सौराष्ट्र देश में गिरिनगरपुर के निकट ऊर्जयंतगिरि प्रसिद्ध है जो कि भगवान नेमिनाथ की निर्वाणभूमि है। उस पर्वत की चंद्रगुफा में निवास करने वाले महातपस्वी परममुनियों में श्रेष्ठ धरसेनाचार्य हुए हैं। वे अग्रायणीय नामक दूसरे पूर्व की पंचम वस्तु के महाकर्म प्रकृति प्राभृत नामक चतुर्थ अधिकार के ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी आयु को अल्प जानकर मन में विचार किया कि मैंने जितने भी श्रुत का अध्ययन किया है मेरे अनंतर इसका व्युच्छेद न हो जाए, ऐसा कुछ उपाय करना चाहिए। देशेन्द्र नामक देश में एक वेणाकतटीपुर है। उस समय वहाँ महामहिमा महान् महोत्सव के प्रसंग में मुनियों का संघ एकत्रित हुआ था। आचार्यवर्य श्री धरसेन ने एक ब्रह्मचारी के द्वारा उन मुनियों के पास एक पत्र भेजा।
उन मुनियों ने ब्रह्मचारी द्वारा प्रदत्त पत्र को पढ़ा। उसमें लिखा था कि ‘‘स्वस्तिश्रीमान् ऊर्जयंत तट निकट चंद्र गुफावास से धरसेनगणी वेणाकतट में आए हुए यतियों की अभिवंदना करके यह कार्य सूचित करते हैं कि मेरी आयुु अब कुछ दिनों की अवशिष्ट है इसलिए मेरे द्वारा गृहीत शास्त्र ज्ञान का विच्छेद न हो जाए इसलिए आप मेरे श्रुत को ग्रहण और धारण करने में समर्थ तीक्ष्ण बुद्धि वाले दो मुनीश्वरों को हमारे पास भेज दो।” इस लेख के अर्थ को अच्छी तरह समझकर इस संघ के आचार्य ने भी सुयोग्य दो मुनियों को उनके पास जाने की आज्ञा दे दी।वहाँ से दो मुनिराज विहार करते हुए आ रहे हैं। इधर रात्रि के पिछले प्रहर में श्री धरसेनाचार्य ने स्वप्न देखा कि श्वेतवर्ण वाले सुन्दर सुडौल दो बैल मेरे चरणों में नमस्कार कर रहे हैं और उसी दिन ही ये दो शिष्य गुरू के चरणकमल के निकट पहुँचकर यथोचित वंदना विधि करते हैंं। शास्त्रोक्त विधि से तीन दिन विश्राम करके ये गुरू से अपने आने का हेतु निवेदित करते हैं। गुरुदेव ने यद्यपि इन्हें योग्य समझ लिया था फिर भी उनकी बुद्धि की परीक्षा हेतु दोनों को एक-एक विद्या देकर कहा कि नेमीश्वर जिनराज की सिद्धशिला पर जाकर विधिवत् इस विद्या को सिद्ध करके लाओ। गुरू की आज्ञा से उन दोनों मुनियों ने वैसा ही किया। विद्या सिद्ध होते ही एक मुनि के सामने कानी देवी आकर खड़ी हो गयी और दूसरे मुनि के सामने बड़े दांतों वाली देवी आ गई, ऐसा देखकर उन मुनियों ने सोचा कि देवियों का यह स्वरूप नहीं है अत: मंत्र में कुछ अशुद्धि अवश्य है पुन: उन्होंने विद्या और मंत्रशास्त्र के व्याकरण के अनुसार मंत्र को शुद्ध किया जिनके सामने कानी देवी आई थी उनके मंत्र में एक अक्षर कम था और दूसरे मुनि के मंत्र में एक अक्षर अधिक था। दोनों ने अपने-अपने मंत्रों को शुद्ध करके पुन: विद्या सिद्ध की, तब देवियाँ सुन्दर रूप में प्रकट होकर बोलीं-भगवन्! हमें क्या आज्ञा है?
मुनियों ने कहा-हमने केवल गुरू की आज्ञा से विद्या सिद्ध की है अत: हमें कुछ कार्य आपसे नहीं है। वे देवियाँ नमस्कार करके अपने-अपने स्थान चली गयीं। दोनों मुनियों ने आकर गुरुदेव से सारी बातें बता दीं। गुरू ने उन्हें अतियोग्य समझकर सुप्रशस्त मुहूर्त में उन्हें श्रुत का अध्ययन कराना शुरू कर दिया। उन मुनियों ने भी निष्प्रमादी होकर ज्ञानविनय और गुरूविनय को करते हुए थोड़े ही दिनों में गुरू के श्रुत को पढ़ लिया, वह दिन आषाढ़ सुदी एकादशी का था। उसी दिन देवों ने आकर इन दोनों मुनियों की पूजा की और एक मुनि की दांतों की विषम पंक्तियों को ठीक करके कुंदपुष्प के समान कर दिया और उनका ‘पुष्पदंत’ ऐसा नाम रख दिया तथा दूसरे मुनि की भूतजाति के देवों ने गंध, माला, धूप आदि से और वाद्य विशेषों से पूजा करके उनका ‘भूतबलि’ यह नाम प्रसिद्ध कर दिया।
श्रीधरसेनाचार्य ने अपनी मृत्यु निकट जानकर और इन्हें संक्लेश न हो, इस हेतु से प्रियहित वचनों से उन्हें शिक्षा देकर दूसरे ही दिन अर्थात् आषाढ़ सुदी द्वादशी को वहाँ से कुरीश्वर देश की तरफ विहार करा दिया। उन मुनिराज ने नव दिन में वहाँ पत्तन में आकर के आषाढ़ कृष्णा१ पंचमी के (श्रावण कृष्णा पंचमी) वर्षायोग ग्रहण कर लिया। वर्षाकाल बिताकर वे दोनों दक्षिण की तरफ विहार कर गये२। पुष्पदंत मुनिराज ने करहाटक देश में ‘जिनपालित’ नामक अपने भानजे को घर से निकालकर दीक्षा देकर उन्हें साथ ले लिया।भूतबलि मुनिराज तो मथुरा में रहे और पुष्पदंत मुनिराज ने भी छह खंडों में कर्म प्रकृति प्राभृत गं्रथ को बनाने की इच्छा रखते हुए जिनपालित नामक मुनि को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। बीस प्ररूपणा सूत्र ग्रन्थ को बनाते हुए उन्होंने सबसे प्रथम सत्प्ररूपणा से युक्त ‘जीवस्थान’ नामक अधिकार को बनाया। उन संबंधी सौ सूत्रों का अध्ययन कराकर जिनपालित मुनि को भूतबलि गुरू के पास उनके अभिप्राय को समझने हेतु भेज दिया। भूतबलि महामुनि ने भी जिनपालित द्वारा पठित सत्प्ररूपणा को सुनकर अतीव हर्ष व्यक्त किया और साथ ही साथ पुष्पदंत मुनिराज का षट्खंडागम ग्रन्थ रचना का अभिप्राय भी समझ लिया तथा पुष्पदंत मुनिराज की भी अल्प आयु जानकर और आगे के मनुष्यों को अल्प बुद्धि वाले समझकर उन्होंने पूर्वसूत्रों सहित द्रव्य प्ररूपणा आदि अधिकारों को पाँच खंडों में एवं महाबंध नामक अधिकार को छठे खंड में रचकर तैयार किया।
इस प्रकार भूतबलि आचार्य ने षट्खंंडागम की रचना करके और उसे लिपिबद्ध करके ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित उस ग्रंथराज की महापूजा विधि की। उसी समय से आज तक यह तिथि श्रुतपंचमी के नाम से प्रख्यात हो गई। आज भी जैन लोग श्रुतपंचमी के दिन षट्खंडागम ग्रंथराज की और समस्त उपलब्ध श्रुत की पूजा करके अपने जीवन को कृतार्थ कर लेते हैं।तात्पर्य यह है कि इन पुष्पदंत और भूतबलि नामक महामुनियों ने गुरू श्रीधरसेनाचार्य की आज्ञानुसार श्रावण कृष्णा पंचमी को चातुर्मास स्थापित किया था।