अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी होते है। उनमें जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों का स्वयं आचरण करते है और अन्यों को कराते हैं तथा छत्तीस गुणों से सहित होते है वें आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।
छत्तीस गुणों के नाम इस प्रकार है- बारह तप, दशधर्म, पाँच आचार, छह आवश्यक क्रियायें, मनोगुप्ति, वचन गुप्ति तथा कायगुप्ति ऐसे ये छत्तीस गुण आचार्य परमेष्ठी के होते है। ये आचार्य शिष्यों को शिक्षा, दीक्षा और प्रायश्चित्त आदि देते है और संघ के नायक कहलाते है।
आचार्यो के भेद में – गृहस्थाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य, एलाचार्य इतने प्रकार के आचार्यों का कथन आगम में पाया जाता है।