जो आत्मा को परतंत्र करता है, दु:ख देता है, संसार परिभ्रमण कराता है उसे कर्म कहते हैं। अनादिकाल से जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है। इन दोनों का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है। ‘मैं’ इस अनुभव से जीव जाना जाता है और जगत में कोई दरिद्री है, कोई धनवान है इस विचित्रता से कर्म का अस्तित्व जाना जाता है। जैसे अग्नि से तपाया हुआ लोहे का गोला पानी में डालते ही सब तरफ से पानी को खींच लेता है, वैसे ही संसारी आत्मा के मन-वचन-काय की क्रियाओं से प्रतिक्षण सभी आत्मप्रदेशों में कर्म आते रहते हैं।
कर्म के मूल दो भेद हैं—द्रव्यकर्म और भावकर्म। पुद्गल के पड को ‘द्रव्यकर्म’ कहते हैं और उसमें जो फल देने की शक्ति है, वह भावकर्म है अथवा कर्म के निमित्त से जो आत्मा के रागद्वेष, अज्ञान आदि भाव होते हैं, वह भावकर्म है।
कर्म के मूल आठ भेद भी होते हैं—(१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र और (८) अंतराय।
(१) ज्ञानावरण—जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढकता है, उसे ज्ञानावरण कर्र्म कहते हैं।
(२) दर्शनावरण—जो आत्मा के दर्शन गुण को ढकता है, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं।
(३) वेदनीय—जो आत्मा को सुखदुख देता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं।
(४) मोहनीय—जिसके उदय से जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना समझने लगता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं।
(५) आयु—जो जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में से किसी एक के शरीर में रोके रखता है, उसे आयु कर्म कहते हैं।
(६) नाम—जिससे शरीर और अंगोपांग आदि की रचना होती है, उसे नाम कर्म कहते हैं।
(७) गोत्र—जिससे जीव उच्च अथवा नीच कुल में पैदा होता है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं।
(८) अंतराय—जो दान, लाभ आदि में विघ्न डालता है, उसे अंतराय कर्म कहते हैं।
विशेष—इन आठ कर्मों में भी घातिया-अघातिया के भेद से दो भेद होते हैं। जो जीव के गुणों का घात करते हैं, वे घातिया कर्म हैं। जो पूर्णतया गुणों का घात न कर सवें वे अघातिया कर्म हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार घातिया कर्म हैं, शेष चार अघातिया कर्म हैं।