प्रस्तुति—प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
धर्मप्रेमी बंधुओं! हस्तिनापुर की पावन वसुन्धरा पर नवनिर्मित तेरहद्वीप रचना के बारे में आपको जिज्ञासा होगी कि यह क्या है? कहाँ है? और इसे धरती पर साकार करने का लक्ष्य क्या है ?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर आपको क्रमश: प्राप्त करके तेरहद्वीप की अद्वितीय रचना के दर्शन कर अपूर्व पुण्य संचित करना है। अब सर्वप्रथम जानिये कि तेरहद्वीप रचना क्या है ?
यह जैन धर्म के करणानुयोग ग्रंथों (तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि) में वर्णित जैनभूगोल की रचना है। तेरहद्वीप किसी एक द्वीप का नाम नहीं, वरन् प्रथम जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक तेरहद्वीपों की व्यवस्था इस रचना में दर्शाई गई है। उन तेरहों द्वीपों को अलग-२ घेर कर एक-एक समुद्र भी रहते हैं अत: तेरह समुद्र भी जानना चाहिए।
उन तेरहों द्वीप और समुद्रों के नाम इस प्रकार हैं—
१.जम्बूद्वीप —लवण समुद्र
२.धातकीखंड द्वीप —कालोदधि समुद्र
३.पुष्करवर द्वीप —पुष्करवर समुद्र
४.वारुणीवर द्वीप —वारुणीवर समुद्र
५.क्षीरवर द्वीप —क्षीरवर समुद्र
६.घृतवर द्वीप —घृतवर समुद्र
७.क्षौद्रवर द्वीप —क्षौद्रवर समुद्र
८.नंदीश्वर द्वीप —नंदीश्वर समुद्र
९.अरुणवर द्वीप —अरुणवर समुद्र
१०.अरूणाभास द्वीप —अरूणाभास समुद्र
११.कुण्डलवर द्वीप —कुण्डलवर समुद्र
१२.शंखवर द्वीप —शंखवर समुद्र
१३.रुचकवर द्वीप —रुचकवर समुद्र
इन तेरहद्वीपोें में विशेष ध्यान देने का विषय यह है कि ये सभी द्वीप एक दूसरे को घेरकर गोल और चपटे रूप में स्थित हैं। इनमें से जो तीसरा पुष्कर द्वीप है उसमें बीचों बीच में गोलाकार मानुषोत्तर पर्वत है इसलिए यहाँ तक का क्षेत्र ढाई द्वीप के नाम से जाना जाता है और मानुषोत्तर पर्वत के आगे मनुष्यों का आवागमन बन्द है अर्थात् ढाई द्वीपों तक मनुष्य उत्पन्न होते हैं, आगे नहीं। आगे के द्वीपों में मात्र देवता रहते हैं और देवता ही वहाँ आ-जा सकते हैं।
दूसरी बात इन ढाई द्वीपों के अन्दर विशेष जानने की यह है कि धातकीखण्ड और पुष्करार्ध इन दोनों द्वीपोें में उत्तर-दक्षिण की ओर दो-दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनसे धातकीखण्ड के दो भेद हो जाते हैं पूर्व धातकीखण्ड-पश्चिम धातकीखण्ड। पुष्करार्धद्वीप के भी दो भेद होते हैं—पूर्व पुष्करार्ध—पश्चिम पुष्करार्ध। इस प्रकार जम्बूद्वीप, पूर्व धातकीखण्डद्वीप, पश्चिम धातकीखण्डद्वीप, पूर्व पुष्करार्धद्वीप और पश्चिम पुष्करार्धद्वीप इन पाँच स्थानों की रचना एक समान है। अर्थात् इन पाँचों द्वीपों में एक-एक मेरु पर्वत हैं। जो कि ढाई द्वीप के पंचमेरु पर्वत कहलाते हैं।
इस तेरहद्वीप रचना का प्रवेश द्वार उत्तर मुखी है, इसके अन्दर प्रवेश करते ही शीशे के बहुत बड़े दरवाजे से पूरी स्वर्णिम रचना के दर्शन होते हैं और हृदय एकदम गद्गद् हो जाता है। ४००० वर्गफुट की गोलाई में इस रचना की स्वर्णमयी छवि देखते ही बनती है। एक बार बड़े दरवाजे के पास से दर्शन करके किसी भी श्रद्धालु का मन तो भरता नहीं है अत: तत्काल वे दरवाजा खोलकर अंदर जाना चाहते हैं, किन्तु इस रचना के अन्दर जा कर दर्शन करने की व्यवस्था नहीं है इसलिए आप लोगों को उसी व्यवस्थानुसार चलना है। अर्थात् यहाँ भक्तिभावपूर्वक दर्शन करके बाहर के प्रदक्षिणा पथ से पूर्व दिशा की ओर पहुँचें, इस ओर बने प्लेटफार्म पर चढ़कर कांच के अन्दर के दृश्य देखें, ऐसा लगता है कि साक्षात् स्वर्ग धरती पर उतर आया है। सोने और पंचवर्णी रत्नों के काम वाले बड़े-बड़े पाँचों मेरु पर्वत १६-१६ जिनालयों से युक्त हैं उनके ऊपर की चूलिका नीलवर्ण की है। इन पाँचों मेरु पर्वतों की पांडुक शिलाओं पर २९ अप्रैल २००७ को पंचकल्याणक के मध्य एक साथ ढाई द्वीप के ५ भरत क्षेत्रों के पाँच तीर्थंकरों का जन्माभिषेक हुआ, जिसे पूरे देश ने टी.वी.में आस्था चैनल पर देखकर धन्यता का अनुभव किया।
पूर्व दिशा से देखने पर बहुत सारे सोने के मंदिर, रंगीन-रंगीन देवभवनों में भगवान और ८० समवसरणों के दर्शन होते हैं। ये हैं—रुचकवर, कुण्डलवर पर्वतों के पूर्व दिशा सम्बन्धी १-१ मंदिर, नंदीश्वर द्वीप के १३ मंदिर, मानुषोत्तर पर्वत का एक अकृत्रिम जिनमंदिर एवं पूर्व पुष्करार्ध द्वीप, पूर्व धातकीखण्ड द्वीप और जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा के विदेह क्षेत्रों के जिनमंदिर और देवभवन। यहाँ तेरहों द्वीप के ४५८ अकृत्रिम मंदिर हैं, वे सोने के कलात्मक काम वाले मंदिर के रूप में विराजमान किये गये हैं तथा रंग-बिरंगे देवभवनों में गृह चैत्यालय हैं, जिनमें किन्हीं के एक ओर साइड में और किन्हीं में नीचे देव या देवी अपने-अपने भवन में बैठे हैं ओर दूसरी ओर या ऊपर गृह चैत्यालय के रूप में भगवान विराजमान हैं। विदेह क्षेत्रों में जगह कम होने पर भी वहाँ छोटे-छोटे समवसरणों में भी ४-४ भगवान दिख रहे हैं। जैसा कि जैन ग्रंथोें में कहा भी है कि धनिया के पत्ते बराबर मंदिर बनाकर सरसों बराबर प्रतिमा विराजमान करने वाले भव्योें को असीम पुण्य का संचय होता है। इस पूर्व दिशा की रचना में १-२ नहीं, पूरे ८० समवसरण हैं जो कि बड़े सुन्दर लगते हैं। इन्हें पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की भावनानुसार कुशल कारीगर ने अष्टधातु से बनाया है।
महानुभावों ! यूँ तो यह पूरी रचना अष्टधातु की ही बनी हुई है, आप पूरी सोने की मत समझ लेना, किन्तु भक्तों की उदात्त भावनानुसार इसमें पंचमेरु पर्वत, ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय एवं १७० समवसरणों में सोने का भी काम कराया गया है, शेष सभी जगह यथास्थान विभिन्न रंगीन कलाकृति, बाग-बगीचे, नदी-पर्वत आदि दर्शाए गये हैं। जिस पर्वत का जो वर्ण गं्रथों में कहा है उसे उसी रंग में दिखाने की प्रेरणा पूज्य माताजी की रही है। पूर्व दिशा के सभी भगवन्तों को श्रद्धा पूर्वक नमन करते हुए आगे चलें,तो दक्षिण के प्रदक्षिणा पथ में निर्मित प्लेटफार्म पर चढ़ें इधर से पूरी रचना का दक्षिण भाग देखना है। इधर ढाई द्वीपों के पाँच भरतक्षेत्रों की रचना है। अत: ५ तीर्थंकर भगवन्तों के सुन्दर समवसरण में चतुर्मुखी प्रतिमाओं के दर्शन करके मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति कीजिए। प्राय: सभी जगह द्वीपों के, पर्वतों के नाम भी लिखे हैं ऊँचे प्लेटफार्म से पूरी रचना कुछ ज्यादा ही सुन्दर लगती है। इसे जो लोग ठीक से नहीं समझ पाते हैं वे भी रचना का सौंदर्य देखकर अनायास बोल पड़ते हैं—
‘‘अरे वाह! ज्ञानमती माताजी ने तो धरती पर स्वर्ग ही बनाकर दिखा दिया है।’’ अर्थात् इस प्रकार कहकर और मन में प्रसन्न होकर अन्जान पर्यटक भी अज्ञानरूप से पुण्य का बंध कर लेते हैं। जैसे जबर्दस्ती भी औषधि खाने वाला प्राणी स्वस्थ हो जाता है, अरुचि से मिश्री खाने वाले का भी मुँह मीठा ही होता है, उसी प्रकार अन्जान लोगों के द्वारा भी धर्म, तीर्थ और धर्मायतनों की वंदना करने से उत्तम-हितकर फल की प्राप्ति भी कर ली जाती है इसमें कोई सन्देह नहीं है।
बन्धुवर! आपके पीछे भी कुछ लोग जरूर प्रदक्षिणा करते हुए आ रहे हैं अत: आपको प्लेटफार्म से उतर कर अब आगे चलना है। मन में आल्हाद है और वचन से कोई न कोई स्तुति पढ़ते हुए पश्चिम दिशा के प्लेटफार्म पर चढ़ें। यहाँ से रचना का पश्चिम भाग पूरा देखना है। सबेरे-सबेरे चूँकि पूर्व दिशा का सूर्य सामने शीशे से प्रवेश करता है, इसलिए सुबह ७ बजे से १ बजे तक पश्चिम के प्लेटफार्म पर खड़े होकर पूरी रचना का जो स्वर्णिम निखार दिखता है वह वास्तव में शब्दों में कहा नहीं जा सकता है।
ऐसे पुण्यमयी क्षणों में आप गद्गद् होकर ये पंक्तियाँ अवश्य गुुनगुनाएं—
तर्ज-मेरे देश की धरती………
हस्तिनापुरी में तेरहद्वीप की रचना स्वर्णमयी है…
हस्तिनापुरी में……..।।
जहाँ खुले गगन में जम्बूद्वीप की, रचना जनमनहारी है।
वहीं जिनमंदिर में तेरहद्वीप की, रचना लगती प्यारी है।।
चउशत अट्ठावन चैत्यालय…….
चउशत अट्ठावन चैत्यालय में जिनवर बिम्ब विराज रहे।
उस गोलाकार विशाल जिनालय में स्वर्णिम जिनधाम रहे..
हस्तिनापुरी में……..।।१।।
इसी प्रकार १ बजे बाद सूर्य चूँकि दक्षिण-पश्चिम की ओर जाने लगता है अत: पूर्व दिशा के प्लेटफार्म पर देखने वालों की भीड़ जमा रहती है। मंदिरों के अतिरिक्त तेरहद्वीप रचना के अन्दर बहुत सारे हरे-हरे वृक्षों में कुछ वस्तुएं लटकती दिख रही हैं। इनके बारे में भी आपको जानना है—
ढाई द्वीपोें में ३० भोगभूमियाँ मानी गई हैं उन सभी जगहों पर १०-१० प्रकार के कल्पवृक्ष हैं जिनसे मुँहमांगी वस्तुएं प्राप्त होती हैं। इनमें देखो, किसी कल्पवृक्ष में माला-मुकुट लटक रहे हैं, किसी में वीणा-ढोलक हैं, किसी में घन्टे हैं, किसी में मकान हैं, और किसी में फल लटक रहे हैं। अब आप स्वयं सोचें कि जहाँ इतने सारे कल्पवृक्ष और समवसरण आदि हैं वहाँ कोई भी मन वाञ्छित फल प्राप्त कर लेवे तो कौन सी बड़ी बात है। अरे! इस तेरहद्वीप रचना में तो शुरू से ही बड़ा चमत्कार देखने-सुनने को मिल रहा है। इसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होने के बाद ९ मई २००७ को कोरबा-छत्तीसगढ़ से एक सज्जन ने आकर बताया कि मेरी दुकान पर जिस दिन तेरहद्वीप पंचकल्याणक महोत्सव का निमंत्रण कार्ड प्राप्त हुआ, उसी दिन इतनी अधिक आमदनी हुई, जितनी उससे पहले कभी नहीं हुई थी इसीलिए मैं उस रचना के साक्षात् दर्शन करने हस्तिनापुर आया हूँ। ऐसे ही रोज न जाने कितने लोग अपने-अपने चमत्कारिक अनुभव सुनाते रहते हैं, तब पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी कहती हैं कि—
‘‘जहाँ २१०० जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं उस रचना के दर्शन करने वालों को हमेशा सब ओर से इक्कीसा फल ही प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह वाली बात नहीं है।’’
तीनों प्लेटफार्म से अन्दर की सब तरफ की रचना देख-देखकर निश्चितरूप से बड़ी खुशी होती है क्योंकि सभी दिशाओं में विराजमान भगवन्तों के दर्शन होते हैं और छोटे-छोटे जम्बू-शाल्मलि आदि वृक्षों की शाखाओं पर भी बने जिनमंदिर दिखाई देते हैं। इनमें पाँच भरतक्षेत्रों एवं ऐरावतक्षेत्रों में वर्तमानकालीन ५-५ तीर्थंकर विराजमान हैं। विदेह क्षेत्रों के सीमंधर-युगमंधर आदि विद्यमान बीस तीर्थंकर भी यहाँ विराजमान किये गये हैं। ज्यादा सूक्ष्मता से इस रचना को जानने के लिए तो इसके परिचय की पुस्तक पढ़ें त्रिलोकभास्कर, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रंथों का स्वाध्याय आपको करना पड़ेगा। किन्तु यहाँ संक्षेप में इतना अवश्य जानना है कि—
१. इन तेरहद्वीपों के अंतर्गत ढाई द्वीप में पाँचमेरु पर्वत हैं।
२. प्रथम जम्बूद्वीप से लेकर तेहरवें रुचकवर द्वीप तक ४५८ अकृत्रिम-शाश्वत जिनमंदिर हैं।
३. इन स्वर्णिम पाँचों मेरुपर्वतों के १६-१६ जिनमंदिरों में एवं सभी स्वर्णिम जिनमंदिरों में स्वयंसिद्ध भगवन्तों की जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
४. इन तेरहद्वीपों में हिमवान् आदि पर्वतों पर एवं पद्म आदि सरोवरों में श्री-ह्री-धृति आदि देवियों के कमल भवनों में कुल ८३० देव-देवी के भवन हैं।
५. जम्बू़द्वीप के अतिरिक्त सभी द्वीपों के पर्वतों पर सभी देव-देवियों के भवनों में उन-उनके गृहचैत्यालयों में भगवान की प्रतिमाएं विराजमान हैं।
६. इस रचना के अन्दर जम्बूद्वीप के १ भरतक्षेत्र, १ ऐरावतक्षेत्र है। पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड द्वीप में १-१ भरतक्षेत्र और १-१ ऐरावतक्षेत्र हैंै। इसी प्रकार पूर्व पुष्करार्ध द्वीप एवं पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप में १-१ भरतक्षेत्र और १-१ ऐरावतक्षेत्र हैं। ऐसे ५ भरतक्षेत्र एवं ५ ऐरावतक्षेत्र हैं।
७. इस पूरी रचना के अंदर ढाई द्वीपों में १६० विदेह क्षेत्र हैं। उनकी व्यवस्था इस प्रकार है—जम्बूद्वीप में ३२ विदेहक्षेत्र, पूर्व धातकीखण्ड द्वीप में ३२ विदेहक्षेत्र, पश्चिम धातकीखण्ड द्वीप में ३२ विदेहक्षेत्र, पूर्व पुष्करार्ध द्वीप में ३२ विदेहक्षेत्र एवं पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप में ३२ विदेहक्षेत्र अत: ३२²५·१६० की संख्या है।
८. इन सभी १६० विदेह क्षेत्रों में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था पाई जाती है। ५ भरतक्षेत्र एवं ५ ऐरावतक्षेत्रों की १० कर्मभूमियाँ मिलाकर कुल १७० कर्मभूमियाँ ढाई द्वीपों में हैं।
९. इन सभी १७० कर्मभूमियों में १७० तीर्थंकर भगवन्तों के समवसरण तेरहद्वीप रचना में दर्शाए गए हैं जिनमें प्रत्येक में ४-४ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
१०. इसी प्रकार ढाई द्वीपों के ५ भरत, ५ ऐरावत क्षेत्रों के अन्य तीर्थंकर तथा विदेहों के विद्यमान २० तीर्थंकर भगवान भी यहां विराजमान हैं तथा अनेक तीर्थंकर एवं सिद्ध भगवन्तों की प्रतिमाएं विराजमान हैं।
११. इन सब दो हजार से अधिक भगवन्तों के दर्शन करके महान पुण्य का संचय करें।
१२. ढाई द्वीप की ३० भोगभूमियों में यथास्थान कल्पवृक्ष हैं जो मुँह मांगा फल देते हैं।
१३. यहाँ पर सरस्वती, लक्ष्मी, पद्मावती एवं अनावृतयक्ष आदि की मूर्तियां भी हैं, वे भी सभी भक्तों को इच्छित फल देने वाले हैं।
तेरहद्वीपों में विराजमान ये सभी भगवान आप सबको मनवाञ्छित फल देने वाले हैं। सर्व अमंगल और विघ्न बाधाओं को दूर करने वाले हैं। आप इनके दर्शन करके अपने इच्छित फलों को प्राप्त करें।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
तर्ज-मेरे देश की धरती………
हस्तिनापुरी में तेरहद्वीप की रचना स्वर्णमयी है….
हस्तिनापुरी में……..।।
जहाँ खुले गगन में जम्बूद्वीप की, रचना जनमनहारी है।
वहीं जिनमंदिर में तेरहद्वीप की, रचना लगती प्यारी।।
चउशत अट्ठावन चैत्यालय…….
चउशत अट्ठावन चैत्यालय में जिनवर बिम्ब विराज रहे।
उस गोलाकार विशाल जिनालय में स्वर्णिम जिनधाम रहे……
हस्तिनापुरी में……..।।१।।
जहाँ ध्यान का मंदिर और कमल मंदिर रचनाएं प्यारी हैं।
वहीं तेरहद्वीप जिनालय में पर्वत नदियां भी न्यारी है।।
इक सौ सत्तर हैं समवसरण………..
इक सौ सत्तर हैं समवसरण, प्रतिमाएं चतुर्मुखी राजें।
बीचों बिच देखो पंचमेरु पर्वतों की स्वर्ण छवी भासे…….
हस्तिनापुरी में……..।।२।।
इस मानव निर्मित स्वर्ग का सुख, सब सुख से ज्यादा सुखकर है।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती की, तप किरणों से मनहर है।।
हरशीश जहाँ झुक जाता है…..
हरशीश जहाँ झुक जाता है, दर्शन से अन्तर ज्योति जगे।
‘‘चन्दनामती’’ इस तीर्थ की महिमा हर तीरथ से अलग लगे।
हस्तिनापुरी में……..।।३।।
-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
तर्ज-आओ बच्चों तुम्हें………..
आवो हम सब करें वन्दना, तेरहद्वीप महान की।
चार शतक अट्ठावन मंदिर, उनके जिन भगवान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन-२।। टेक.।।
तीनलोक में मध्यलोक है, द्वीप समुद्रों तक पैâला।
द्वीप असंख्यों में तेरह-द्वीपों का वर्णन है करना।।
ढाई द्वीप में पाँच मेरु हैं, अस्सी चैत्यालय संयुत।
तीर्थंकर जन्माभिषेक से, पावन हैं वे पर्वत नित्य।।
उन पावन गिरिराजों को, वंदन करते मुनिराज भी।
चार शतक अट्ठावन मंदिर, उनके जिन भगवान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन-२।।१।।
तेरहद्वीपों में चउशत, अट्ठावन चैत्यालय होते।
स्वयं सिद्ध जिनप्रतिमाओं से, जिनमंदिर शोभित होते।।
इन सब मंदिर की ही पूजन, इन्द्रध्वज में करते हैं।
जिनमंदिर पर ध्वजा चढ़ाकर, प्रभु गुण कीर्तन करते हैं।।
कार्यसिद्धि के लिए अर्चना, करो सिद्ध भगवान की।
चार शतक अट्ठावन मंदिर, उनके जिन भगवान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन-२।।२।।
गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी ने उसे बताया है।
हस्तिनापुर की धरती पर, उसको साकार कराया है।।
तेरहद्वीप जिनालय का, स्वर्णिम दिख रहा नजारा है।
धरती पर भूगोल जैन देखेगा, अब जग सारा है।।
करे ‘चन्दनामती’ वन्दना, अकृत्रिम जिनधाम की।
चार शतक अट्ठावन मंदिर, उनके जिनभगवान की।।
सिद्धों को नमन, सिद्धों को नमन-२।।३।।