आगम
द्वारा-आर्यिका सुद्रष्टिमति माताजी
प्र. ७५७ श्रुत को जानने का फल क्या है?
उत्तर :”श्रुतस्य विनयो” यदि शास्त्रों का ज्ञान बढ़ता है तो शास्त्रों और पढ़ाने वाले गुरुजनों के प्रति विनय भी बढ़ना चाहिये। विद्याददाति विनयं। विद्या तो विनय ही सिखाती है। जैसे फलों के भार से वृक्षों की डालियाँ झुकती जाती हैं वैसे ही विद्या के भार से नम्रता, विनय आना ही चाहिये। विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से सर्वकल्याण होता है। विनय से गुप्त विद्या और रहस्यों का ज्ञान हो जाता है। विद्या विनय से शोभायमान होती है।
प्र. ७५८ : शास्त्र क्यों पढ़े जाते हैं?
उत्तर : सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिये शास्त्र पढ़े जाते हैं। भव्य ! मायारूप रोग की दवा शास्त्र है, पुण्य का कारण शास्त्र है। सर्वपदार्थों को देखने वाला नेत्र शास्त्र है। जिस प्रकार मलिन वस्त्र का शोधन जल से होता है, उसी प्रकार रागादि दोष से दूषित हुये आत्मा का संशोधन शास्त्र से होता है। चूँकि शास्त्र में निरन्तर लगी हुई बुद्धि मुक्ति रूपी स्त्री को प्राप्त करने में दूती के समान है। इसलिये जो संसार से भयभीत भव्य है उसे यत्नपूर्वक अपनी बुद्धि को शास्त्र में लगाना चाहिये। ऐसा निःसंयोगीराज अमितगति ने कहा है।
प्र. ७५९ : किसी की आगम शास्त्र में भक्ति नहीं है और वह धर्मक्रिया कर रहा है, क्या ऐसा हो सकता है?
उत्तर : हे भव्य आत्मन् ! ऐसा नहीं बनता है। जिसकी आगम में भक्ति नहीं है, उसके सारे धर्म, क्रिया कर्म, दोष के कारण अंधे व्यक्ति की क्रिया के समान हैं। और वह क्रियादूषित होने के कारण सत्फल को नहीं फलती है। ऐसा योगसार प्राभृतग्रंथकार ने चारित्राधिकार में कहा है।
प्र. ७६० : किसके लिये ग्रंथ का पढ़ना कार्यकारी नहीं है?
उत्तर : जिसको इन्द्रिय सुखों की तृष्णा हो।
प्र. ७६१ : धनञ्जय कवि की तीन रचनाओं के नाम बतलाओ।
उत्तर : नाममाला, विषापहारस्तोत्र, द्विसंन्धान महाकाव्य ।
प्र. ७६२ : पंडित गोपालदासजी बरैय्याजी के प्रसिद्ध तीन ग्रन्थों के नाम बतलाओ।
उत्तर : उनकी तीन पुस्तकें प्रसिद्ध हैं- (१) सुशीला उपन्यास, (२) जैन सिद्धांत प्रवेशिका और (३) जैन सिद्धांतदर्पण।
प्र. ७६३ : आगम शब्द का अर्थ क्या है?
उत्तर : आगम शब्द में तीन वर्ण (आ.ग.म.) आ समन्तात् अर्थात् आ का अर्थ है सर्वप्रकारेण -सम्पूर्ण रूप से वस्तुस्वभाव का गम ज्ञान कराते वह आगम है। आगम से वस्तुस्वरूप अर्थात् आत्मा, अनात्मा का भेद अवगत होता है।
प्र. ७६४ : स्वाभिमान व अहंकार का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर : स्वाभिमान और अहंकार दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी हैं। दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। स्वाभिमान उत्थान का प्रतीक है, अहंकार पतन का। स्वाभिमान में गरिमा, श्रेष्ठता और ज्येष्ठता निवास करती है। जबकि अहंकार के साथ ओछापन, तुच्छता और हल्कापन जुड़ा रहता है। अभिमानी का पतन अवश्य सम्भावी है यथा रावण, कौरव, सत्यभामादि है। क्योंकि अभिमान के साथ अविवेक जुड़ा होता है। जिससे कि मनुष्य सत्पथ से विचलित हो जाते हैं। फलतः कर्त्तव्य से भ्रष्ट हो पराभव के पात्र बनते हैं। तिरस्कृत होने पर उत्साह भंग हो जाता है और शुभ कार्यों में हतोत्साह होने से अशुभ में प्रवृत्त हो जाता है। अहंकार मित्थ्यात्व से उत्पन्न होता है। स्वाभिमान सम्यक्त्व बीज से उत्पन्न होता है। यह एक घुन के समान कीड़ा है। अहंकार शनैः शनैः मान प्रतिष्ठा, यशरूप वल्लरी को छिन्न-भिन्न कर समूल नष्ट कर देता है। स्वाभिमान वह शीतल अमृत है, मधुर जल है जो सौभाग्य, पुण्य, यशरूपी लता का सिंचन कर उसे गगनांगण तक विस्तृत कर स्वर्गादि सुख फलों को फलित करता है। स्वाभिमान रहना ही चाहिये। उसका हर प्रकार से पोषण करना आत्मविकास का महत्वपूर्ण उपाय है। अहंकार खतरनाक और दुःख का बीज है। मिथ्यात्व का पोषक है। कहा है मानेन भववर्द्धनम् । अहंभाव मानकषायजन्य होता है। मानी का संसार प्रसार पाता है और इतनी गहराई तक पहुँच जाता है कि ऊपर उठना अतिदुर्लभ हो जाता है। परन्तु स्वाभिमान वह लेप रहित तुम्बी है जो स्वयं जल की सतह पर तैरती है और अपने सहारे लगने वाले को भी पार कर ले जाती है। स्वाभिमानी बनो। उसका स्मरण व पोषण करो। उसकी महत्ता बढ़ाओ, उसके आश्रय से अपना उत्थान करो। यही तत्वज्ञान है, सम्यग्ज्ञान बताओ।है। यथार्थ चिन्तन का सुफल है। कल्याण परम्परा का सफल हेतु है।
प्र. ७६५ : तत्वार्थ सूत्र के ‘मोक्ष मार्गस्य नेतारं’ आदि मंगलाचरण पर किसने व कौनसी टीका लिखी
उत्तर : तत्वार्थसूत्र के मंगलाचरण रूप प्रथम श्लोक पर ही आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा की रचना |
प्र. ७७१ : विक्षेपणी कथा किसे कहते हैं?
उत्तर तत्व से विमुख हो दिशान्तर को प्राप्त हुई दष्टियों का शोधन करने वाली अर्थात एकान्तमत का शोधन कर स्वसमय क्की स्थापना करने वाली विक्षेपणी कथा है।
प्र. ७७२: संवेगनी कथा किसे कहते हैं?
उत्तर : धर्म के फल का विस्तार से वर्णन करने वाली कथा को संवेगनी अथवा संवेजिनी कथा कहते हैं।
प्र. ७७३: निर्देगनी कथा किसे कहते हैं?
उत्तर : वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा को निर्देगनी अथवा निर्वेजिनी कथा कहते हैं।
प्र. ७७४ : बुद्धिमानों को अपना मत स्थापना करने के लिये कौनसी कथा कहनी चाहिये?
उत्तर: आक्षेपणी कथा।
प्र. ७७५ : मिथ्यामत के खण्डन हेतु कौनसी कथा कहनी चाहिये?
उत्तर: मिथ्यामत के खण्डन हेतु विशेषज्ञ को विक्षेपणी कथा कहनी चाहिये।
प्र. ७७६ : पुण्यफल स्वरूप सम्पत्ति का व्याख्यान करने के लिये कौनसी कथा कहनी चाहिये?
उत्तर: संवेजनी कथा कहनी चाहिये। (महापुराण से)
प्र. ७७७ : सत्वकथा श्रवण करने से मनुष्य को क्या लाभ होता है?
उत्तर : सत्वकथा श्रवण से यह जीव पुण्य प्राप्त करता है, उसके फलस्वरूप वह लौकिक सुखों को प्राप्त करके आगामी मोक्ष प्राप्त करता है।
प्र. ७७८ : बारहवें अंग दृष्टिवाद में किस विषय का वर्णन है?
उत्तर :इस दृष्टिवाद अंग में तीन सौ त्रेसठ मिथ्यादृष्टियों का निरुपण करने के साथ उनका निराकरण किया गया है।
प्र. ७७९ : नयवाद व मिथ्यावाद किसे कहते हैं?
उत्तर:जितने वचनमार्ग हैं उतने नयवाद हैं जितने नयवाद हैं उतने ही पर समय हैं। सापेक्षता युक्त वाद नयवाद हैं। निरपेक्षता युक्त मिथ्यावाद होते हैं।
प्र. ७८० : दृष्टिवाद के प्रथमानुयोग नाम के तीसरे भेद में १२ प्रकार के पुराणों का वर्णन किया है, वे १२ पुराण कौनसे?
उत्तर: वे पुराण जिनवंश तथा राजवंशों का वर्णन करते हैं वे वंश- (१) अरहंत, (२) चक्रवर्ती, (३) विद्याधर, (५) नारायण-प्रतिनारायण है, (५) चारण ऋद्धिधारी मुनिराज, (६) प्रज्ञाश्रमण मुनिराजों का वंश, (७) कुरुवंश, (८) हरिवंश, (९) इक्ष्वाकुवंश, (१०) काश्यपवंश, (११) वादी मुनिश्वरों का वंश और (१२) नाथ वंश रूप कहे गये हैं।
प्र. ७८१: शास्त्र में चार अनुयोग कहे गये हैं उनमें निश्चय अनुयोग कितने हैं व्यवहार अनुयोग कितने हैं?
उत्तर:निश्चय में एक अनुयोग- द्रव्यानुयोग, व्यवहार में तीन अनुयोग- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग हैं।
प्र. ७८२: श्रुत का अर्थ क्या है?
उत्तर: श्रुत सिद्धांत का नाम है।
प्र. ७८३ : श्रुत के दो भेद कौनसे हैं?
उत्तर : श्रुत दो प्रकार का है- भावश्रुत और द्रव्यश्रुत।
प्र. ७८४ : भावश्रुत किसे कहते हैं?
उत्तर : आत्मा के अपने भव से जानने योग्य कारण रूप सिद्धांत को भावश्रुत कहते हैं।
प्र. ७८५ : द्रव्यश्रुत किसे कहते हैं?
उत्तर : वचन के द्वारा दूसरे को बोध कराने के लिये कार्यरूप ऐसे सिद्धांत को द्रव्यश्रुत कहते हैं।
प्र. ७८६ : प्राभृत का अर्थ क्या है?
उत्तर : प्राभृत का अर्थ शास्त्र है।
प्र. ७८७ : पाहुइ त्रय किसे कहते हैं?
उत्तर : कुन्दकुन्दाचार्य के पंचास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार इन तीन शास्त्रों को पाहुड़ त्रय कहते हैं।
प्र. ७८८ : शास्त्रदान का फल बताओ।
उत्तर : शास्त्र दान के फल से आत्मा, सम्पूर्ण कलाओ में परिपूर्ण ज्ञानी होकर अंत में केवल ज्ञान का भी पात्र बनता है। अर्थात् केवली हो जाता है। दृष्टांत कुरुमति ग्राम में एक गोपाल नाम का ग्वाला रहता था। उसने वृक्ष के कोटर से एक प्राचीन ग्रंथ निकालकर एवं भक्ति से उसकी पूजा करके पद्मनंदी मुनिराज को दिया। वह ग्रंथ जंगल में भट्टारक मुनि महाराज ने कई दिनों तक पूजा करके एवं करवाकर तथा व्याख्यान करते हुये पश्चात् उस पुस्तक को उसी वृक्ष के कोटरे में विराजमान कर वहाँ से मुनिराज चले गये थे। पुनः गोविन्द नाम का ग्वाला बचपन से ही उस पुस्तक को देखकर प्रतिदिन उसकी पूजा करने लगा। इसी प्रकार वह ग्वाला निदान से मरकर उसी नगरी में एक सेठ का पुत्र हुआ एवं पूर्व पद्मनंदी मुनिराज को देखकर उसे जाति स्मरण होकर सकल शास्त्र निष्णात हुआ। इस प्रकार शास्त्र दान का अचिंत्य फल है।
प्र. ७८९ : शास्त्र एक प्रकार की आग है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : शास्त्रों का ज्ञान होने से वस्तुओं पर सच्चा प्रकाश पड़ता है और कर्मकलंक जल जाते हैं इसलिये शास्त्र ज्ञान एक प्रकार की आग है। अग्नि में डालने से रत्न या सुवर्ण जैसे शुद्ध होकर चमकने लगता है वैसे ही निर्मोह हुये, भव्य जीव शास्त्र ज्ञान में मग्न होकर कर्म कालिमा को जला डालते हैं और निर्मल होकर अथवा कर्मों से छूटकर आधे जले हुये अंगार की तरह चमकते तो हैं परन्तु मलिन ही बने रहते हैं। अंततः जब पूरे जल चुकते हैं तो भस्म की तरह प्रकाश से भी शून्य निस्सार हो जाते हैं। ठीक ही है, मोही जीव यदि ज्ञान का सम्पादन भी करे तो भी अंत में विषयासक्त होकर अज्ञानी ही रह जाते हैं। नीच कर्म करने से वे मलिन दिखने लगते हैं। विवेकशून्य हो जाने से अंत में भस्म की भांति निस्सार दिख पड़ते हैं। परन्तु ज्ञानी उसी शास्त्र के द्वारा पवित्र आचरण रखता हुआ चमकता है और अंत में शुद्ध बन जाता है।
प्र. ७९० : श्रीमद् राजचन्द्रजी की ३ बातें सदैव ध्यान रखना चाहिये, वे कौनसी?
उत्तर : श्रीमद् राजचन्द्रजी गुजरात में हुये हैं, एक अच्छे स्वाध्यायी और साधक थे। उनकी तीन बातें बड़ी प्रेरक लगती हैं। वे कहा करते थे कि ये तीन बातें सदैव ध्यान रखनी चाहिये कि (१) काल सिर पर सवार है, (२) नजर उठाते ही जहर चढ़ता है और (३) पाँव रखते ही पाप लगता है। (१) काल सिर पर सवार है यदि यह ध्यान हमें बना रहे तो फिर हम कभी भी कहीं भी गाफिल नहीं हो सकते।
भरत के दरबार में प्राप्तकाल रोज घंटानाद होता था और पहरेदार ‘वर्धते भयम वर्धते भयम्’ कहा करते भरत के हरसूल मेधा कि आप जैसे सम्राट जहाँ हो वहाँ पर भयवाली बात कैसी? तो चक्रवर्ती ने कहा कि मौत का भय बढ़ रहा है और यही दृष्टि उन्हें निरन्तर आत्मोन्मुखी होने की प्रेरणा देती है। क मौत दूसरी बात नजर उठाते ही जहर चढ़ता है। इसका मतलब यह है कि सब तरफ इन्द्रियों की सामग्री कैली हुई इस पहा विषय सामग्री निरन्तर इन्द्रियों को प्रभावित करती है और आँख उठाकर थोड़ा भी कहीं देखता हूँ, उपयोग जरा भी होता है तो लगता है जैसे जहर चढ़ गया हो। (३) अन्तिम बात- पाँव रखते ही पाप लगता है। इसका आशय यह है कि प्रकृति से पल-प्रतिपल आसव हो रहा है। इस विचार सूत्र को यदि हमने ध्यान में ले लिया तो हमारी प्रवृत्ति एकदम संयमित हो जायेंगी और फिर हम हर कार्य को यत्नाचारपूर्वक करेंगे।
प्र. ७९१ : आगम किसे कहते हैं?
उत्तर : अर्हत् के मुख से उद्भूत पूर्वापर दोषरहित शुद्ध वचनों को तथा गणधर द्वारा संकलित श्रुत कोआगम कहते हैं।
प्र. ७९२ : समस्त शास्त्रों को कौन जानता है?
उत्तर : जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्वतः भिन्न तथा ज्ञायक भावरूप जानता है वही समस्त शास्त्रों को जानता है।
प्र. ७९३ : चारित्रशून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ ही है, वह कैसे?
उत्तर : जैसे अंधे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है। चारित्र सम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुश्रुत ज्ञान भी निष्फल है।
प्र. ७९४ : सिद्धांत ग्रंथ कौनसे हैं?
उत्तर : धवल, जयधवल और महाधवल, ये ही सिद्धांत ग्रंथ हैं। इनको श्रावक को पढ़ने का अधिकार नहीं है।
प्र. ७९५ : द्रव्यस्वभाव प्रकाशक ग्रंथ में कितने अधिकार हैं, उनके नाम बतलाओ।
उत्तर : द्रव्यस्वभाव नामक ग्रंथ में १२ अधिकार हैं- (१) गुण, (२) पर्याय, (३) द्रव्य, (४) पंचास्तिकाय, (५) साततत्व, (६) नौ पदार्थ, (७) प्रमाण, (८) नय, (९) निक्षेप, (१०) व्यवहार व निश्चयभेद से सम्यग्दर्शन, (११) सम्यग्ज्ञान तथा (१२) सम्यग्चारित्र।
प्र. ७९६ : श्रुत के दो काम हैं, कौनसे?
उत्तर : श्रुत के दो काम हैं। उसमें से एक का नाम स्याद्वाद है और दूसरे का नाम नय है। सप्पूर्ण वस्तुओं के कथन की पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं। अनेकान्त का ग्राहक या प्रतिपादन स्याद्वाद है। वस्तु के एकदेश कथन को नय कहते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद के द्वारा गृहित अनेकांतात्मक पदार्थों के धर्मों का अलग-अलग कथन करने वाला नय है, ऐसा कहा है।
प्र. ७९७ : महाकवि रत्नाकर ने किन-किन ग्रंथों की रचना की?
उत्तर : भरतेश वैभव, रत्नाकर शतक, अपराजितेश्वर शतक, त्रिलोकशतक, शतकत्रय, ग्रंथों की रचना महाकवि रत्नाकर ने की है।
प्र. ७१८ : महाकवि रत्नाकर ने भरतेश वैभव की रचना कितने समय की?
उत्तर : महाकवि रत्नाकर ने लगभग ९ माह में दस हजार श्लोक रचकर भरतेश वैभव पूर्ण किया।
प्र. ७९९ : शास्त्रज्ञान का वास्तविक लाभ क्या है?
उत्तर : शास्त्रज्ञान का वास्तविक लाभ है सबसे भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का परिज्ञान! जिसे उसकी श्रद्धा ही नहीं है उसे शास्त्राध्ययन से भी ज्ञान नहीं हो सकता।
प्र.८०० : प्रथमादि चार अनुयोगों को क्रम से अध्ययन करने से क्या लाभ है?
उत्तर : चारों अनुयोगों का यथाक्रम अभ्यास मनन करना चाहिये। इस क्रम का कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। इससे गुणस्थान की विशुद्धि में सहायता मिलती है।। फसल आने के बाद धान्य में, वाग के वृक्ष फलने के बाद वृक्षों में, कुमारावस्था के बाद बालक में, गन्ना अंत में, शूरवीर युद्ध में, दूध पकाने के बाद घी में, बरसात के बाद तालाब में, वृद्धावस्था में स्त्री में जैसे पूर्णत्व आता है और वे फलदायी होते हैं, वैसे जैनागम के चारों अनुयोग का क्रमशः अभ्यास करने से आत्मा का ज्ञान होता है। मुक्ति का सोपान खुलता है। अध्यात्म की आभा प्रकट होती है। इस क्रम को कभी भंग नहीं करना चाहिये। क्रम से अभ्यास करने से आत्मतत्व की प्राप्ति, निवृत्ति रूप फल प्राप्त होता है।
प्र. ८०१ : लौकिक कथा कौनसी है? उनका स्वरूप बतलाइये।
उत्तर : स्त्रीकथा, अर्थकथा, भोजनकथा, खेटकर्वट कथा, चोरकथा, जनपदकथा, नगरकथा और आकारकथा ये लौकिक कथाएँ हैं।
स्त्रीकथा :- से स्त्रियाँ सुंदर रूपवाली हैं, सौभाग्य सहित हैं, मनोरमा हैं, उपचार में कुशल हैं, कोमल वचन बोलने वाली हैं इत्यादि रूप से स्त्रियों की कथा करना, स्त्रीकथा है।
अर्थकथा : धनोपार्जन के उपाय से संबंधित कथा अर्थकथा है। सेवा, व्यापार, लेखनवृत्ति, खेती, समुद्र,प्रवेश, धातुवाद, रसायनप्रयोग, मंत्र-तंत्र इत्यादि प्रकारों से धनोपार्जन के हेतु वचन बोलना अर्थकथा है।
भोजनकथा : रसना इन्द्रिय से लुब्ध होकर चार प्रकार के आहार से संबंधित वचन बोलना, जैसे वहां पर अच्छे खाने योग्य भक्ष्य, खाद्य, लेह्य, पेय, सुरस, मीठे, अतीव रसदार पदार्थ हैं, वह महिला बहुत प्रकार के व्यंजन बनाना जानती है। उसके हाथ में पहुँची खराब वस्तु भी अच्छी बन जाती है किन्तु अमुक के घर में सर्व ही भोजन अनिष्ट, अप्रिय, दुर्गन्धित हैं, सभी पदार्थ स्वाद रहित नीरस हैं, इत्यादि प्रकार से भोजन संबंधित वचन बोलना भोजन कथा है।
खेटकर्वट कथा :- नदी, पर्वत से वेष्टित प्रदेश खेट है। तथा सर्वत्र पर्वत से वेष्टित देश कर्वट है। इन संबंधी कथा करना खेटकर्वट कथा है। तथा संवाहन, द्रोणमुख आदि कथाएँ भी ग्रहण कर लेना चाहिये।
राजकथा :– नाना राजाओं से संबंधित वचन बोलना राजकथा है। वे राजा बहुत ही प्रतापी है, शत्रु है, चाणक्य के समान निपुण है, विचार-संचार में कुशल है, योग और क्षेत्र में अपनी बुद्धि लगाने वाले हैं। चतुरंग सेना सहित हैं। सर्व वैरियों को जीत चुका है। उसके सामने कोई भी खड़ा नहीं रह सकता है। इत्यादि प्रकार के वचन बोलना राजकथा है।
चोरकथा : जैसे, वह चोर निपुण है। सेंध लगाने में प्रवीण है वह तो मार्ग में ही लूटने में कुशल है, देखते-देखते लेकर भाग जाता है, उसने सभी को त्रस्त कर रखा है इत्यादि बातों का कथन करना चोर कथा है।
जनपदकथा: देश, नगर, जो परकोटे से घिरा हुआ है। हीरा, पन्ना, सोना, कुंकुम, मोती, नमक, चन्दन आदि उनकी उत्पत्ति के स्थान विशेष इनसे संबंधित कथाएँ करना, रत्नों के अर्जन करने का, उनके लाने, ले आने आदि की बातें करना, वहाँ पर रत्न सुलभ हैं, सुंदर और मूल्यवान हैं इत्यादि वचन बोलना जनपद, नगर तथा परिकरकथा कहलाती है।
प्र. ८०२ : आगम से व लौकिक से मुहूर्त का लक्षण बतलाइये।
उत्तर : तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है। आगम में मुहूर्त का लक्षण किया गया है। किन्तु लौकिकजनों ने सात सौ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त माना है। आगम में उदर प्रदेश से निकले हुये उच्छवास का ग्रहण है। और लौकिक में नाक से निकले हुये उच्छवास का ग्रहण है। इसलिये कोई दोष नहीं हैं अर्थात् दोनों ही प्रकार के मुहूर्त के प्रकार में समय समान ही रहता है।
प्र. ८०३ : योगसार – प्राभृत का अर्थ बतलाइये।
उत्तर : योग शब्द के संस्कृत में उसके संदर्भानुसार अनेक अर्थ होते हैं, यहाँ पर योग का अर्थ उस शुद्ध मानसिक अवस्था से है जो राग-द्वेष व समस्त विकल्पों से रहित है तथा धर्मों का तत्वों को एकाग्र है। इसके अंतर्गत धर्मध्यान व शुक्लध्यान, इन दो ध्यानों का समावेश हो जाता है। दूसरे सार शब्द का अर्थ है, किसी बात का वह मौलिक तत्व जिसमें बाह्य विचारों का अभाव है। अन्तिम शब्द प्राभृत (पाहुड़) शब्द के भी अनेक अर्थ हैं, इनमें से बहुत प्रचलित अर्थ प्रकरण हैं। अतः समय रूप से अर्थ हुआ एक ऐसा पवित्र ग्रंथ ध्यान के मूल स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिये लिखा गया है।
प्र. ८०४ : आगम की उपयोगिता बतलाओ।
उत्तर : मन की एकाग्रता के बिना साधना नहीं बनती और साधना के बिना तपस्या नाममात्र की ही रह जाती है। मन की एकाग्रता पदार्थों के निश्चय पर अवलम्बित है। जिन साधु को अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का, परपदार्थों का, परपदार्थों के संयोग-वियोग, हेतुओं का, कर्मपुद्गलों तथा उनकी शक्ति और इस विश्व के रूप का ठीक निश्चय नहीं है, उसका चित्त डावाँडोल होने के कारण स्थिरता को प्राप्त नहीं होता है। पदार्थों के निश्चय की प्राप्ति आगम उपदेशित शास्त्रों से होती है। अतः आगम शास्त्रों के प्रति विशेष आदर भाव रखना चाहिये।
परलोक के विषय में अथवा अतीन्द्रिय सूक्ष्म पदार्थों के संबंध में प्रायः शास्त्र ही प्रमाणभूत हैं। संसारी प्राणी अर्थोपार्जन और काम सेवन इन दो पुरुषार्थ में तो बिना किसी उपदेश के स्वतः प्रवीण होता है तथा प्रवृत्ति करता है परन्तु धर्माचरण में बिना शास्त्र के नहीं प्रवर्तता अतः आगमशास्त्र से आदर करना हितरूप है। अर्थ और काम साधन में प्रवृत्ति न करने से उनका अभाव ही होता है। परन्तु धर्म के साधन में प्रवृत्ति न करने का अभाव ही नहीं किन्तु अनर्थ भी होता है जिसे पापाचार प्रवृत्ति के रूप में समझना चाहिये।
प्र. ८०५ : आगम शास्त्र की महिमा बतलाइये।
उत्तर :
मायापयौषधं शास्त्रं शास्त्रं पुण्यनिबंधनम् ।
चक्षु सर्वगतं शास्त्रं शास्त्रं सर्वार्थसाधकम् ।।
मोजन्ना का रोग की दवा शास्त्र, सर्वपदार्थों को देखने वाला नेत्र-शास्त्र, पुण्य का कारण-शास्र और सार्व प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला साधक शास्त्र बतलाया है। जिस प्रकार मलिन वस्त्र का जल से शोधन होता है उसी प्रकार रागादि से दूषित हुये मन का संधोधन शास्त्र से होता है। शास्त्र में निरन्तर लगी हुई बुद्धि मुक्ति प्राप्त करने में दूती के समान है। मुक्ति को प्राप्त कराती है इसलिये जो संसार से संसार के दुःखों से, भयभीत भव्य है, उसे यत्नपूर्वक बुद्धि को शास्त्र में, शास्त्र के अध्ययन में, श्रवण मननादि में लगाना चाहिये जिसकी आगम भक्ति नहीं, उसकी सारी धर्मक्रिया कर्मदोष के कारण अंधे व्यक्ति की क्रिया के समान होती है और वह क्रिया दूषित होने के कारण सत्फल को, उत्तमफल को नहीं फलेगी।
प्र. ८०६ : लौकिक शास्त्र किसे कहते हैं?
उत्तर : व्याकरण, गणित, आदि शास्त्रों को लौकिक शास्त्र कहते हैं।
प्र. ८०७ : आध्यात्मिक शास्त्र किसे कहते हैं?
उत्तर : द्वादशांग श्रुत, प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग, सिद्धांतगंथ षट्खंडागम, कषायपाहुड़, महाबंधादि तथा स्याद्वाद न्यास, प्रमेयकमल मार्तण्ड, समयसार आदि अध्यात्म शास्त्र हैं। ये समयरूप सामायिक शास्त्र कहलाते हैं।
प्र. ८०८ : सूत्रग्रंथ किसे कहते हैं?
उत्तर : वर्तमान में षड्खंडागम सूत्र, कषायपाहुइ सूत्र और महाबंध सूत्र अर्थात् धवला, जयधवला और महाधवला को सूत्र ग्रंथ माना जाता है चूँकि श्री वीरसेनाचार्य ने धवला, जयधवला टीका में इन्हें सूत्र सदृश मानकर सूत्र ग्रंथ कहा है। इनके अतिरिक्त, आराधना के कथन करने वाले ग्रंथ, मरण को कहने वाले ग्रंथ, संग्रहग्रंथ, स्तुति ग्रंथ, प्रत्याख्यान, आवश्यक क्रिया और धर्मकथा संबंधी ग्रंथों तथा और भी ऐसे ही ग्रंथों को अस्वाध्याय काल में भी पढ़ा जा सकता है।
प्र. ८०९ : विनयपूर्वक पढ़े गये शास्त्र का क्या फल है?
उत्तर : विनय से जो शास्त्र पढ़ा गया है, प्रमाद से यदि उसका विस्मरण भी हो जाए तो अन्य जन्म में वह सूत्र ग्रंथ उपस्थित हो जाता है। स्मरण में आ जाता है और वह पढ़ा हुआ शास्त्र ‘केवलज्ञान’ भी प्राप्त करा देता है। इसलिये काल आदि की शुद्धिपूर्वक शास्त्र का अध्ययन करना चाहिये।
प्र. ८१० : सम्पूर्ण जिनवाणी चार अनुयोगों में ग्रंथित है। भगवान एक हैं, उनकी वाणी भी एक है फिर चार भागों में विभाजन क्यों किया?
उत्तर : सम्पूर्ण जिनवाणी विषय भेद की अपेक्षा चार अनुयोगों में संग्रहित है न कि जिनप्रभु का चार भेद रूप उपदेश है। वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन एक ही रूप है। किन्तु उसे सरल रीति से हृदयंगम कराने व सर्व का उपकार करने के लिये, उसे चार भागों में संग्रहित किया है।
प्र. ८११ : प्रथमानुयोग की उपयोगिता बतलाइये।
उत्तर : प्रथमानुयोग पुण्यपाप रूप पदार्थों का निरुपण कथा साहित्य के माध्यम से करता है। ६३ शलाका महापुरुषों का जीवन चरित्र किस प्रकार सुख-दुःख में भटककर शुभाशुभ गतियों में गमनागमन कर स्थिर हुआ, यह प्रथमानुयोग अति सरलता से स्पष्ट करता है। पुण्यपाप के आधारभूत जीवतत्व, पुद्गल तत्व एवं अन्य आश्रव बंधादि का भी प्रासंगिक निरुपण होता है। सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्रधारियों के चरित्र चित्रण में रत्नत्रय प्राप्ति में वृद्धि, संयम, तप ध्यानादि का अति अल्प विवेचन होता है। परिश्रान्त जीव संयमाराधना कर किस प्रकार अक्षय सुख स्वरूप आत्मतत्व की उपलब्धि करने में समर्थ होते हैं इसका भी इस अनुयोग में सुलझा रूप प्राप्त होता है। संक्षेप में प्रथमानुयोग में चारों अनुयोग गर्भित हैं। प्राथमिक अवस्था में प्रथम इसी अनुयोग का अध्ययन कर अन्य अनुयोग में प्रवेश होना संभव है।
प्राथमिक शिक्षण क्रम से होने पर ही परिपक्वता आती है। बुद्धि का क्रमिक विकास होता है। पूर्ण विकासोन्मुख सफलता प्राप्त होती है। जिनशासन का परिज्ञान करने का यही क्रम है।
प्र. ८१२ : आदिनाथ, बाहुबली, भरत आदि तीसरे काल में पैदा हुये तो ये कर्मभूमियाँ जीव कहे जायेंगे या भोगभूमियाँ?
उत्तर : जिन जीवों की आयु एक कोटि से अधिक होती है, वे भोगभूमियाँ मनुष्य व तिर्यञ्च जीव कहे जाते हैं और जिन मनुष्यों या तिर्यञ्चों की आयु एक कोटि पूर्व वर्ष है, वे कर्मभूमियाँ जीव हैं।
प्र. ८१३ : श्री नाभिराय की आयु कितनी थी?
उत्तर : श्री नाभिराय मनु पाँच सौ पच्चीस धनुष ऊँचे सुवर्ण के सदृश वर्ण वाले और १ पूर्वकोटि आयु से युक्त थे। उनके मरुदेवी नाम की पत्नी थी। श्री भगवान आदिनाथ, श्री बाहुबली, श्री भरत की आयु एक कोटि पूर्व से अधिक नहीं थी।
प्र. ८१४: श्रीकृष्ण के जीवन ने कौनसी पर्याय में सम्यक्त्त्व प्राप्त किया था?
उत्तर : श्रीकृष्ण ने श्री नेमिनाथ के समवशरण में क्षयोपशम सम्यक्त्त्व प्राप्त करके तीर्थकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ किया था। किन्तु मृत्यु से अंतर्मुहूर्त पूर्व मिथ्यात्व को प्राप्त हो गये और तीर्थंकर प्रकृति का बंध रुक गया। मरकर तीसरे नरक गये। वहाँ पहुँचने के एक अंतर्मुहूर्त बाद पुनः क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध शुरू हो गया।
प्र. ८१५ : श्रीकृष्णजी ने नेमिनाथ के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, सो अब वे कब और कहाँ तीर्थंकर होंगे?
उत्तर : श्रीकृष्णजी तीसरे नरक से निकलकर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी काल के दुषमा सुखमा काल में श्री निर्मल नामक १६वें तीर्थंकर होंगे।
प्र. ८१६ : नारायण व प्रतिनारायण को अर्धचक्री की संज्ञा प्राप्त है तो वे क्या चक्रवर्ती जैसे शरीर बना सकते हैं या नहीं?
उत्तर : नारायण व प्रतिनारायण को अर्धचक्री संज्ञा है। चक्रवर्ती की तरह वे भी अपने शरीर बना लेते हैं। चक्रवर्ती की अपेक्षा, अर्धचक्री के शरीर की संख्या अल्प होती है।
प्र. ८१७ : तपश्चर्या कर व अनेक शास्त्रों का अध्ययन करके भी मुक्ति क्यों नहीं प्राप्त होती है?
उत्तर : तपश्चर्या व शास्त्र पठन बाह्य आचरण है। वह आत्म-विचार नहीं। आत्महित के लिये तो आत्मध्यान की आवश्यकता है।
प्र. ८१८ : अभव्य शास्त्र का कितना ज्ञान प्राप्त करते हैं?
उत्तर : अभव्य द्वादशांग शास्त्रों में एकदशांग पठन करते हैं, परिग्रह को छोड़कर निग्रंथ तपस्वी भी होते हैं। परन्तु बाह्याचरण में ही रहते हैं।
प्र. ८१९: आगम का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर : जो शास्त्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों को कराने में समर्थ है तथा हेय (छोड़ने योग्य) और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) का ज्ञान कराकर त्रिकालवर्ती पदार्थों का यथार्थ बोध कराने में प्रवीण हो, उसे आगम कहते हैं। (यशस्तिलक अ.६ पृ. २७९) जिस प्रकार लोक में माता और पिता की शुद्धि (पिंड शुद्धि) होने पर उनके पुत्र में शुद्धि देखी जाती है। उसी प्रकार आप्त की विशुद्धि (वीतराग-सर्वज्ञता आदि) होने पर ही उसके कहे हुये आगम में विशुद्धता-प्रामाणिकता होती है अतः जो तीर्थंकरों द्वारा निरुपण किया गया हो, उसे आगम कहा है।
प्र. ८२० : आगम का अर्थ तथा माहात्म्य बतलाइये।
उत्तर : तत् खलु सद्भिः श्रद्धेय मैतिह्यं यत्र न प्रमाण बाधा पूर्वापारविरोधो वा।
अर्थ – जिसमें किसी भी प्रमाण से बाधा और पूर्वापरविरोध न पाया जाता हो, वही आगम शिष्ट पुरुषों के द्वारा श्रद्धा करने योग्य है तथा प्रमाण मानने योग्य है। विधिनिषेधावैतिह्यत्यतौ। विधि-कर्त्तव्य में प्रवृत्ति और निषेध-अकर्त्तव्य से निवृत्ति से दोनों सत्यार्थ आगम के अधीन है। अर्थात् वक्ता के कहे हुये आगम में निज कर्तव्यों के करने का विधान बताया है, विवेकी मनुष्यों को उनमें प्रवृत्ति करनी चाहिये और उक्त आगम में जिनके कराने का निषेध किया गया है, उन्हें त्यागना चाहिये।
प्र. ८२१ : शास्त्रज्ञान से शून्य मनुष्य की क्या हानि होती है?
उत्तर : शास्त्रज्ञान से शून्य जड़ात्मक मनुष्य ज्योति रहित नेत्र के समान अपने समुचित कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सकता है।
प्र. ८२२ : शास्त्रज्ञान की निष्फलता बतलाओ।
उत्तर : अकार्यवेदिनः किं बहुता शास्त्रेणः। अर्थ- जो मनुष्य कर्त्तव्य (हित प्राप्ति व अहितपरिहार) को नहीं जानता चतुर नहीं है, उसका बहुतशास्त्रों का अभ्यास व्यर्थ है।
प्र. ८२३ : वक्ता से विरक्त रहने वाले के चिन्ह बतलाओ।
उत्तर : जो कथा को ध्यानपूर्वक न सुने और उसे सुनता हुआ भी व्याकुल हो जाये, जिसकी मुखाकृति उस समय ग्लान हो जाय, बात कही जाने पर भी वक्ता के सामने दृष्टिपात न करे। जिस स्थान पर बैठा हो वहाँ से उठकर दूसरी जगह चला जाय। वक्ता द्वारा अच्छे कार्य किये जाने पर भी उसे दोषी बताये, समझाने पर भी जो मौन धारण कर लेते हैं। कुछ भी उत्तर नहीं दे, जो स्वयं क्षमा (वक्ता की बात को सहन करने की शक्ति) न होने के कारण अपना काल क्षेप करता हो, निरर्थक समय बिताता हो, जो वक्ता को अपना मुख न दिखाये और अपने वायदा झूठा करे, यह कथा से वक्ता से विरक्त रहने वाले मनुष्य के चिन्ह हैं।
.प्र . ८२४ : आगम शास्त्र में आदर करना क्यों हित रूप है?
उत्तर : संसारी प्राणी अर्थोपार्जन और काम सेवन इन दो पुरुषार्थों में तो बिना किसी उपदेश के स्वतः प्रवीण होता है तथा प्रवृत्ति करता है परन्तु धर्माचरण में बिना शास्त्रोपदेश के प्रवृत्त नहीं होता। इसलिये शास्त्र में आदर होना हितकारी है। अर्थ और काम को न करने से उनका अभाव ही होता है। परन्तु धर्म का अनुष्ठान न करने से उनका अभाव ही नहीं किन्तु दूसरा अनर्थ भी घटित होता है, जो पापाचार दिखलाने वाला है। मायारूप योग की दवा शास्त्र, पुण्य का कारण शास्त्र, सर्व पदार्थों को देखने वाला नेत्र शास्त्र और सर्व प्रयोजन का साधक शास्त्र है। जिस प्रकार मलिन वस्त्र का जल से शोधन होता है, उसी प्रकार रागादि रोग से दूषित हुये मन का संशोधन शास्त्र से होता है।
प्र .८२५ : भक्तिरहित शास्त्रज्ञान से हानि बतलाओ।
उत्तर : जिसकी आगम शास्त्र में भक्ति नहीं, उसकी सारी धर्म क्रिया कर्मदोष के कारण अंधे व्यक्ति की क्रिया के समान होती है और वह क्रिया दूषित होने के कारण उत्तमफल को नहीं फलती। शास्त्र में निरंतर लगी हुई बुद्धि मुक्तिश्री को प्राप्त करने में दूती के समान है इसलिये जो संसार से संसार के दुःखों से भयभीत भव्य है, उन्हें यत्नपूर्वक बुद्धि को शास्त्र के अध्ययन, श्रवण मननादि में लगना चाहिये।
प्र. ८२६ : शात्र को नहीं जानने वालों की क्या हानि होती है?
उत्तर: जिस प्रकार दुर्गम वन में पड़ा हुआ अंधा मनुष्य गड्ढे आदि का परित्याग न कर सकने से इष्टस्थान में प्रवेश करने वाले मार्ग को नहीं पाता है उसी प्रकार संसार रूपी वन में पड़ा हुआ अशास्त्र प्राणी मार्ग का परित्याग कर न सकने से उस सन्मार्ग पर नहीं लगता है, जिस पर चलने पर मुक्ति की प्राप्ति होती है।
प्र. ८२७ : विश्व का कल्याण किन व्यक्तियों से हो सकता है?
उत्तर : विश्वकल्याण उन्हीं व्यक्तियों से हो सकता है जो पहले अपनी भलाई कर चुका हो, जिसमें स्वयं दौष, गलती, बुराई एवं दुर्गुण होंगे वह अन्य के दोषों का परिमार्जन कभी नहीं कर सकता और न उनका आदर्श समाज के लिये कल्याणप्रद हो सकता है।
प्र. ८२८ : तत्वार्थसूत्र पर गंध हस्ति महाभाष्य नाम के ग्रंथकर्ता आचार्य का नाम व श्लोक संख्या का प्रमाण बतलाइये।
उत्तर: तत्वार्थ सूत्र पर गंधहस्ति महाभाष्य ग्रंथ के कर्ता श्री समन्तभद्राचार्य हैं और यह ग्रंथ ८४००० श्लोक प्रमाण हैं।
प्र. ८२९ : समन्तभद्राचार्य (रत्नकरंड श्रावकाचार के रचयिता) का जन्म नाम बतलाओ।
उत्तर: समन्तभद्राचार्य का जन्म नाम शान्तिवर्मा था।
प्र. ८३० : सिद्धांत किसे कहते हैं?
उत्तर: तर्क की कसौटी पर जिसकी सत्यता प्रकट होती है, उसे सिद्धांत कहते हैं।
प्र. ८३१ : शास्त्र किसे कहते हैं?
उत्तर: अरहन्त देव के वचन ही कहे योग्य हैं क्योंकि शास्त्र शब्द, शास् और त्र दो धातुओं से बना है जिसमें पहले का अर्थ उपदेश देना और दूसरे का अर्थ है रक्षा करना और वह हित का उपदेश देता है और संसार समुद्र से रक्षा करता है तथा वही आगम सब का ज्ञान कराता है।
प्र. ८३२ : आगम किसे कहते हैं?
उत्तर : छहद्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्व, ९ पदार्थ तथा कर्म प्रकृतियों के क्षय का जहाँ कथन है, उसे आगम कहते हैं।
प्र. ८३३ : एक ऐसे ग्रंथ का व आचार्य का नाम बतलाओ जिसकी रचना दो माह में हो गई?
उत्तर आचार्य अमितगतिजी ने धर्मपरीक्षा नामक काव्य की २ माह में ही निर्दोष रचना की थी।
प्र. ८३४ : धर्मपरीक्षा ग्रंथ श्लोक संख्या, परिच्छेद संख्या यह ग्रंथ की प्राचीनता बतलाओ।
उत्तर: धर्मपरीक्षा ग्रंथ में २० परिच्छेद हैं। २०४१ श्लोक संख्या है। यह ग्रंथ करीब १००० वर्ष पहले रचा गया है।
प्र. ८३५ : भगवान बाहुबली के जीवन चरित्र का विस्तृत वर्णन किस शास्त्र में है?
उत्तर : भगवान बाहुबली के जीवन चरित्र का विस्तृत वर्णन जिनसेनाचार्य के आदिपुराण में मिलता है।
प्र. ८३६ : गन्यहस्तिमहाभाष्य ग्रंथ के श्लोक का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर: ८५,००० (चौरासी हजार श्लोक)
प्र. ८३७ : गन्धहस्तिमहाभाष्य ग्रंथ के रचयिता का नाम बतलाओ।
उत्तर : समन्तभद्राचार्य द्वारा उदयाचल से गन्धहस्तिमहाभाष्य ग्रंथ सूर्य प्रकट हुआ है।
प्र. ८३८ : श्लोकवार्तिक ग्रंथ किस दृष्टि से उच्चकोटि का है?
उत्तर : न्यायशास्त्र व सिद्धांतशास्त्र की दृष्टि से तत्वार्थश्लोक वार्तिक ग्रंथ उच्चकोटि का है।
प्र. ८३९ : आ. विद्यानंदाचार्य ने तत्वार्थसूत्र के ऊपर किस ग्रंथ की रचना की?
उत्तर : तत्वार्थश्लोकवार्तिक की।
प्र. ८४० : वार्तिक किसे कहते हैं?
उत्तर : मूलग्रंथकार से कथित तथा उनके हृदयगत गूढ़ अर्थों की एवं मूल ग्रंथकर्ता से ही कहे गये अतिरिक्त भी अर्थों की अथवा दो बार कहे गये प्रमेय की चिंतना को वार्तिक कहते हैं।
प्र. ८४१ : प्रमाणसम्प्लव किसे कहते हैं?
उत्तर : एक अर्थ में विशेष विशेषांग रूप से जाने गये अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति को प्रमाणसम्प्लव कहते हैं।
प्र. ८४२ : वाद किसे कहते हैं?
उत्तर : प्रमाण और तर्कणाओं से स्वपक्ष की सिद्धि व अन्यपक्ष में दूषण बताये हुये तत्वनिर्णय या जीतने की इच्छा से भी कदाग्रह रहित वादियों के परस्पर में प्रवर्ते हुये संवाद को वाद कहते हैं।
प्र. ८४३ : अध्यात्म शास्त्र किसे कहते हैं?
उत्तर : आत्मा की विविध अवस्थाओं और उसका मुख्य निमित्तों का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र यह उसका व्यापक अर्थ है। वैसे जीव की विविधावस्थाओं में मूल वस्तु का ज्ञान कराने वाला शास्त्र ही अध्यात्म शास्त्र कहलाता है।
प्र. ८४४ : सिद्धांत किसे कहते हैं?
उत्तर : सर्वज्ञ की ज्ञानधारा के अनुसार प्रमाण सिद्ध पदार्थों के निर्णय को सिद्धांत कहते हैं।
प्र. ८४५ : भगवती आराधना ग्रंथ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर : आचार्य शिवकोटि।
प्र. ८४६ : कषाय पाहुड ग्रंथ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर : आचार्य गुणधर।
प्र. ८४७ : जोणिपाहुड ग्रंथ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर : आचार्य धरसेन।
प्र. ८४८ : समन्तभद्र आचार्य रचित कोई छह ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : (१) आप्तमीमांसा, (२) स्वयंभूस्तोत्र, (३) स्तुतिविद्या, (४) तत्वानुशासन, (५) गंधहस्तीमहाभाष्य एवं (६) युक्तयानुशासन।
प्र. ८४९ : जम्बूद्वीप समास के रचनाकार कौन हैं?
उत्तर : आचार्य कुन्दकुन्द।
प्र. ८५० : कुन्दकुन्दाचार्य रचित ७ ग्रंथों के नाम बताओ?
उत्तर : समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुइ, बारस अणुप्रेक्षा ।
प्र. ८५१ : आचार्य पूज्यपाद रचित ५ शास्त्रों के नाम बतलाओ।
उत्तर : जैनेन्द्रव्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश, देवभक्ति।
प्र. ८५२ : आचार्य अकलंक भट्ट के द्वारा रचित ७ शास्त्रों के नाम बतलाओ।
उत्तर : (१) राजवार्तिक, (२) अष्टशती, (३) न्यायविनिश्चय, (४) अकलंकस्तोत्र, (५) लघीयसूत्रय, (६) प्रमाणसंग्रह और (७) न्यायचूलिका।
प्र. ८५३ : हरिवंशपुराण के रचयिता का नाम बतलाओ।
उत्तर : आचार्य जिनसेन।
प्र. ८५४ : आचार्य अनंतकीर्ति के द्वारा रचित दो ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : लघु सर्वज्ञसिद्धि, वृहद्सर्वज्ञसिद्धि।
प्र. ८५५ : आचार्य सोमदेव रचित ३ ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : नीतिवाक्यामृत, यशस्तिलकचम्पू, अध्यात्मतरंगिनी।
प्र. ८५६ : पुराणसंग्रह के रचयिता कौन हैं?
उत्तर : आचार्य दामनन्दि ।
प्र. ८५७ : बाहुबली चरित्र की रचना किसके द्वारा हुई?
उत्तर : कवि धनपाल।
प्र. ८५८ : न्यायदीपिका के रचनाकार का नाम बतलाओ।
उत्तर : धर्मभूषण।
प्र. ८५९ : भरतेशवैभव के लेखक कौन हैं?
उत्तर : कवि रत्नाकर।
प्र. ८६० : पुण्याश्रव कथाकोष के रचनाकार कौन हैं?
उत्तर : महाकवि रइधू।
प्र. ८६१ : यशोधरचरित्र के रचयिता कौन हैं?
उत्तर : कवि पद्मनाभ।
प्र. ८६२ : स्वामी कौन कहलाता हैं?
उत्तर : ‘तत्वार्थ सूत्र व्याख्याता स्वामीति परिपठयते नीतिसार’ अर्थात् तत्वार्थ सूत्र पर व्याख्यान (टीका) बनाने वाला अथवा उसका व्याख्यान करने वाला स्वामी कहलाता है।
प्र. ८६३ : महापुराण के कितने भाग हैं? उनके नाम बतलाओ।
उत्तर : महापुराण के दो भाग हैं। पहिले भाग का नाम आदिपुराण है, दूसरे भाग का नाम उत्तरपुराण।
प्र. ८६४ : आदिपुराण में मुख्यतः किस विषय का वर्णन है?
उत्तर : आदिपुराण में मुख्यतः प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती का चरित्र वर्णन है।।
प्र. ८६५ : उत्तरपुराण में किस विषय का वर्णन हैं?
उत्तर : उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थंकरों का तथा चक्रवर्ती आदि शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन हैं।
प्र. ८६६ : महापुराण की श्लोक संख्या बताओ?
उत्तर : महापुराण की श्लोक संख्या २९ हजार हैं।
प्र. ८६७ : आदिपुराण की श्लोक संख्या का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर : १२ हजार श्लोक में आदिपुराण पूर्ण हुआ है। शेष ८००० हजार श्लोक में उत्तरपुराण समाप्त हुआ है।
प्र. ८६८ : आदिपुराण में कितने पर्व हैं?
उत्तर : ४७ पर्व या अध्याय हैं।
प्र. ८६९: आदिपुराण ग्रंथ के रचयिता का नाम बतलाओ।
उत्तर : जिनसेनाचार्य।
प्र. ८७० : जिनसेनाचार्य ने कितने पर्व बनाये?
उत्तर : ४२ पर्व पूरे व ४३वें पर्व के तीन श्लोक जिनसेनाचार्य के द्वारा बनाये हुये हैं।
प्र. ८७१ : शेष श्लोक व पर्वो की पूर्णता किसने की?
उत्तर : शेष ४३वें पर्व के श्लोक और ४४ से ४७ तक पर्व (श्लोक १६.२०) की रचना गुणभद्राचार्य ने की है।
प्र. ८७२ : पंडित प्रवर आशाधर की माता-पिता का नाम बतलाओ।
उत्तर : सलखण (सल्लक्षण) पिता का नाम, श्रीरत्नी माता का नाम था।
प्र. ८७३ : पंडित आशाधरजी के मुख्य तीन सुलभ ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : एक जिनयज्ञकल्प, दूसरा सागरधर्मामृत और तीसरा अनगारधर्मामृत।
प्र. ८७४ : धर्मपरीक्षा ग्रंथ के लेखक आचार्य का नाम बतलाओ।
उत्तर : आचार्यवर्य अमितगति।
प्र. ८७५ : धर्मपरीक्षा ग्रंथ की कुल श्लोक संख्या, ग्रंथ लिखने का समय बतलाओ।
उत्तर : धर्मपरीक्षा में कुल श्लोक १९४५ हैं। इतने बड़े उत्तम ग्रंथ की दो महीने में रचना पूर्ण की गई हैं।
प्र. ८७६ : वादिराज स्वामी द्वारा बनाये हुये ३ ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : एकीभावस्तोत्र, यशोधरचरित्र, (चतुःसर्गात्मक २९६ पद्य) काकुत्स्थचरित्र।
प्र. ८७७ : तत्वार्थसूत्र की सबसे बड़ी टीका ग्रंथ व आचार्य का नाम बतलाओ।
उत्तर : तत्वार्थसूत्र की सबसे बड़ी टीका ग्रंथ गंधहस्तीमहाभाष्य है। उसके रचयिता आचार्य समंतभद्र स्वामी है।
प्र. ८७८ : गंधहस्तीमहाभाष्य का मंगलाचरण कितने श्लोक में हैं? तथा उसे क्या कहते हैं?
उत्तर : गंधहस्तीमहाभाष्य का मंगलाचरण १४९ श्लोकों में है, जिसे कि देवागम स्तोत्र या आप्तमीमांसा कहते हैं।
प्र. ८७९: आप्तमीमांसा पर प्रथम टीका ग्रंथकर्ता का नाम व श्लोक का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर : आप्तमीमांसा पर प्रथम टीका ग्रंथ अष्टशती, कर्ता वादिराजकेशरी अकलंकभट्ट है। ग्रंथ ८०० श्लोकप्रमाण है।
प्र. ८८० : अष्टशती पर दूसरी टीका ग्रंथकर्ता का नाम बतलाओ।
उत्तर : अष्टशती पर दूसरी टीका अष्टसहस्त्री है, जिसे विद्यानंदस्वामी ने बनायी है।
प्र. ८८१ : देवागमवृत्ति ग्रंथकर्ता का नाम बतलाओ।
उत्तर : वसुनंदी सिद्धांतचक्रवर्ती हैं।
प्र. ८८२ : आचार्य समन्तभद्रस्वामी रचित ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : रत्नकरण्ड्ङ्ग्रावकाचार, युक्तयानुशासन, जिनशतालंकार, विजयधवल टीका, तत्वानुशासन ये पाँच ग्रंथ समन्तभद्रस्वामी के बनाये गये प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
प्र. ८६८: आदिपुराण में कितने पर्व हैं?
उत्तर : ४७ पर्व या अध्याय हैं।
प्र. ८६१ : आदिपुराण ग्रंथ के रचयिता का नाम बतलाओ।
उत्तर : जिनसेनाचार्य।
प्र. ८७० : जिनसेनाचार्य ने कितने पर्व बनाये?
उत्तर : ४२ पर्व पूरे व ४३वें पर्व के तीन श्लोक जिनसेनाचार्य के द्वारा बनाये हुये हैं।
प्र. ८७१ : शेष श्लोक व पाँ की पूर्णता किसने की?
उत्तर : शेष ४३वें पर्व के श्लोक और ४४ से ४७ तक पर्व (श्लोक १६२०) की रचना गुणभद्राचार्य ने की है।
प्र. ८७२ : पंडित प्रवर आशाधर की माता-पिता का नाम बतलाओ।
उत्तर : सलखण (सल्लक्षण) पिता का नाम, श्रीरत्नी माता का नाम था।
प्र. ८७३ : पंडित आशाधरजी के मुख्य तीन सुलभ ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : एक जिनयज्ञकल्प, दूसरा सागरधर्मामृत और तीसरा अनगारधर्मामृत।
प्र. ८७४ : धर्मपरीक्षा ग्रंथ के लेखक आचार्य का नाम बतलाओ।
उत्तर : आचार्यवर्य अमितगति।
प्र. ८७५ : धर्मपरीक्षा ग्रंथ की कुल श्लोक संख्या, ग्रंथ लिखने का समय बतलाओ।
उत्तर : धर्मपरीक्षा में कुल श्लोक १९४५ हैं। इतने बड़े उत्तम ग्रंथ की दो महीने में रचना पूर्ण की गई हैं।
प्र. ८७६ : वादिराज स्वामी द्वारा बनाये हुये ३ ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : एकीभावस्तोत्र, यशोधरचरित्र, (चतुःसर्गात्मक २९६ पद्य) काकुत्स्थचरित्र।
प्र. ८७७ : तत्वार्थसूत्र की सबसे बड़ी टीका ग्रंथ व आचार्य का नाम बतलाओ।
उत्तर : तत्वार्थसूत्र की सबसे बड़ी टीका ग्रंथ गंधहस्तीमहाभाष्य है। उसके रचयिता आचार्य समंतभद्र स्वामी हैं।
प्र. ८७८ : गंधहस्तीमहाभाष्य का मंगलाचरण कितने श्लोक में हैं? तथा उसे क्या कहते हैं?
उत्तर : गंधहस्तीमहाभाष्य का मंगलाचरण १४९ श्लोकों में हैं, जिसे कि देवागम स्तोत्र या आप्तमीमांसा कहते हैं।
प्र. ८७९ : आप्तमीमांसा पर प्रथम टीका ग्रंथकर्ता का नाम व श्लोक का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर : आप्तमीमांसा पर प्रथम टीका ग्रंथ अष्टशती, कर्ता वादिराजकेशरी अकलंकभट्ट है। ग्रंथ ८०० श्लोकप्रमाण है।
प्र. ८८० : अष्टशती पर दूसरी टीका ग्रंथकर्ता का नाम बतलाओ।
उत्तर : अष्टशती पर दूसरी टीका अष्टसहस्त्री है, जिसे विद्यानंदस्वामी ने बनायी है।
प्र. ८८१ : देवागमवृत्ति ग्रंथकर्ता का नाम बतलाओ।
उत्तर : वसुनंदी सिद्धांतचक्रवर्ती हैं।
प्र. ८८२ : आचार्य समन्तभद्रस्वामी रचित ग्रंथों के नाम बतलाओ।
उत्तर : रत्नकरण्ड्ङ्ग्रावकाचार, युक्तयानुशासन, जिनशतालंकार, विजयधवल टीका, तत्वानुशासन ये पाँच ग्रंथ समन्तभद्रस्वामी के बनाये गये प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
प्र. ८८३ : धनंजयकृत तीन कृतियों के नाम बतलाओ।
८८३) विवेगसार स्तोत्र, (२) नाममाला तथा (३) द्विसंधानकाव्य अथवा राघव पाण्डवीय काव्य।
प्र. ८८४ : धनंजय कवि के माता-पिता व गुरु का नाम बतलाओ।
उत८८४धनंजय के पिता का नाम वासुदेव तथा माता का नाम श्रीदेवी व गुरु का नाम दशरथ था।
( द्विसंधान काव्य पृ. २२)
प्र. ८८५: खण्ड कौनसे हैं, नाम बतलाओ।
उत्तर : (१) जीवस्थान, (२) खुद्दाबंध, (३) बंधस्वामित्वविचय, (४) वेदना, (५) वर्गणा और (६.) महाबंध।
प्र. ८८६ : जीवस्थान में किस विषय का वर्णन है?
उत्तर : जीवस्थान में गुणस्थान व मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारों से तथा प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थान समुत्कीर्तन तथा तीन महादण्डक, जघन्यस्थिति, उत्कृष्टस्थिति, सम्यकत्वोत्पत्ति और गति, आगति इन नौ चूलिकाओं के द्वारा संसारी जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है।
प्र. ८८७ : खुद्दाबंध खण्ड में किस विषय का वर्णन है?
उत्तर : खुद्दाबंध कर्म का बंधन करने वाले जीवों को बंधक कहते हैं। दूसरे खण्ड खुद्दाबंध में जीव की प्ररूपणा ११ अनुयोग द्वारों से की गई है। किस गति मार्गणा के कौन-कौन जीव कर्मों का बंधन करते हैं, यह कहा गया है।
प्र. ८८८ : बंधस्वामित्व विचय तीसरे खण्ड में किस विषय का वर्णन हैं?
उत्तर : तीसरे खण्ड में बंध के स्वामित्व का विचार होने से बंधस्वामित्वविचय नाम दिया गया है। इसमें गुणस्थानों और मार्गणास्थानों द्वारा सभी कर्मप्रकृतियों के बंधक स्वामियों का विचार बहुत विस्तार से किया है।
प्र. ८८९ : वेदना खण्ड में किस विषय का वर्णन है?
उत्तर : महाकर्मप्रकृति प्राभृत के २४ अनुयोग द्वार हैं, उनमें से जिन ६ अनुयोग द्वारों का कथन भूतबलि आचार्य ने किया है उनमें से प्रथम का नाम कृति और दूसरे का वेदना है। इस खण्ड में वेदना का विस्तार से वर्णन होने से इस खण्ड का नाम वेदना खण्ड है।
प्र. ८९० : वर्गणाखण्ड में किस विषय का वर्णन है?
उत्तर : ५ वें वर्गणाखण्ड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोग द्वारों के साथ छठे बंधन अनुयोग द्वार के अंतर्गत बंधनीय का अवलम्ब लेकर पुद्गल वर्गणाओं का विशेष कथन होने से इसे वर्गणा खण्ड नाम दिया है। विशेषतः इन्हीं ५ खण्डों पर धवला टीका है। महाकर्मप्रकृति के जिन शेष अठारह अनुयोग द्वारों का कथन भूतबली ने नहीं किया था, वीरसेन स्वामी ने अपने गुरु से पढ़कर उन्हें लिखा और इसे सत्कर्म नाम देकर उक्त ५ खण्डों के साथ सम्बद्ध कर दिया, इस तरह षट्खण्डागम निष्पन्न हुआ।
प्र. ८९१ : सिद्धांत सारसंग्रह तथा प्रतिष्ठा दीपक ग्रंथों के रचयिता का नाम बतलाओ।
उत्तर : नरेंद्रसेनाचार्य।
प्र. ८९२ : महाधवल शास्त्र का दूसरा नाम बतलाओ।
उत्तर : महाबंध, महाधवल शास्त्र का दूसरा नाम हैं।
प्र. ८९३ : धवला टीका किसे कहते हैं?
उत्तर: षट्खण्डागम के महाबंध को छोड़कर पाँच खण्डों पर जो वीरसेनाचार्य रचित टीका है, उसे धवला टीका कहते हैं।
प्र. ८९४ : जयधवला टीका किसे कहते हैं?
उत्तर : कषाय प्राभृत में गुणधर आचार्य रचित १८० गाथाएँ हैं। उनकी ६० हजार श्लोक प्रमाण टीका वीरसेनाचार्य तथा उनके शिष्य भगवान जिनसेन स्वामी ने बनाई, उसका नाम जयधवला टीका है।
प्र. ८९५ : षट्खण्डागम में जीवठ्ठान के प्रारंभिक सत्परूपणा अधिकार के कितने सूत्रों की रचना किसने की?
उत्तर : षट्खण्डागम में जीवठ्ठान के प्रारंभिक सत्परुपणा अधिकार के केवल १७७ सूत्रों की रचना पुष्पदंत आचार्य ने की हैं। शेष समस्त रचना भूतबली स्वामी कृत हैं।
प्र. ८९६ : पाँच खण्डों के श्लोक की प्रमाण संख्या बतलाओ।
उत्तर : जीवठ्ठान, खुद्दाबंध, बंधनिमित्त, वेदना और वर्गणा इन पाँच खण्डों की श्लोक संख्या छह हजार प्रमाण हैं।
प्र. ८९७ : छठे खण्ड महाबंध के श्लोक का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर : छठे खण्ड महाबंध में ४० हजार श्लोक हैं।
प्र. ८९८ : धवल, जयधवल और महाधवल (महाबंध) सिद्धांत शास्त्रों के श्लोकों का प्रमाण बतलाओ।
उत्तर : धवलशास्त्र सत्तर हजार श्लोक प्रमाण हैं। जयधवल ६० हजार श्लोक प्रमाण हैं तथा महाबंध ४० हजार श्लोक प्रमाण हैं। इन सिद्धांत शास्त्रत्रय की मैं वंदना करता हूँ।
प्र. ८९९ : जैन समाज में महाबंध शास्त्र किस नाम से विख्यात है?
उत्तर : महाधवल नाम से विख्यात है।
प्र. ९०० : महाबंध सूत्र क्या छन्दोबद्ध रचा गया है?
उत्तर : नहीं। समस्त महाबंध गद्यमय रचना है। अनुष्टुप छन्द के ३२ अक्षरों को एक श्लोक का माप मानकर समस्त ग्रंथ की गणना की गई है, इसे ही श्लोक के नाम से जाना जाता है।
प्र. ९०१ : आगम किसे कहते हैं?
उत्तर : जो पूर्वापर विरोधादि दोष परंपरा रहित सर्व पदार्थों का प्रकाशक हो तथा आप्तकी वाणी हो उसे आगम कहते हैं।
प्र. ९०२ : आगम साधित किसे कहते हैं?
उत्तर : यदि वक्ता अनाप्त है तो युक्ति द्वारा जो बात सिद्ध की जायेगी, वह हेतु साधित कही जायेगी और यदि वक्ता आप्त है, तो उनके वचनमात्र से ही बात सिद्ध होगी, इसे आगम साधित कहते हैं।
प्र. ९०३ : किन महात्माओं की वाणी सूत्र कही जाती हैं?
उत्तर : गणधर का कथन, प्रत्येक बुद्ध मुनिराज की वाणी श्रुतकेवली का कथन, अभिन्न दशपूर्वी का कथन सूत्र है।
प्र. ९०४ : महाधवल (महाबंध) शास्त्र में किस विषय का वर्णन है?
उत्तर : महाधवल शास्त्र में केवल प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा बंध चतुष्टय का सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन है।
प्र. ९०५ : महाबंध शास्त्र की महिमा बतलाओ।
उत्तर: महाबंध के विमल और विपुल प्रकाश के साधक अपनी आत्मा के अंतस्तल में छुपे हुये अज्ञान एवं मोहांधकार को दूर कर जीवन को महाधवल पवित्र बनाता है। जिस प्रकार जिनेन्द्र देव की आराधना के द्वारा पूजक जिनेन्द्र का पद प्राप्त करता है, उसी प्रकार महाधवल के सम्यक् परिशीलन तथा स्वाध्याय से जीवन भी महाघवल हो जाता है। अनुभाग बंध की प्रशस्ति में ग्रंथ को पुण्याकार बतलाया है। यथार्थ में यह पुण्य की उत्पत्ति का कारण है पुण्य का भंडार है। श्रेयोमार्ग की सिद्धि का निमित्त है।
प्र. ९०६ : प्रथमानुयोग नाम की सार्थकता बतलाओ।
उत्तर: सबसे प्रथम प्रथमानुयोग का स्वाध्याय करना चाहिये, क्योंकि प्रथमानुयोग के कथा ग्रंथों के स्वाध्याय से जहाँ स्वाध्याय में रुचि उत्पन्न होती है, उसी के साथ आत्महितकारी हित उपदेश भी मिलता है और यथास्थान अन्यानुयोग के रहस्य का भी ज्ञान होता जाता है। इसी कारण इस कथा अनुयोग का नाम प्रथम अनुयोग रखा गया है।
प्र. ९०७ : जिन प्रतिमाओं के साथ यक्षादिक, लक्ष्मी सरस्वती की प्रतिमा हो, यह निर्णय किसने किस शास्र में किया?
उत्तर : श्री सिद्धांत चक्रवर्ती नेमीचंद्र आचार्य ने श्री सिद्धांत सार में किया है।
प्र. ९०८ : चरित्र व पुराण किसे कहते हैं?
उत्तर : एक पुरुष आश्रित सत्य घटना को चरित्र कहते हैं- जैसे प्रद्युम्न चरित्र, चारुदत्त चरित्र आदि। अनेक श्रेष्ठ शलाका पुरुष के आश्रित सत्य घटना को पुराण कहते हैं। जैसे- आदिनाथ पुराण, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण आदि।
प्र. ९०९ : सिद्धान्त सार ग्रंथ का दूसरा नाम बताओ।
उत्तर: सिद्धान्त सार ग्रंथ का दूसरा नाम तत्वार्थ संग्रह है।
प्र. ९१०: जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुये एक अक्षर की भी अवहेलना जो करता है, उसकी क्या गति होती है?
उत्तर : जिनेन्द्र भगवान के कहे हुये एक अक्षर भी जो अन्यथा करता है या कहता है, उसे अनंत संसार में भ्रमण करना पड़ेगा। जिनेश्वर ने तो त्रिकाल बाधित वस्तु का स्वरूप कहा है परंतु मिथ्यात्ववश उसमें एक अक्षर का भी परिवर्तन जो करेगा, उसे मिथ्यात्व का तीव्र बंध होने से निगोद अवस्था में दीर्घकाल रहना पड़ेगा।
प्र. ९११ : शलाका पुरुष कितने होते हैं, यह संख्या कभी कम-ज्यादा हो सकती है तो क्यों?
उत्तर : यद्यपि उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी के कर्मयुग में भरत-ऐरावत क्षेत्र में ६३ ही शलाका पुरुष होते हैं परंतु वर्तमान हुंडावसर्पिणी काल के दोष से इस समय ५९ ही महापुरुष हुये हैं क्योंकि शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ ये तीर्थंकर भी हैं और चक्रवर्ती भी हैं। इससे चक्रवर्ती की संख्या तीन से कम हो गई है। उसी तरह भगवान महावीर का जीव त्रिपृष्ठ नारायण भी हुआ और तीर्थकर भी हुआ। अतः एक संख्या कम हुई। इस तरह कुल चार महापुरुषों की संख्या कम हुई।
प्र. ९१२ : ऐसी कौनसी पाँच बातें हैं जो एक होने पर दूसरी नहीं होती?
उत्तर : मनःपर्यय ज्ञान, परिहार विशुद्धि संयम, प्रथमोशम सम्यक्त्व, आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग इन पाँचों में से एक के होने पर दूसरा नहीं होता है।
प्र. ९१३ : षट्खण्डों के नाम बताओ।
उत्तर : (१) जीवस्थान, (२) क्षुद्र कबंध, (३) बंध स्वामित्व विचय, (४) वेदना खंड, (५) वर्गणा खंड और (६) महाबंध, ये षट्खंडागम हैं।
प्र. ९१४: श्रुतावतार ग्रंथ से छह के सूत्र संख्या का प्रमाण बताओ।
उत्तर : पाँच खंडों में छह हजार सूत्र संख्या है तथा छठे खंड में तीस हजार सूत्र संख्या है। कुल छत्तीस हजार सूत्र संख्या है।
प्र. ९१५ : वर्तमान में छपी सोलह पुस्तकों में कितने खंड आते हैं? उनकी सूत्र संख्या भी बताओ।
उत्तर : वर्तमान में छपी सोलह पुस्तकों में पाँच खंड आते हैं। उनकी सूत्र संख्या ६ हजार ८३० है।
प्र. ९१६ : मुद्रित सोलह पुस्तकों में पाँच खण्डों का विभाजन बताओ।
उत्तर : मुद्रित प्रथम पुस्तक से छह पुस्तकों तक प्रथम खण्ड है। सातवीं पुस्तक में द्वितीय खण्ड है। आठवीं पुस्तक में तृतीय खण्ड है। नवमी पुस्तक से बारहवीं पुस्तक में चतुर्थ खण्ड है और तेरह से सोलहवीं पुस्तक में पाँचवाँ खण्ड है।
प्र. ९१७ : षट्खण्डागम सोलह पुस्तकों में क्या विषय है?
उत्तर : (१) सत् प्ररूपणा (चौदह गुणस्थान, चौदह मार्गणा)
(२) आलाप अधिकार
(३) द्रव्य प्राणानुगम (संख्या)
(४) क्षेत्र, स्पर्शन, कालानुगम
(५) अन्तर भाव, अल्पबहुत्वानुगम
(६) जीवस्थान चूलिका
(७) क्षुद्रक बंध
(८) बंध स्वामित्व विचय चतुर्थ खण्ड (वेदना खण्ड)
(९) कृति अनुयोग द्वार (वेदना खंड)
(१०) वेदना के सोलह भेदों में चार भेद
(११) वेदना क्षेत्र विधान, वेदना काल विधान
(१२) वेदना के सातवें भेद से सोलह तक वर्णन (पंचम खंड वर्गणा खंड)
(१३) स्पर्श, कर्म, प्रकृति, अनुयोग द्वार
(१४) बंधन अनुयोग द्वार
(१५) निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, अनुयोग द्वार
(१६) मोक्ष नाम के ग्यारहवें अनुयोग द्वार से चौबीसवें अनुयोग द्वार तक सूत्र नहीं है।
प्र. ९१८ : षट्रखंडागम ग्रंथराज पर छह टीकाएँ लिखी गई हैं, उनके नाम व श्लोकों का प्रमाण बताओ।
उत्तर : (१) श्री कुंदकुंद देव ने तीन खंडों पर ‘परिकर्म’ नाम से टीका लिखी है जो १२ हजार श्लोक प्रमाण है।
(२) श्री शामकुंडाचार्य ने ‘पद्धति’ नाम से टीका लिखी है, जिसमें संस्कृत, प्राकृत एवं कन्नड़ भाषा मिश्र है। यह टीका पाँच खंडों पर तथा इसकी श्लोक संख्या १२ हजार है।
(३) श्री तुंबुलर आचार्य ने ‘चूड़ामणि’ नाम से टीका लिखी है। छठा खंड छोड़कर षट्खंडागम और कषाय प्राभृत इन दो सिद्धांत ग्रंथों पर ८४ हजार श्लोक प्रमाण यह टीका है।
(४) श्री समंतभद्र स्वामी ने पाँच खंडों पर ४८ हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखी हैं।
(५) श्री वप्पदेवसूरि ने ‘व्याख्या प्रज्ञप्ति’ नाम से टीका लिखी है। यह पाँच खंडों पर और कषाय प्राभृत पर हैं। प्राकृत भाषा में ६० हजार श्लोक संख्या प्रमाण है।
(६) श्री वीरसेनाचार्य ने छहों खंडों पर प्राकृत-संस्कृत मिश्र टीका लिखी है। यह ‘घवला’ नाम से ७२ हजार श्लोक प्रमाण है।
वर्तमान में ऊपर कही गई पाँच टीकाएँ उपलब्ध नहीं हैं। मात्र श्री वीरसेनाचार्य कृत ‘धवला’ टीका ही उपलब्ध है। इस ग्रंथराज को ताइपत्र पर लिखवाकर और हिन्दी में अनुवाद कराकर मुद्रित करने का श्रेय बीसवीं शताब्दी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागरजी महाराज को है।
प्र. ९१९ : षट्खंडागम के कितने सूत्रों की रचना श्रीमत् पुष्पदंत आचार्य ने की?
उत्तर: षट्खंडागम की सत्प्ररूपणा में णमोकार महामंत्र से मंगलाचरण किया है। इसमें १७७ सूत्र हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीमत् पुष्पदंताचार्य ने की है तथा आगे के सम्पूर्ण सूत्र श्रीमत् भूतबली आचार्य प्रणीत हैं।
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