जो आचरणरहित है वह बहुत से शास्त्रों को भी पढ़ ले तो उसका वह शास्त्र ज्ञान क्या कर सकता है ? जैसे अंधे के हाथ में दीपक की कोई उपयोगिता नहीं होती, उसी प्रकार आचारहीन के ज्ञान की कोई विशेषता—उपयोगिता नहीं होती। पंचमहाव्रततुंगा:, तत्कालिक स्वपरसमयश्रुतधारा:। नानागुणगणभरिता:, आचार्या मम प्रसीदन्तु।।
पाँच महाव्रतों से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और परसमय रूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना गुण समूह से परिपूर्ण आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों। यथा दीपात् दीपशतं, प्रदीप्यते स च दीप्यते दीप:। दीपसमा आचार्या:, दीप्यन्ते परं च दीपयन्ति।।
जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं प्रकाशवान् रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।