विक्रम सं. १९८२ (सन् १९२५) में भोपाल के पास आष्टा नामक कस्बे के समीप प्राकृतिक सुरम्यता से परिपूर्ण भौंरा ग्राम में श्री जबरचंद जी जैन की धर्मपत्नी रूपाबाई की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया राजमल।
वि.सं. २००२ में राजमल आचार्यश्री वीरसागर महाराज से सप्तम प्रतिमा धारण कर उनके संघ में रहने लगे। पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से आपने राजवार्तिक, गोम्मटसार, पंचाध्यायी आदि ग्रंथों का अध्ययन किया तथा उन्हीं की तीव्र प्रेरणा से वि.सं. २०१८ (सन् १९६१) में श्री शिवसागर महाराज के करकमलों से सीकर (राज.) में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ‘‘मुनि श्री अजितसागर’’ नाम प्राप्त किया।
आचार्यश्री धर्मसागर महाराज की समाधि के पश्चात् आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महाराज एवं चतुर्विध संघ की अनुमतिपूर्वक ७ जून १९८७ वि.सं. २०४४ को उदयपुर (राज.) में आपके ऊपर चतुर्थ पट्टाचार्य का पद भार सौंपा गया। लगभग ३ वर्ष के अल्पकाल तक आपने आचार्यपट्ट की बागडोर संभाली। पुन: शारीरिक अस्वस्थता के कारण ९ मई १९९०, बैशाख शु. पूर्णिमा वि. सं. २०४७ को साबला (राज.) में आपने इस नश्वर शरीर का त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त किया। उन आचार्यश्री के चरणों में शत-शत वंदन।