प्रो. श्रयांश कुमार सिंघई अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग,
रा० संस्कृत संस्थान, जयपुर (राजस्थान)
अष्टम परिच्देद
इस में चार कारिकाओं द्वारा आचार्य समन्तभद्र ने अर्थसिद्धि के लिए दैव (भाव) और पुरुषार्थ की भूमिका पर विचार किया है। उनके अनुसार न तो मात्र दैव से ही अर्थ की सिद्धि होती है और न ही केवल पुरुषार्थ से ही अर्थसिद्धि मानी जा सकती है। क्योंकि दैव भी पुरुषार्थ सापेक्ष होता है और पुरुषार्थ भी दैव सापेक्ष होता है। दैव की सिद्धि पुरुषार्थ से ही तो होती है और पुरुषार्थ भी दैव की छत्रच्छाया में किया जाता है। यदि सर्वथा ही दैव और पुरुषार्थ को कार्यसिद्धि या अर्थसिद्धि का कारण मानेंगे तो क्या होगा ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्य समन्तभद्र ने यहाँ दिया है –
इन कारिकाओं से स्पष्ट होता है कि यदि दैव यानि भाग्य से ही अर्थसिद्धि स्वीकार करेंगे तो पुरुषार्थ (पौरुष) से भाग्य की सिद्धि होती है, यह क्यों माना जाता है ? पुरुषार्थ जैसा होता है दैव या भाग्य (प्रारब्ध) भी वैसा ही होता है। दैवेकान्तपक्ष के द्रराग्रह से यदि दैव से ही दैव की सिद्धि मानेंगे तो पुरुषार्थ निष्फल हो जायेगा और अनिर्मोक्ष अर्थात् मोक्ष के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। यदि पौरुष या पुरुशार्थ यानि प्रयत्न से अर्थसिद्धि मानी जाये तो दैव अर्थात् भाग्य या प्रारब्ध के कारण से पुरुषार्थ क्यों होता है? अथवा पुरुषार्थ के होने में दैव को कारण क्यों माना जाता है? अनुकूल प्रतिकूल दैव से पुरुषार्थ की नियामकता या निमित्त-नैमिक्तिकता तो होती है। अगर पुरुषार्थ (पौरुष) से ही पुरुषार्थ की सिद्धि मानेंगे तो सभी प्राणियों में पुरुषार्थ का होना अमोघ-अपरिहार्य या अचूक हो जायेगा तथा पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार सर्वथा दैवेकान्त और सर्वथा पुरुषार्थैकान्त दोनों से भी अर्थसिद्धि नहीं मानी जा सकती है क्योंकि सर्वथा दैवेकान्त और पुरुषार्थैकान्त की एकात्मता उनमें परस्पर विरोध होने से नहीं हो सकती है तथा यह भी नहीं कहा जा सकता है। अर्थसिद्धि का कारण अवाच्य है अर्थात् कहा नहीं जा सकता है यह अवाच्सतैकान्त भी सही नहीं है क्योंकि ‘वाच्य नहीं है’ इस उक्ति से वह वाच्य हो जाता है।तदेव ९० कथञ्चित् दैव और कथञ्चित् पुरुषार्थ से इष्टनिष्ट अर्थ की सिद्धि होती है। अपेक्षा से दोनों की ही भूमिका कार्यसिद्धि में समझी जाती है यह स्पष्ट करते हुये वे लिखते हैं –
अर्थात् अबुद्धिपूर्वक कार्य होने की अपेक्षा होने पर इष्ट या अनिष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वह अपने दैव से होती है और बुद्धिपूर्वक कार्य होने की अपेक्षा होने पर इष्ट अनिष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वह स्वपुरुषार्थ से होती है। यहाँ बुद्धि पूर्वक कार्य करने में प्रयत्न या पुरुषार्थ मुख्य है और दैव व भाग्य गौण है। तथा अबुद्धि पूर्वक कार्य होने की स्थिति में दैव मुख्य है और पौरुष या पुरुषार्थ गौण है – यह समझना चाहिये।
नवम परिच्छेद
इस परिच्छेद में चार कारिकाओं से आचार्य समन्तभद्र ने पुण्य और पाप बंध की अवधारणा को स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि यदि सर्वथा ही यह मान लिया जाये कि दूसरों में दुख होने से उसमें निमित्त बनने वाले को तथा सुख होने से उसमें निमित्त बनने वाले को पुण्य का बंध होता है तो अचेतन पदार्थ एवं कषाय रहित मुनि जन दूसरों के सुखी होने में या दुखी होनो में निमित्त बनने हैं तो उन दोनों को भी पुण्य पाप का बंध होना चाहिये। इसी प्रकार यदि स्वयं को दु;खी करने से निश्चित ही पुण्य बंधता है और स्वयं को सुखी करने से नियमत: पाप बंधती है तो वीतरागी और विद्वान् मुनि को भी बंध होना चाहिये क्योंकि वीतरागी और विद्वान् मुनि स्वयं को दु:ख देने में निमित्त बनता है। अत: उसे पुण्य का बंध होना चाहिये। तथा अपने को सुखी करने में निमित्त मिलाता है और स्वयं भी सुखी होने का प्रयत्न करनता है और उसे पाप बंधना चाहिये। वास्तव में पुण्य पाप के बंध के लिये उपर्युक्त को सर्वथा कारण नहीं माना जा सकता है। कथञ्चित् ही उन्हें बंध हेतु माना जा सकता है। तथा उपर्युक्त दोनों को सर्वथा पुण्य पाप में हेतु मानने पर विरोध खड़ा हो जाता है और उनकी एकता स्वरूप उभयैकान्त बन नहीं सकता। अत: वह भी ठीक नहीं है। तथा अवाच्य है ऐसा कहकर भी बचा नहीं जा सकता है।अत: सर्वथा अवाच्यतैकान्त भी समीचीन नहीं हो सकता है। यथार्थत: प्रतिपत्ति यह है कि स्व और पर सम्बन्धी सुख-दु;ख यदि विशुद्धि और संक्लेश परिणामों के अंग या निमित्त बनते हैं तो विशुद्धि से पुण्य का आस्रव होता है और संक्लेश परिणामों से पाप का आस्रव होता है। पूर्वोक्त प्रवृत्तियों में भी विशुद्धि और संक्लेश परिणामें की भूमिका पुण्य पाप बंध में है। सुख दु:ख में निमित्त बनने की क्रिया या प्रवृत्ति मात्र नहीं। यहाँ समन्तभद्र की कारिकायें इस प्रकार हैं –
‘‘पाप ध्रुवं परे दु;खात् पुण्यञ्च सुखतो यदि । अचेनाकषायौ च बध्येयातां निमित्तत: ।।
पुण्यं ध्रुव स्वतो दु:खात् पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताम्यां युञ्जन्निमित्तत: ।।
इस परिच्छेद में १९ कारिकायें अवतरित हुई हैं। प्रारंभ में तीन कारिकाओं में अज्ञान मात्र से बंध होता है और अल्पज्ञान से मोक्ष होता है, इन दो ऐकान्तिक मान्यताओं का खण्डनकर मोह रसहित अज्ञान से बंध होता है तथा रहित अल्प ज्ञान से मोक्ष होता है, को सिद्ध करके कथञ्चित् अज्ञान से बंध और कथञिचत् अल्पज्ञान से मुक्ति होती है, को प्रतिष्ठित किया है। पुनश्च दो कारिकाओं में जीवों के संसार को सहेतुक पुरस्कृत कर दिया फिर दो कारिकाओं में प्रमाण और प्रमाणफल का उल्लेख है। तदन्तर ११ कारिकाओं में स्याद्वाद की सारगर्भित मीमांसा द्रष्टव्य है। अंतिम कारिका में आप्त मीमांसा करने का उद्देश्य सूचित किया गया है। समन्तभद्र पूर्व एवं उत्तर पक्ष प्रस्तुत करने की चिंता किये विना सारगर्भित कथन से अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। निम्न कारिकाओं में उनकी प्रतिभा को इस प्रकार देखा जा सकता है –
यहाँ स्पष्ट प्रतिपत्ति होती है कि यदि अज्ञान से निश्चित ही बंध होता है – यह मान लिया जाये तो संसार में प्राणियों के अज्ञान होने के कारण बंध होता ही रहेगा क्योंकि विद्यमान अनंत ज्ञेय पदार्थो को न जान पाने से जीव का अज्ञान जीव को बंध कराता रहेगा और वह कभी केवली (केवलज्ञानी, सर्वज्ञ) नहीं हो सकेगा। इसका समाधान करने के लिए कोई कहे कि अल्पज्ञान से भी मोक्ष होता है। तो समन्तभद्र कहते हैं कि अल्पज्ञान से यदि मोक्ष होता है तो बहुत अज्ञान से बहुत बंध भी होना चाहिये अन्यथा कोई नियम नहीं रहेगा। अज्ञान से नियमत: बन्ध होता है तथा अल्प ज्ञान से मोक्ष होता है, इन दोनों में परस्पर विरोध है क्योंकि जिसके अल्पज्ञान है उसके अज्ञान बहुत होगा ही फिर बहुत अज्ञान से बन्ध होता ही रहेगा। अत: सर्वविध अज्ञान से बंध और अल्पज्ञान से मोक्ष होता है, यह उभयैकान्त भी सही नहीं माना जा सकता है। जो अज्ञान है वह सर्वथा बन्ध को हेतु नहीं है किन्तु मोही के मोह सहित अज्ञान बन्ध का हेतु है, उससे बंध है। किन्तु मोही का मोह वीत जाये तो माहरहित अज्ञान बंध का हेतु नहीं है उससे बंध नहीं होता है। अत: अज्ञान कथाञ्चित् बंध का हेतु है कथञ्चित् नहीं। किसी प्रकार मोह रहित अल्पज्ञान से मोक्ष होता है मोह सहित अल्पज्ञान से तो बंध ही होता है। अत: अल्पज्ञान कथञ्चित् मोक्ष का हेतु है और कथञ्चित् बंध का हेतु भी है। यह सिद्ध हो जाता है। संसार में प्राणियों की विचित्रता का उल्लेख करते हुये आचार्य समन्तभद्र बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर उपदेश देते हैं –
‘‘कामादिप्रभवश्तदेव ९९-१००
संसार है। जहाँ जीवों का जन्म-मरण आदि के लिये गमनागमन रूप व्यवहार अच्छी तरह से अर्थात् निर्वाध रूप से हो सके वह संसार (सम्यक् सरणम् संसार:) है। अथवा जिसके कारण जीव यह संसरण करते हैं, वह संसार है। संसार में नाना जीव हैं और उनमें जो विचित्रता है वह अकारण नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने इंगित कर दिया है कि जीवों में जो कामादि वासनाओं या व्यवहारों, क्रियाकलापों की विचित्रता है वह उनके द्वारा बांधे गये कर्मों के अनुसार ही है। कर्मबंध भी जीवों को अकारण नहीं होता है। अपने योग्य अर्थात् योग्य कारणों के मिलने से ही जीव में कर्म का बंध होता है। जिन मोह और योग्य अर्थात् योग्य कारणों के मिलने से ही जीव में कर्म का बंध होता है। जिन मोह और योग्य अन्य परिणामों से जीव कर्मों से बंधता है उन्हें जीव ही करता है। जीव में वे परिणाम शुद्धि और अशुद्धि के कारण मानें जा सकते हैं अर्थात् जीव जब अपनी शुद्धि का अभाव जानकार या उसे भूलकर या उससे अनजान रहकर अशुद्धि स्वरूप अशुद्ध योग और उपयोग को करता है अर्थात् मोह रागादिक परिणामों और मन-वचन-काय क क्रियाओं को करता है तो उसके इस अपने कारण से उसे कर्म का बंध होता रहता है। यहाँ शुद्धि को योग्यता एवं अशुद्धि को आयोग्यता या विकृत योग्यता (विकारी परिणाम) माना जा सकता है। अथवा शुद्धि को हम यहाँ उपादान मूलक योग्यता की मुख्यता से कह सकते हैं। तथा अशुद्धि को निमित्त मूलक योग्यता की मुख्यता से कहा जाना संभव है। इससे कर्मबंध के लिये अपेक्षित कारणों की प्रादुर्भूति जीवों में उनके शुद्धयशुद्धि रूप हेतु से संभव हो जायेगी। आचार्य समन्तभद्र स्वयं शुद्धि और अशुद्धि को शक्ति यानि योग्यता से परिभाषित करना चाहतें हैं। उनके अनुसार शुद्धि और अशुद्धि योग्यता रूप शक्ति उनकी अपनी है जैसे मूंग आदि में पकने या न पकने की शक्ति स्वयं की होती है। आचार्य समन्तभद्र इन दोनों शक्तियों को सादि और अनादि बताकर उनकी त्रैकालिक एवं किंञ्चित् कालस्थिति को भी सूचित कर रहे हैं। कर्मबंध के लिए आत्मा में दोनों ही शक्तियों की व्यक्तियाँ अर्थात् परिणतियां स्वभावयोग्यता से उपादान एवं निमित्त कारणों की समग्रता में होती रहती हैं। यही प्रत्येक जीव की स्वभाव योग्यता है। स्वभाव को तर्क का विषय नहीं बनाया जा सकता है (स्वभावोऽतर्कगोचर:)। इतनी गंभीर और महत्वपूर्ण प्ररूपणा करने के उपरांत स्तोत्रकार कहने लगते है। कि हे भगवन् ! आपका तत्वज्ञान यानि वास्तविक या वस्तुमूलक यथार्थ ज्ञान अथवा सबको युगपत् जानने वाला केवलज्ञान यहाँ प्रमाण है। उस केवलज्ञान के सहचर में हुये उपदेश को सुनकर गणधरों द्वारा प्रज्ञापित द्रव्यश्रुत को या तत्सहचर से जायमान क्रमवर्ति श्रुतज्ञान को प्रमाण कहते हैं। यह स्याद्वाद गर्भित नयों से संस्कारित है। इसी श्रुतज्ञान के बल से मैंने उपर्युक्त कथन किया है। यहाँ केवलज्ञान रूप प्रमाण का फल तो उदासीनता या वीतरागता से जानने रूप उपेक्षा है तथा शेष का यानि तत्वज्ञान रूप श्रुतज्ञान का फल पदार्थों को जानकर उनके ग्रहण त्याग की बुद्धि बनाता है अर्थात् कौन पदार्थ या क्रिया योग्य है अथवा त्याग योग्य है, यह जानना है। तथा श्रुत ज्ञान का फल उपेक्षा भी है। अज्ञाननाश तो सभी प्रमाणों का साक्षत् फल है ही। कारिकायें इस प्रकार हैं –
‘‘तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यजानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ।।
केवलज्ञान तो प्रत्यक्ष प्रमाण तथा श्रुतज्ञान द्रव्यश्रुत के रूप में आगम प्रमाण माना गया है। यह स्याद्वादनय से संस्कृत होता है अर्थात् द्रव्यश्रुत को समझने के लिए स्याद्वाद की विवेचना करना स्तोत्रकार को अभीष्ट हुई। ग्रन्थकार ने स्याद्वाद की महत्ता का द्योतन करने के लिए ही स्याद्वाद और सर्वतत्व का प्रकाशन करने वाले केवल ज्ञान को प्रमाण की दृष्टि से पूर्ण प्रामाणिक कहा है। और दोनों में केवल साक्षात् (प्रत्यक्ष) और असाक्षात् (परोक्ष) का ही भेद बताया है तथा यह भी कह दिया है कि जो इन दोनों में किसी का भी विषय नहीं है, उसे अवस्तु ही समझना चाहिये। समानधर्म सपक्ष से साध्य का साधम्र्य होने से विवक्षित साध्य की सिद्धि के लिये वस्तु के किसी धर्म या अर्थ को स्याद्वाद से विभाजितत करके प्ररूपित करने वाले अभिव्यञ्जक हेतु या अभिप्राय को हम नय कहते हैं। नयों उपनयों द्वारा त्रिकाल संबन्धी अनेक धर्मों का समुच्चय जहाँ हैं वहाँ उन धर्मों से अविभ्राड् सम्बन्ध (तादात्म्य सम्बन्ध) वाला द्रव्य एक भी है और अनेक भी कहा जा सकता है। नयों, उपनयों के विषय भूत एकान्त रूप धर्म वस्तुगत अर्थात् द्रव्य के अंश ही माने गये हैं। प्रत्येक एकान्त मिथ्या नहीं होता है किन्तु वस्तु निरपेक्ष एकान्त मिथ्या होता है मिथ्या एकान्तों का समूह तो मिथ्या वस्तु ही है और मिथ्यैकान्तता हम नयवादियों या स्याद्वादियों को नहीं है। वस्तु सापेक्ष एकान्त ही सम्यक एकान्त है और उनके समूह रूप वस्तु को ही स्याद्वादियों ने स्वीकार किया है तथा उसे सही अर्थक्रियाकारी माना है। स्याद्वाद में अनेकान्तात्मक अर्थ या वस्तु का नियमन विधिनिषेध वाक्यों से किया जाता है। इसलिये पदार्थ को विधि (तथात्व) और निषेध (अन्यथात्व) रूप में अवश्य जानना चाहिये अन्यथा वस्तुओं का अपना कोई विशेष्त्व नहीं रहेगा और सारी वस्तुयें एक या एकरूप हो जायेंगी। इसलिये यह स्याद्वाद वाणी तदतद् स्वरूप वाली वस्तु को विधि निषेध वाक्यों से प्ररूपित करने वाली है। किन्तु मृषा वाक्यों से वस्तु तत् स्वरूप या अतत् स्वरूप वाली ही है, ऐसा प्ररूपण करने वाली वाणी सत्य नहीं मानी जा सकती है। मिथ्या वाक्या असत्यार्थ वचनों से तत्वार्थ की देशना कैसे संभव है? अर्थात् नहीं है। वाणी का स्वभाव होता है कि वह अपने सामान्य अर्थ का प्रतिपादन तथा अन्य वागर्थ के प्रतिषेध में निरंकुश होता है अर्थात् अपने विषय का प्ररूपण करता है और तदन्य विषय का निराकरण करता है। यदि वचन सर्वथा अन्यापोह रूप अर्थ का ज्ञापन करें अर्थात् सर्वथा निषेध ही करे तो वह आकाश कुसुम के समान ही होगा। अर्थात् वह अवस्तु ही कहलायेगा। ‘वस्तु’ है इत्यादि सामान्य वचन अन्यापोह रूप विशेष के कथन में प्रवृत्त होते हैं, यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि अन्यापोह शब्द का वाच्य-अर्थ उपलब्ध नहीं होता है। इसलिये अन्यापोह के प्ररूपक शब्द मिथ्या हैं। इसलिये अभिप्रेत अर्थ विशेष की प्राप्ति के लिये स्यात्कार से मुद्रांकित और सत्य के लाञ्छन से चिह्नित स्याद्वाद ही माना गया है। वस्तुत; वही विधेयवाक्यस्वरूप वाद (वचन व्यवहार) अभीष्ट अर्थ को द्योतित करने में कारण हो सकता है।, जो प्रतिषेध्य का अविरोधी होता है। विधेय को प्रतिषेध्य का अविरोधी मानने पर ही वस्तु में आदेयत्व और हेयत्व सिद्ध होता है जिससे वह वस्तु उपादेय या हेय स्वीकृत हो जाती है। इस प्रकार स्यद्वाद संस्थिति ग्रंथकार ने यहाँ की है। अन्त में समापन करते हुए ग्रंथकार कहते हैं – इस प्रकार यह आप्तमीमांस ग्रंथकार के द्वारा हित चाहने वाले जिज्ञासुजनों के लिये सम्यक और मिथ्या उपदेश और अर्थ में विशेष (भेद) ख्यापित करने के लिए की गयी है यथा –