बसंततिलका छंद-
कारुण्यपुण्यगुणरत्न – समुद्रसूरे!।
संसार वारिनिधिपोत! जगत्प्रपूज्य!।।
भव्याब्जभास्कर! ममाद्यगुरो! सुभक्त्या।
भो देशभूषणमुनीन्द्र! नमाम्यहं त्वां।।१।।
अनुष्टुप्-
न्ममृत्युभयाद् भीतां तितीर्षंु भववारिधे:।
हस्तावलंबनं दत्वा गृहकूपात् समुद्धृत:।।२।।
आगमज्ञो गभीर:सन् उपसर्ग परीषहान्।
सहिष्णु: शान्तिमूर्तिस्त्वं सुजनप्रीणनक्षम:।।३।।
स्मितास्य: क्रोधजिन्मोह मायामत्सरदूरग:।
ध्यानाध्ययनयो: सक्तो विकथाशून्यमानस:।।४।।
अनाद्यनिधनायोध्यापुर्या उद्धारको भवान्।
विंशहस्तप्रभामूर्ते: पुरुदेवस्य कारक:।।५।।
भाषाष्टादशविज्ञानी विद्वान् सार्वोपदेशक:।
मनोज्ञो लोकविल्लोकप्रिय: सन्मार्गलोचन:।।६।।
सर्वत्रभारते पद्भ्यां विहरन्ननुकंपया।
सर्वेषां हितसंशास्ता त्वं निष्कारण बांधव:।।७।।
भगवंस्त्वत्प्रसादेन लब्धाबोधि: सुदुर्लभा।
प्रतिपित्साम्यहं तूर्णं ज्ञानं सौख्यमनश्वरं।।८।।
देशस्य भूषण: श्रीमान् देशभूषणयोगिराट्।
विश्वशांति प्रकुर्वाणो भवान् विजयतां चिरं।।९।।
पृथ्वी छंद-
अनेक भवदु:खदं विषयसौख्यविषसन्निभं।
विवेच्य पुनरत्यजश्च जिनरूपरूपोऽभव:।।
सुमुक्तिललनेच्छया सततमात्मानं ध्यायसि।
नमोऽस्तु गुरुवर्य! ते परमसौख्यसंसिद्धये।।१०।।