येनेदमप्रतिहतं सकलार्थतत्त्वं, उद्योतितं विमलकेवललोचनेन ।
भक्त्या तमद्भुतगुणं प्रणमामि वीर-मारान्नरामरगणार्चितपादपीठम् ।।
विश्ववन्द्य भगवान महावीर के जन्म को २६०० वर्ष का अन्तराल व्यतीत हो चुका है। उनका वर्तमान तीर्थंकर पदेन जीवन तो लोककल्याणकर पंच मंगलों से विशिष्ट अद्भुत लोकोत्तर गुणों से परिपूर्ण है ही, उनका पूर्व पर्यायों में हानि- वृद्धिरूप आंदोलित होता हुआ अतिशय चमत्कारी है। क्या अमृत विष हो सकता है तथा इसके विपरीत क्या विष अमृत के रूप में परिणत हो सकता है? इसका स्पष्ट प्रतिबिम्बन भगवान महावीर के विहंगम भवभ्रमण के दर्पण में होता है। लगभग कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल के थपेड़ोें में, प्रचंड अग्नि में तप्तायमान होते हुए कभी ठोस रूप में, कभी तरल रूप में, कभी विकृत रूप में, कभी क्षुभित रूप, कभी अशुद्ध रूप में, कभी स्थिर रूप में चामीकर स्वर्ण के समान भगवान महावीर की आत्मा पीड़ित रूप मे ंएवं पतन और उत्थान के रूप में दृश्यमान होती है। आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के दिव्य धर्ममय सामीप्य को प्राप्त करके भी कषायों के वशीभूत हो स्वयं तो अपने पराभव और अपरिमित दुःखों का पात्र बनती रही, साथ ही समस्त लोक को हिंसा, पाखण्ड एवं दुराग्रह का गरलपान कराने में लिप्त रही, किन्तु खौलता हुआ जल अंत में शीतल स्वभाव को प्राप्त होता ही है। उसी प्रकार वह विशिष्ट आत्मा भी कर्म संयोगी भावों, दुःख संतप्त भावों से रहित हो क्षमादि शीतल शुद्ध आत्म स्वभाव को प्राप्त कर शाश्वत मोक्षसुख का भाजन बना। नर से नारायण बनने की यह दिव्यकथा जन-जन के लिए प्रेरणाप्रद है। पूर्व में जिसने हिंसा का, पाप का, विभीषिकाओं का दुनिया को पाठ पढ़ाया था, उसी ने पश्चात् अपनी भूलों को स्वीकार कर आत्मशोधन रूप शस्त्र से, विश्व को अिंहसा तथा सहअस्तित्व हेतु अमोघ अस्त्र अनेकांत रूप मृत्युंजयी औषधि प्रदान कर लोककल्याण किया। उनका दिव्य शासन अद्यावधि विद्यमान होकर विश्व को सुख-शांति का पावन संदेश दे रहा है। पूर्व पर्यायावलोकनः-यहाँ उनकी चित्र विचित्र रूप पर्यायों को उल्लेखित किया जाता है- १. पुरुरवा भील २. सौधर्म स्वर्ग में देव ३. मारीच या मरीचि (भगवान ऋ़षभदेव का पौत्र या भरत चक्रवर्ती का पुत्र) ४. ब्रह्मलोक का देव ५. ब्राह्मण पुत्र जटिल ६. सौधर्म स्वर्ग में देव ७. पुष्यमित्र ब्राह्मण ८. सौधर्म स्वर्ग में देव ९.अग्निसह ब्राह्मण १०. सनत्कुमार स्वर्ग में देव ११. अग्निमित्र ब्राह्मण १२. माहेन्द्र स्वर्ग में देव १३. भारद्वाज ब्राह्मण १४. माहेन्द्र स्वर्ग में देव, तत्पश्चात् तीव्र मान एवं मिथ्या उपदेशों के कारण असंख्यात बार तिर्यंच गति में दुःख भोग १५. स्थविर ब्राह्मण १६. माहेन्द्र स्वर्ग मे देव १७. राजकुमार विश्वनन्दि (इस भव में दिगंबरी दीक्षा ली) १८. महाशुक्र स्वर्ग में देव १९. त्रिपृष्ठ नारायण, २०. सप्तम नरक (उत्कृष्ट आयु-३३ सागर) २१. सिंह २२. प्रथम नरक २३. सिंह (अजितंजय व अमितंजय अथवा जय व अमितगुण मुनि के उपदेश लाभ) २४. सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु देव २५. कनकोज्ज्वल राजा (मुनिदीक्षा) २६. लान्तव स्वर्ग में देव २७. राजा हरिषेण २८. महाशुक्र स्वर्ग में प्रीतिंकर देव २९. प्रियमित्र चक्रवर्ती (विदेह) ३०. सहस्रार स्वर्ग में देव सूर्यप्रभ ३१.वासुपूज्य भगवान के तीर्थकाल में राजा नन्दन (मुनि दीक्षा, तीर्थंकर प्रकृति का बंध एवं प्रायोपगमन समाधि) ३२. अच्युत स्वर्ग में देव ३३. कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ व रानी प्रियकारिणी (त्रिशला) के पुत्र तीर्थंकर महावीर।
१. पापी से पापी जीव भी पाप निवृत्ति कर निष्पाप एवं शुद्ध हो सकता है।
२. भगवान महावीर के जीव ने ही हिंसा यज्ञ, पाखंड का प्रस्तार किया। अंत में अपनी भूल स्वीकार कर प्रकृत अपेक्षित पाप को मिटाने का भी अथक प्रयास किया। परन्तु उसे पूर्ण रूप से नहीं मिटाया जा सका। अतः सदैव पाप कार्य एवं उसके प्रचार एवं अनुमोदन से बचना चाहिए।
३. पाप प्रवृत्ति को प्रचारित करना सरल है, परंतु पाप निवृत्ति अति कठिन है। जल का अधोगमन सहज है, उपरि प्रवाह दुष्कर होता है।
४. पापी जीव से घृणा करके उसे सुधारा नहीं जा सकता, करुणापूर्वक उपदेश से ही सुधार संभव है।
५. स्वोपार्जित पुण्य कर्म ही स्वयं जीव को दुख अथवा सुख प्रदान करता है।
६. कर्म ही भाग्य बनता है, उसका नाश कर परमात्म पद प्राप्त होता है।
७. मरीचि ने अपने पितामह भगवान ऋषभदेव के अिंहसा एवं संयम के मार्ग की अवहेलना कर दुःख प्राप्त किया तथा अिंहसा एवं त्याग के मूर्तरूप मुनियों की श्रद्धा करके ही दुःख निवृत्ति और सुख की प्राप्ति की।
८. अहिंसा, अनेकांत एवं अपरिग्रह ही आत्मशांति एवं विश्वशांति का उपाय हैं।
९. सिंह पर्याय में महावीर ने पशुता का त्याग किया एवं समाधिपूर्वक शरीर का त्याग किया और कल्याण की ओर अग्रसर हुआ। हम तो मनुष्य हैं, अवश्य ही बुराई पर नियंत्रण कर सकते हैं। शाकाहार एवं पर्यावरण सुरक्षा अवश्य ही करणीय है।
१०. पुरुरवा भील की अवस्था में उसकी पत्नी कालिका ने उसे मुनि हत्या जैसे जघन्य पापकृत्य से रोका था। इससे प्रकट है कि नारी जाति मनुष्य के लिए प्रेरणास्रोत बन सकती है। सती चन्दना के प्रतीक रूप में भगवान महावीर का नारी जाति का समत्व विदित ही है।
११. मानकषाय के उद्वेग के कारण हिंसा का प्रवर्तक महावीर का जीव था और अन्ततोगत्वा यथार्थता को स्वीकार करने पर चतुर्थ काल के अंत में अंतिम तीर्थंकर के रूप में अहिंसा एवं अनेकांत का प्रवर्तक भी भगवान महावीर का जीव ही हुआ।
१२. वर्धमान पूर्व मनुष्य पर्यायों में अधिकतर ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न हुए थे। उन्हीं अवस्थाओं में उन पर पाखंड, धर्म के नाम पर हिंसा आदि कुत्सित परिणामों का प्रत्यावर्तन होता रहा। इससे ज्ञात होता है कि शिक्षा का दुरुपयोग मनुष्य को कितना अधोपतित बना देता है। जो शिक्षा सदुपयोग के रूप में अमृत है, वही दुरुपयोग की परिणति में विष बन जाती है। कहा भी है-
साक्षरा विपरीताश्चेत् राक्षसा एव केवलम् । सरसो विपरीतोऽपि सरसत्वं न मुञ्चति।।
अपेक्षणीय विशिष्ट बिन्दु-बिहार प्रान्त में ऋजुकूला नदी के तट पर जृम्भिक ग्राम के निकट वैशाख शुक्ला दशमी को भगवान महावीर को कठोर तपश्चर्या एवं उत्कृष्ट ध्यान से वैâवल्य की प्राप्ति हुई। गणधर रूप निमित्त के अभाव के कारण ६६ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। पुनः गौतम के दीक्षित होने एवं गणधरत्व के प्राप्त होने से दिव्यध्वनि का आविर्भाव हुआ। भगवान महावीर के उपदेश का सबसे महत्वपूर्ण पहलू सर्वोदय तीर्थ के रूप में पावन अवदान है। इसमें प्राणीमात्र के लिए सुख शांति का मार्ग निहित है,इसी में विश्वशांति,सह अस्तित्व का मूलमंत्र समाहित है। अनेकान्त एवं स्याद्वाद इसका आधार है। भारतीय साहित्य के अवलोकन करने से विदित होता है कि सर्वोदय का सर्वप्रथम उद्घोष भगवान महावीर के पावन संदेश में ही संप्राप्त है। आचार्य समन्तभद्र की निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षं।
सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।।(युक्तयनुशासन)
वस्तु अनंत धर्मात्मक है। अनेकांत वस्तु के सभी (परस्पर विरोधी भी) पाश्र्वों पर दृष्टिपात करता है, सभी को प्रकाशित करता है, उनकी सत्ता को स्वीकार करता है।विरोधी स्वभावों को गौण और मुख्य रूप से स्याद्वाद शैली से प्रतिपादित करता है। जो दृष्टि सर्वधर्मात्मक न होकर किसी एक ही पहलू को मान्य करती है, अन्य विरोधी पहलू की अनपेक्ष है, वह मिथ्या है। हे भगवान महावीर! यह अनेकांतरूप सर्वोदय तीर्थ केवल आपका ही है, इसी से समस्त आपत्तियों का नाश होता है, यही शाश्वत है। अिंहसा, विश्वशांति का आधार भी अनेकांत रूप सर्वोदय तीर्थ ही है। भ्रांति परिवेश- अज्ञान, धर्मपक्षपात आदि कारणों से जैन धर्म एवं भगवान महावीर विषयक अनेकों भ्रांतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। यह चिंता का विषय है। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ आदि के द्वारा अन्य साहित्य एवं पाठ्यक्रम में प्रकाशित भ्रांतियों के निवारण का सार्थक प्रयास किया गया है, किया जा रहा है। भगवान महावीर के अस्तित्व के सबल प्रमाण साहित्य, पुरावशेष, मूर्तियाँ, आचार्य परम्परा, जनश्रुति तथा सत्यान्वेषी इतिहासकारों के स्पष्ट मत के रूप में विद्यमान है, जो दर्पणवत् सत्य को उजागर करते हैं। आवश्यकता है कि श्वेतांबर एवं बौद्ध मिथ्या मान्यताओं जैसे गर्भ का स्थानान्तरण, विवाह एवं संतान का जन्म, मांसाहार आदि का निराकरण। पाठ्यक्रमों में अल्पज्ञ इतिहासकारों द्वारा भगवान महावीर से ही जैनधर्म का प्रवर्तन कथित करने रूप भ्रांति का स्थायी रूप से निवारण आवश्यक है। वैदिक, सनातन संस्कृति में भी भगवान ऋषभदेव,नेमिनाथ एवं पाश्र्वनाथ तीर्थंकरों का उल्लेख इस हेतु पर्याप्त साक्ष्य हैं। ४ फरवरी सन् २००० को लालकिले के मैदान में पूज्य गणिनीप्रमुख, आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में आयोजित आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव के अवसर पर प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्पष्ट स्वीकारोक्ति रूप घोषणा की थी कि भगवान महावीर से पूर्व २३ तीर्थंकरों की परम्परा प्रमाणसिद्ध है।
वर्तमान में दिगम्बर जैन समाज में भगवान महावीर के जन्म एवं निर्वाणस्थल विषयक भ्रान्ति एवं विवाद दृष्टिगोचर हो रहा है। पर्याप्त साक्ष्यों से युक्त बिहार प्रान्त की निर्वाणभूमि पावापुर के स्थान पर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में अन्य पावापुर की कल्पना का दुःसाहस अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। अपने ही इतिहासकारों व आयतनों को अनपेक्षित परिवर्तित कर समाज जीवित एवं स्वस्थ नहीं रह सकता। इसी प्रकार भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर के विषय में भी अनावश्यक विवाद खड़ा हो गया है। वैशाली, जो कि भगवान महावीर के नाना चेटक की राजधानी थी, को वद्र्धमान का जन्मस्थान घोषित करना एक अपराध ही माना जाना चाहिए। किसी प्रकरण को प्रमाणित करने हेतु तीन प्रमाण अपेक्षित होते हैं-१. प्रत्यक्ष २. अनुमान ३. आगम।
नालंदा जिलान्तर्गत कुण्डलपुर में जन्म स्मारक के रूप में महावीर जिनालय प्राचीन काल से अवस्थित है। शताब्दियों से ही श्रावकगण जन्मकल्याणक तीर्थ के रूप में इसकी वंदना करते आये हैंं। अधिकांश हम सभी इसके प्रत्यक्षदर्शी हैं, वन्दना कर चुके हैं। क्योंकि यह प्रसिद्ध तीर्थ है। किन्तु एक भी व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं होता, जो जन्मकल्याणक स्थल के रूप में वैशाली की वंदना कर कृतार्थ हुआ हो।
वैशाली में भगवान महावीर विषयक प्राप्त कतिपय पुरातात्त्विक सामग्री प्रबल प्रमाण नहीं हो सकती, कारण कि ऐसे उपादान तो बिहार, उत्तरप्रदेश व देश के अन्य भागों में भी यत्र-तत्र प्राप्त हो जाते हैं। इसमें अन्यथानुपपत्ति रूप हेतुता नहीं पाई जाती। इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष है। अव्याप्ति, अतिव्याप्ति एवं असंभव इन तीन दोषों से रहित लक्षण होता है। वैशाली जन्मस्थल के लक्षणों में तीनों ही दोष दृष्टिगोचर होते हैं। अतः हेतुसिद्ध प्रकृत, प्रसिद्ध कुण्डलपुर ही भगवान महावीर की जन्मभूमि है।
न्याय की परिपाटी में यह सर्वमान्य है कि यदि प्रत्यक्ष और अनुमान से मतैक्य न हो तो आगम ही अंतिम प्रमाण है। अतः यहाँ कतिपय प्राचीन आगम के प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं, कतिपय नवीन मनीषियों के विचार और मान्यताएं भी-
१. सिद्धत्थराय-प्रियकारिणीिंह णयरम्मि कुंडले वीरो। उत्तरफग्गुणिरिक्खे चेत्तसिदे तेरसीए उप्पण्णो।। (तिलोयपण्णत्ती, द्वितीय खंड, गाथा ५५६) वीर जिनेन्द्र कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उत्पन्न हुए। (नाथवंश का समर्थन गाथा ५५७ में उल्लिखित है।)
२. अथाऽस्मिन् भारतेवर्षे विदेहेषु महद्र्धिषु। आसीत्कुण्डलपुरं नाम्ना पुरं सुरपुरोत्तमम्।। (पुराणसार संग्रह, द्वितीय भाग, चतुर्थ सर्ग-श्लोक१, भारतीय ज्ञानपीठ, अनु. पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री)
३. आसाढ़ जोण्ह पक्खछट्ठीए कुंडलपुर णगराहिव णाहवंस-सिद्धत्थणरिंदस्स तिसलादेवीए गव्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहिय णवमासे अच्छिय चइत्त-सुक्कपक्ख तेरसीए रत्तीए उत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाण जिणिंदो। (जयधवला १-५८) आषाढ़ महीना के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कुण्डलपुर नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेश की त्रिशला देवी के गर्भ में आकर और वहां नव माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए भगवान महावीर गर्भ से बाहर आए। साथ ही निम्न उद्धृत गाथा जयधवला के साथ धवला में भी पृष्ठ ५३५ पर अंकित है-
४. कुंडलपुरवरिसस्सराय सिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले। तिसलाए देवीए देवीसद सेवमाणा ए।। (जयधवला में उद्धृत गाथा २३)
५. हरिवंशपुराण सर्ग २-श्लोक ५ से २५ प्राचीनतम गाथाएं।
६. सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे। देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदश्र्य विभुः।। (निर्वाणभक्ति )
७. आवश्यक निर्युक्ति मलयगिरि टीका गाथा-५२
८. लगभग ६०० ई. पूर्व बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के घर में उनका जन्म हुआ। उनकी माता त्रिशला वैशाली नरेश राजा चेटक की पुत्री थीं। जैनधर्म-पं. वैलाशचंद्र शास्त्री पृ.-५०)
९. राज्ञः कुण्डपुरेशस्य वसुधाराय तत्पृथु। सप्तकोटीमणीः साद्र्धाः सिद्धार्थस्य दिनप्रतिः।। (महापुराण-सर्ग ७४, जैनेन्द्र सिद्धांतकोष-तीर्थंकर परिचय)
१०. उत्तरपुराण पर्व ७४-१२५२
११. अस्मिन भुवा माल इयद्विशाले समादधच्छ्रीतिलकत्वमाले। समज्र्तिं वक्ति मदीयभाषा समेहितं कुण्डपुरं समासात् ।।२१।। (आ. ज्ञानसागर जी वीरोदय सर्ग-२)
१२. इह जंबुदीवि भरहंतावलि, रमणीय विसय सोहा विसालं।कुंडउरि राउ सिद्धत्थ सहिउ, जो सिरिहस मग्गण वेस रहिउ।। (वीर जिणिंद चरिउ पृ.११-१२-१३ (ज्ञानपीठ) इत्यादि उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि बिहार प्रान्तस्थ नालंदा जिले के अंतर्गत अवस्थित कुण्डलपुर ही भगवान महावीर की जन्मभूमि है। उसका प्रचार और विकास साधुवृन्दों एवं विद्वानों के द्वारा भ्रांति निवारणार्थ एकात्मता हेतु अपेक्षित है।