-स्थापना-गीता छंद-
जो स्वयं पंचाचार पालें, अन्य से पलवावते।
छत्तीस गुण धारें सदा, निज आत्मा को ध्यावते।।
ऐसे परम आचार्यवर, भवसिंधु से भवि तारते।
इस हेतु उनकी अर्चना, हितु हम हृदय में धारते।।१।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं आचार्यपरमेष्ठिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननं।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं आचार्यपरमेष्ठिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं आचार्यपरमेष्ठिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भवभव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं-भुजंगप्रयात छंद
पयोराशि का नीर निर्मल भराऊँ।
गुरू के चरण तीन धारा कराऊँ।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।१।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधीत चंदन लिये भर कटोरी।
जगत्तापहर चर्चहूँ हाथ जोरी।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।२।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले श्वेत अक्षत लिये थाल भर के।
धरूँ पुंज तुम पास बहु आश धर के।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।३।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केतकी पुष्प की माल लाऊँ।
सभी व्याधि हर आप चरणों चढ़ाऊँ।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।४।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस मिष्ट पक्वान्न अमृत सदृश ले।
परम तृप्ति हेतू चढ़ाऊँ तुम्हें मैं।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।५।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा दीप की जगमगाती भली है।
जजत ही तुम्हें ज्ञान ज्योति जली है।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।६।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगुरु धूप खेते उड़े धूम्र नभ में।
दुरित कर्म जलते गुरू भक्ति वश तें।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।७।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्नास नींबू बिजौरा लिये हैं।
तुम्हें अर्पते सर्व वांछित लिये हैं।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।८।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
लिये थाल में अर्घ है भक्ति भारी।
गुरू अर्चना है सदा सौख्यकारी।।
जजूँ नित्य आचार्य के पाद को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।९।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
गुरु पद में धारा करुँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेतु।।१०।।
शान्तये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं श्री आचार्यपरमेष्ठिभ्यो नम:।
-दोहा-
भववारिधि में भव्य के, कर्णधार आचार्य।
गाऊँ तुम गुण मालिका, होवो मम आचार्य।।१।।
-स्रग्विणी छंद-
मैं नमूँ मैं नमूँ मैं नमूँ सूरि को।
पाप संताप मेरा सबे दूर हो।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।१।।
शिष्य का आप संग्रह करें चाव से।
नित्य उनपे अनुग्रह करें भाव से।।
दोष लख आप निग्रह करें युक्ति से।
दण्ड दे शुद्ध करते निजी शक्ति से।।२।।
मेरुसम धीर गम्भीर हो सिन्धु सम।
सूर्य सम तेजधृत् सौम्य हो चन्द्र सम।।
मातृवत् रक्षते पितृवत् पालते।
धर्म उपदेश दे भव्य अघ टालते।।३।।
कृष्ण नीलादि लेश्या नहीं आप में।
पीत पद्मादि लेश्या रहें पास में।।
देश कुल जाति से शुद्ध हो श्रेष्ठ हो।
चार विध संघ स्वामी सदा इष्ट हो।।४।।
जन्म व्याधी हरण आप ही वैद्य हो।
कष्ट उपसर्ग से आप नहिं भेद्य हो।।
सर्व साधूगणों से सदाराध्य हो।
इन्द्रशत वंद्य भविवृंद आराध्य हो।।५।।
मूलगुण और उत्तर गुणों को धरो।
सर्व परिषह सहो मोक्ष में दृग१ धरो।।
नग्न मुद्रा यथाजात गुरुवर्य जी।
वस्त्र श्रृंगार विरहित धरमधुर्य जी।।६।।
रत्नत्रय युक्त फिर भी अकिंचन्य हो।
मोहग्रन्थी रहित आप निर्ग्रंथ हो।
हो कृपा सिन्धु आनन्द भंडार हो।
कर्मवन दग्ध करने को अंगार हो।।७।।
ब्रह्मचारी रहो फिर भी तुम पास में।
सर्वदा है तपस्या रमा साथ में।।
ऋद्धियाँ सिद्धियाँ तुम चरण चूमती।
मुक्ति लक्ष्मी सदा पास में घूमती।।८।।
जो तुम्हारे चरण की करें अर्चना।
फेर होवे कभी भी उन्हें जनम ना।।
नाथ! मैं भी करूँ भक्ति इस हेतु से।
हे गुरो! अब छुड़ावो जगत् क्लेश से।।९।।
-घत्ता-
सूरीवर गुणगण, अगणित गुणमणि, जो भविजन शिर पर धरते।
वे दुर्गति परिहर, सुगति रमावर, केवल ‘ज्ञानमती’ वरते।।१०।।
ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं आचार्यपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य भक्ती से सदा, आचार्यवर को पूजते।
वे मोह को कर दूर मृत्यु मल्ल को भी चूरते।।
अद्भुत सुखों को भोग क्रम से मुक्ति लक्ष्मी वश करें।
कैवल्य अर्हत ‘‘ज्ञानमती’’ पा पूर्ण सुख शाश्वत भरें।।