त्रैलोक्यं मंगलं भूयात्, मंगलं नवदेवता:।
मंगलं जिनचैत्यानि, शान्तिनाथोऽस्तु मंगलम्।।१।।
यह तीनलोक रचना अनादिनिधन है-शाश्वत है। इसे न तो किन्हीं ने बनाया है और न कोई इसका नाश ही कर सकते हैं। ऐसा जैन शास्त्रों में कहा है। यह चौदह राजु ऊँचा है, सात राजु मोटा है और नीचे सात राजु चौड़ा है, पुन: घटते हुए मध्य में एक राजु रह गया है। पुन: बढ़ते हुए ब्रह्मस्वर्ग के पास पाँच राजु है, आगे घटते हुए ऊपर में एक राजु रह गया है। यहाँ एक राजु में असंख्यातों कोश होते हैं, ऐसी भगवान महावीर की वाणी है।
अधोलोक-इसमें मध्यलोक से नीचे अधोलोक में दश भाग हैं। नीचे के भाग में निगोदजीव हैं ये बहुत ही सूक्ष्म-छोटे-छोटे हैं, जो कि हमें और आपको आँखों से नहीं दिखते हैं भगवान ने अपने ज्ञान से देखा है। हमें और आपको अब ऐसे पुण्य कार्य करना है, जिससे कि इस निगोदयोनि में न जाना पड़े।पुन: दूसरे भाग में सातवाँ नरक है, ऐसे क्रम से सात नरक हैं। इन नरकों में नारकी जीव बहुत ही विकृत-भयंकर रूप वाले हैं। जो यहाँ हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, जुआ खेलना, शिकार करना, परस्त्री और वेश्यासेवन करना आदि पाप करते हैं, वे मरकर नरक में जाकर बहुत ही दु:ख पाते हैं। ऐसे सातों नरक में नारकी यहाँ दिखाये गये हैं।इन नरकों के दु:खों को देखकर शराब, मांसाहार आदि का त्याग करके पापों से दूर रहने का नियम करें कि जिससे नरक में कभी भी न जाना पड़े, यहाँ से यही प्रेरणा लेना है।खरभाग-पंकभाग-इन १ निगोद और ७ नरक ऐसे ८ भागों के बाद दो भागों में देव-देवियाँ रहते हैं, इन्हें खरभाग व पंकभाग कहते हैं। जो यहाँ पुण्य करते हैं, जीवदया, सत्य आदि धर्म पालते हैं, वे इन देवों में जन्म लेकर बहुत वर्षों तक सुख ही सुख पाते हैं। इन दो भागों में देवों के यहाँ सातकरोड़, बहत्तर लाख (७७२०००००) जैन मंदिर हैं। व्यंतर देवों के यहाँ और भी अनेक जैन मंदिर हैं। ये देव-देवियाँ एवं १८ जैन मंदिर यहाँ दिखाये गये हैं। इनके आगे चैत्यवृक्ष हैं, उनमें भी जिनप्रतिमा विराजमान हैं। इनके दर्शन से जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं, बहुत पुण्य मिलता है एवं सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। धरणेन्द्रदेव और पद्मावती देवी पाताललोक में ही रहते हैं।
मध्यलोक-इन अधोलोक के दश भागों के ऊपर बीचों बीच में मध्यलोक है। इस मध्यलोक में बीचों बीच में जम्बूद्वीप है। इसे घेरकर बहुत से द्वीप-समुद्र हैं। तेरह (१३) द्वीपों तक मध्यलोक के चार सौ अट्ठावन (४५८) जैन मंदिर हैं। इन्हीं में पाँच मेरू हैं और आठवाँ नंदीश्वरद्वीप है तथा चक्रवर्ती, राजा, महाराजा एवं साधारण मनुष्यों द्वारा बनवाये गये बहुत ही जैनमंदिर आदि हैं।यह सभी रचना आप यहाँ हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप रचना व तेरहद्वीप रचना में देखते हैं।इसी मध्यलोक में ढाईद्वीप तक अर्थात् एक जम्बूद्वीप दूसरा धातकीखण्डद्वीप, तीसरे में आधा पुष्करद्वीप ऐसे ढाईद्वीप तक ही मनुष्य जन्म लेते हैं। हम और आप सभी मनुष्य इस प्रथम जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में भरतक्षेत्र के आर्यखंड में रह रहे हैं, जिसे आप खुले जम्बूद्वीप की रचना में देखिए।यहाँ पर असंख्यातों पशु-पक्षी आदि तिर्यंच प्राणी भी रहते हैं।यहाँ पर मनुष्य और पशु-पक्षी जो भी अच्छे या बुरे कार्य करते हैं, उसी के अनुसार नरक या स्वर्ग में जन्म लेते हैं।इसी मध्यलोक में तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, शांतिनाथ, महावीर स्वामी आदि हुए हैं। भरतचक्रवर्ती आदि चक्रवर्ती हुए हैं और श्रीराम, लक्ष्मण, बलदेव, श्रीकृष्ण आदि बलभद्र-नारायण हुए हैं।
ज्योतिर्लोक-इसी मध्यलोक में आकाश में सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारागण ऐसे पाँच प्रकार के ज्योतिषी देव हैं। इनके विमान हमें आपको दिख रहे हैं। जो प्रकाश दे रहे हैं। इन प्रत्येक विमानों में एक-एक जैन मंदिर हैं अत: ये असंख्यात जैन मंदिर हैं। परोक्ष से भी इनकी वंदना करने से महान पुण्य मिलता है। यहाँ सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा के विमान दिखाये गये हैं।
ऊर्ध्वलोक-इस मध्यलोक से ऊपर ऊर्ध्वलोक है। इसमें आप बीस भाग समझिए। पहले सौधर्म-ईशान आदि सोलह स्वर्ग हैं, जो कि दो-दो एक साथ होने से ८ भागों में हैं। इसके बाद नव ग्रैवेयक हैं, जो कि क्रम से एक-एक हैं अत: ये ९ भाग हुए। अनंतर एक भाग में नव अनुदिश हैं और इसके ऊपर एक भाग में पाँच अनुत्तर विमान हैं। इस प्रकार ये ८±९±१±१·१९ भाग हुए। इन १९ भागों में चौरासी लाख, सत्तानवे हजार, तेईस (८४९७०२३) जैन मंदिर हैं। यहाँ स्वर्गों में इन्द्रों के महल, इन्द्रसभा, इन्द्र-इन्द्राणी, देव-देवियाँ व अप्सराएं आदि दिखाये गये हैंं। तीर्थंकर भगवन्तों के लिए गृहस्थाश्रम में जहाँ से वस्त्र, अलंकार आदि लेकर देवगण वहाँ से लाकर उन्हें देते हैं, ऐसे मानस्तंभों में रत्नों के पिटारे भी बनाये गये हैं। इस तरह तीनलोक के अकृत्रिम-शाश्वत जैन मंदिरों की संख्या अधोलोक में ७७२०००००± मध्यलोक में ४५८±ऊर्ध्वलोक में ८४९७०२३· ८५६९७४८१ जैन मंदिर हैं तथा व्यंतर देवों के और ज्योतिषी देवों के असंख्यातों जैन मंदिर हैं, ये सब शाश्वत हैं। मनुष्य आदि द्वारा बनवाये गये अतीत, वर्तमान व भविष्यत् की अपेक्षा अनन्तों जैनमंदिर माने गये हैं। इन सबको परोक्ष में भी नमस्कार करने से अनंत-अनंतगुणा पुण्यबंध हो जाता है।
यहाँ पर अधोलोक में अर्थात् पाताललोक में १८ जैन- मंदिर विराजमान हैं। मध्यलोक में पाँच मेरु में, ज्योतिषी सूर्य, चन्द्रमा आदि में व अनेक भी जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। ऊर्ध्वलोक में-१६ स्वर्ग में, ९ ग्रैवेयक में, ९ अनुदिश में और पाँच अनुत्तर में ऐसे १६±९±९±५·३९ जैन मंदिर हैं। इन मंदिरों में ४-४ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। चैत्यवृक्षों में भी ४-४ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।तीनलोक रचना में जैनमंदिर-यहाँ निर्मित तीन- लोक रचना में पाताललोक में जैन मंदिर १८ और ऊर्ध्वलोक में ३९ ऐसे १८±३९·५७ सत्तावन जैनमंदिर दिखाये गये हैं, उनमें ४-४ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। अन्यत्र चैत्यवृक्षों में व पाँच मेरु आदि में भी जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
जो मध्यलोक में भगवान की भक्ति करते हैं। साधुओं को आहारदान आदि देते हैं। अहिंसा अणुव्रत आदि अथवा महाव्रत आदि का पालन करते हैं, वे सभी इन स्वर्गों में देव-देवी आदि में जन्म लेकर बहुत वर्षों तक सुखों का अनुभव करते हैं।
सिद्धशिला-इनके ऊपर सबसे अंत में सिद्धशिला है, जो कि अर्धचन्द्राकार या सीधे रखे हुए कटोरे के सदृश है। मध्यलोक के जो मनुष्य साधु बनकर तपश्चरण करके घातिया कर्मों का नाश कर देते हैं, केवलज्ञान प्राप्तकर लेते हैं, वे ही पुन: सभी कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, भगवान बन जाते हैं, वे ही सिद्धशिला के ऊपर जाकर विराजमान हो जाते हैं, वे अनंतानंत काल तक वहीं विराजमान रहेंगे, वे पुन: जन्म नहीं लेंगे। जन्म-मरण के दु:खों से छूट गये हैं। ऐसे सभी सिद्ध परमात्मा को हमारा अनंत-अनंत बार नमस्कार होवे। यहाँ सिद्धशिला पर १२ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।यहाँ तीन लोक रचना में विराजमान सभी जिनप्रतिमाओं को कोटि-कोटि नमन।