कोई मीमांसक भाग्य से ही सभी कार्यों की सिद्धि मानते हैं। चार्वाक पुरुषार्थ से ही सभी कार्यों की सिद्धि कहते हैंं। कोई विशेष मीमांसक स्वर्गादि को भाग्य से एवं कृषि आदि को पुरुषार्थ से मानते हैं और कोर्ई बौद्ध लोग कार्यों की सिद्धि में इन दोनों को भी न मानकर अवक्तव्य से ही सिद्धि मानते हैं।
यहाँ सबसे प्रथम भाग्येकांत पक्ष का निराकरण करते हैं-
मीमांसक-सभी कार्य भाग्य से ही सिद्ध होते हैं पुरुषार्थ कुछ नहीं कर सकता है।
जैन-तब तो पुण्य और पापरूप आचरण के द्वारा भाग्य का निर्माण वैâसे होता है ?
मीमांसक-पूर्व-पूर्व के भाग्य से ही आगे-आगे के भाग्य का निर्माण होता है ्ना कि पुण्य-पाप आदि आचरणों से।
जैन-तब तो इस प्रक्रिया से पूर्व-पूर्व के भाग्य से आगे-आगे के भाग्य का निर्माण होते रहने से भाग्य का अभाव कभी भी नहीं हो सकेगा और तब तो मोक्ष कभी नहीं हो सकेगी तथा मोक्ष के लिए किये गये पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जावेंगे ?
मीमांसक-पुरुषार्थ से भाग्य का निर्मूल नाश हो जाता है इसलिए मोक्ष की सिद्धि और उसके पुरुषार्थ सफल हैं।
जैन-तब आपने भी पुरुषार्थ को तो मान ही लिया, पुन: भाग्य का एकांत कहाँ रहा ?
चार्वाक-सभी कार्य पुरुषार्थ से ही सिद्ध होते हैं।
जैन-यह भी एकांत ठीक नहीं है, क्योंकि एक साथ अनेकों जन खेती करते हैं किन्तु किसी को विशेष लाभ और किसी को हानि भी होती हुई देखी जाती है किन्तु पुरुषार्थ तो सभी के समान हैं पुन: ऐसा अन्तर क्यों है ?
इसलिए एकांत से पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि मानना गलत है।
कोई-कोई दैव-पुरुषार्थ को मान करके भी दोनों को परस्पर निरपेक्ष मानते हैं, सो भी ठीक नहीं है।
एकांत से अवक्तव्य मानने पर भी स्ववचन विरोध आता है।
अतएव स्याद्वाद की पद्धति से वस्तु तत्त्व की सिद्धि होती है-
‘‘अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवत:।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात्’’।।९१।।
बिना बिचारे अनायास ही जब अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य सिद्ध हो जाते हैं तब उनमें भाग्य की प्रधानता है और जब बुद्धिपूर्वक अनुकूल या प्रतिकूल कार्यों की सिद्धि होती है तब उनमें पुरुषार्थ की प्रधानता है। ये भाग्य और पुरुषार्थ एक-दूसरे की अपेक्षा रखने वाले होने से ही सम्यक् कहलाते हैं अन्यथा परस्पर निरपेक्ष होने से मिथ्या एकांतरूप हो जाते हैं अत: ये दोनों सापेक्ष ही कार्यों की सिद्धि में समर्थ होते हैं, ऐसा समझना।
सप्तभंगी की प्रक्रिया-
(१) कथंचित् सभी कार्य दैवकृत होते हैं, क्योंकि अनायास ही सिद्ध हुए हैं।
(२) कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थकृत होते हैं, क्योंकि बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से सिद्ध हुए हैं।
(३) कथंचित् सभी कार्य भाग्य और पुरुषार्थ दोनों कृत हैं, क्योंकि दोनों की विवक्षा है।
(४) कथंचित् सभी कार्य अवक्तव्य हैं, क्योंकि इन दोनों को एक साथ कह नहीं सकते हैं।
(५) कथंचित् दैवकृत और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से दैव की युगपत् दोनों की विवक्षा है।
(६) कथंचित् सभी कार्य पुरुषार्थकृत और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से पुरुषार्थ की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
(७) कथंचित् सभी कार्य दैव और पुरुषार्थकृत अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से दोनों की और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
इस प्रकार स्याद्वाद की अपेक्षा से भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही सापेक्ष होकर कार्य साधक होते हैं अन्यथा नहीं, ऐसा समझना चाहिए।