-दोहा-
भववारिध् में भव्य के, कर्णधर आचार्य।
मन वच तन से नित नमूं, होवो मम आधर्य।।1।।
-ड्डग्विणी छंद-
मैं नमूँ मैं नमूँ मैं नमूँ सूरि को।
पाप संताप मेरा सबे दूर हो।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।2।।
शिष्य का आप संग्रह करें चाव से।
नित्य उनपे अनुग्रह करें भाव से।।
दोष लख आप निग्रह करें युक्ति से।
दण्ड दे शु( करते निजी शक्ति से।।3।।
मेरुसम ध्ीर गम्भीर हो सिन्ध्ु सम।
सूर्य सम तेजध्ृत् सौम्य हो चन्द्र सम।।
मातृवत् रक्षते पितृवत् पालते।
ध्र्म उपदेश दे भव्य अघ टालते।।4।।
कृष्ण नीलादि लेश्या नहीं आप में।
पीत पद्मादि लेश्या रहें पास में।।
देश कुल जाति से शु( हो श्रेष्ठ हो।
चार विध् संघ स्वामी सदा इष्ट हो।।5।।
जन्म व्याध्ी हरण आप ही वैद्य हो।
कष्ट उपसर्ग से आप नहिं भेद्य हो।।
सर्व साध्ूगणों से सदाराध्य हो।
इन्द्रशत वंद्य भविवृंद आराध्य हो।।6।।
मूलगुण और उत्तर गुणों को ध्रो।
सर्व परिषह सहो मोक्ष में दृग ध्रो।।
नग्न मुद्रा यथाजात गुरुवर्य जी।
वस्त्रा श्रृंगार विरहित ध्रमध्ुर्य जी।।7।।
रत्नत्राय युक्त पिफर भी अकिंचन्य हो।
मोहग्रन्थी रहित आप निग्र्रंथ हो।
हो कृपा सिन्ध्ु आनन्द भंडार हो।
कर्मवन दग्ध् करने को अंगार हो।।8।।
ब्रह्मचारी रहो पिफर भी तुम पास में।
सर्वदा है तपस्या रमा साथ में।।
)(ियाँ सि(ियाँ तुम चरण चूमती।
मुक्ति लक्ष्मी सदा पास में घूमती।।9।।
जो तुम्हारे चरण की करें वंदना।
पेफर होवे कभी भी उन्हें जन्म ना।।
नाथ! मैं भी करूँ भक्ति इस हेतु से।
‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो, मैं छुटंू दुःख से।।10।।