रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती
तर्ज-मिलो न तुम तो हम घबराएँ………
श्री आचार्य देशभूषण की पूजन करने आए,
उन्हें हम शीश नमाएँ……उन्हें हम…..।।टेक.।।
भारत के गौरव गुरुवर, श्री देशभूषण जी मुनिराज थे। हो……
परमोपकारी मुनिवर, चैतन्य तीरथ सार्थक नाम थे।।हो…….
उनकी पूजन करने को हम, थाल सजाकर लाए,
उन्हें हम शीश नमाएँ-२।।
ॐ ह्रीं भारतगौरव-आचार्यश्रीदेशभूषणमुनिराज! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं भारतगौरव-आचार्यश्रीदेशभूषणमुनिराज! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं भारतगौरव-आचार्यश्रीदेशभूषणमुनिराज! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन््िनाधीकरणं।
– अथ अष्टक (सोरठा)-
जल का कलशा लाय, गुरु पद में धारा करूँ।
देशभूषणाचार्य, जन्म जरा मृति मम हरो।।१।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि घनसार, गुरुपद में चर्चन करूँ।
देशभूषणाचार्य, भव आतप मेरा हरो।।२।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल श्वेत मंगाय, गुरु पद में अर्पण करूँ।
देशभूषणाचार्य, अक्षयपद का पथ चहूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प सुगंधित लाय, गुरुपद पुष्पांजलि करूँ।
देशभूषणाचार्य, कामव्यथा मेरी हरो।।४।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंजन सरस बनाय, गुरुपद में अर्पण करूँ।
देशभूषणाचार्य, क्षुधारोग मेरा हरो।।५।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत का दीप जलाय, गुरुवर की आरति करूँ।
देशभूषणाचार्य, मोहतिमिर मेरा हरो।।६।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप अगनि में जलाय, गुरुपद की पूजा करूँ।
देशभूषणाचार्य, कर्म दहन मेरे करो।।७।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल अंगूर अनार, लाय थाल गुरुपद जजूँ।
देशभूषणाचार्य, शिवफल का पथ मैं चहूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
जल से फल तक वसु द्रव्य सजाकर अर्घ्य थाल लेकर आया।
श्री देशभूषणाचार्य मुनीश्वर, को अर्पित करने आया।।
मैं भी अनर्घ्यपद पाने के, पथ पर चलने को ललचाया।
‘‘चन्दनामती’’ भारतगौरव, गुरु का आशीष बने छाया।।९।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
परमेष्ठी आचार्य के, पद में है नत शीश।
गुरु पद शांतीधार से, मिलती शांति हमेश।।१०।।
शान्तये शान्तिधारा।
नमन करूँ गुरु पद कमल, परमेष्ठी आचार्य।
पुष्पांजलि कर मन कमल, खिले खिले सुखसार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-स्रग्विणी छंद-
अर्चना कर लो परमेष्ठि आचार्य की, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।
वंदना कर लो परमेष्ठि आचार्य की, राष्ट्रगौरव मुनीवर्य आचार्य की।।टेक.।।
प्रान्त कर्नाटका में जनम था हुआ, कोथली ग्राम तब धन्य पावन हुआ।
शुक्ला मगसिर द्वितीया जनम की तिथी, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना…..।।१।।
ईसवी सन् था उन्नीस सौ पाँच का, वह जिला बेलगांव था कर्नाटका।
देश अरु धर्म की इक मिली थी निधी, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना……।।२।।
बीसवीं सदि के श्री शांतिसागर मुनी, बन गये थे प्रथम सूरि गुण के धनी।
उनकी ही शृंखला में बने ये मुनी, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्यश्री।।
अर्चना……।।३।।
पायसागर मुनी शिष्य थे शांति के, पुन: जयकीर्ति थे पायसागर जी के।
वंदना कर लूँ श्रद्धा से उन साधु की, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना……।।४।।
देशभूषण बने शिष्य जयकीर्ति के, गुरु की कीर्ति बढ़ी जिनसे संसार में।
दीक्षा कुंथलगिरी में मुनीराज की, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना……।।५।।
फाल्गुनी शुक्ला पंचमि की पावन तिथी, ईसवी सन् था उन्निस सौ छत्तिस तभी।
मार्च महिने की तारीख थी आठ भी, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना…..।।६।।
संघ चउविध के नायक वे आचार्य थे, सन् उन्निस सौ अड़तालिस में।
प्रान्त गुजरात सूरत धरा धन्य थी, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना…..।।७।।
जैनशासन का ध्वज खूब ऊँचा किया, वीर निर्वाण उत्सव महोत्सव किया।
हुआ पच्चीस सौवाँ महोत्सव तभी, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना…..।।८।।
तुमने तीरथ अयोध्या को विकसित किया, प्रभु ऋषभदेव प्रतिमा विराजित किया।
ज्ञानमति मात ने फिर अमर ख्याति की, तीर्थ शाश्वत अयोध्या की कीरत बढ़ी।।
अर्चना…..।।९।।
ऐसे गुरु के चरण अर्घ्य का थाल है, अर्चना में समर्पित ये जयमाल है।
‘‘चन्दनामति’’ मिले सौख्य साम्राज्य श्री, देशभूषण जी गुरुदेव आचार्य की।।
अर्चना…..।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री देशभूषणाचार्यपरमेष्ठिने जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
देशभूषणाचार्य को, वंदन बारम्बार।
इनकी पूजन से लहो, रत्नत्रय का सार।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।