारण होते हैं। सूत्र १३ में दर्शन मोहनीय
‘‘ केवलि — श्रुत—संघ — धर्म — देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य’’
अर्थात् केवली , श्रुत, संघ, धर्म और देव का अवर्णवाद दर्शन मोहनीय के कर्म आश्रव/बंध का कारण है तथा सूत्र १४ :
‘‘कषायोदयातीव्र —परिणामश्चारित्र मोहस्य’’
अर्थात् कषाय का उदय पूर्व संचित कर्मों के कारण हुआ करता है यह चारित्र मोहनीय कर्म हळै। शेष चारों अघातियों के विषय में बताया गया है कि गति बन्ध तो जीव के शुभ/अशुभ कर्मों के अनुसार लगातार होता रहता है, परन्तु आयु बंध की एक अलग प्रक्रिया होती है। हाँ एक बार आयु बंध हो जाने पर जीव को उस गति में जाना ही होता है। महत्वपूर्ण यह है कि हम जानें किन गतियों में परिभ्रमण क्या—क्या कर्म करने के कारण होता हैं।सूत्र १५ में
‘‘बह्मारम्भ — परिग्रहत्वं नारकस्यायुष :’’
अर्थात बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह नरक गति का कारण होता है। सूत्र १६
‘‘माया तैर्यग्योनस्य’’
इस सूत्र में बताया है कि मायाचारी तिर्यन्त गति का कारण बनता हैं। सूत्र १७
‘‘अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य’’
सूत्र १८
‘‘स्वभाव—मार्दवं च’’
अर्थात अल्प आरम्भ /परिग्रह तथा स्वभाव की मृदुता मनुष्य गति का कारण होती है। सूत्र २०
‘‘सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसिदेवस्य’’
अर्थात, सराग संयम, संयमा संयम, अकाम निर्जरा, तथा बालतप ये देवायु के बंध में कारण होते हैं। अब हम यह भली प्रकार समझ गए कि कैसे कर्म करने से कौन—कौन सी गति मिलती है। इस प्रकरण में हम केवल मनुष्य के करने योग्य अथवा न करने योग्य कर्मों पर ही चर्चा करेंगे। अब थोड़ा विचार करें कि हमें वर्तमान जीवन किन—किन कारणों से प्राप्त हुआ हैं, हम अपने भविष्य के जीवन को कैसे आत्मकल्याण के अनुकूल बना सकते हैं— तथा जीवन के अन्त में हमारी मृत्यु की तैयारी किस प्रकार की है अर्थात कौन सी गति में जाने की तैयारी कर रखी है। हम ये पूर्व में ही सूत्र १७-१८ में पढ़ चुके हैं कि अल्प आरम्भ/परिग्रह तथा स्वभाव की मृदुता ही अपने मनुष्य गति का कारण रहीं थी। तो क्या हम इस भव में भी ऐसे ही कर्म कर रहे है। इसका अर्थ है हमने पूर्व में पांचों पाप तो किये होंगे परन्तु बहुत ही अल्प तथा अपने स्वभाव में पूर्व में कोमलता, सरलता ही होगी जिसके कारण हमें यह मनुष्य भव प्राप्त हुआ । जो मिला है वो है मेरा वर्तमान। विचारणीय प्रश्न है कि क्या इस भव मेंं भी हमने ऐसे ही परिणाम, भाव और विचारों में सरलता रखी हैं। यदि उत्तर हाँ में हैं, तो हम अपने आपको सुनिश्चित कर सकते हैं कि अपना अगला भव भी मनुष्य ही होगा। परन्तु संभव है यदि आत्मदृष्टि डाले तो स्थिति डगमगा जाये। जब जागें तभी सवेरा। संभव है ऐसे परिणाम/भाव हमने पूर्व में न किए हों, परंतु अपने वर्तमान को तो संभाल ही सकते हैं और इस प्रकार भविष्य के निर्माता स्वयं ही बन सकते हैं। बस करना ये है कि जो कर्म हम बांधते हैं, जानें कि उसमें कितनों की भागीदारी होती है। ये भागीदारी तीन प्रकार की होती है। प्रथम तो जो कर्म पूर्व में बंध चुके है वो समय—समय पर अपना फल अवश्य देंगे, अत:उन पर मेरा वश नहीं है वो है मेरा पुरूषार्थ तथा अज्ञानता। ये दोनों अगर मैं संयमित कर लूं, अथवा पुरुषार्थ को जाग्रत कर कर्मबंध की प्रक्रिया को ठीक—ठीक जान लूं कि कर्मों को कैसे/कितने बांधना है अथवा उन्हें कब—कब नष्ट कर देना है ये पुरूषार्थ मेरे भीतर जागृत हो सकता है, कर सकता हूँ। तीसरे अपनी अज्ञानता को अपने पर हावी नहीं होने दूँ ताकि पुरूषार्थ भटक ना पावें। संभव है मेरा अतीत अच्छा ना रहा हो , परन्तु मेरा भविष्य नष्ट नहीं हो, यह प्रयास तो कर ही सकता हूँ यदि वर्तमान को संभाल लिया तो भविष्य के निर्माता हम स्वयं ही हो जायेंगे।
जवाहर लाल जैन , श्री पल्लीवाल जैन पत्रिका , २५ दिसम्बर , २०१४