ज्ञान रवि का आच्छादक ज्ञानावरण कर्म—
कर्म शब्द कर्त्ता, कर्म और भाव तीनों साधनों में निष्पन्न होता है और विवक्षानुसार तीनों यहाँ परिगृहीत हैं। वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा निश्चय नय से आत्मपरिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्गलपरिणाम तथा व्यवहारनय से आत्मा के द्वारा पुद्गलपरिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्मपरिणाम, जो भी किये जायें वह कर्म है।
साध्य—साधनभाव की विवक्षा न होने पर, स्वरूप मात्र कथन करने से कृति को भी कर्म कहते हैं।
‘‘जीवं परतन्त्री कुर्वन्ति परतन्त्री क्रियते वा यैस्तानि कर्माणि, जीवने वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामे: क्रियन्ते इति कर्माणि।’’ अर्थात् जीव को जो परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परन्तन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं—उपार्जित होते हैं वे कर्म हैं।
सामान्य से कर्म आठ प्रकार का भी है अथवा एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भी उसके भेद हैं। सामान्य से जो आठ भेद हैं, वह इस प्रकार हैं—
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं।
आउगणामं गोदंतरायमिदि अट्ठ पयडीओ।।८।।
अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय।
प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची हैं। जिस प्रकार पाषाण में किट्ट कालिमा का अनादि संबन्ध है, उसी प्रकार जीव और शरीर (कार्मण) का अनादि से सम्बन्ध है। दोनों का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। जो स्वभाव को प्रकट न होने दे, उस स्वभाव को ढक देता है अथवा जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है। ये द्रव्यकर्म आत्मा के स्वभाव को व ज्ञानादि गुण को प्रगट नहीं होने देते हैं।
ज्ञानावरणीय कर्म सर्वघाती है। इसके कारण जीव के अनुजीवी गुणों का पूर्णरूप से घात होता है। यह ज्ञान गुण को प्रकट नहीं होने देता है।
‘‘बहिरंगार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धक—ज्ञानावरणमिति प्रतिपत्तव्यम्।’’ अर्थात् बहिरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्म है अर्थात् जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकट न होने दे अथवा ज्ञान गुण के अविकास में जो निमित्त हो वह ज्ञानावरण कर्म है। जो देवता के मुख पर ढके वस्त्र के समान अर्थात् इसका स्वभाव है कि जैसे देवता के मुख का ढका वस्त्र देवता के ज्ञान को नहीं होने देता, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को आच्छादित करता है।
ज्ञान का सामान्य अर्थ—ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। उस ज्ञान को जो आवरण करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है अथवा ‘‘जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञातिमात्रं वा ज्ञानम्’’ जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है, या जानना मात्र ज्ञान है।
‘‘सहजशुद्धकेवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं ज्ञानशब्दवाच्यं परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं।’’ सहज शुद्ध केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के आधारभूत ज्ञान शब्द का वाच्य परमात्मा जिसके द्वारा आवृत होता है वह ज्ञानावरण कर्म है।
सौन्दर्यमयी प्रकृति पर संध्या की अरुणाई सरोवर को सुशोभित कर रही थी। सुन्दर सी लहरें लहरा रही थीं—अचानक क्या हुआ ? सरोवर उदासीनता में सिमट गया, क्यों ? किसे पता था ? कुछ समझ में नहीं आया। आश्चर्य था जिन कमलों को प्यार से पालकर बड़ा किया वे ही सौरभ एवं शोभा के केन्द्र उसी तालाब की गोद में मुरझा गये। चिंता से चिंतित, रात्रि भर पुत्रों की याद में सरोवर तड़प उठा। साँय-साँय कर मानो आँसू भर-भर कर उभर रहा था एक साथ हजारों पुत्रों का वियोग। ओह! जन—जन की निद्रा को दूर करने वाले सूर्य का हृदय द्रवित हो उठा। प्रात:कालीन स्वर्णिम लालिमा को बिखेरते हुए सूर्य ने अपनी किरणों के बाणों को मृतप्राय कमल-पुत्रों पर फेंकना शुरू कर दिया। बाणों के लगते ही सारे कमल विकसित हो गये। ‘‘तालाब कमल’’ सूर्य की किरणों का स्पर्श पाते ही प्रफुल्लित हो गये।
एक मानव के पास अनेकों कमल थे पर सभी विकसित थे किन्तु एक कमल मुरझाया हुआ था अत: मानव का चेहरा उदासीन था। आप जानते हैं सुन्दर सी गाड़ी में बुद्धिमान ड्राइवर, योग्य यात्री हैं पर ब्रेक नहीं है तो किस समय मृत्यु का मुख देखना पड़ जाये, पता नहीं ठीक इसी प्रकार सारे कमल विकसित हों परन्तु यदि एक अविकसित हुआ तो जीवन दु:खों का घर बन जाता है। आप सोचेंगे कौन से हैं कमल ? तो आइये देखें ! १. मुखकमल, २. हृदयकमल, ३. करकमल, ४. चरणकमल, ५. भव्यकमल, ६. ज्ञानकमल आदि।
मुखकमल—मुखकमल जो असत्, कठोर, कर्कश वाणी से मुरझाया हुआ था आज हित—मित, प्रियवाणी, मधुर स्तुति, शक्ति, भजनादि के द्वारा मानव ने इसे मुस्कान भरा बना लिया है। मुखकमल मधुर वाणी रूपी किरणों से विकसित हो अपने चारों ओर खुशबू पैâला रहा है।
हृदयमल—हृदय में निरन्तर शुभाशुभ विचारों की शहनाई गूँज रही थी फलत: अनादिकाल से इसको विकास के लिए कहीं स्थान ही नहीं प्राप्त हुआ, पर आज शुभ विचारों का केन्द्र बनकर विकसित हो उठा। शुभ विचार रूपी किरणों के स्पर्श से हृदयकमल की एक-एक पंखुड़ी खिल उठी, मन मयूर नाच उठा।
करकमल—करकमल मारकाट, हिंसादि आरंभ की क्रियाओं के कारण डंडे की तरह दु:ख के कारण बने हुए थे। आज ये करकमल मुनियों के आहारदान, जिनपूजा आदि का सौभाग्य पाते ही विकसित हो सुगन्धित हो गये हैं।
चरणकमल—जो चरणकमल व्यर्थ के पंचपरावर्तन की भटकन से मुरझाए दुर्गन्धित हो रह थे वे ही आज तीर्थवन्दना, अकृत्रिम जिनवन्दनादि रूपी किरणों के स्पर्श से खिलकर महक रहे हैं।
भव्यकमल—जो भव्यकमल मिथ्यात्व की चकाचौंध में मुरझाया नजर आ रहा था वही आज गुरु उपदेश, दिव्यध्वनि से सम्यक्त्वरूपी सूर्य के उदय होते ही पूर्ण विकसित हो अपनी सौरभ से चारों दिशाओं को सुरभित कर रहा है।
ज्ञानकमल—सभी कमल विकसित हो सुरभि बिखेर रहे हैं पर ज्ञानकमल की मुकुलित अवस्था ने मानव को झकझोर दिया है। ज्ञानकमल के विकास के बिना सारे कमलों की सौरभ भी मन को मोहित नहीं कर पाती है।
आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम्।
विलीनसंकल्पविकल्पजालं, प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति।।
अर्थात् आत्मा का स्वभाव परद्रव्यों के भावों से भिन्न है। यह ज्ञान से पूर्ण लबालब भरा हुआ, अनादि, अनंत एक ज्ञानपुंज है पर आज वह ज्ञानकमल सुगंधि क्यों नहीं बिखेर रहा है ? सुगंधि से पृथ्वीतल तभी सुरभित होगा जब संकल्प—विकल्पों का जाल विलीन होगा। ज्ञानावरण कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ाकोड़ी सागर व जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है।
ज्ञानावरण कर्म का बन्ध दसवें गुणस्थान तक होता है, उदय बारहवें गुणस्थान तक तथा सत्ता दसवें गुणस्थान तक रहती है।
१. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मन:पर्ययज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण।
मतिज्ञानावरण—जिस कर्म के उदय से जीव का मतिज्ञान प्रकट न हो वह मतिज्ञानावरण कर्म है।
श्रुतज्ञानावरण—जो जीव के श्रुतज्ञान को प्रकट न होने दे वह श्रुतज्ञानावरण कर्म है।
अवधिज्ञानावरण—जो जीव के अवधिज्ञान का आवरण करे वह अवधिज्ञानावरण है।
मन:पर्ययज्ञानावरण—जो कर्म मन:पर्यय ज्ञान को प्रकट न होने दे उसे मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म कहते हैं।
केवलज्ञानावरण—जो कर्म केवलज्ञान को प्रकट न होने दे वह केवल ज्ञानावरण कर्म है।
त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञानकमल आज भी मुकुलित है। जैसे बादलों के आवरण में छिपा सूर्य अपनी किरणों को बिखेर नहीं पाता वैसे ही प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात जैसे मलों की रज में पड़ा ज्ञानकमल अपनी सौरभ को बिखेरने में असमर्थ हो रहा है।
‘‘तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:।’’
अर्थ—प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादना और उपघात ये ज्ञानावरण कर्म के आस्रव के हेतु हैं।
(१) प्रदोष—किसी धर्मात्मा के द्वारा की गई तत्त्वज्ञान की प्रशंसा का नहीं सुहाना प्रदोष है।
‘‘ज्ञानकीर्तनान्तरमनाभिव्याहरतोऽन्त: पैशून्यं प्रदोष:’’ अर्थात् ज्ञानकथा के समय मुँह से कुछ न कहकर भीतर ही भीतर ईर्ष्या के परिणामों का होना प्रदोष है अथवा ‘‘मोक्ष का मूलसाधन’’ जो मत्यादिक ज्ञान हैं अर्थात् कोई प्रशंसा करे सो अन्तरंग में बुरी लगे, सुहावे नहीं सो प्रदोष है अथवा तत्त्वज्ञान की कथनी में हर्ष का अभाव सो प्रदोष है।’’
इस प्रदोष को दूर कर अप्रदोष का पालन करने पर ज्ञान की प्राप्ति होती है।
प्रदोष ज्ञान का बाधक है अत: ज्ञानप्राप्ति का हेतुभूत अप्रदोष है। किसी धर्मात्मा के द्वारा तत्त्वज्ञान की प्रशंसा सुनकर मन में आल्हादित होना, धर्मात्मा के ज्ञान की प्रशंसा करना ‘अप्रदोष’ है।
एक धर्मात्मा पति अपनी शीलवती धर्मपत्नी सहित मंदिरजी में अष्टमी, चतुर्दशी आदि दिनों में तत्त्वज्ञान, स्वाध्यायादि किया करता था। दोनों के तत्त्वज्ञान की प्रशंसा लोकप्रसिद्ध हो गई। अज्ञानी व्यक्ति ईर्ष्या से जाग उठा फलत: उसने स्वाध्याय करते हुए पति—पत्नी को तलवार से मृत्यु के घाट उतार दिया। दोनों भव्यात्मा स्वर्ग में देव-देवियाँ हो गये और यह अज्ञानी व्यक्ति नाना योनियों में भ्रमण करता हुआ राजपुत्र हो गया परन्तु एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं था। अपने अज्ञान का कारण पूछने पर मुनिराज ने पूर्वकृत पाप कार्य का वर्णन किया। वह मुनिदीक्षा लेकर मौनव्रत से रहने लगा और अपने अन्दर में पूर्वकृत पापों की निन्दा, गर्हा करने लगा। भाग्य से वही जोड़ा देवलोक से मुनिराज के दर्शन को आया। इन्होंने सब जानकर मुनि होकर भी उनसे अपने पूर्वकृत पाप की क्षमा माँगी। उनके तत्त्वज्ञान की भूरि—भूरि प्रशंसा एवं अपने दुष्कृत्य की मुनिराज निन्दा करने लगे। फलत: अप्रदोष गुण की वृद्धि होते ही उसी भव में केवलज्ञान को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त हो गये।
(२) निह्नव—‘‘पराभिसन्धानतो ज्ञानव्यपलापो निह्नव:’’
किसी बहाने से ‘‘मैं नहीं जानता’’, इत्यादि रूप से ज्ञान का लोप करना निह्नव है।
‘‘बहरि कोउ कारणकरि सम्यग्ज्ञान की कथनी पूछे, ताकू कहै, मैं नहीं जाणूं वा ऐसे नहीं है’’, ऐसे सम्यग्ज्ञान को छिपाना सो निह्नव है। उस निह्नव से बचने के लिए अनिन्ह्नव का पालन करना चाहिए।
अनिह्नव—किसी भी प्रकार से ज्ञान को नहीं छिपाना अनिह्नव है। एक उत्तम बुद्धि वाला बालक अपने ज्ञात विषयों को दूसरे से छिपाता है। सोचता है कहीं मेरा ज्ञान कम नहीं हो जाय या मेरा नंबर पीछे नहीं हो जाय। मान बड़ाई, ईर्ष्या आदि कई कारणों से ज्ञान को छिपाया जाता है फलत: ज्ञान कुण्ठित हो जाता है, उसके विकास को स्थान नहीं मिलने से लोप भी हो जाता है अत: ज्ञान को विकसित करने के लिए महान उपाय है कि अपने पास प्राप्त ज्ञान को छिपाना नहीं चाहिए। ज्ञानधन एक ऐसा धन है जिसे जितना व्यय करेंगे, उतना बढ़ेगा और जितना छिपाकर रखना चाहेंगे उतना ही आपसे छिप जाएगा, आपको कुंठित बना देगा। नीतिकार कहते हैं—
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं, विद्याधनं सर्वधनं प्रधानम्।
और भी कहते हैं—
अपूर्व: कोऽपि कोशोऽयं, विद्यते तव भारती।
व्ययतो वृद्धिमायाति, क्षयमायाति संचयात्।।
विद्याधन एक ऐसा अपूर्व खजाना है जो जितना व्यय किया जायेगा उतना बढ़ेगा और जितना संचय करोगे उतना घटेगा। कुएँ से पानी नहीं निकला तो सड़ जाता है, फल पकने पर वृक्ष ने छिपा लिया जो सड़ जायेगा। फूल खिलने पर प्रभु चरण में चढ़ाया नहीं तो मुरझा जायेगा, पैरों में रौंदा जायेगा। सरोवर ने कमल को अपनी ओट में छिपा लिया तो मुरझाकर सड़ जाएगा, सरोवर को ही गन्दा कर देगा और यदि निस्पृही होकर बाँट दिया, मनुष्य को दे दिया तो वही कमल अपने रूप से सबको अपनी बहार लुटाकर स्वयं भी हँसता है, दूसरे को भी हँसाता है। ठीक उसी प्रकार ज्ञानार्जन करके छिपाया, बाँटा नहीं तो ज्ञानकमल भी मुरझा जायेगा। ज्ञानकमल को विकसित करके उसकी सौरभ को चारों ओर बिखेरते चलें। ज्ञानपिपासु बाल, वृद्ध, शत्रु-मित्र, नर-नारियों आदि सभी को अपनी सौरभ से सुरभित करते चलें अन्यथा यह विकसित कमल मुरझाकर आत्मसरोवर को गन्दा कर संसाररूपी कीचड़ में ऐसा आकंठ पँâसायेगा जहाँ से निकलना भी दुष्कर होगा।
(३) मात्सर्य—‘‘यावद्यथावद्देयज्ञानमप्रदानं मात्सर्यम्।’’ अर्थात् देने योग्य ज्ञान को भी किसी बहाने से न देना मात्सर्य है अथवा बहुरि आपकरि अभ्यास किया सम्यग्ज्ञान देने के योग्य शिष्य के लिए नहीं देना सो मात्सर्य है।’’
मात्सर्य का अभाव कर, अमात्सर्य को अपनाने से ज्ञानगुण प्रकट होता है।
अमात्सर्य—अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को योग्य शिष्य में बिना किसी छल-कपट के दे देना अमात्सर्य है। देने योग्य ज्ञान को यदि योग्य शिष्य में दे दिया जाता है तो वह ज्ञानसंतति निरन्तर अबाधरूप से प्रवाहित रहती है और केवलज्ञान के लिए कारण बनती है अथवा वस्तुस्वरूप को जानकर यह भी पंडित हो जायगा अत: मेरा सम्मान या मेरी प्रतिष्ठा कम हो जायेगी ऐसे मात्सर्य भाव को नहीं रखते हुए प्राप्त ज्ञान को देना अमात्सर्य है।
मात्सर्य से ज्ञान की हीनता होती है। एक दृष्टान्त है—बौद्ध विद्वान् जैन बालकों को इसी मात्सर्य से नहीं पढ़ाते थे कि वस्तुतत्त्व का सही ज्ञान होने से यह हमारा खंडन करेंगे अत: अकलंक-निकलंक बालक बौद्धभेषी बनकर बौद्ध मठों में पढ़ते थे। एक दिन गुरूजी ने एक सूत्र लिखा। सूत्र अशुद्ध लिखा देख, विचक्षण बालकों ने गुरुजी की अनुपस्थिति में उसे सुधार दिया। गुरूजी ने जब यह देखा तो मात्सर्य जागृत हो उठा। अरे ! यह कौन है हमारा शत्रु ? इसे खत्म कर देना चाहिये। अंततोगत्वा दोनों बालकों की हत्या के कई उपाय हुए और निकलंक के प्राणों की बलि भी हो गई परन्तु बालक अकलंक ने ज्ञान बल से बौद्धों को ‘वाद’ में हरा दिया। अकलंक मुनिराज ने जैनधर्म का झंडा विश्व में फहरा दिया अत: अमात्सर्य ज्ञानप्राप्ति का अमोघ उपाय है।
(४) अन्तराय—‘‘ज्ञानव्यवच्छेदकारणम् अन्तराय:’’ अर्थात् कलुषता से ज्ञान का व्यवच्छेद करना अन्तराय है। ‘‘बहुरि कोई धर्मानुरागी ज्ञान का अभ्यास करते होई, तिनके व्यवच्छेद करना, स्थान बिगाड़ देना, पुस्तक का संयोग बिगाड़ देना, पढ़ाने वाले का सम्बन्ध बिगाड़ देना सो अन्तराय है।’’ अन्तराय ज्ञान का बाधक है। अनन्तराय से ज्ञान में वृद्धि होती है।
अनन्तराय—किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न नहीं डालना अनन्तराय है। उदाहरणार्थ, एक बालक पढ़ रहा था। माँ को काम था, जाकर असमय में पुस्तक बंद कर दी। रात्रि के समय बालक पढ़ रहा था। बिजली चालू रहने से पिताजी को नींद नहीं आ रही थी, बिजली बुझा दी। दो ज्ञानी आपस में चर्चा कर रहे थे, अज्ञानी वहाँ जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा तत्व चर्चा में बाधा कर दी। मुनिराज स्वाध्याय कर रहे थे, जाकर जोर-जोर से नमोऽस्तु-नमोऽस्तु करना चालू कर दिया। स्वाध्याय या प्रवचन चल रहा है, श्रावकों की अपनी बातें चल रही हैं अत: इन सब कारणों से जीव तीव्र ज्ञानावरणीय कर्म बाँधता है और तीव्र अन्तराय करता है अत: ज्ञानप्राप्ति के उपाय हेतु पढ़ते हुए को कभी रोकना नहीं चाहिये। अपने सुख के लिए बिजली आदि बंद नहीं करना चाहिए। व्यर्थ जोर—जोर से बकवास नहीं करना चाहिए। ज्ञानियों की आपसी चर्चा को ध्यान से सुनना, प्रवचनादि में मौन रहना, बीच में आना-जाना नहीं होना चाहिए। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति के उपायों में किसी प्रकार विघ्न नहीं करते हुए ज्ञानाभ्यासी को हर प्रकार से मदद करना, उनके विघ्नों को दूर करना यह अनंतराय ज्ञानप्राप्ति का उपाय है।
अन्तराय करने से हानि—एक बालक बुद्धिमान् था और परीक्षा में द्वितीय नम्बर से पास होता था। उसने मैं प्रथम नंबर आऊँ यह सोचकर, प्रथम नंबर आने वाले विद्यार्थी की पढ़ाई में अंतराय करना आरंभ कर दिया। पुस्तक फाड़ना, पढ़ते हुए की बिजली बन्द कर देना, चिल्लाना, पढ़ते समय तेज आवाज में चिल्लाना, रेडियो लगाना आदि विघ्न किये और इस्ाी में समय पूरा कर दिया। पढ़ाई कुछ नहीं हो सकी फलत: योग्य बालक तो अपनी पूर्ववत् क्रिया करता हुआ प्रथम नम्बर से पास हो गया और बुद्धिमान् ईर्ष्यालु फेल हो गया अत: ज्ञानप्राप्ति के इच्छुक मानव को कभी भी ज्ञानाभ्यास में विघ्न नहीं डालना चाहिए।
(५) आसादना—‘‘वाक्कायाभ्यां ज्ञानवर्जनमासादनम्’’ अर्थात् दूसरे के द्वारा प्रकाशित ज्ञान का काय या वचन के द्वारा वर्जन करना आसादन है। ‘‘बहुरि परकरि प्रकाश्या ज्ञानकूं वचनकरि वर्जन करना सो आसादन है।
अनासादन के द्वारा आसादन दोष को मिटा सकते हैं।
अनासादना—दूसरे के द्वारा प्रकाशित होने वाले ज्ञान को नहीं रोकना अनासादन है। कोई लेखक, कवि, उपदेशक, तत्त्वज्ञानी एवं धर्मप्रभावक है ऐसे ज्ञानी के ज्ञान के प्रकाश का निरन्तर प्रयत्न करना ज्ञानप्राप्ति का अमूल्य उपाय है। यदि लेखक या कवि है तो सुन्दर-सुन्दर पुस्तकों के प्रकाशन कराकर, उनके एवं स्वयं के ज्ञान का विकास करें। यदि उपदेशक है तो स्थान-स्थान पर प्रवचनादि का आयोजन कराके, उनके ज्ञान से स्वयं का एवं धर्मप्रिय जनता का ज्ञान विकास करें। तत्त्वज्ञानी हैं तो तत्त्वनिर्णय की पद्धति का ज्ञान स्वयं सीखें और अन्य को सिखाने की उनसे प्रार्थना कर उनके ज्ञान का प्रकाशन करते हुए अपना विकास करें। यदि धर्मप्रभावक हैं तो तीर्थवन्दना, रथयात्रा, पूजा, तप, त्याग आदि धर्मप्रभावक कार्यों से ज्ञानी के ज्ञान विकास में सहायक बनकर अपना ज्ञान कमल सुरभित करें, पुष्पित करें।
(६) उपघात—‘‘प्रशस्तज्ञानदूषणमुपघातं’’। अर्थात् बुद्धि और हृदय की कलुषता से प्रशस्तज्ञान में दूषण लगाना उपघात है अथवा ‘‘बहुरि अपनी बुद्धि की दुष्टताकरि प्रशंसा योग्य ज्ञानकूं दूषण लगावना सो उपघात है।’’
आसादन में विद्यमान ज्ञान का विनय-प्रकाशन गुण-कीर्तन आदि न करके अनादर किया जाता है और उपघात में ज्ञान को ही अज्ञान कहकर नाश किया जाता है।
अनुपघात—सच्चे ज्ञान में दोष नहीं लगाना अनुपघात है। ज्ञानियों को सबसे भारी उपसर्ग यही सहन करना पड़ता है कि अज्ञानी दुष्टजन उनके ज्ञान को सहन नहीं कर पाते हैं और किसी भी उपाय से ज्ञानी के निर्दोष ज्ञान को कलंकित कर जड़मूल से उखाड़ने का प्रयत्न करते हैं परन्तु सच्चा ज्ञानसूर्य बादलों की ओट में दबता नहीं अपितु अन्दर ही अन्दर तेजी से धधकता है और फलत: पूर्ण तेजपुञ्ज केवलज्ञान सूर्य तीन लोक के प्रकाशन करने में समर्थ वैâवल्यज्योति को प्राप्त होता है।
(७) आचार्य, उपाध्याय के प्रतिकूल प्रवृत्ति, (८) अकाल अध्ययन, (९) अश्रद्धा, (१०) अभ्यास में आलस्य, (११) अनादर के अर्थ सुनना, (१२) तीर्थोपरोध अर्थात् दिव्यध्वनि के समय स्वयं व्याख्या करने लगना, (१३) बहुश्रुतपने का गर्व करना, (१४) मिथ्योपदेश से बहुश्रुत का अपमान करना, (१५) स्वपक्ष का दुराग्रह, (१६) दुराग्रहवश असम्बद्ध प्रलाप, (१७) सूत्रविरुद्ध बोलना, (१८) असिद्ध से ज्ञानप्राप्ति, (१९) शस्त्र विक्रय आदि हिंसादि कार्यों रूपी कीचड़ में फंसा ज्ञान कमल मुरझा रहा है, ऐसे समय में आलस्य, निद्रा, संक्लेश, शोक, अधिक रोग, िंचता के दलदल में फंसे मानव का ज्ञान कमल ज्ञानावरणीय मेघों से आच्छादित होता जाता है।
स्वाध्याय—‘‘स्वाध्याय: परमं तप:’’ अर्थात् स्वाध्याय से ज्ञान गुण की वृद्धि व अज्ञान का नाश होता है।
मन—वचन—काय की एकाग्रता, लोभी लालची मन, चंचल मन, चोर मन प्रवृत्ति को रोकना चाहिए। वचनों की चंचलता, व्यर्थ बकवास, बिना प्रयोजन बोलना, असत्य बोलना, अपशब्दों का उच्चारण, अशुद्ध उच्चारण इस सबसे पूर्णत: बचना चाहिए। जो अशुभ, अशुद्ध, असत्य, अप्रिय, अश्लील वचनों को न बोलकर भाषा समिति का पालन करता है उसे शीघ्र ही ज्ञान की उपलब्धि होती है।
काय की चंचलता होने पर ज्ञान का विकास रुक जाता है। काय की शुद्धि, काय से दुष्चेष्टाओं का अभाव कर काय को वश में रखना काय की एकाग्रता है।
जिस प्रकार मन्दिर के लिए मूर्ति आवश्यक है,
पुत्र प्राप्ति के लिए विवाह या मोक्ष के लिए केवलज्ञान आवश्यक है,
केवलज्ञान के लिए शुक्लध्यान आवश्यक है,
शुक्लध्यान के लिए शुद्धोपयोग आवश्यक है,
शुद्धोपयोग के लिए मुनिव्रत आवश्यक है,
मुनिव्रत के लिए षष्ठम सप्तम गुणस्थान आवश्यक है,
ठीक इसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति के लिए मन, वचन, काय की एकाग्रता आवश्यक है।
आलस्य भी ज्ञानप्राप्ति में बाधक है। ठीक ही कहा है—‘‘आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपु:’’ अथवा ‘‘अलसस्य कुतो विद्या’’।
निद्रा—पंचेन्द्रिय मानव को एकेन्द्रियवत् कर देने वाली महादेवी निद्रा है। कहावत है—‘‘सुआ पल चूका’’ जो सो गया वह पल चूक गया। अधिक निद्रा ज्ञान की बाधक है।
संक्लेश—इष्ट वियोग, अनिष्टसंयोग जनित अहंकार, ममकार बुद्धि रूप संक्लेश परिणाम जीव के ज्ञान विकास के बाधक हैं। शल्य भी ज्ञान की बाधक हैं।
जिस प्रकार सहस्रों किरणों वाले सूर्य को तेजपुञ्ज बादलों की ओट में छिपते ही ढक जाता है उसी प्रकार केवलज्ञान ज्योतिपुञ्ज चैतन्य आत्मा ज्ञानावरण कर्मरूपी बादलों से आच्छादित हो रहा है। विवेकी को चाहिए कि ज्ञान को आवृत्त करने वाले हेतुओं से बचकर, उसे प्रकाशमान करने वाले सच्चे पुरुषार्थ से, चैतन्य चमत्कार आत्मा को ज्ञान की किरणों से जगमग करे। केवलज्ञानमयी आत्मस्वभाव की प्राप्ति के लिये ज्ञानावरण कर्म के आने के द्वारों से बचना मुमुक्षु का कर्तव्य है।
दर्शन धर्म का मूल है तथा धर्म मनुष्यों का अभिन्न अंग है। धर्म के बिना मनुष्य पशु सदृश माना गया है। कहा भी है—
आहार—निद्रा—भय—मैथुनञ्च, सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:, धर्मेण हीना पशुभि: समाना:।।
धर्म पुरुष के चार पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ है। पुरुषार्थों के नाम हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें काम और मोक्ष साध्य तथा अर्थ और धर्म उनके साधन हैं। मुमुक्षु को मोक्ष की कामना होती है। मनुष्य पर्याय पाकर मनुष्य मोक्ष के योग्य कार्य नहीं कर सका तो किसी पर्याय में नहीं कर सकेगा। पुरुष होने की सार्थकता इसी में है कि वह धर्म पुरुषार्थ की अनवरत साधना करे जिससे कि मोक्ष सध सके।
धर्म की साधना के लिए दर्शन का बोध अपेक्षित है। दर्शन को जाने-समझे बिना धर्म की सम्यक् साधना संभव नहीं है अत: यहाँ दर्शन की विवेचना ही अपेक्षित है।
दर्शन—देखने अर्थ में प्रसिद्ध दृश् धातु में ल्युट् प्रत्यय के संयोजन से निष्पन्न शब्द है। इसका सामान्य अर्थ है—देखना। ‘‘पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्’ इस व्युत्पत्ति से ‘जिसके द्वारा देखा जावे’ यह भी दर्शन का एक अर्थ बताया गया है। इस व्युत्पत्ति से देखने के साधन आँख और प्रकाश आदि उपकरण दर्शन ज्ञात होते हैं किन्तु जैन दर्शन में देखने के उपकरणों को दर्शन नहीं माना गया। दर्शन पर्याय से परिणत आत्म दर्शन को दर्शन कहा गया है।
दार्शनिकों की दृष्टि में दर्शन का यह अर्थ नहीं होता। ‘दर्शन’ शब्द सुनते ही उनका ध्यान षड्दर्शन की ओर जाता है। वे दर्शन से बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय दर्शन समझते हैं।
सामान्यत: देखने का नाम दर्शन है। इसके दो भेद हैं—बाह्य दर्शन और आभ्यन्तर दर्शन। इनमें बाह्य दर्शन का अर्थ है—जगत् के पदार्थों को सामान्य रूप से देखना और आभ्यन्तर दर्शन का अर्थ है—पदार्थों को देखकर उनके भीतरी स्वरूप को जानना। दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ भी यही है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड़ में बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित, त्रियोग में संयमी हो, ज्ञान की करणशुद्धि तथा कृत, कारित और अनुमोदना की शुद्धिपूर्वक खड़े होकर हाथ में आहार करने में दर्शन बताया है। गाथा है—
दुविहंपि पि गन्थचायं तीसु विजोएसु संजमो ठादि।
णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होदि।।१४।।
आचार्य कुन्दकुन्द ने ही बोधपाहुड में निर्ग्रंथ और ज्ञानमयी मोक्षमार्ग, सम्यक्त्व, संयम और आत्मा का धर्म दिखाने वाले को ‘दर्शन’ कहा है।
कुन्दकुन्द के इन उल्लेखों से अध्यात्म के क्षेत्र में दर्शन का अर्थ है आत्मदर्शन, जिसका सम्बन्ध चर्मचक्षुओं से न रहकर आत्म चक्षुओं से रहता है।
दर्शन के दो ही अंग दिखाई देते हैं—दर्शक और दृश्य। जैनदर्शन में छ: द्रव्य बताये गये हैं, जिनमें जीव दर्शक है और जो शेष पाँच द्रव्य—पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हैं, इनमें पुद्गल द्रव्य मूर्त्त होने से दृश्य है।
जीव का लक्षण चेतना है और पुद्गल का अर्थ है वे पदार्थ, जिनमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाया जाय। पुद्गल रूपी और शेष द्रव्य अरूपी होते हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य जीव की गति तथा स्थिति में सहकारी होते हैं, प्रेरक नहीं। आकाश सभी द्रव्यों को अवकाश देने में और काल जीवों के परिणमन में सहकारी होता है।
जीव में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीन गुण पाये जाते हैं। एक पर्याय से दूसरी पर्याय प्राप्त करना उसका उत्पाद, पूर्व पर्याय का न रहना व्यय और विभिन्न पर्यायों में चेतन का यथावत् बना रहना उसका ध्रौव्य है।
यथार्थ में द्रव्यों का न उत्पाद होता है और न व्यय। उनका अवस्थान्तरण होता है। जीव अपनी वर्तमान पर्याय का उसी प्रकार त्याग कर देता है जैसे मनुष्य कपड़े जीर्ण हो जाने पर उनका त्याग कर देते हैं और जीव नयी पर्याय उसी प्रकार धारण कर लेता है जैसे मनुष्य फटे वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र धारण कर लेता है।
जीव का अवस्थान्तरण होने पर भी उसका चेतन अपरिवर्तित रहता है। उसके ध्रुवत्व गुण में कोई बाधा नहीं आती जैसे कोई सोने के मुकुट को मिटवाकर कंगन बनवा ले। इसमें मुकुट का नाश और कंगन का उत्पाद हो रहा है परन्तु स्वर्ण में कोई उत्पाद और विनाश नहीं होता, वह ज्यों का त्यों बना रहता है।
जीव अनादिनिधन है स्व कर्म के अनुसार वह विभिन्न शरीर धारण किये हुए है। सुख और दु:ख का अनुभव करने वाला शरीर नहीं है, शरीर के भीतर रहने वाला चेतन है। चेतनविहीन शरीर में यह क्रिया नहीं देखी जाती अत: चेतन और शरीर दो विभिन्न द्रव्य समझ में आते हैं। शिशु की दुग्धपान क्रिया में भी उसके पूर्व संस्कार ही कारण हैं। जीवों के जातिस्मरण भी प्रमाणित हुए हैं। इससे स्वयंसिद्ध है कि चेतन का अविनाशी अस्तित्व है।
जीव और पुद्गल दो ही द्रव्य हैं जिनका शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार का परिणमन होता है। किसी भी द्रव्य का आप में आप रूप परिणमन शुद्ध परिणमन है और एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से मिलकर एकीभाव को प्राप्त होना अशुद्ध परिणमन है। जीव और पुद्गल (देह) का परिणमन अशुद्ध परिणमन है, जैसे—हल्दी और चूना अपने पीत और श्वेत रूप का त्याग कर, रक्त रूप धारण कर एक रूप हो जाते हैं, ऐसे ही जीव और पुद्गल संसार में एकरूप दिखाई दे रहे हैं। दोनों के एकरूप होने में कारण है—वैभाविक शक्ति, जो जीव और पुद्गल में ही पाई जाती है, अन्य द्रव्यों में नहीं। इस शक्ति के सिवाय दोनों के एकरूप होने से पुद्गल की स्निग्ध और रूक्ष पर्याय भी सहकारी होती है। जीव का विकृत परिणमन उसे एकरूप होने को बाध्य करता है। यह परिणमन मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के कारण होता है। इनसे आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है और वे विकृत परिणमन योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार पुद्गल और जीव दोनों एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं। जीव और पुद्गल दोनों विजातीय होने से, इन दोनों का एक क्षेत्रावगाही होना विजातीय बन्ध कहलाता है।
जीव को जो शरीर, वचन, मन, उच्छ्वास और नि:श्वास तथा सुख-दु:ख, जीवन और मरण प्राप्त हो रहे हैं, वे सब पुद्गल का संयोग बना हुआ है। कमल जल का संयोग पाकर भी जैसे जल से अलिप्त रहता है इसी प्रकार जीव विकार भावों से अलिप्त रहकर, यथार्थ भी देख सकता है और विकारग्रस्त होकर अयथार्थ भी।
जीव का ऐसा दर्शन जिससे जीव का कल्याण होता है, सम्यग्दर्शन है और जिस दर्शन से इसके विपरीत स्थिति बनती है वह मिथ्यादर्शन है। दूसरे शब्दों में, बन्धमोचिनी दृष्टि सम्यग्दृष्टि और बन्धकारी दर्शन मिथ्यादर्शन है। जीव जैसे चाहे दृष्टि का उपयोग करने में स्वतंत्र है।
सामान्यत: इन्द्रियों में चक्षु देखने का काम करती है, जिस पर आहार-विचारों एवं वातावरण का बड़ा प्रभाव पड़ता है। पीत ज्वर के रोगी को पीला दिखाई देने में जैसे पीत ज्वर कारण है इसी प्रकार अच्छा-बुरा देखने में जीव के तद्रूप विचार कारण बनते हैं। जीव जब कामवासनाओं से ग्रस्त होता है, उस समय वह स्त्री के रूप पर मुग्ध हो जाता है किन्तु विषयों से विरक्त होने पर वही स्त्री उसे मांस-मज्जा का घर दिखाई देती है। यह है जीव के विचारों का उसकी दर्शनशक्ति पर प्रभाव।
आहार-विहार से भी दर्शनशक्ति प्रभावित होती है। अभक्ष्य भक्षण करने वालों और मांसभोजियों का दर्शन िंहसामय होता है।
साधु—सन्तों के साथ रहने से अिंहसा के दर्शन होते हैं, अिंहसामय दृष्टि बनती है।
पाँच इन्द्रियों में चौथी इन्द्रिय का नाम चक्षु है जिसका कार्य है देखना। चक्षु को देखने की शक्ति देने वाला है चेतन। उसके अभाव में न चक्षु इन्द्रिय अपना काम कर पाती है और न उसके उपकरण। जब चेतन देह से निकल जाता है तब चक्षु इन्द्रिय और उसके उपकरण विद्यमान रहने पर भी उनसे देखने की क्रिया निष्पन्न नहीं हो पाती अत: दर्शन चेतन का गुण है, चक्षु का नहीं।
आवरण का अर्थ है—आच्छादन। वस्तु को ढक लेना। जैसे मेघ वर्षा में सूर्य के तेज को ढक लेते हैं इसी प्रकार वस्तु को आच्छादित करने का नाम आवरण है।
दर्शन और आवरण के पश्चात् कर्म का स्वरूप जानना भी आवश्यक है। जीव में आकर्षण शक्ति होती है और पुद्गल में आकर्ष्य शक्ति अत: चुम्बक जैसे लोहे को अपनी ओर खींच लेता है और लोहा उसमें चिपक जाता है इसी प्रकार जीव योग के निमित्त से पुद्गल की कार्माण वर्गणाओं को आकर्षित करता है और उनमें आकर्ष्य शक्ति होने से वे आकर्षित हो जाती हैं तथा जीव का साथ कर लेती हैं, इन्हें ही कर्म कहते हैं। जीव का विकार भाव कर्म साथ लिए रहता है और कर्मों का सद्भाव रहने से जीव में विकारभाव होते रहते हैं, वह अपने स्वभाव को नहीं समझ पाता। जैसे धान से छिलका पृथक् करने पर चावल का रूप प्रकट हो जाता है ऐसे ही कर्मों का नाश होते ही जीव अपने स्वरूप को पा जाता है।
यह पदार्थों का प्रतिभास कराने वाली जीव की चेतना शक्ति में पदार्थ का सामान्य प्रतिभास नहीं होने देता। जैसे द्वारपाल राजा के दर्शकों को राजा के दर्शन नहीं होने देता, दर्शकों को द्वार पर ही रोक लेता है, राजदरबार में नहीं जाने देता इसी प्रकार यह कर्म पदार्थ का समान्य प्रतिभास ही नहीं होने देता जिससे जीव, पदार्थ के विशेष प्रतिभास से वंचित हो जाता है। अनन्तदर्शन का भी प्रादुर्भाव नहीं हो पाता।
यह कर्म एक बार जीव के साथ होकर बहुत समय तक साथ रहता है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण काल तथा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त बताई गई है।
दर्शनावरण कर्म के आचार्यों ने नौ भेद बताये हैं। वे हैं—१. चक्षुदर्शनावरण, २. अचक्षुदर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा दर्शनावरण, ६. निद्रानिद्रा दर्शनावरण, ७. प्रचलादर्शनावरण, ८. प्रचलाप्रचलादर्शनावरण और ९. स्त्यानगृद्धिदर्शनावरण।
इनमें चक्षु इन्द्रिय का कार्य है पदार्थ का सामान्य प्रतिभास करना। ऐसा न होने देने में निमित्तभूत कर्म चक्षु दर्शनावरण और चक्षु के सिवाय अन्य शेष चार इन्द्रियों तथा मन से पदार्थ का सामान्य प्रतिभास न होने देने में निमित्तभूत कर्म अचक्षु दर्शनावरण कहलाता है। समस्त मूर्त द्रव्यों को देखने वाले अवधिदर्शन और लोकालोक के समस्त पदार्थों का दर्शन करने वाले केवलदर्शन को न होने देने वाले कर्म, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण कर्म कहलाते हैं।
मद, खेद और परिश्रमजन्य थकान दूर करने के लिए अल्प आहट पाकर ही, भंग हो जाने वाली श्वाननिद्रा के समान नींद लेने में निद्रादर्शनावरण और ऐसी गाढ निद्रा का आना कि वृक्ष, पहाड़ या विषम भूमि पर सो जाये, जगाने पर भी न जगे, खर्राटे भरे, इसमें निद्रानिद्रा दर्शनावरण कर्म निमित्त होता है। निद्रा का तीसरा रूप है प्रचला। बैठे-बैठे झपकियाँ लेने लगना, नेत्र और गात्र का विकृत हो जाना, आँखे रेत से भरी हुई के समान प्रतीत होना और सिर भारी हो जाना प्रचला दर्शनावरण के चिन्ह हैं तथा नींद की पुन:-पुन: आवृत्ति होना और गाढ़ निद्रा में लार गिरने लगना प्रचला प्रचला दर्शनावरण कर्म है।
स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म नींद की पराकाष्ठा का प्रतीक है। ऐसी नींद में मनुष्य सोते हुए बड़बड़ाता है, रौद्र कर्म करता है घर के दरवाजे खोलकर पुन: सो जाता है, जागने पर उसे द्वार खोलने का ज्ञान नहीं होता।
जीव का चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शन क्यों आवृत होता है ? इसी प्रकार उसे ऐसी विविध प्रकार की नींद क्यों आती है ? आचार्यों ने इसका अध्ययन किया और उन्होंने इसके निम्न कारण दर्शाए हैं—
(१) प्रदोष—तत्त्वज्ञान के उपदेशक की प्रशंसा नहीं करना, उल्टे उसे देखकर उसके प्रति अशुभ परिणाम रखना प्रदोष है। ऐसा करने से उपदेशक से प्राप्त होने वाला मार्गदर्शन प्राप्त नहीं होता और उनका हमारे चक्षुदर्शन पर मूक प्रभाव पड़ता है। किसी की आँख निकालकर उसके दर्शन में बाधा पहुँचाने से ऐसा करने वाले के चक्षुदर्शन में भी बाधा आवेगी। चक्षुदर्शनावरण का यह प्रमुख कारण है। बहुत नींद लेने, दिन में शयन करने, सम्यक् दर्शन में दोष लगाने, नास्तिकपने के भाव रखने, सिद्धक्षेत्रों के दर्शन न करने, मुनियों को देखकर ग्लानि करने और प्राणिघात से भी ऐसा होता है। इन कारणों को बचाने के लिए मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना चाहिए।
(२) निन्हव—वस्तुस्वरूप पूछे जाने या उसके साधन माँगे जाने पर अपनी देखी वस्तुओं को नहीं बताने के लिए अज्ञानता प्रकट करना तथा देखे साधनों को नहीं बताना निन्हव है। इससे दूसरों के दर्शन में अवरोध उत्पन्न होता है जो हमारे दर्शनावरण का कारण बन जाता है।
निन्हव और अचक्षुदर्शन दोनों का सम्बन्ध मन से होने के कारण निन्हव अचक्षुदर्शनावरण का कारण होता है।
(३) मात्सर्य—दूसरा पंडित न बन जावे इस ईर्ष्या भाव से उसे तत्त्वज्ञान के कारण शास्त्र आदि नहीं दिखाना और न बताना मात्सर्य है। इसमें भावों की कुटिलता है। कुटिल भाव अवधि और केवलदर्शन में बाधक होते हैं अत: इन दोनों के आवरण में मात्सर्य ही कारण होता है।
(४) अन्तराय—दूसरों के लिए पदार्थ देखने में विघ्न उपस्थित करना अन्तराय है। निद्रा के विविध रूप इसी के फल ज्ञात होते हैं।
(५) आसादन—दूसरे के दर्शन गुण को छिपाना, किसी के द्वारा देखी हुई वस्तु को स्वीकार नहीं करना।
(६) उपघात—निर्दोष दर्शन में दोष लगाना। किसी दूसरे के निर्दोष सम्यक् दर्शन को दूषित बताना। देखने की शक्ति में दोषारोपण करना।
चिकित्सा शास्त्र में जैसे रोग, उसका कारण और उसका निदान (निवारण उपाय) बताया जाता है इसी प्रकार आचार्यों ने कर्मों का नाश करने के लिए निम्न उपाय दर्शाए हैं—
(१) मिथ्यादर्शन निवृत्ति—वस्तु स्वभाव जैसा है वैसा न देखकर विपरीत स्वरूप के दर्शन करना मिथ्यादर्शन है, जैसे देह और चेतन को एकरूप देखना, उन्हें पृथक् -पृथक् नहीं जानना। इससे यथार्थता का बोध नहीं हो पाता और ऐसा बोध न होने से उसका आचरण भी सम्यक् नहीं रह पाता अत: मिथ्यादर्शन से निवृत्ति परमावश्यक है। जिसका दर्शन ही मिथ्या हो वह वस्तुस्वरूप को वैâसे समझ सकता है ?
(२) अविरति निवृत्ति—व्रतों का धारण नहीं करना, छह काय के जीवों की हिंसा तथा छहों इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति अविरति है। ऐसा जीव विषयाग्रही होने से विषय रूप ही दर्शन करता है। वह स्त्री के सौन्दर्य को ही देखता है जबकि विषयों से निर्वृत्त पुरुष स्त्री के सौन्दर्य को देखते हुए भी उसके आभ्यन्तरिक घृणित स्वरूप को भी देख लेता है अत: यथार्थ दर्शन के लिए व्रतों से विरति नहीं व्रतों में प्रवृत्ति चाहिए, तभी दर्शन का आवरण हटेगा और दर्शनावरण कर्म का नाश हो सकेगा।
(३) प्रमाद निवृत्ति—अपने कर्त्तव्य के प्रति अनादर भाव प्रमाद है। इसके पन्द्रह भेद कहे हैं—पाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कषाय, निद्रा और प्रणय (स्नेह)। जीव स्त्रीकथा, राष्ट्रकथा, भोजनकथा और राजकथाओं, इन्द्रिय विषयों, कषायों, नींद और स्नेह के आधीन होकर अपने कर्त्तव्य से च्युत हो जाता है। समयाधीन दर्शन से वंचित हो जाता है और ऐसा होने से दर्शनावरणकर्म जीव के साथ बना रहता है। व्यवहार में भी प्रमादी जीव सुखी दिखाई नहीं देता अत: प्रमादनिवृत्ति दर्शन के लिए आवश्यक है।
(४) कषाय निवृत्ति—आत्म परिणामों में निर्मलता न होना कषाय है। कषाय करने वाला जीव अपनी कषायों के अनुसार ही दूसरे जीवों को देखता है। अपने बैरी को सदा बैर से ही देखता है जबकि बैरी ऐसा नहीं होता। तात्पर्य यह है कि वास्तविकता का वह दर्शन नहीं कर पाता। इसके लिए कषायों में प्रवृत्ति नहीं, निवृत्ति चाहिए।
(५) योग निवृत्ति—आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन होना योग है। यह मन, वचन और काय के योग से होता है। कषायों के कारण उत्पन्न परिणामों की क्रियान्विति में इनका ही हाथ होता है अत: यदि गांधीजी के तीन बन्दरों को ध्यान में रखा जावे तो योगों से निवृत्ति होगी। वे तीन बन्दर हैं—(१) बुरा मत सोच, (२) बुरा मत बोल, (३) बुरा मत देख।
दूसरे जीवों के साथ हम जैसा व्यवहार करते हैं, वैसा ही व्यवहार हमें प्राप्त होता है। अच्छे कार्य का फल अच्छा ही होता है। अच्छे परिणाम जीवन में अच्छाई का ही सृजन करते हैं अत: अच्छा दर्शन करें। शुभ दर्शन से ही दर्शन के आवरण दूर होंगे और यथार्थता का दर्शन हो सकेगा। सरल उपाय यही है कि वे कारण दूर किये जायें, जिनसे दर्शन आवृत होता है।
दर्शन, मनुष्य की क्रिया-प्रदर्शन का प्रथम अंग है। जैसा-जैसा देखा जाता है वैसे ही विचार बनते हैं और जैसे विचार होते हैं जीव के आचरण भी वैसे ही होते हैं। दर्शनविशुद्धि से सम्य ज्ञान होगा और सम्यक् ज्ञान होने पर सम्यक् चारित्र की सृष्टि होगी, निर्ग्रन्थ होकर तप करने के भाव होंगे। तपश्चरण होगा और तपश्चरण रूपी अग्नि में जलेंगे कर्म, तब प्राप्त होगा मोक्ष, जहाँ है अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख तथा अनन्तवीर्य।
अत: श्रावक का कर्त्तव्य है कि वह नित्य देव, शास्त्र और निर्ग्रंथ गुरू के श्रद्धानपूर्वक दर्शन करे। देवदर्शन से ‘सोऽहं’ के भाव उत्पन्न होते हैं। कहा भी है—
दासोऽहं रटते हुए आया जिन के द्वार।
दर्शन से दा ना रहे हिय के खुलें किवार।।
अत: सदैव ऐसा दर्शन करें जो सम्यक् हो तथा धर्म का मूल हो, जिससे सुख का मार्ग प्रशस्त हो।