-स्थापना-
बीसवीं सदी के प्रथमसूरि श्री शांतिसिंधु कहलाए हैं।
उनके ही पट्टाचार्य प्रथम श्री वीरसिन्धु कहलाए हैं।।
शिवसागर मुनिवर जी द्वितीय पट्टाधिपती आचार्य हुए।
श्री धर्मसिन्धु मुनि परम्परा के तृतीय पट्टाचार्य हुए।।१।।
श्री अजितसिन्धु श्रेयांससिन्धु चौथे-पंचम आचार्य हुए।
इन परम्पराचार्यों की पूजन करने के शुभ भाव हुए।।
पुन: छठे षष्ठम आचार्य पूज्य अभिनन्दनसागर गुरुवर थे।
सप्तम श्री अनेकान्तसागर तक पूजन कर लूँ विधिवत् मैं।।२।।
-दोहा-
गुरु भक्ति संसार में, सब सुख देन समर्थ।
गुरुपद की भी प्राप्ति हो, सिद्ध सभी हों अर्थ।।३।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकान्त-सागराचार्यपरमेष्ठिन:! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकान्त-सागराचार्यपरमेष्ठिन:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकान्त-सागराचार्यपरमेष्ठिन:! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक (शंभु छंद)
गंगा का निर्मल जल लेकर गुरुओं के पद त्रयधार करूँ।
सच्चे गुरुओं के गुण में रमकर जन्म मरण का नाश करूँ।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।१।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर को घिसकर गुरु के पद में चर्चन कर लूँ।
गुरु के वैरागी गुण में रमकर भव आताप शमन कर लूँ।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।२।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शाली तंदुल के तीन पुंज गुरुपद में अर्पण करना है।
उनके वैरागी प्रवचन सुनकर अक्षय पद को वरना है।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।३।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
विषयों की आशा छोड़ मुनीजन रत्नत्रय में रमते हैं।
हम उनके पद में पुष्प चढ़ा विषयाशा को तज सकते हैं।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।४।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सरस व नीरस भोजन में नहिं राग द्वेष दरशाते हैं।
उन गुरुओं की पूजन में हम नैवेद्य चढ़ा हरषाते हैं।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।५।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सांसारिक जन का मोह त्याग कर जिनने मुनिपद अपनाया।
मुनियों की आरति कर हमने मोह नाश करना चाहा।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।६।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज कर्म जलाने हेतु मुनीजन घोर तपस्या करते हैं।
हम धूप जलाकर उन मुनियों के पद की पूजन करते हैं।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।७।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवफल की आशा से मुनिवर दुर्लभ दीक्षा धारण करते।
उनके पद में फल अर्पण कर हम अपना जन्म सफल कर लें।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।८।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू दीपक व धूप फल ले करके।
‘‘चन्दनामती’’ सुख मिलता है गुरुपद में अर्घ्य चढ़ा करके।।
श्री शांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस सिंधु का अर्चन है।
अभिनन्दन अनेकांतसागर तक सभी सूरि को वंदन है।।९।।
ॐ ह्रीं चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागर-श्रीवीरसागर-श्रीशिवसागर-श्रीधर्मसागर-श्रीअजितसागर-श्रीश्रेयांससागर-श्रीअभिनंदनसागर-अनेकांतसागर-पर्यन्तपरम्पराचार्यपरमेष्ठिभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
गुरु गुण की महिमा अगम, कहने की नहिं शक्ति।
शांतीधारा कर चरण, मांगूं बस गुरुभक्ति।।१०।।
शान्तये शांतिधारा।
सुरभित पुुष्प अनेक ले, अर्पूं गुरुपदपद्म।
पुष्पांजलि करके मिले, निज आतम गुण सद्म।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीशान्ति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस- अभिनंदन-अनेकान्तसूरिभ्यो नम:।
-शेर छंद-
जैवन्त हैं आचार्य शान्तिसिंधु जगत में।
जैवन्त हैं आचार्य वीरसिंधु जगत में।।
जैवन्त हैं शिवसिन्धु सूरि साधुजगत में।
जैवन्त धर्म सिन्धु हैं आचार्य जगत में।।१।।
जैवन्त अजित सिन्धु जी आचार्यप्रवर थे।
जैवन्त श्रीश्रेयांससिंधु सूरिप्रवर थे।।
जैवन्त होवें छठे पट्टाचार्य जगत में।
अभिनन्दनसागरसूरि कहते थे सब उन्हें।।२।।
इन सबकी कहानी हमें कुछ बोध देती है।
गुरुओं की निशानी ही सुख का स्रोत देती है।।
वे दीप के समान जलके देते उजाला।
वे पेड़ के समान सबको देते हैं छाया।।३।।
सदि बीसवीं के जो प्रथम आचार्य हुए हैं।
श्रीशान्तिसिंधु नाम से विख्यात हुए हैं।।
मुनिमार्ग का विकास उन्हीं गुरु से हुआ है।
पैंतिस बरस मुनिदीक्षा में व्यतीत किया है।।४।।
उन्नीस सौ पचपन में निजपद शिष्य को दिया।
मुनिवीर सिन्धु जी को पट्टाचार्य कह दिया।।
दो वर्ष तक आचार्य वीरसिंधु रहे थे।
उन्निस सौ सत्तावन में स्वर्ग चले गये थे।।५।।
मुनिराज श्री शिवसागर आचार्य बन गये।
चउसंघ के नायक वे सूत्रधार बन गये।।
उन्नीस सौ उन्हत्तर में स्वर्ग सिधारे।
तब धर्मसिन्धु जी बने आचार्य हमारे।।६।।
उन्नीस सौ सतासी तक संघ चलाया।
जिनधर्म ध्वज को दिग्दिगन्तव्यापी बनाया।।
उनकी हुई समाधि अजितसिन्धु बन गये।
बनकर चतुर्थ पट्टाचार्य गुण में रम गये।।७।।
उन्नीस सौ नब्बे में वे जग से चले गये।
श्रेयांससिंधु पंचम आचार्य बन गये।।
उन्नीस सौ बानवे में हुई उनकी समाधी।
श्रेयांससागर सूरि मुक्तिपंथ के रागी।।८।।
इन गुरु के बाद छट्ठे आचार्य बन गये।
आचार्य अभिनंदनसागर श्रमण हुए।।
चउसंघ के नायक थे वे वात्सल्य के धनी।
जिनधर्म की प्रभावना करते थे वे घनी।।९।।
उनने दिया निज पट्ट अनेकान्तसिन्धु को।
सप्तम बना आचार्य चले छोड़ के सबको।।
फिर इनने चलाया है चतुर्विध संघ को।
इनके चरण में बार बार सब नमन करो।।१०।।
यह शांतिसिंधु सूरि की परम्परा कही।
जयमाला अर्घ्य लेके पूजूँ पाऊँ शिवमही।।
गुरुपूजा करके ‘‘चन्दनामति’’ पूज्य पद मिले।
पूर्णार्घ्य चढ़ाऊँ मेरा आतम कमल खिले।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीशांति-वीर-शिव-धर्म-अजित-श्रेयांस-अभिनंदन-अनेकान्त-सूरिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
शांतिसिंधु आचार्य से, अनेकान्त आचार्य।
आचार्यों की मूल यह, परम्परा विख्यात।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।