आचार्य देव ने अनेक दीक्षाएँ देकर चतुर्विध संघ सहित दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम तक सारे भारत में मंगल विहार करके दिगम्बर जैन मुनि परंपरा को पुनरुज्जीवित किया। अनेक तीर्थों पर जिनप्रतिमाएँ स्थापित करायीं, षट्खण्डागम ग्रंथ को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण कराकर तथा विद्वानों से उनका हिन्दी अनुवाद करवाकर पुस्तकों के रूप में भी प्रकाशित करवाकर जिनवाणी को स्थायित्व प्रदान किया। ऐसे बहुत से जिनधर्म प्रभावना के कार्यों से इस भूतल पर अपने यश को चिरस्थायी कर दिया।आपने अंत में कुंथलगिरि क्षेत्र पर सल्लेखना लेकर अपने जीवनकाल में अपना आचार्यपद अपने प्रथम शिष्य मुनि श्री वीरसागर को प्रदान किया था। पुन: उनकी परम्परा में द्वितीय पट्टाचार्य श्री शिवसागर मुनिराज हुए, तृतीय पट्टाचार्य श्री धर्मसागर महाराज, चतुर्थ पट्टाचार्य श्री अजितसागर महाराज, पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर महाराज, छठे पट्टाचार्य श्री अभिनंदनसागर महाराज हुए हैं, जनवरी सन् २०१५ में उनकी समाधि के पश्चात् सप्तम पट्टाचार्य के पद पर श्री अनेकांतसागर जी महाराज को चतुर्विध संघ द्वारा अभिषिक्त किया गया है, जो चतुर्विध संघ का संचालन करते हुए जिनधर्म की प्रभावना कर रहे हैं।
भारत-विहार-
यरनाळ में दीक्षा समारंभ समाप्त होने के अनंतर महाराज ्नो अनेक नगरों में विहार करके धर्मप्रभावना की। महाराज जी के विहार काल में कोण्णूर का चातुर्मास बड़ा महत्वपूर्ण रहा। यहाँ महाराज की जीवनी में अतिशय महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। कोण्णूर ग्राम में प्राचीन गुफाएं बहुसंख्या में हैं। नित्य की तरह गुफा में आचार्य श्री ध्यानस्थ बैठ गये। उसी समय एक नागराज-बड़ा सर्प वहाँ आकर महाराज जी के शरीर पर चढ़कर घूमने लगा। महाराज जी अपने आत्मध्यान में निमग्न थे। ‘नागराज आया है और वह अपने शरीर पर घूम रहा है’ इसका तनिक विकल्प भी महाराज जी को नहीं था। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति की पालना किस प्रकार हो सकती है, इसका यह मूर्तिमान रूप दृष्टिगोचर हुआ। महाराज जी के दर्शनार्थ जो लोग वहाँ पहुँचे थे, उन्होंने यह घटना प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखी। वे साश्चर्य दिङ्मूढ़ हो बैठे रहे। वे सांप से डरते थे। सांप भी जनता से घबड़ाता था। महाराज का आश्रय इसीलिए उसने लिया था। महाराज जी का दिव्य आत्मबल देखकर वहाँ आये हुए यात्रियों में से प्रमुख श्रेष्ठी श्रीमान सेठ खुशालचंद जी पहाड़े और ब्र. हीरालाल जी बड़े प्रभावित हुए। दोनों सज्जन विचक्षण थे। दक्षिण यात्रा के लिए निकले हुए यात्री थे। मिरज पहुँचने के बाद पता चला कि निकट ही दिगम्बर साधु हैं। इसलिए परीक्षा के हेतु वे वहाँ पर पहुँचे थे। उनकी अपनी धारणा थी कि इस काल में साधक का होना असंभव है। भरी सभा में ‘क्या आपको अवधिज्ञान है? या आपको ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त है?’’ आदि वैयक्तिक आचार विषयक प्रश्न भी पूछने लगे। कुछ उलाहना का अंश भी जरूर था। सम्मिलित भक्तगणों में कुछ ऐसे जरूर थे, जो इन सवालों का जवाब मुट्ठियों से देने के लिए तैयार हो गये। मुनि महाराज ने भक्तों को रोका। एक-एक सवाल का जवाब यथानाम ‘‘शांतिसागर जी’’ ने शांति से ही दिया। समागत दोनों परीक्षक अत्यधिक प्रभावित हुए, उसी समय दीक्षा के लिए तैयार भी हो गये। महाराज जी ने ही उन्हें रोककर यात्रा पूरी करने का और कुटुम्ब परिवार की सम्मति लेने को कहा। जब महाराज बाहुबली (कुम्भोज) आये, तब वहाँ आकर उक्त दोनों सज्जनों ने महाराज जी के पास क्षुल्लक पद की दीक्षा धारण की। दीक्षा के बाद श्री ब्र. हीरालाल जी का क्षुल्लक ‘‘वीरसागर’’, श्री सेठ खुशालचंद जी क्षुल्लक ‘चन्द्रसागर’ नामांकन हुआ। समडोली के चातुर्मास में आचार्यश्री के पास क्षुल्लक वीरसागर जी ने निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की। यही महाराज के प्रथम निर्ग्रंथ शिष्य थे। आचार्यश्री ने आगे चलकर अपने समाधिकाल में श्री वीरसागर महाराज को ही उन्मुक्त भावों से आचार्यपद प्रदान किया।
आचार्यपद की प्राप्ति व महत्वपूर्ण तीर्थरक्षा कार्य-
समडोली ग्राम में ही सर्वप्रथम आचार्यश्री का चतुःसंघ स्थापन हुआ। अब तक केवल अकेले महाराज ही निर्ग्रंथ साधु स्वरूप में विहार करते थे। अब संघ सहित विहार होने लगा। संघ ने उनको ‘आचार्य’ घोषित किया। आचाय& महाराज का संघ पर वीतराग शासन बराबर चलता था। संघ सहित विहार करते-करते महाराज कुम्भोज से श्री सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरी आये। क्षेत्र पर श्री देशभूषण और कुलभूषण मुनिद्वय की चरण पादुकाओं का पावन दश&न किया। विहारकाल का उपयोग महाराज श्री जाप्य तथा मंत्र स्मरण के लिए विशेष रूप से कर लेते थे।
श्री सम्मेदशिखर जी की ऐतिहासिक पावन यात्रा-
(चलता फिरता वीतरागता और विज्ञानता का विश्वविद्यालय)
ई. सन् १९२७ के माग&शीष& वदी प्रतिपदा के दिन श्री सम्मेदशिखर जी क्षेत्र की वंदना और धम&प्रभावना के उद्देश्य से आचाय&श्री १०८ शांतिसागर जी महाराज की विहार यात्रा संघ सहित बाहुबली (कुम्भोज) क्षेत्र से शुरू हुई।
बम्बई निवासी पुरुषोत्तम श्रीमान सेठ पूनमचंद जी घासीलाल जी और उनके सुपुत्रगण आचाय&श्री के पास पहुँचे। उन्होंने आचाय&श्री को ससंघ श्री सम्मेदाचल यात्रा को ले चलने का संकल्प प्रकट किया।
नागपुर में संघ का अपूव& स्वागत हुआ। जुलूस तीन मील लम्बा निकला था। शहर के बाहर इतवारी में स्वतंत्र ‘शांतिनगर’ की रचना की गयी थी। कांग्रेस के पंडाल से शांतिनगर का पंडाल कुछ छोटा नहीं था। जनता आज भी उस समय की अपूव& घटनाओं की स्मृति से आनंद का अनुभव करती है और स्वयं को धन्य मानती है।
संघ की विदाई हृदयद्रावक थी। साश्रुनयनों से श्रावक-श्राविकाओं को अनिवाय&रूप से विदाई देनी पड़ी। दिनाँक ९ जनवरी १९२८ को संघ का नागपुर छोड़कर भंडारा माग& से विहार शुरू हुआ। छत्तीसगढ़ के भयंकर जंगलमय विकट माग& से निबा&ध होते हुए संघ हजारीबाग आया। बाद में फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन तीथ&राज श्री सम्मेदशिखर जी सिद्धक्षेत्र को पहुँचा।
यहाँ पर श्री संघपति जी के द्वारा व्यापकरूप में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव द्वारा महती धम&प्रभावना हुई। भीड़ की सीमा न थी। भारत के कोने-कोने से श्रावक-श्राविकाएँ अत्यधिक प्रमाण में पहुँचे। इसी समय हजार से ज्यादा कपड़ों की झोपड़ियाँ बनवायी गई थीं। धम&शालाएँ खचाखच भर गईं।
तीथ&क्षेत्र कमेटी तथा महासभा आदि कई सभाओं के अधिवेशन भी हुए। तीथ&राज जयध्वनि से गूँज उठा था। धम&शालाओं के बाहर भी यत्र-तत्र लोग अपना स्वतंत्र स्थान जमाए हुए नजर आते थे। नीचे धरती ऊपर आसमान, पूण& निवि&कल्प होकर जनता प्रतिष्ठा यात्रा के उन्मुक्त आनन्द रस का पान करती थी। लोग कहते हैं यात्री कहीं तीन लाख से ऊपर होंगे। अस्तु! पंडित आशाधरजी के शब्दों में कहना होगा, ‘दलित कलिलीला-विलसितम्’ यही पव&तराज का सजीव मनोहारी दृश्य था। अनेक भाषा, अनेक वेशभूषा में व्यापक तत्त्व की एकता का होने वाला प्रत्यक्ष दश&न अलौकिक ही था। निवि&कल्प वस्तु के अनुभव के समय विशेष का तिरोभाव और सामान्य का आविभा&व होता ही है ठीक इसी तरह सांस्कृतिक एकता का यह सजीव स्वरूप प्रभावशाली बन गया।
श्री सम्मेदशिखर की वंदना करके वहां से मंदारगिरी, चम्पापुरी, पावापुरी, कुण्डलपुर, राजगृही, गुणावां आदि अनेक पवित्र तीथ& क्षेत्रों की संघ ने यात्रा की।
शास्त्रशुद्ध व्यापक दृष्टिकोण-
ईसवी सन् १९३३ का चातुमा&स आचाय& संघ का ब्यावर (राज.) में था।
महाराज जी का अपना दृष्टिकोण हर समस्या को सुलझाने के लिए मूल में व्यापक ही रहता था। योगायोग की घटना है इसी चौमासे में कारंजा गुरुकुल आदि संस्थाओं के संस्थापक और अधिकारी पूज्य ब्र. देवचंद जी दश&नाथ& ब्यावर पहुँचे। पूज्य आचाय&श्री ने क्षुल्लक दीक्षा के लिए पुन: प्रेरणा की। ब्रह्मचारी जी का स्वयं विकल्प था ही। वे तो इसीलिए ब्यावर पहुँचे थे। साथ में और एक प्रशस्त विकल्प था कि ‘‘यदि संस्था-संचालन होते हुए क्षुल्लक प्रतिमा का दान आचाय&श्री देने को तैयार हों, तो हमारी लेने की तैयारी है।’’ इस प्रकार अपना हादि&क आशय ब्रह्मचारी जी ने प्रगट किया। ५-६ दिन तक उपस्थित पंडितों में काफी बहस हुई। पंडितों का कहना था fिक क्षुल्लक प्रतिमा के व्रतधारी संस्था संचालन नहीं कर सकते जबकि आचाय&श्री का कहना था कि पूव& में मुनि संघ में ऐसे मुनि भी रहा करते थे जो जिम्मेवारी के साथ छात्रों का प्रबंध करते थे और ज्ञानदानादि देते थे। यह तो क्षुल्लक प्रतिमा के व्रत श्रावक के व्रत हैं। अंत में आचाय& महाराजजी ने शास्त्रों के आधार से अपना निण&य सिद्ध किया। फलत: ब्र. श्री देवचंद जी ने क्षुल्लक पद के व्रतों को पूण& उत्साह के साथ स्वीकार किया। आचाय& श्री ने स्वयं अपनी आन्तरिक भावनाओं को प्रकट करते हुए दीक्षा के समय ‘‘समंतभद्र’’ इस भव्य नाम से क्षुल्लकजी को नामांकित किया और पूव& के समंतभद्र आचाय& की तरह आपके द्वारा धम& की व्यापक प्रभावना हो, इस प्रकार के शुभाशीवा&दों की वषा& की। कहाँ तो बाल की खाल निकालकर छोटी-छोटी सी बातों को जटिल समस्या बनाने की प्रवृत्ति और कहाँ आचाय&श्री की प्रहरी के समान सजग दिव्य दूर-दृष्टिता?
चारित्रचक्रवती& आचाय&श्री-
संघ विहार करता हुआ गजपंथा सिद्धक्षेत्र पर आया। यहाँ पर सम्मिलित सब जैन समाज ने आचाय&श्री को ‘‘चारित्र-चक्रवती&’’ पद से विभूषित किया। महाराजश्री की आत्मा निरंतर निरूपाधिक आत्मस्वरूप के अमृतोपम महास्वाद को सहज प्रवृत्ति से बराबर लेने में परमानंद का अनुभवन करती थी। उन्हें इस उपाधि से क्या? वे पूव&वत् उपाधि-शून्य स्वभावमग्न ही थे। साधु परमेष्ठी या आचार्य परमेष्ठी के आंतरिक जीवन का यथार्थ दर्शन यह चक्षु का विषय नहीं होता। वह अपनी शान का अलौकिक ही होता है। जहाँ जीवनाधार श्वासोच्छ्वास की तरह इन परमेष्ठियों का श्वांस आत्मा को स्वात्मा में स्थिर बनाये रखने के लिए होता है, वहाँ उच्छ्वास विश्व में अपनी आदर्श प्रवृत्ति के द्वारा शांति स्थापना में और धर्मप्रभावना में उत्कृष्ट निमित्त के रूप में उपस्थित होने के लिए होता है। आचार्यश्री की लोकोत्तम, लोकोत्तर अलौकिकता और वैभवशाली विभूतिमत्ता इसी में थी। ‘‘चारित्र-चक्रवर्ती’’ उपाधि का महाराज को तो कोई हर्ष-विषाद ही नहीं था। ‘‘चारित्र के चक्रवर्ती तो भगवान् ही हो सकते हैं। हम तो लास्ट नम्बर के मुनि हैं। हमें उपाधि से क्या? स्वभाव से निरूपाधिक आत्मा ही हमारी शरण है।’’ समाज ने उनकी गुणग्राहकता और त्याग-संयम के प्रति निष्ठा का जो औचित्यपूर्ण दर्शन किया, वह योग्य ही हुआ।
टंकोत्कीर्ण श्रुत की टंकोत्कीर्ण सुरक्षा-
वि. सं. २००० (ई. सन् १९४४) की घटना है। आचार्यश्री का चौमासा कुंथलगिरि में था। पं. श्री सुमेरचंद जी दिवाकर से धर्म चर्चा के समय यह पता चला कि अतिशयक्षेत्र मूड़बिद्री में विद्यमान धवला, जयधवला और महाबंध इन सिद्धान्त ग्रंथों में से महाबंध ग्रंथ की ताड़पत्री प्रति के करीब ५००० सूत्रों का भागांश कीटकों का भक्ष्य बनने से नष्टप्राय हुआ। भगवान महावीर के उपदेशों से साक्षात् संबंधित इस जिनवाणी का केवल उपेक्षामात्र से हुआ विनाश सुनकर आचार्यश्री को अत्यन्त खेद हुआ। आगम का विनाश यह अपूरणीय क्षति है। इनकी भविष्य के लिए सुरक्षा हो तो वैâसी हो? इस विषय में पर्याप्त विचार परामर्श हुआ। अंत में निर्णय यह हुआ कि इन ग्रंथराजों के ताम्रपत्र किये जायें और कुछ प्रतियाँ मुद्रित भी हों।
प्रातःकाल की शास्त्र सभा में आचार्यश्री का वक्तव्य हुआ। संघपति श्रीमान् सेठ दाडिमचंद जी, श्रीमान सेठ चंदूलाल जी बारामती, श्रीमान सेठ रामचन्द जी धनजी दावडा आदि सज्जन उपस्थित थे। संघपति जी का कहना था कि जो भी खर्चा हो, वे स्वयं करने के लिए तैयार हैं। फिर भी आचार्यश्री के संकेतानुसार दान संकलित हुआ, जो करीब डेढ़ लाख हुआ।
‘‘श्री १०८ चारित्रचक्रवर्ती शांतिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्था’’ नामक संस्था का जन्म हुआ। ग्रंथों के मूल ताड़पत्री प्रतियों के फोटो लेने का और देवनागरी प्रति से ताम्रपट्ट कराने का निर्णय हुआ। नियमावली बन गई। कार्य की पूर्ति के लिए ध्रुवनिधि की वृद्धि करने का भी निर्णय हुआ। कार्य की पूर्ति शीघ्र उचित रूप से किस प्रकार हो, इस विषय में पत्र द्वारा मुनि श्री समंतभद्र जी से परामर्श किया गया। ‘‘आर्थिक व्यवहार चाहे जिस प्रकार हो, यदि कार्य पूरा करना है तो कार्यनिर्वाह की जिम्मेदारी किसी एक जिम्मेदार व्यक्ति के सुपुर्द करनी होगी। हमारी राय में श्रीमान बालचंद जी देवचंद जी शाह बी.ए.को यह कार्य सौंपा जाये’’ इस सलाह के अनुसार कार्य की व्यवस्था बन गई। आचार्यश्री के संकेत को आज्ञा के रूप में श्री सेठ बालचंद जी ने शिरोधार्य कर कार्य संभाला। प्रतियों के मुद्रण तथा ताम्रपत्र के रूप में टंकोत्कीर्ण कराने का कार्य श्रीमान् विद्यावारिधि पं. खूबचंद जी शास्त्री, श्रीमान् पं. पन्नालाल जी सोनी, श्रीमान् पं. सुमेरचंद जी दिवाकर, श्रीमान् पं.हीरालाल जी शास्त्री, श्रीमान् पं. माणिकचंद जी भीसीकर आदि विद्वानों के यथासंभव सहयोग से पूरा हो पाया; जिसमें ९ वर्षों का समय लगा।
आचार्यश्री की रत्नत्रय साधना अत्यन्त कठोर थी। वे शरीर को पूर्णरूपेण परद्रव्य समझकर उसे कभी-कभी ही आहार प्रदान करते थे।
अपने जीवन में आचार्यश्री ने २५ वर्ष से भी अधिक दिन उपवास में निकाले हैं, जिनकी सूची निम्न प्रकार है-