-शंभु छन्द-
सिद्धार्थतनुज श्री वीरप्रभू, सम्पूर्ण सिद्धि के दाता हैं।
उनको शत शत वंदन मेरा, भक्तों के भाग्य विधाता हैं।।
सब भाषामय उनकी वाणी, भविजन मनकमल खिलाती है।
गणधरगुरुओं के वंदन से, भवदधि नौका मिल जाती है।।१।।
इस दुषमकाल में कुन्दकुन्द-आचार्य आदि गुणमणि भास्कर।
इन सबको वंदन बार-बार, ये रत्नत्रय निधि के आकर।।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि, चारित्रचक्रवर्ती गुरुवर।
श्री शांतिसागराचार्य प्रवर, इनको वंदूँ नित अंजलिकर।।२।।
औरंगाबाद नगर उत्तम, महाराष्ट्र प्रान्त में माना है।
है ‘ईर’ ग्राम वहाँ पर सुंदर, जिनमंदिर से अभिरामा है।।
जिनभक्त रामसुख सेठ वहाँ, खण्डेलवाल जातीभूषण।
पतिव्रता आदि गुण से भूषित, भागूबाई पत्नी उत्तम।।३।।
इनके सुत हीरालाल हुए, जो गंगवाल गोत्रीय प्रथित।
विक्रत संवत् उन्नीस शतक, तेतिस आषाढ़ पूर्णिमा तिथि।।
जिनधर्म संस्कारों से यह, संस्कारित बालक युवा हुए।
ऐलक श्र ीपन्नालाल निकट, ब्रह्मचर्यव्रतादिक ग्रहण किए।।४।।
विक्रम संवत् उन्नीस शतक, अस्सी फाल्गुन सुदि सप्तमि में।
श्रीशांतिसिंधु गुरुवर्य निकट, क्षुल्लक दीक्षा ले शिष्य बने।।
शुभ नाम वीरसागर पाकर, हो गए वीरता के सागर।
षट्मास अनन्तर आश्विन सुदि, एकादशि को हुए मुनीप्रवर।।५।।
चारित्र शिरोमणि धीर-वीर, गंभीर गुणों के रत्नाकर।
परिषह उपसर्गजयी गुरुवर, दीक्षा शिक्षा दाता सुखकर।।
चउविध संघ का संग्रह-अनुग्रह-निग्रह करने में भी सक्षम।
ऐसे गुरुवर को नमूँ सतत, ये जग में मंगलप्रद उत्तम।।६।।
श्रीवीरसंवत् चौबीस सौ इक्यासी कुंथलगिरि तीरथ से।
आचार्य शांतिसागर जी ने, भेजा आचार्य स्वपद रुचि से।।
द्वितीय भाद्रपद वदि सप्तमि, जयपुर खान्या में चउसंघ ने।
विधिवत् आचार्यपट्ट देकर, सर्वोच्च सूरि माना सबने।।७।।
मुझको महाव्रत दीक्षा देकर, आर्यिका ज्ञानमति नाम दिया।
गुरु आशिष से मैंने भी कुछ, लिखकर निज सार्थक नाम किया।।
वीराब्द चौबिस सौ त्र्यासी में, आश्विन आमावस्या तिथि में।
शुभ श्रेष्ठ समाधिमरण करके, खान्या को तीर्थ किया गुरु ने।।८।।
-दोहा-
श्री गुरुवर को भक्ति से, वंदूँ बारम्बार।
रत्नत्रय निधि पूर्ण हो, मिले स्वात्मसुखसार।।९।।