‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ के रचयिता आचार्य उमास्वामी मूलसंघ के चमकते हुए रत्न थे। भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य के पश्चात् वही एक ऐसे आचार्य हैं जो प्राचीन और सर्वमान्य हैं। भगवद् कुन्दकुन्द के समान उमास्वामी भी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों को मान्य हैं। दिगम्बर जैन उनका भगवत् कुन्दकुन्द का वंशज मनाते हैं। भगवान कुन्दकुन्द भी गृद्धपच्छाचार्य के अपर नाम से प्रख्यात थे। संभवत: उनकी ही तरह गिद्धपक्षी के पंखों की पिच्छिका भगवान उमास्वामी भी रखते थे, इसीलिए वह गृद्धपिच्छाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए प्रतीत होते हैं। शायद इस नामसाम्य के कारण ही श्रवणबेलगोल के किन्हीं शिलालेखों (इपी. कर्नाटिका, भाग २, पृ. १६) में भगवान कुन्दकुन्द और भगवान उमास्वामी को एक ही व्यक्ति लिखने की गलती हुई है। वस्तुत: वह भगवान कुन्दकुन्द से भिन्न और उनके प्रशिष्य थे। किन्तु उनके गृहस्थ जीवन के विषय में दिगम्बर शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं मिलता। श्वेताम्बरीय साहित्य में अलबत्ता लिखा है कि न्यग्रोधिका नामक स्थान में उनका जन्म हुआ, उनके पिता स्वाति और माता वात्सी थीं। उनका गोत्र गौभीषणि था। उनके दीक्षागुरु घोषनन्दि और विद्यागुरु वाचकाचार्य मूल नामक थे। उन्होंने कुसुमपुर में ‘तत्त्वार्थसूत्र’ को रचा था। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही उनके ‘वाचक’ पदवी से विभूषित प्रकट करते हैं। श्वेताम्बर जैनों का कहना है कि उन्होंने पाँच सौ ग्रंथ रचे हैं किन्तु आजकल तो उनके रचे हुए एक—दो ग्रंथ मिलते हैं। जो हो, इसमें शक नहीं कि वह एक महान् मेधावी और प्रख्यात आचार्य थे। उपरांतकाल के बड़े—बड़े आचार्यों ने उनका स्मरण आदरपूर्वक किया है और उन्हें ‘श्रुतकेवलिदेशीय एवं ‘गुणगम्भीर’ लिखा है। टीकाकार श्रुतसागरजी ने उनका श्रुतिमधुर नाम उमास्वामी रख दिया। तब से दिगम्बरों में वह इसी प्रिय नाम से प्रचलित हो गए। वैसे प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथों में उनका नाम स्वामी मिलता है। उनकी सैद्धान्तिक विवेचना शैली जिसका साम्य ‘योग्यसूत्र’ आदि से है एवं उनकी सर्वमान्यता से स्पष्ट है कि वह ईस्वी पहली शताब्दी के विद्वान थे। उनकी सर्वतोमुखी विद्वत्ता और ज्ञानगम्भीरता का प्रतीक प्रस्तुत रचना है।
जस्टिस जैनी ने ‘तत्त्वार्थसूत्र’ को ‘जैन बाइबिल’ ठीक ही कहा था, क्योंकि वह सभी सम्प्रदायों के जैनों को मान्य है तथा उसमें सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान के अनन्तज्ञान का सार भरा हुआ है। जिनवाणी मुख्यत: चार अनुयोगों अर्थात्
(१) प्रथमानुयोग—पुराण और इतिहास,
(२) चरणानुयोग—चारित्र और नीति,
(३) करणानुयोग—लोक रचना और स्वरूप,
(४) द्रव्यानुयोग तत्त्व और सिद्धान्त में विभक्त है और ‘तत्त्वार्थसूत्र’ में इन चारों ही अनुयोगों का समावेश हुआ मिलता है; इसलिए उसको ‘जैन बाइबिल’ कहना सार्थक है।
‘तत्त्वार्थसेत्र’ की एक विशेषता यह है कि उसमें वस्तुस्वरूप का निरूपण वैज्ञानिक शैली पर किया गया है। उसका आधार सर्वज्ञ का अनन्तज्ञान है और उसका प्रकाश आचार्यश्री के अपूर्व क्षयोपशम का चमत्कार है। कदाचित् उसकी तुलना आधुनिक वस्तुविज्ञान, मनोविज्ञान, तर्क, गणित आदि से की जावे, तो उसकी समानता देखकर पाठक आश्चर्य करेंगे। वैसे यह तो मानी हुई बात है कि आधुनिक विज्ञानवेत्ता अपने निर्णय को उस विषय का अन्तिम निर्णय नहीं मानते और ऐसा मानना ठीक भी है, क्योंकि सत्य का सर्वांगीण अनुभव एक सर्वज्ञ–सर्वदर्शी आप्त के लिए ही सम्भव है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता उस निखिल सत्य के एक अंश को खोजते और उसके लक्ष्य को पाने का प्रयास करते हैं। अत: उनके निर्णय प्राय: सत्य के अनुरूप होते हैं। इस रूप में उनका सामंजस्य जिनसिद्धान्त की खोज के लिए ठीक दिशा का भान कराने में सहायक सिद्ध हो सकता है। अत: यहाँ पर हम संक्षेप में ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के विषयों पर तुलनात्मक रूप में दृष्टिपात कर लेना उचित समझते हैं। इससे विज्ञ—पाठक इस तथ्य को समझ्ज्ञ सकेगे कि आधुनिक युग के अनुरूप एक वैज्ञानिक तुलनात्मक शैली पर रचा गया भाष्य कितना आवश्यक है ?
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। सुख बन्धन में नहीं, आत्मस्वांतत्रय में है, क्योंकि वह जीव का जिनस्वभाव है। अत: मानव को सबसे पहले सच्ची श्रद्धा होना चाहिए; तभी वह सच्चे ज्ञान को पा सकेगा। केवल ज्ञान को ही मुक्ति का साधन मानना अथवा मात्र बाह्य क्रियाओं में फसे रहकर ही मुक्ति होने की लानसा करना लाभप्रद नहीं है। जीव के स्वरूप और उसके संसारी बन्धन में मुक्त होने की दृढ़ श्रद्धा जब तक नहीं होगी, तब तक सच्चा ज्ञान नहीं हो सकेगा। ज्ञान से सन्मार्ग का बोध हो जाने पर यदि उस पर चला नहीं जावेगा तो भी मुक्ति पाना, सुखी होना एक स्वप्न ही रहेगा। क्योंकि ‘पराण्धीन सपनेहु सुख नाहीं।’ इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक्दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय को मोक्षमार्ग ठीक ही कहा है।
आधुनिक युग जनस्वातंत्रय का युग है–यह सर्वविदित है। अत: पहले अध्याय में मोक्षमार्ग की सिद्धि के लिए सात तत्त्व, रत्नत्रयधर्म, पाँच ज्ञान और नय—निक्षेपों का वर्णन करके जिज्ञासु को तत्त्वबोध पाने के योग्य ज्ञान दिया गया है। ‘सर्वज्ञ का वचन है, अत: आँख मींचकर श्रद्धा करो’ यह जैनधर्म नहीं कहता। वह पहले ही जिज्ञासु को तत्त्वों का एवं उनकी सिद्धि के लिए प्रमाण और नयों का बोध कराता है; जिससे व्यक्ति को आत्मस्वातंत्रय मिल सकता है। लोक में अनादिनिधन सात तत्त्व हैं जिनमें मुख्य जीव और अजीव हैं। इन जीव और अजीव—चेतन और जड़ तत्त्वों को हर कोई अपनी आँख से देखता है। लोक में सारा खेल इन दो के ही कारण हो रहा है। इन दो के नाना रूपों को समझने के लिए पहले प्रमाण—निक्षेप और नय का ज्ञान कराया गया है। जिज्ञासु स्वसमय (अपने आत्मस्वरूप) को जाने और पर समय (अजीवादि के स्वरूप) को भी जाने और फिर उभय समयवर्ती होकर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तब वह ठीक से वस्तुस्वरूप को समझ सकता है। उसे एकांत का पक्ष या हठ नहीं होना चाहिए। जैनधर्म अनेकांतात्मक धर्म है। इसीलिये उसका न्याय अद्भुत और पारस्परिक विरोध को मिटाने वाला है। अमेरिका के प्रो. ब्रह्म ने कहा कि विश्वशांति के लिए अनेकांत का प्रचार करना आवश्यक है। डॉ. सतीशचन्द्र जी विद्याभूषण का कहना है कि ‘न्याय और अध्यात्म विद्या में जैनों ने बड़े ही ऊँचे विकास और क्रम को धारण किया था। सन् ईस्वी की पहली शताब्दी में प्रसिद्ध होने वाले श्री उमास्वामी के जोड़ के अध्यात्मविद्या—विशारद या छठी शताब्दी के सिद्धसेन दिवाकर और ८वीं शताब्दी के अकलंकदेव के बराबर के नैयायिक इस भारत भूमि पर अधिक नहीं हुए हैं। न्यायदर्शन, जिसे ब्राह्मण ऋषि गौतम ने चलाया है, अध्यात्मविद्या के रूप में असम्भव हो जाता, यदि जैनी और बौद्ध न्याय का यथार्थ और सत्याकृति से अध्ययन न करते।’’ किन्तु खेद है कि आज जैन स्वयं कूपमंडूकता में फस गए हैं—जैन मन्दिरों में शास्त्रसभा की पुरातन शैली का अन्त सा हो जाने के कारण समाज में तत्त्वबोध और सम्यग्प्रवृत्ति का घोर ह्रास हो रहा है। जैनों को सबसे पहले पहले अध्याय का ठीक से अध्ययन करना आवश्यक है।
जीव पुद्गल से भिन्न एक अर्पािथव (Immaterial) द्रव्य हैं, इसलिए वह इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता। फिर भी जीव कर्मबन्धन में पड़े हुए संसार में रुल रहे हैं, उनको हम पहिचान सकते हैं। जो जीता है और जानदार है, वह जीव है, व्यवहार दृष्टि से इसीलिए पूजय श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने जीव का लक्षण इस प्रकार लिखा है—
‘‘पाणेिंह चदुिंह जीवदि जीवस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं। सो जीवो पाणा पुण, बलिंमदियमाउ उस्सासो।।’’
अर्थात्—जीव वह है जो चार प्राणों द्वारा जी रहा है, जीता था और जीता रहेगा। वे चार प्राण बल, इंद्रिय, आयु और श्वासोश्वास हैं किन्तु जब जीव का लोक—व्यवहार और संसार समाप्त होता है तो वह अपने शुद्ध रूप में चमकता है। अत: शुद्ध रूप में निश्चयनय (Realisitic Viewpoint) की अपेक्षा जीव का लक्षण उपयोग—चेतना है, जो दर्शन और ज्ञान रूप है। इसलिए जो देखता और जानता है वह जीव है। श्री उमास्वामी ने भी उपयोग को ही जीव का लक्षण बताया है, किन्तु उन्होंने पहले सूत्र में जीव के औपशमिक, क्षायोपशमिकादि भावों का उल्लेख इसीलिए किया है कि जीवतत्त्व स्वसंवेदन अनुभूति द्वारा ही पहिचाना जाता है। अधुना यह कहा जाता है कि ‘वी फील अवरसेल्वस देयर फोर वी आर।’ अर्थात् हम अपने आपका अनुभव करते हैं इसलिए हम है। हैकेल (Haeckel) कहता है कि यह आत्मभाव उस समय स्पष्ट होता है जब बालक पहले पहले ‘मैं’ (घ्) शब्द को बोलता है। जीव के चैतन्यभाव का ऊहापोहात्मक विवेचन करके श्री मैक्डूगल अन्त में निर्णय देते हैं कि चूँकि भाव बुद्धि की उपज नहीं हो सकती, वह अपौद्गलिक द्रव्य (Immaterial Substance) के परिणाम है क्योंकि उनका केन्द्रीय समीकरण वैयक्तिक चेतना में होता है। अत: इस चेतना को हम व्यक्ति की आत्मा या जीव के नाम से पुकार सकते हैं। (“And this being thus necessarily postualted as the ground of the unity of individual consciousness, we may cell the soul of the individual”—Physilogical pshchology, pp. 76-78) हमारे नित के अनुभव जीवतत्त्व को सिद्ध करते हैं। भारत का किसान उसे ‘हंस’ कह कर पहिचानता है।
भगवान उमास्वामी ने औपशमिक आदि एवं पारिणामिक भावों का उल्लेख जो किया है वह जीव की शुद्ध और अशुद्ध अवस्थाओं को लक्ष्य करके किया ह। अनादिकाल से जीव इच्छा—वांछा में उलझा हुआ कर्ममल से मैला हो रहा है। इसलिए उसका चैतन्य स्वभाव विभाव में पलटा हुआ है। घोर जड़ता की पहली अवस्था में वह स्थूलदृष्टा होता है और शरीर को ही आपा मानता है। गुरु के उपदेश अथवा स्वसंवेदन ज्ञान से अब वह अपनी भूल को पहिचान कर सच्ची श्रद्धा को पाता है और मानता है कि मैं शरीर से भिन्न चेतनद्रव्य हूँ, तब वह प्रत्येक प्राणी में अपनी जैसी चेतन आत्मा के दर्शन करता है और समता को जगता है। वह पूर्ण निरपेक्ष और अहिंसक बनने का प्रयास करता है। वह विभाव को स्वभाव में पलट कर परतात्मदशा की ओर अग्रसर होता है और अन्त में परमात्मा हो जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान भी विभाव और स्वभाव को पहिचानने लगा है। प्रियूड के मतानुसार तीन प्रकार के भावों से युक्त व्यक्ति मिलता है, जिनका विकास क्रमश: होता है। उन तीन भावों को ‘इड’ (id) ईगो (ego) और ‘सुपर ईगो (supperego) कहते हैं। ‘इड’ से ‘ईगो’ और ईगो से ‘सुपर ईगो’ विकसित होता है। ‘इड’ भाव की अवस्था में व्यक्ति स्वार्थ में लीन हुआ सुख की तलाश में दिग्भ्रम हुआ घूमता है। उसका भाव निम्न कोटि का होता है। किन्तु इसके उपरान्त जब व्यक्ति अन्तरंग के भाव को विकसित करता है और वस्तुस्वरूप को पहचानता है तब उसका जीवन व्यवहार वस्तुस्वभाव के तत्त्व द्वारा शासित होता है—(Reality Principle) सत्य उनका मार्गदर्शक बनता है; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि इड भाव का अंश ईगो—भाव में आ गया, बल्कि होता यह है कि अज्ञानता का पटल चेतनभाव से उठता जाता है। जब वह अज्ञानता मिट जाती है तब चेतनभाव पूर्ण रूप से चमकते लगता है। वह superego की दशा है। जैन मनोविज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन इस विषय पर नया प्रकाश डालेगा।
संसारी जीव लोक में किन—किन स्थानों में किन—किन दशाओं में मिलते हैं, यह बताना भी आवश्यक ठहरता है। इस प्रसंग में जैनाचार्यों ने घोर पापकर्मों का परिणाम भुगतने के लिए नरकजीवन और अच्छे पुण्यकर्मों का फल भोगने के लिए स्वर्गीय जीवन की व्याख्या की है। यह मान्यता अन्य धर्मों में भी मिलती है, किन्तु जैन शास्त्रों में इनका एक सुव्यवस्थित वर्णन उपलब्ध है। आधुनिक विज्ञान ने शायद इन प्रदेशों और इनके जीवन पर कोई खोज नहीं की है किन्तु जैनों ने स्वर्गलोक में देवों का आवास माना है और उन देवों को चार प्रकार का (१) भवनवासी, (२) व्यंतर, (३) ज्योतिषी और (४) कल्पवासी बताया है। इन चारों में ज्योतिषी देव—चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रादि के विमानों को हम प्रत्यक्ष देखते हैं, जिनसे उनका अस्तित्व प्रमाणित होता है। इसी तरह शेष देवों और नारकियों का अस्तित्व भी हमें मानना उचित है। सर ओलीवर लाँज और सर कोनन डोयल ने प्रेतविद्या की खोज कर देव पर्याय एवं परलोक का अस्तित्व सिद्ध किया था। अत: इन देवों के आवास—स्थानों का वर्णन उनकी विशेष रचना को बताता है, जो कर्मफल भोगने के लिए आवश्यक है। एक तारे (star) की आयु (age) उत्कृष्ट रूप में एक पल्य की बताई गई है, जो चार दशाओं को धारण करता है अर्थात् एक तारे का बालापन, प्रौढ़ता, वृद्धावस्था और मरण होता है। यह जैन विभक्तिकरण आधुनिक विज्ञान के अनुकूल है, जो एक तारे का प्रारम्भ ठण्डी आकाशीय धूल के रूप में (In the form of cold consiec dust) होना बताता है। उपरान्त उसकी गर्मी बहुत बढ़ (High Temperature) जाती है और चमकदार हो जाती है। अन्त में वह काली पढ़कर मिट जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि तुलनात्मक खोज की जावे तो जैन मान्यता के अनुरूप लोक सत्य को पा सकता है।
जैन मान्यता के अनुसार लोक—रचना एक अनन्त प्रवाह है। अनादि काल से लोक है और अनादिकाल तक रहेगा, अलबत्ता उसके भीतर कालक्रमानुसार परिवर्तन होते रहते हैं, क्योंकि द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुणमय है। अत: इस लोक में न कुछ नया सिरजा जाता है। और न किसी द्रव्य का सर्वथा अभाव होता है—मात्र परिवर्तनशीलता अपने चित्र—विचित्र प्रदर्शन लोकपटल पर दिखती रहती है। जैनों का यह सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान के सर्वथा अनुकूल है। आईनस्टीन ने आकाश (Space) और काल (Time) को सापेक्ष माना है और आकाश को (Curved) (वत्र्ताकार) बताया है, किन्तु काल को अवर्ताकार नदबनतअमकद्ध और अनन्त सिद्ध किया है। इसका परिणाम यह निकला है कि इस लोक का न कोई आदि है और न कोई अन्त ! न कोई सर्वथा नष्ट होता है। लोक को तीन तरफा वाल्यूम का बताकर उसे असीम बताना, जैन मान्यता के लोकाकाश व अलोकाकाश का बोध कराता है। विशेष के लिए प्रो. घासीराम जैन कृत ‘कोस्मोलॉजी ओल्ड एन्ड न्यू देखना चाहिए।
जैनों ने लोक का आकार मानव के आकार का माना है जो कमर पर हाथ रखकर पैर फैलाकर खड़ा हो। कमर के नीचे के भाग में नर्कलोक और ऊपर की ओर ज्योतिर्लोक एवं स्वर्ग लोग है तथा मध्य में मत्र्य अथवा मानव संसार है। आधुनिक ज्ञातलोक जैनों के भरतक्षेत्र का एक अंश मात्र है जिसका मध्यभाग ऊपर को उठा हुआ अद्र्ध गोलाकार सा है—वैसे वह थाली की तरह गोल है। जैन पृथ्वी को स्थिर मानते हैं और सूर्य—चन्द्रादि को सुमेरु पर्वत के चहुँ ओर घूमते बतलाते हैं। जैनों की इस मान्यता को डॉ. जिम्मर डॉ. कोहल आदि ने अति प्राचीन आदि मानवीय श्रद्धान पर आधारित बतलाया है एवं आइनस्टीन के सापेक्षवाद की अपेक्षा पृथ्वी को स्थिर और सूर्य—चंद्रादि को भ्रमण करते हुए मानना भी ठीक ठहरता है। एक पाश्चात्य भौगोलिक ने अनेक प्रमाणों द्वारा पृथ्वी को स्थिर और चपटी सिद्ध किया भी है। इसीलिए डॉ. शूिंव्रग लोक रचना के जैन सिद्धान्त की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि उसमें लोक रचना की सुसंस्कृत मान्यता के साथ ही उच्चकोटि का ज्योतिष और गणित भी है।
जैन सिद्धांत में जीव—विज्ञान का भी अनूठा निरूपण किया गया है। जीव संसारी और मुक्त, दो प्रकार के होते हैं। संसारी जीवों के अनेक भेद वैज्ञानिक दृष्टि से किए गए हैं। एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले संसारी जीव स्थावर कहलाते हैं और वे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति काय के होते हैं अर्थात् जैनों ने सभी वृक्षों और पूâलों आदि वनस्पति तथा धातुओं (Minerals) को जीवित माना है और उनका सूक्ष्म विवेचन किया है। वनस्पति में भी साधारण और प्रत्येक आदि जीवों का वर्णन बहुत ही सूक्ष्म है। इसीलिए डॉ. कोहल ने लिखा है कि जैन सिद्धान्त में वनस्पति का विवेचन केवल वैज्ञानिक दृष्ट्या उल्लेखनीय हो—यही नहीं बल्कि वह व्यावहारिक भी है और अति प्राचीन भी है। डॉ. बोस ने वनस्पति में प्राणों और सुख—दु:ख अनुभव करने की क्षमता की सिद्धि की थी। वनस्पति में जीव है, इसीलिए जैनी हरे वृक्ष को काटना या टहनी तोड़ना पाप मानते हैं। वे हरितकाय का त्याग करते हैं और बहुधा सूखा व पका हुआ नाज तथा फल आदि लेते हैं। जिन वनस्पतियों में सूक्ष्म जीवों का समुदाय अधिक है, जैसे आलू व जमीकन्द में तो उनको अभक्ष्य मानते हैं। इस प्रकार वनस्पति की रक्षा करना भी जैनी अपना धर्म मानते हैं। पंचेन्द्रिय पशु की अपेक्षा एकेन्द्रिय स्थावर की शरीर—रचना में बहुत बड़ा अन्तर है। पंचेन्द्रिय के जहाँ दस प्राण हैं वहाँ एकेन्द्रिय के मात्र चार ही प्राण होते हैं; अत: दोनों को एक कोटि में नहीं रख सकते हैं। इसी प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में भी सूक्ष्म जीव हैं, जो अणुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखे जा सकते हैं। पृथ्वी के विषय में यह सिद्ध किया गया है कि एक वर्ग इंच जीवित भूमि में लगभग ५० लाख कीटाणु(Micro-organic denizens) होते हैं। (The Sower-winter, 1052-53) पानी की एक छोटी सी बूँद में ३६४४० सूक्ष्म कीटाणु देखे गए हैं। (सिद्धपदार्थ विज्ञान, पृ. ६५) जैनों को यी ज्ञान अति प्राचीन काल से है, इसीलिए वे जीवरक्षा का पूरा ध्यान रखते हैं। दिन में ही भोजन करते हैं और अभक्ष्य पदार्थ नहीं लेते हैं। पानी भी छानकर पीते हैं।
जीव की विवेचना करके आचार्य उमास्वामी ने पाँचवें अध्याय में अजीव तत्त्व की विवेचना की है। अजीव तत्त्व (१) पुद्गल, (२) धर्म, (३) अधर्म, (४) आकाश, (५) काल रूप है। जीव और पाँच अजीव इस प्रकार कुल ६ द्रव्य हैं, जिनसे लोक की रचना हुई है। Matter (भौतिक पदार्थ) के लिए जैनों ने ‘पुद्गल’ शब्द का प्रयोग करके वैज्ञानिक दृष्टि की स्थापना कर दी है। जिसमें पूरण और गलन की शक्ति है वह पुद्गल है (पूरयन्ति गलयन्ति इति पुद्गला:) अर्थात् इस नाम में ही उसका लक्षण भी भर दिया है, जो एक सर्वज्ञ के लिए ही संभव है जिसने पुद्गल की अन्तरंग रचना को प्रत्यक्ष देखा था। आधुनिक विज्ञान में ‘मैटर’ के अणु को मूलभूत कणों का समुदाय माना है, जो जैनदृष्टि से ‘स्कंध’ होगा। जैनों का ‘अणु’ पुद्गल का अविभागी अंश है। पुद्गल के पूरण—गलन लक्षण को विज्ञान ने सिद्ध कर दिखाया है। सन् १९४१ में दो कीमियांगरों ने इस पूरण—गलन प्रक्रिया द्वारा पारा का सोने में परिवर्तन कर दिखाया था। विस्फोट और मिश्रण क्रिया द्वारा पारे के २०० अंश (degree) वाले कण को १९७ अंश के अणु में बदल दिया, जो भार सोने का होता है। इस प्रकार जैन तीर्थंकरों और आचार्यों की व्याख्या प्रमाणभूत सिद्ध हुई थी। विशेष के लिए प्रो. घासीराम जैन की `Cosmology Old and New’ देखना चाहिये।
जैनों की पुद्गलाणु की उक्त मान्यता अति प्राचीन है। ग्रीक अणुवाद के बहुत पहले ही भारत में ऋषि कणाद ने अणु की विवेचना की थी; किन्तु डॉ. जैकोबी ने यह प्रमाणित किया है कि चूँकि जैनों ने पुद्गल सम्बन्धी आदि मानवीय विश्वासों (Most primitive notions about matter) पर अपने पुद्गलवाद को आधारित किया है, इसलिए वह सर्व प्राचीन पहला मत है।
‘‘तत्त्वार्थसूत्र’ (५/३३) में कहा है कि स्निग्ध और रूक्षत्व के कारण पुद्गलाणुओं का बन्ध होता है और श्री पूज्यपादाचार्य ने उसकी टीका में बताया कि स्निग्ध व रूक्षत्व के निमित्त से बादलों में बिजली उत्पन्न होती है। स्पष्ट है कि जैनाचार्य विद्युत के धनात्मक और ऋणात्मक रूपों से परिचित थे। अधुना विज्ञान में धनात्मक व ऋणात्मक कणों के संघात से उसका अणु बनता है और रमणसिद्धांत के अनुसार दो अंश (degree) का अन्तर होना भी बंध के लिए अनिवार्य है। श्री उमास्वामी ने इस बात का हजारों वर्षों पहले सूत्र सं. ३६ में निर्देश किया था। इसी प्रकार पुद्गल सम्बन्धी अन्य मान्यतायें भी आधुनिक विज्ञान में खोजी गई हैं।
पुद्गल के अतिरिक्त धर्म, अधर्म, आकाश और काल जो अजीव द्रव्य हैं, उनका विवेचन भी आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्राय: जैनों के अनुरूप किया है। किन्तु यह याद रखिए कि धर्म और अधर्म से यहाँ पुण्य और पाप का अर्थ नहीं है बल्कि वे दो द्रव्यों (Substances) को बतलाते हैं। लोक में गतिशीलता और स्थिरता, दोनों ही देखी जाती हैं। कभी आप चलना चाहते हैं और कभी ठहरना। द्रव्यों की गतिशीलता में जो द्रव्य उदासीन रूप में सहायक हैं वह धर्म द्रव्य है; जैसे मछली को चलने में पानी सहायक है। दूसरी ओर अधर्म द्रव्य वस्तुओं को ठहरने में सहकारी है, जैसे थके हुए यात्री को वृक्ष की छाया। अत: धर्म और अधर्म द्रव्य विज्ञान के ईथर (Ether) और गुरुत्वाकर्षण (Newton’s Gravitation) से मिलते—जुलते हैं। ईथर को अब अपौद्गलिक (Immaterial) जैनों के अनुरूप माना गया है। इसी प्रकार आइनस्टीन ने आकाश (Space) और काल (Time) की सापेक्ष सत्ता सिद्ध कर दी है। आधुकिन वैज्ञानिक जैन सिद्धान्त को मद्देनजर रखकर ज्ञान की शोध में बहुत कुछ आगे बढ़ सकते हैं। सार्इंस के जैन विद्र्यािथयों को इस ओर ध्यान देना चाहिये।
छठे अध्याय में आस्रवतत्त्व का निरूपण किया है। पूर्व के प्राय: सभी दर्शनों ने ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ के कर्म सिद्धान्त को माना है और पाश्चात्य लोक में भी वह ‘कारण—कार्य सिद्धांत’ (Law of Cause and Effect) के रूप में माना गया है किन्तु जैनों ने उसे अणुवाद (Atomic Theory) पर आधारित करके उसको एक विलक्षण और वैज्ञानिक रूप दे दिया है। व्यक्ति जब अपने मन, वचन, काय की क्रियाओं को क्रोध, मान, माया, लोभ एवं अविरति और प्रमाद के वश में होकर करता है तब उसके अन्दर एक योग प्रक्रिया होती है, जिससे बाहरी लोक में भरा हुआ एक सूक्ष्म पुद्गल (Karmic Matter) उसकी ओर आकृष्ट होकर उससे बँध जाता है और वही कीमियाई ढंग से शक्ति पाकर जीव के सुख—दु:ख का कारण बनता है। अत: भाग्य का निर्माण करना व्यक्ति के अधीन है—वह सच्चा और सर्वपयोगी पुरुषार्थ करता रहे तो एक दिन पूर्ण सुखी और स्वाधीन हो जायेगा।
सातवें अध्याय में व्रतों की व्याख्या करके मानवों को आदर्श जीवन बिताने का मार्ग सुझाया है। सभी जीव अपने स्वभाव की अपेक्षा एक समान है और उनका स्वाभाविक कत्र्तव्य एक—दूसरे को सहयोग देना है। जैन केवल मानवों में ही नहीं बल्कि जीवमात्र में समानता को मानकर समता और सहयोग भाव की शिक्षा देते हैं। जब तक प्राणी—समुदाय के किसी भी एक विभाग में विषमता रहेगी और उनके प्रति हिंसक कटुता बरती जाएगी, तब तक सुख—शांति की स्थापना नहीं हो सकती। इसीलिए व्रतों में सबसे पहले अहिंसा रखी गई है। उपरांत सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं। ये ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत मिल कर गृहस्थों के १२ व्रत होते हैं। अहिंसा आदि ५ अणुव्रतों को पूर्ण रूप में पालना महाव्रत है, जिनको साधु पालते हैं। इन व्रतों को पूर्ण रूप से पालने से मानव एक आदर्श नागरिक बन जाता है, जिसके लिए भारतीय दण्डविधान की सभी धारायें निरर्थक हो जाती हैं; क्योंकि इन व्रतों के पालने से गृहस्थ सभी अपराधों के परे पहुँच जाता है। इसीलिए प्रेंच विद्वान् डॉ. लुई रेनाउ (Dr. Louis Renou, Ph. D.) ने कहा है कि ‘किसी नये मत को ढूँढने की आवश्यकता नहीं, जबकि जैनधर्म उन सभी समस्याओं का हल मिलता है, जिनसे आज का मानव समाज दुखी हो रहा है। उसके पास प्राचीन मान्यता है। उसी ने ही पहले पहल सिद्धान्तों के मुकुटमणि की तरह अहिंसा का प्रचार किया, जो उपरांत सभी धर्मों द्वारा मानी गई।’
आठवें अध्याय में कर्मों का बन्ध किस प्रकार होता है और उनमें फल देने की शक्ति कैसे आती है–यह बता करके नवें और दसवें अध्यायों में संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों का निरूपण किया गया है। संवर द्वारा कर्मों के आस्रव पर अर्गला लगाई जाती है और निर्जरा के माध्यम से संचित कर्मों का झाड़ दिया जाता है। कर्मों को झाड़ने में स्वाध्यायादि तप धर्म भावनाओं का चिन्तवन और ध्यान की साधना परम उपादेय है। जैन धर्म में हठ योग के लिए नगण्य स्थान है। ध्यान का जो विधान जैनाचार्यों ने किया है, वह केवल आत्मशोधन और आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए है। इस साधना में अनेक ऋद्धियाँ—सिद्धियाँ स्वत: प्राप्त हो जाती हैं परन्तु आत्ममुमुक्षु उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। मानसिक तारवर्की (Mental Telepathy) को अधुना मनोविज्ञान ने एक चमत्कार माना है, जिसके मनोवर्गणाओं को प्रसारित करके बातचीत की जाती है। किन्तु जैन मुनियों में यह एक साधारण बात थी। इसी तरह उनके चारण ऋद्धिधारी भी अनेक होते थे, जो सशरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़ कर पहुँच जाते थे। औषधि ऋद्धि वाले साधु के संसर्ग में जो आ जाता वह रोग मुक्त हो जाता। सारांश यह कि ध्यान की निर्मल साधना स्व और पर के लिए कल्याणकारी है। अन्तत: जब जीव सभी कर्ममल को धो डालता है, तब वह सच्चिदानन्दमय परमात्मदशा को पा लेता है और अनन्तकाल के लिए अनन्तचतुष्टय का भोग करता हुआ सिद्ध लोक में विराजमान रहता है। इस प्रकार मुक्ति आत्मा की वह शुद्ध अवस्था है, जिसमें वह अनन्त सुख और अनन्तवीर्य का आनन्द लेता है। साधारण से साधारण जीव भी सही पुरुषार्थ करके मुक्ति को पा सकता। यह ‘तत्त्वार्थसूत्र’ की शिक्षा और जैनधर्म का सन्देश है। मानव इस पर विश्वास लाए और ज्ञान पाये और शक्ति को न छिपा कर इसका पालन करे। वह स्वयं सुखी होगा और लोक को भी सुखी बनाएगा।