प्रवक्ता संस्कृत विभाग, एस. डी. स्नातकोत्तर कालेज मुजफ्फरनगर (उ. प्र.)
संस्कृत साहित्य के विशाल भण्डार के अनुशीलन से पता चलता है कि भारतवर्ष में सुरभारती के सेवक वादिराज नाम वाले अनेक विद्वान हुए हैं। इनमें पाश्र्वनाथचरित—यशोधरचरितादि के प्रणेता वादिराजसूरि सुप्रसिद्ध हैं, जो न्यायविनिश्चय पर विवरण नाम्नी टीका के भी रचयिता हैं। प्रकृत निबन्ध में इन्हीं वादिराज को विषय बनाया गया है। उनकी सम्पूर्ण कृतियों का भले ही विधिवत् अध्ययन न हो पाया हो, परन्तु उनके सरस एकीभाव स्तोत्र से र्धािमक समाज, न्याय विनिश्चय विवरण से र्तािकक समाज और पाश्र्वनाथचरित यशोधरचरितादि से साहित्यसमाज सर्वथा सुपरिचित है। जहाँ एक ओर उन्हें महान् कवियों में स्थान प्राप्त है, वहाँ दूसरी ओर श्रेष्ठ र्तािककों की पंक्ति में भी उत्तम स्थान पाने वाले हैं।
वादिराजसूरि द्राविड़ संघीय अरुंगल शाखा के आचार्य थे।
श्रीमद्द्रविडसंघेऽस्मिन् नन्दिसंघेऽस्त्यरुङ्गल:।
अन्वयो भाति योऽशेशास्त्रवारासिपारगै:।।
एकत्र गुणिनस्सर्वे वादिराज त्वमेकत:।
तस्यैतस्य गौरवं तुलायामुन्नति: कथम्।।’
—जैन शिलालेख संग्रह भाग—२,
लेखांक २८८। द्रविड़ संघ का अनेक प्राचीन शिलालेखों में द्रविड़ द्रमिड़, द्रविण, द्रविड, द्रमिल, दविल, दरविल आदि नामों से उल्लेख पाया जाता है।द्रष्टव्य—वही भाग ३ की डा. चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ. ३३। ये नामगत भेद कहीं लेखकों के प्रमादजन्य हैं तो कहीं भाषावैज्ञानिक विकासजन्य। प्राचीन काल में चेर, चोल और पाण्ड्य इन तीन देशों के निवासियों को द्राविड़ कहा जाता था। केरल के प्रसिद्ध आचार्य महाकवि उल्लूर एस. परमेश्वर अय्यर द्राविड़ शब्द का विकास मिठास या विशिष्टता अर्थ के वाचक तमिष शब्द से निम्नलिखित क्रमानुसार मानते हैं—तमिष, तमिल, दमिल, द्रमिल, द्रमिड़, द्रविड़, द्राविड़।द्रष्टव्य—श्री गणेशप्रसाद जैन द्वारा लिखित ‘दक्षिण भारत में जैन धर्म और संस्कृति’ लेख। ‘‘श्रमण’’ वर्ष २१, अंक १, नवम्बर १९६९, पृ. १८। महाकवि वादिराज ने किस जन्मभूमि एवं किस कुल को अलंकृत किया—इस सम्बन्ध में कोई भी आन्तरिक या बाह्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। अत: वादिराज सूरि द्राविड़ संघीय थे, अत: उनके दक्षिणात्य होने की सम्भावना की जाती है। द्रविड़ देश को वर्तमान आन्ध्र और तमिलनाडु का कुछ भाग माना जा सकता है। जन्मभूमि, माता—पिता आदि के विषय में प्रमाण उपलब्ध न होने पर भी उनकी कृतियों के अन्त्य प्रशस्तिपद्यों से ज्ञात होता है कि वादिराजसूरि के गुरु का नाम श्रीपाल देव था। पार्श्वचाथचरित, प्रशसितपद्य १—४।यशस्तिलक चम्पू के संस्कृत टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने वादिराज और वादीभिंसह को सोमदेवाचार्य का शिष्य बतलाते हुये लिखा है कि—‘‘स वादिराजोऽपि श्री सोमदेवाचार्यस्य शिष्य:।’’ ‘वादीभिंसहोऽपि मदीयशिष्य:, वादिराजोऽपि मदीयशिष्य’ इत्युक्तत्वात्।’ यशस्तिलकचम्पू (सम्पा.—सुन्दरलाल शास्त्री) श्रुतसागरी टीका, द्वितीय आश्वास, पृ. २६५। इसके पूर्व श्रुतसागरसूरि ने ‘‘उत्तंक च वादिराजेन’ कहकर एक पद्य उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है—
‘कर्मणा कवलितो सोऽजा तत्पुरान्तर जनांगमवाटे।
कर्मकोद्रवरसेन हिमत्त: िंककिमेत्यशुभधाम न जीव:।।’वही, पृ. २६५।
यह श्लोक वादिराजसूरिकृत किसी भी ग्रंथ में नहीं मिलता है और न ही अन्य वादिराज विरचित ग्रंथों में ही। सोमदेव सूरि के नाम से उल्लिखित ‘वादीभिंसहोऽपि मदीयशिष्य: वादिराजोऽपि मदीयशिष्य:’ वाक्य का उल्लेख भी उनकी किसी भी रचना (यश., नीति वा., अध्यात्मरंगिणी) में नहीं है। अत: वादिराज का सोमदेवाचार्य का शिष्यत्व सर्वथा असंगत है। यशस्तिलकचम्पू का रचनाकाल चैत्र शुक्ला त्रयोदशी शक सं. ८८१ (९५९ ई.) हैं। ‘शकनृपकालातीतसंवसरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु अंकत: सिद्धार्थ संवत्सरान्तर्गतचैत्रमासमदनत्रयोदश्याम् ……..।’ जबकि वादिराज के पार्श्वनाथ चरित का प्रणयकाल शक स. ९४७ (१०२५ ई) है। पार्श्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य ५। इस प्रकार दोनों ग्रंथों के रचनाकाल का ६६ वर्षों का अन्तर भी दोनों के गुरुशिष्यत्व में बाधक है। प्रौनिदेव विमलचन्द्र भट्टारक कनकसेन वादिराज (हेमसेन) दयापाल पुष्पसेन वादिराज श्रीविजय गुणसेन श्रीयांसदेव कमलभद्र अजितसेन (वादीभिंसह) कुमारसेनवही भाग ३ की डा. गुलाचन्द्र चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ. ३८ से उद्धृत। शाकटायन व्याकरण की टीका ‘रुपसिद्धि’ के रचयिता दयापाल मुनि वादिराज के सतीर्थ (सहाध्यायी या सधर्मा) थे। मल्लषेण प्रशस्ति में वादिराज के सतीर्थों में पुष्पसेन और श्रीविजय का भी नाम आया है।. द्रव.—जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१३—२१६। किन्तु इन दोनों का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। हुम्मच के इन शिलालेखों में द्राविड़संघ की परम्परा पृष्ठ नं. ४६६ पर दी गई तालिका के अनुसार है। यहाँ वादिराज के गुरु का नाम कनकसेन वादिराज (हेमसेन) कहा है और अन्यत्र मतिसागर निर्दिष्ट है। इसका समाधान यही हो सकता है कि कदाचित मतिसागर वादिराज के दीक्षागुरु थे और कनकसेन वादिराज (हेमसेन) विद्यागुरु। श्री नाथूराम प्रेमी का भी यही मन्तव्य है।द्रष्टव्य—श्रीनाथूराम प्रेमी द्वारा लिखित ‘वादिराजसूरि’ लेख। —जैन हितैषी भाग ८ अंक ११, पृ. ५११। साध्वी संघमिता जी ने वादिराज के सतीर्थ का नाम अनेक बार दयालपाल लिखा है,जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, (द्वितीय संस्करण)। वादिगजपञ्चान आचार्य वादिराज (द्वितीय), पृ. ५७०। जो सम्भवत: मुद्रण दोष है, क्योंकि उनके द्वारा प्रदत्त सन्दर्भ मल्लिषेणप्रशस्ति में दयापालमुनि ही आया है। वादिराज कवि का मूल नाम था या उपाधि—इस विषय में पर्याप्त वैमत्य है। श्री नाथूराम प्रेमी की मान्यता है कि उनका मूल नाम कुछ और ही रहा होगा, वादिराज तो उनकी उपाधि है और कालान्तर में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गयेजैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४७८। टी. ए.गोपीनाथ राव ने वादिराज का वास्तविक नाम कनकसेन वादिराज माना है।Introduction to Yashodharacharita Page 5. इसका कारण यह हो सकता है कि कीथ, विन्टरनित्ज आदि कुछ पाश्चात्य इतिहासज्ञों ने कनकसेन वादिराज कृत २९६ पद्यात्मक एवं ४ सर्गात्मक यशोधरचरित नामक काव्य का उल्लेख किया है,संस्कृत साहित्य का इतिहास (कीथ, अनु.—मंगलदेव शास्त्री) पृ. १७७। एवं Jainism in the History of Sanskrit literature. किन्तु यह भ्रामक है। विभिन्न शिलालेखों में कनकसेन वादिराज और वादिराज का पृथक्—पृथक् उल्लेख हुआ है।जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, लेखांक ४९३। एक अन्य शिलालेख में जगदेकम्मल वादिराज का नाम वर्धमान कहा गया है।वही, भाग ३ लेखांक ३४७। वादिराजसूरि विरचित एकीभावस्तोत्र (कल्याणकल्पद्रुम) पर नागेन्द्रसूरि द्वारा विरचित एक टीका उपलब्ध होती है। टीकाकार के प्रारंभिक प्रतिज्ञा वाक्य में स्पष्ट रूप से वादिराज का दूसरा नाम वर्धमान कहा गया है—‘‘श्रीमद्वादिराजापरनामवर्धमानमुनीश्वरविरचितस्य परमाप्तस्रवस्याातिगहनगंभीरस्य सुखावबोधार्थं भव्यासु जिघृक्षापारतन्त्रैज्र्ञानभूषणभट्टारकैरुपरुद्धो नागचन्द्रसूरिर्यथाशक्ति छायामात्रमिदं निबन्धनमभिद्यते। ’’द्रष्टव्य—सरस्वती भवन झालरापाटन की हस्तप्रति का प्रारम्भिक प्रतिज्ञावाद। किन्तु यह टीका अत्यन्त अर्वाचीन है। टीका की एक प्रति झालरापटन के सरस्वती भवन में है। यह प्रति वि. स. १६७६ (१६९६ ई.) में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मण्डलाचार्य यश:र्कीित के शिष्य ब्रह्मदास ने वैराठ नगर में आत्मपठनार्थ लिखी थी।वही, अन्त्यप्रशस्ति। यत: वादिराज ने पाश्र्वनाथचरित की प्रशस्तिपार्श्वनाथचरित प्रशस्ति पद्य ४ (वादिराजेन कथा निबद्धा। तथा यशेधरचरितयशोधरचरित १/६ (तेन श्री वादिराजेन)। के प्रारम्भ में अपना नाम वादिराज ही कहा है, अत: जब तक अन्य कोई प्रबल प्रमाण नहीं मिलता है, तब तक हमें वादिराज ही वास्तविक नाम स्वीकार करना चाहिये। वादिराज सूरि के समय दक्षिण भारत में चालुक्य नरेश जयिंसह का शासन था। इनके राज्यकाल की सीमाएं १०१६—१०४२ ई. मानी जाती हैं।द्रष्टव्य—कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंण की वैशावली—फादरहराश एवं श्री गुजर, विक्रमांकदेव चरित भाग २ (हिन्दू वि. वि. प्रकाशन) परिशिष्ट। तथा जैन शिलालेख संग्रह भाग ३ की डा. चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ. ८८। महाकवि विल्हण ने चालुक्य वंश की उत्पत्ति दैत्यों के नाश के लिए ब्रह्मा की चुलुका (चुल्लू) से बताई है। उन्होंने चालुक्य वंश की परम्परा का प्रारम्भ हारीत से करते हुए उनकी वंशावली का निर्देश इस प्रकार किया है—मानव्य ७ तैलप ७ सत्याश्रय ७ जयिंसहदेव।विक्रमांकदेवचरित १/५८—७९। जयिंसहदेव के उत्तराधिकारी आहवमल्ल द्वारा अपनी राजधानी कल्याण नगर बसाकर उसे बनाने का उल्लेख विक्रमाँकदेवचरित्र में किया गया है।वही २/१। जिससे स्पष्ट होता है कि उनके पूर्व शासक की राजधानी अन्यत्र थी। पाश्र्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में महाराज जयिंसह की राजधानी ‘कहगातीरभूमौ’. पाश्र्वनाथचरित प्रशस्त्रिपद्य ५। कहा गया है। किन्तु दक्षिण में कहगा नामक कोई दी नहीं है। हाँ, बादामी से लगभग १८—१९ किमी. दूर एक कहगेरी नाम स्थान जरूर है जो कोई प्राचीन नगर जान पड़ता है। ऐसा लगता है कि प्रमादवश ‘कहगेरीतिभूमौ, के स्थान पर हस्तलिखित प्रति में ‘कहगातीरभूमौ’ लिखा गया है। कहगेरी नामक उक्त स्थान पर चालुक्य विक्रमादित्य (द्वितीय) का एक कन्नड़ी शिलालेख भी मिला है, जिससे स्पष्ट है कि चालुक्य राजाओं का कहगेरी स्थान से सम्बन्ध रहा है। यही कहगेरी जयिंसह देव की राजधानी होना चाहिये। पाश्र्वनाथ चरित के अतिरिक्त न्यायविनिश्चिय विवरण एवं यशोधर चरित की रचना भी जयिंसह की राजधानी में ही सम्पन्न हुई थी। न्यायविनिश्चय विवरणन्यायविनिश्चय विवरण प्रशस्त्रिपद्य ५। में तो इसका उल्लेख किया ही गया है, यशोधरचरित में भी जयिंसह पद का प्रयोग करके बड़े कौशल के साथ इसकी सूचना दी गई है। यथा—
किसी भी आन्तरिक या बाह्य प्रमाण द्वारा वादिराज का जन्मकाल ज्ञात नहीं हो सकता है। परन्तु यत: उन्होंने पाश्र्वनाथ चरित की रचना शक सं. ९४७ कार्तिक शुक्ला तृतीया को की थी, शाकाब्दे नगर्वािधरन्धगणने….।’ पार्श्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य ५। अत: उनका जन्म—समय ३०—४० वर्ष पूर्व मान कर ९८५—९९५ ई. के लगभग माना जा सकता है। पंचवरित्त के ११४७ ई. में उत्कीर्ण शिलालेख में वादिराज को गंगवंशीय राजा राजमल्ल (चतुर्थ) सत्यवाक् का गुरु बताया गया है। यह राजा ९७७ ई. में गद्दी पर बैठा था। समरकेशरी चामुण्डराय इसका मन्त्री था।द्र.—‘एकीभावस्तोत्र’ की परमानन्दशास्त्री द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ. ४ एवं नाथूराम प्रेमी का ‘वादिराजसूरि’ लेख, जैनहितैषी भाग ८, अंक ११ पृ. ५११। अत: वादिराज का समय इससे पूर्व ठहरता है। इन आधारों पर वादिराज का समय ९५०—१०५० ई. के मध्यवर्ती मानने में कोई असंगति प्रतीत नहीं होती है। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पाश्र्वनाथ चरित का प्रणयन िंसह—चक्रेश्वर चालुक्य चक्रवर्ती जयिंसह देव की राजधानी में शक सं. ९६४ में लिखा है।संस्कृत साहित्य का इतिहास, प्रथम भाग, काव्य खण्ड, पञ्चमपरिच्छेद पृ. २४५। उनका यह कथन पाश्र्वनाथ चरित के नग ृ सात र्वािध ृ चार और रन्ध्र ृ नव की विपरीत गणना (अंकानां वामतो गति:) ९४७ शक सं. से विरुद्ध, अतएव असंगत है। एक और विचित्र बात देखने में आई है कि डॉ. हीरालाल जैन जैसे सुप्रसिद्ध विद्वान् ने भी वादिराज को कहीं बारहवीं, कहीं ग्यारहवीं और कहीं–कहीं तेरहवीं शताब्दी तक पहुँचा दिया है। डॉ. जैन ने यशोधरचरित का उल्लेख करते हुए १०वीं शताब्दी,३२ एकभावस्तोत्र के प्रसंग में ११वीं शताब्दी,भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान पृ. १७१। पाश्र्वनाथ चरित के सन्दर्भ में भी ११वीं शताब्दीवही, पृ. १२६। तथा न्यायविनिश्चय विवरण टीका के उल्लेख में १३वीं शताब्दीवहीं, पृ. १८८। समय वादिराज के साथ लिखा है। स्पष्ट है कि वादिराजसूरि का तेहरवीं शती में लिखा जाना या तो मुद्रणगत दोष है अथवा डॉ. जैन ने काल—निर्धारण में पाश्र्वनाथ चरित की प्रशस्ति का उपयोग नहीं किया है तथा पूर्वापरता का ध्यान रखे बिना एक ही व्यक्ति को १०वीं से १३वीं शताब्दी तक स्थापित करने का विचित्र प्रयास किया है। अनेक शिलालेखों तथा अन्यत्र वादिराजसूरि की अतीव प्रशंसा की गई हैं मल्लिषेण प्रशस्ति में अनेक पद्य इनकी प्रशंसा में लिखे गये हैं। यह प्रशस्ति १०५० शक सं. (११२८ ई.) में उत्कीर्ण की गई थी जो पाश्र्वनाथवरित्त के प्रस्तरस्तम्भ पर अंकित है। यहाँ वादिराज को महान् कवि, वादी और विजेता के रूप में स्मरण किया गया है। एक स्थान पर तो उन्हें जिनराज के समान तक कह दिया गया है।वही पु. ८९। इस प्रशस्ति के सिंहसमच्र्यपीठविभ:’ विशेषण से ज्ञान होता है कि महाराजा जयिंसह द्वारा उनका आसन पूजित था। इतने कम समय में इतनी अधिक प्रशंसा पाने का सौभाग्य कम ही कवियों अथवा आचार्यों को मिला है। काव्य पक्ष की अपेक्षा वादिराजसूरि का र्तािकक (न्याय) पक्ष अधिक समृद्ध है। आचार्य बलदेव उपाध्याय की यह उक्ति कि ‘वादिराज अपनी काव्य प्रतिभा के लिए जितने प्रसिद्ध हैं, उससे कहीं अधिक र्तािकक वैदुषी के लिए विश्रुत हैं,त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोद्गादिह। जिनराजत एकस्मादेकस्माद् वादिराजत:।।’ —जैन शिलालेख संग्रह भाग १, लेखांक ५४, मल्लिषेण प्रशस्ति, पद्य ४०। सर्वथा समीचीन जान पड़ती है। यही कारण है कि एक शिलालेख में वादिराज को विभिन्न दार्शनिकों का एकीभूत प्रतिनिधि कहा गया है—
संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग १, पञ्चम परिच्छेद पृ. २४५।
अन्यत्र वादिराज सूरि को षट्र्वषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति, जगदेकमल्लवादी उपाधियों से विभूषित किया गया है। एकीभाव स्तोत्र के अन्त में एक पद्य प्राप्त होता है जिसमें वादिराज को समस्त वैयाकरणों, र्तािककों एवं साहित्यिकों एवं भव्यसहायों में अग्रणी बताया गया है।जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेखांक २१५ एवं वही भाग ३ लेखांक ३१९। वादिराजमनुशाब्दिकलोको वादिराजमनुर्तािककिंसहा:। यशोधरचरित के सुप्रसिद्ध टीकाकार लक्ष्मण ने उन्हें मेदिनीतिलक कवि कहा है।‘वादिराजकिंव नौमि मेदिनी तिलकं कविम्। यदीय रसनारङ्गे वाणी नर्तनमातनोत्।।’’ यशोधररचित, टीकाकार का मंगलाचरण। भले ही इन प्रशंसापरक प्रशस्तियों और अन्य उल्लेखों में अतिशयोक्ति हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि वे महान् कवि और र्तािकक थे। वादिराजसूरि की अद्यावधि पाँच कृतियाँ असंदिग्ध हैं—१. पार्श्वनाथचरित, २. यशोधरचरित, ३. एकीभावस्तोत्र, ४. न्यायविनिश्चय विवरण और ५. प्रमाण निर्णय। प्रारम्भिक तीन कृतियाँ साहित्यिक एवं अन्तिम दो न्यायविषयक हैं। इन पाँचों कृतियों के अतिरिक्त श्री अगरचन्द्र नाहटा ने उनकी त्रैलोक्यदीपिका और अध्यात्माष्टक नामक दो कृतियों का और उल्लेख किया है।श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा लिखित ‘‘जैन साहित्य का विकास लेख। जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १६ किरण १ जून ४९ पृ. २८। इनमें अध्यात्माष्टक मा. दिगम्बर जैन ग्रंथमाला से वि. १९७५ (१९१८ ई.) में प्रकाशित भी हुआ था। श्री परमानन्द शास्त्री इसे वाग्मटालंकार के टीकाकार वादिराज की कृति मानते हैं।एकीभावस्तोत्र, प्रस्तावना पृ. १६। त्रैलोक्यदीपिका नामक कृति उपलब्ध नहीं है। मल्लिषेण प्रशस्ति के ‘‘त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाम्यामेवोद्गादिह। जिनराजत एकस्मादेकस्माह वादिराजत:।।’’जैन शिलालेख संग्रह भाग १ लेखांक ५४ प्रशस्तिपद्य ४०। में कदाचित् इसी त्रैलोक्यदीपिका का संकेत किया गया है। श्री नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि सेठ मणिकचन्द्र जी के ग्रथ रजिस्टर में त्रैलोक्यदीपिका नामक एक अपूर्ण ग्रंथ है जिसमें प्रारम्भ के १० और अन्त में ५८ पृ० के आगे के पन्ने नहीं हैं।जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४०४। संभव है यही वादिराजकृत त्रैलोकयदीपिका हो। विद्वद्रत्नमाला में प्रकाशित अपने एक लेख में प्रेमी जी ने एक सूचीपत्र के आधार पर वादिराजकृत चार ग्रंथों—वादमञ्चरी, धर्मरत्नाकर, रुक्मणियशोविजय और अकलंकाष्टकटीका का उल्लेख किया है।विद्वद्रत्नमाला में प्रकाशित हिन्दी लेख का पाश्र्वनाथचरित के प्रारम्भ में संस्कृत में वादराजसूरि का परिचय। किन्तु मात्र सूचीपत्र के आधार पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार वादिराजसूरि के परिचय, कीर्तन एवं कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न कवि एवं आचार्य थे। वे मध्ययुगीन संस्कृत साहित्य के अग्रणी प्रतिभू रहे हैं तथा उन्होंने संस्कृत के बहुविध भण्डार को नवीन भावराशियों का अनुपम उपहार दिया है। उनके विधिवत् अध्ययन से न केवल जैन साहितय का अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय का गौरव समृद्धतर होगा।