इस हुण्डावसर्पिणी काल में भगवान आदिनाथ ने जिस समय वर्णों का विधान किया था, उस समय जीवों के पिण्ड की अशुद्धता रूप संकरता नहीं थी अर्थात् पिण्ड शुद्ध ही था। शनै: शनै: जब विषयासक्ति और विलासिता बढ़ी तो विवेकहीन कामान्ध मानवों ने मानवता को तिलांजलि देकर अनर्गल व्यभिचारादि प्रवृत्तियों के द्वारा नीच गोत्र को प्रश्रय दिया। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी आचार्य ने गोत्र दो प्रकार के बतलाए हैं-१. उच्च गोत्र और २. नीच गोत्र। मनुष्य तथा तिर्यंच पर्याय में स्थित जीव यदि देवायु का बंध करता है तो देवायु के साथ उच्च गोत्र का ही बंध करता है क्योंकि देव पर्याय में देव आयु व उच्च गोत्र का ही उदय रहता है, चाहे वह भवनत्रिक में उत्पन्न हो या कल्पवासियों में अथवा किल्विषक आदि हीन देवों में। इसी प्रकार, मनुष्य या तिर्यंच पर्याय में स्थित जीव यदि नरकायु का बंध करता है तो उसी समय उसके नरकगति व नीच गोत्र का ही उदय होगा, चाहे वह कृतकृत्यवेदक हो, क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो अथवा तीर्थंकर प्रकृति का बंधक ही क्यों न हो। उस पर्याय के साथ नीच गोत्र का ही उदय रहेगा। देव, नारकी, तिर्यंच या मनुष्य पर्याय स्थित जीव यदि मनुष्याय बंध करता है तो उसके उच्च गोत्र या नीच गोत्र में से किसी एक का बंध होता है तथा मनुष्यायु के उदय के साथ कर्मभूमि के जीव के नीच अथवा उच्च गोत्र में से किसी एक का उदय होता है ।
नीचगोत्र की उत्पत्ति के चार सामान्य कारण हैं-
१. व्यक्त नीचगोत्र-अनमेल जाति या अनमेल वर्ग अथवा विधवा-विवाह (धरेजा, नाता) व्यभिचार आदि से उत्पन्न हुई सन्तान नियम से नीचगोत्री ही होती है । उसकी सन्ततियों में से आई हुई सन्तान नीचगोत्री ही होगी । २. अव्यक्त नीचगोत्र-काम के तीव्र आवेग में जिस स्त्री ने पर पुरुष के साथ गुप्त रूप से व्यभिचार सेवन किया, उससे जो सन्तान हुई वह समाज में अव्यक्त है परन्तु वह (सन्तान) नियम से नीचगोत्री ही होगी तथा सन्तमतिक्र से आने वाली उसकी सन्तान भी नीचगोत्री ही होगी । ३. क्षेत्र संबंधी नीचगोत्र-म्लेच्छ खण्ड में उत्पन्न होने वाले सभी मानव नीचगोत्री ही होते हैं। ये लोग धर्मक्रिया से रहित हैं, व्रतादि धर्मक्रिया नहीं करते अत: म्लेच्छ कहलाते हैं। ==
उनका पिण्ड (जिन पुद्गल वर्गणाओं से शरीर की रचना हुई है) शुद्ध है । ऐसे जीव यदि चक्रवर्ती के साथ आर्यक्षेत्र में आते हैं, तब (पिण्डशुद्धि की अपेक्षा) उनकी सन्तान उच्चगोत्री भी हो सकती है । ४. काल की अपेक्षा नीच गोत्र-दु:खमा-दु:खमा ्नामक छठे काल में उत्पन्न होने वाले जीव नीचगोत्री होते हैं। उनमें से जिन जीवों का पिण्ड परम्परा से शुद्ध वाले जीव नीचगोत्री होते हैं। कुछ जीव प्रलयकाल के समय छठे काल का अंत होने के पूर्व स्वयं विजयाद्र्ध पर्वत की गुफाओं में पहुँच जायेंगे तथा कुछ जीवों को देव ले जायेंगे। प्रलयकाल के अगले उत्सर्पिणीकाल के दु:षमा-दु:षमा काल के इक्कीस हजार वर्ष व दु:षमा काल के बीस हजार वर्ष बीत जाने पर कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ होगी । यहाँ संकरता (वर्ण संकर, जातिसंकर, वीर्यसंकर) से उत्पन्न होने वाले नीच गोत्रियों की शृँखला का अभाव होगा ।
काल की विशेषता– उत्सर्पिणी काल केदु:षमा-सुषमा काल में तीर्थंकर होंगे। उनमें प्रथम तीर्थंकर की आयु व अवगाहना सबसे स्तोक (कम) होगी, उसके बाद २३ तीर्थंकरों की आयु व अवगाहना बढ़ती-बढ़ती होगी, यह भी काल का ही प्रभाव है कि अवसर्पिणीकाल में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों की आयु व उत्सेध घटता हुआ और उत्सर्पिणीकाल में बढ़ता हुआ होता है । वर्णसंकरादि का खुलासा- १. वर्णसंकर-क्षत्रियवर्ण स्त्री और वैश्यवर्णी पुरुष से उत्पन्न सन्तान वर्णसंकर कहलाती है । एवमेव अन्य वर्ण में भी समझना। २. जातिसंकर-वर्ण की अपेक्षा समानता होने की स्थिति में विभिन्न जातियों के स्त्री पुरुषोें के समागम से होने वाली सन्तान, जैसे ओसवाल स्त्री और माहेश्वरी पुरुष के संगम से उत्पन्न सन्तान जाति संकर कहलाती है । ३. वीर्यसंकर-सहोदर (एक भ्राता) की स्त्री के साथ दूसरे भ्राता के संगम से अथवा विधवा विवाह से उत्पन्न होने वाली सन्तान वीर्यसंकर कही जाती है । संकरता से उत्पन्न हुए प्राणी भी परिणति की विशुद्धता से सम्यक्त्व की प्राप्ति कर पद के अनुवूâल अपना आचरण बनाते हुए धर्मसाधन कर सकते हैं पर वे परमेश्वरी निर्र्गं्रथ दीक्षा के अधिकारी नहीं हैं। त्रिलोकसार गाथा ९२४ के पढ़ने से यह बात ध्यान में आती है कि जातिसंकरादि दोषों से रहित पिण्डशुद्धि वाले व्यक्ति ही दिगम्बर मुनि को आहारादि देने के अधिकारी हैं-
दुब्भाव असुचि सूदग पुफ्फवई जाई संकरादीहिं |
कयदाणा विकुवत्ते जीवा कुणरेसु जायन्ते।।’
अर्थात् जो दुर्भावना, अपवित्रता, सूतक आदि से एवं पुष्पवती स्त्री के स्पर्श से युक्त तथा ‘जातिसंकर’ आदि दोषों से सहित होते हुए भी दान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं वे जीव मरकर कुभोगभूमि (कुमनुष्यों) में जन्म लेते हैं अत: जातिसंकरादि दोषों से मुक्त व्यक्ति ही पात्रदान का अधिकारी मानी गया है, वह सुस्पष्ट है ।
जात्योऽनादय: सर्वास्तत्क्रियाऽपि तथाविधा:।
श्रुति शास्त्रान्तरेवास्तु प्रमाणं कात्र न क्षति:।।
(उपासकाध्ययन अग, पृ. २१६, श्लोक ४७०)’
अर्थ – सब जातियाँ अनादि हैं तथा उनकी क्रिया भी अनादि है । उसमें वेद तथा पुराण-शास्त्र प्रमाण हो, उससे हमारी कोई हानि नहीं है । ‘सर्वार्थसिद्धि’ में आर्य दो प्रकार के कहे हैं-१. ऋद्धिप्राप्त आर्य, २. अनृद्धिप्राप्त आर्य ।
अनृद्धिप्राप्त आर्य के ५ भेद हैं-
१. जो क्षेत्र आर्य हैं पर आर्य जाति में उत्पन्न नहीं हैं तथा कर्मआर्य, दर्शनआर्य व चारित्रआर्य भी नहीं हैं वे नीचगोत्री मिथ्यादृष्टि हैं। २. जो क्षेत्र आर्य है पर आर्यजाति में उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु कर्मआर्य व दर्शनआर्य है, वह नीचगोत्री सम्यग्दृष्टि है । ३. जो क्षेत्रआर्य हैं और आर्य-जातियों में उत्पन्न भी हुए हैं पर कर्म आर्य व दर्शनआर्य नहीं हैं, वे उच्चगोत्री मिथ्यादृष्टि हैं। ४. जो क्षेत्र आर्य, जातिआर्य, कर्मआर्य व दर्शनआर्य तो हैं पर चारित्र आर्य नहीं हैं, वे चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि उच्चगोत्री हैं। ५. जो क्षेत्र आर्य, जाति आर्य, कर्म आर्य, दर्शन आर्य व चारित्रआर्य हैं, वे उच्चगोत्री निर्वाण-पुरस्सर दीक्षा के अधिकारी हैं। पूर्व समय में जिन जातियों में इसका चलन हुआ व वर्तमान में भी पाया जाता है वे भी ऐसे संबंधों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उनके यहाँ पर ऐसी प्रवृत्ति धरेजा व नाता के नाम से प्रचलित है, वे अपनी कषायों की पूर्ति के लिए व परस्थिति-वशात् संबंध करते हैं। पर जिन जातियों में ऐसी प्रथा प्रचलित नहीं थी उनमें भी आजकल के सुधारक नामधारी इसे विधवा विवाह के नाम से प्रचारित करते हैं परन्तु वास्तव में यह विवाह नहीं है । विवाह तो कन्या का ही होता है । आज हम देखते हैं कि ऐसी जातियाँ तो अपने सामाजिक बंधन को दृढ़ कर प्रचलित सामाजिक कुरीतियों को बंद करते हुए उत्थान की ओर अग्रसर हैं। यदि कोई व्यक्ति सामाजिक बंधन तोड़ता है, तो उनकी पंचायत बैठकर उसका हुक्का-पानी बंद कर देती है । पर हमारे यहाँ अब सामाजिक बंधन नाम की कोई चीज ही नहीं रही, उच्छृंखलता की प्रवृत्ति बढ़ गई है । कारण यह मालूम होता है कि समाज के श्रीमान् व धीमान् जिन पर समाज का उत्थान व पतन निर्भर रहता है वे ही इस प्रकार के बंधन में रहना नहीं चाहते। गार्डिनर ने ठीक कहा है-भारत का जाति-भेद मूल सत्य पर प्रतिष्ठित है किन्तु हम लोगों का जातिभेद धन पर प्रतिष्ठित है । (दी पिलर्स ऑफ सोसायटी) आधुनिक तथाकथित सुधारकों का कहना है कि वर्णों की अधुनाप्रचलित व्यवस्था अनादिकालीन नहीं है अत: जो पूर्वकाल में नहीं थी उसकी आज भी क्या आवश्यकता है ? अर्थात् वे वर्ण व्यवस्था को निरर्थक घोषित करते हैं परन्तु ऐसी बात नहीं है, ज्ञान की हीनता के कारण इस पंचमकाल में हमें यह वर्ण व्यवस्था सादि प्रतीत होती है पर जब हम आगम पर दृष्टि डालते हैं तो यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध होती है कि तीसरे काल के अंत में होने वाले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने अनादिकालीन वर्ण व्यवस्था को अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से जानकर लोगों के सामने प्रकट किया था। अब यदि वर्ण व्यवस्था अनावश्यक घोषित की जाती है तो इसका अभिप्राय यही होगा कि आगम अथवा भगवान आदिनाथ भी अप्रामाणिक हैं ऐसा मानना तो शायद उन्हें भी स्वीकार्य नहीं। कतिपय विचारकों की ऐसी भी धारणा है कि वर्ण तो अनादि हैं परन्तु जातियाँ अनादि नहीं सादि ही हैं। कदाचित् इस विचारधारा को भी सही मान लिया जाता परन्तु आचार्य नेमिचन्द्र ने ‘त्रिलोकसार’ ग्रंथ में ‘जातिसंकर’ का उल्लेख किया है, इससे सिद्ध होता है कि उनसे पूर्व भी जातियों का अस्तित्व था। अब यदि तथाकथित सुधारकों की मान्यतानुसार जब पूर्वकाल में जातिव्यवस्था नहीं थी अत: आज भी नहीं होनी चाहिए, ऐसा मानें तो फिर कम से कम पूर्व (पहले, दूसरे, तीसरे) काल की सी व्यवस्था तो होनी चाहिए। तीसरे काल तक भोगभूमि होने के कारण माता के गर्भ से युगल संतान बालक-बालिका का युगपत जन्म होता था और वे ही पति-पत्नी हो जाते थे अत: वहाँ वर्ण, जाति की आवश्यकता ही नहीं थी। यदि कोई इस व्यवस्था को आज प्रचलित कर दे तो आज के समाज का बहुत बड़ा संकट (दहेज, अनमेल, विवाहादि) दूर हो सकता है परन्तु ऐसी व्यवस्था आधुनिक काल में बन नहीं सकती, न इसे प्रचलित करने का सामथ्र्य आज किसी में है । हाँ, ये तथाकथित सुधारवादी छठे काल दु:षम दु:षमा की परिस्थितियों को पंचमकाल में लाने हेतु नीच गोत्री पैदा करने-कराने की नाना युक्तियाँ अवश्य लगा रहे हैं, सो कथमपि ग्राह्य नहीं हो सकती। आगम के आलोक में लिखे हुए इन तथ्यों को पढ़कर समाज विवेकपूर्वक अपने धर्म, समाज व कुल की रक्षा करते हुए आगमानुसार प्रवृत्ति करे, यही भाव है ।