आचार्य परमेष्ठी के छत्तीस मूलगुण होते है। बारह तप, दस धर्म पांच आचार, छ: आवश्यक और तीन गुप्ति अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किए गए सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाता है उसे आचार कहते हैं । आचार के ५ भेद है- दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार ।
दर्शनाचार- दोष रहित सम्यग्दर्शन, ज्ञानाचार- दोष रहित सम्यग्ज्ञान, चारित्राचार- निर्दोष चारित्र , तपाचार- निर्दोष तपश्चरण और वीर्याचार- अपने आत्मबल को प्रगट करना ये पाँच आचार है।
काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिहनव, अर्ध, व्यंजन और तदुभय सम्पन्न ज्ञानाचार है। मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारण भूत पंचमहाव्रत सहित काय वचन गुप्ति और ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापना समिति स्वरूप चारित्राचार है।
अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परि संख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग रूप तपाचार है । समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति करने वाली स्वशक्ति के अगोपन स्वरूप वीर्याचार है।