आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए हम जब भी उद्यत होते हैं तो सबसे पहले हमारा सामना इस विकराल समस्या से होता है कि आत्मा कुछ है भी या नहीं ? क्या प्रमाण है आत्मा के अस्तित्व का ? किसने देखा है आत्मा को? इतना विकसित आधुनिक विज्ञान भी आत्मा को क्यों नहीं सिद्ध कर पा रहा है ? इत्यादि—इत्यादि।
कुछ लोग इन्हीं प्रश्नों से परेशान होकर स्वयं को नास्तिक तक कह देते हैं। कह देते हैं कि हम आत्मा को नहीं मानते और उसके बाद वे आत्मा का स्वरूप जानने का कभी कोई ईमानदार प्रयत्न ही नहीं कर पाते। किन्तु परेशान होकर कोई भी उल्टी—सीधी धारणा बना लेने से तो काम नहीं चलेगा। प्रश्न हैं तो उनके उत्तर भी खोजने ही होंगे।
इस जगत् में दो प्रकार की सत्ताएँ (वस्तुएँ / पदार्थ) हैं—एक मूर्तिक और दूसरी अमूर्तिक। मूर्तिक सत्ता भौतिक है, स्पर्श—रस—गन्ध—वर्णादिमान् है, अत: हम उसे अपनी इन्द्रियों द्वारा आसानी से जान लेते हैं उसके अस्तित्व और स्वरूप के सम्बन्ध में हमें कोई शंका नहीं रहती; परन्तु अमूर्तिक सत्ता स्पर्श—रस—गन्ध—वर्णादि से सर्वथा रहित होती है, उसे हम—आप कोई भी किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं जान सकते हैं; न तो हम उसे देख सकते हैं, न सुन सकते हैं, न सूँघ सकते हैं, न चख सकते हैं और न ही छू सकते हैं।
ऐसी स्थिति में अमूर्तिक वस्तुओं की सत्ता को जानना थोड़ा कठिन कार्य हो जाता है, किन्तु ध्यान रखना चाहिए कि यह कठिन अवश्य है, पर असम्भव नहीं। तथा कठिन भी बहुत अधिक नहीं है, अनभ्यास के कारण मात्र अभी हमें कठिन लगता भर है।
आत्मा अमूर्तिक वस्तु है, स्पर्श—रस—गन्ध वर्णादि से रहित ही है, उसे हम—आप अपनी किसी भी इन्द्रिय द्वारा नहीं जान पाते हैं; अत: उसके अस्तित्व और स्वरूप में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है, किन्तु इस शंका का समाधान होना कठिन नहीं है। जिस प्रकार अनेक अप्रत्यक्ष (परोक्ष) वस्तुओं को हम युक्ति और आगम द्वारा भलीभाँति जान लेते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भी हम युक्ति और आगम के द्वारा भलीभाँति जान सकते हैं, भले ही वह हमें किसी भी इन्द्रिय से नहीं ज्ञात होता है।
युक्ति और आगम को भी, वस्तु का ज्ञान कराने में इन्द्रियों से कम उपयोगी अथवा कम प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। जिस प्रकार इन्द्रियाँ वस्तुओं का ज्ञान कराने में सहायक होती हैं, उसी प्रकार युक्ति और आगम भी वस्तुओं का ज्ञान कराने में बड़े सहायक होते हैं।
इतना ही नहीं, यदि ऐसा भी कहा जाए कि युक्ति और आगम तो वस्तुस्वरूप को जानने हेतु इन्द्रियों से भी अधिक प्रामाणिक साधन हैं तो अनुचित नहीं होगा, क्योंकि अनेक बार इन्द्रियों से गलत ज्ञान होते हुए हम देखते ही हैं और तब युक्ति एवं आगम से हुए ज्ञान को ही प्रामाणिक मानते हैं, अत: वर्तमान इन्द्रिय—प्रत्यक्ष के द्वारा ही सब—कुछ जानने का आग्रह रखना मिथ्या आग्रह (दुराग्रह) है, क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा सब—कुछ जानना सम्भव ही नहीं है। लोक में भी अनेक बार हम कुछ मूर्तिक वस्तुओं को भी अपनी चक्षु आदि इन्द्रियों से नहीं जान पाते हैं और युक्ति एवं आगम से ही जानते हैं।
अमूर्तिक आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप को जानने के लिए हमें सर्वप्रथम उसे इन्द्रियों से जानने का आग्रह छोड़कर, इन्द्रियों से कुछ ऊपर उठने का प्रयत्न करना चाहिए, ठोस युक्ति और समीचीन आगम का अवलम्बन लेना चाहिए। सभी प्राचीन आत्मज्ञ ऋषि—मुनियों ने आत्मा के अस्तित्व को इसी प्रकार सिद्ध कर दिखाया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यह आत्मा अरस है, अरूप है, अगन्ध है, अव्यक्त है और चेतनागुण सहित है, इसका कोई प्रकट संस्थान नहीं है, अत: इसे इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता है—यह अतीन्द्रिय है। यथा—
‘‘अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।’’
अर्थात् जो रस रहित है, रूप रहित है, गन्धरहित है, अव्यक्त है, चेतनागुण से युक्त है, शब्दरहित है, किसी चिह्न या इन्द्रिय द्वारा गोचर नहीं होता और जिसका कोई एक निश्चित आकार बनाया नहीं जा सकता है, उसे जीव जानो।
यह आत्मा अरस, अरूप इत्यादि है, अतएव इसे किसी प्रकार के शस्त्रादि से काटा नहीं जा सकता, अग्नि आदि से जलाया नहीं जा सकता, जलादि द्वारा गलाया नहीं जा सकता और हवा द्वारा सुखाया भी नहीं जा सकता है। जैसा कि ‘गीता’ के श्लोकों में जगत् प्रसिद्ध है—
‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुचरलोऽयं सनातन:।।’’
अर्थात् इस आत्मा को शस्त्र नहीं छेद सकते हैं, अग्नि नहीं जला सकती है, पानी भी नहीं गला सकता है और हवा भी नहीं सुखा सकती है; यह तो अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है; यह नित्य सर्वगत, स्थाणु अचल और सनातन है।
‘आचारांग’ नामक श्वेताम्बर जैनागम में भी ऐसा ही कहा है—
‘‘से ण छिज्जइ, ण भिज्जइ, ण डज्झइ, ण हम्मइ कंचणं सव्वलोए।।’’
आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि हेतु शास्त्रों में अनेकानेक युक्तियाँ विस्तारपूर्वक प्रस्तुत की गई हैं। उनमें से कुछ प्रमुख युक्तियाँ निम्नानुसार हैं। यदि सावधानीपूर्वक इन्हें ही समझने का प्रयत्न किया जाए तो अवश्य ही आत्मा के अस्तित्व में कोई शंका नहीं रहेगी।
न्याय—वैशेषिक दर्शन के ग्रंथों में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि हेतु निम्नलिखित अनेक तर्क प्रमाण दिये गये हैं—
(क) हित पदार्थ के पाने का और अहित पदार्थ के छोड़ने का व्यापार मनुष्य के शरीर में हमेशा पाया जाता है। इससे शरीर के भीतर किसी चेतन पदार्थ की सत्ता का संकेत मिलता है। जैसे रथ के व्यापार से रथ के भीतर सारथी रूप चेतन पदार्थ का अनुमान होता है, वैसे ही शरीर के व्यापार से जिस चेतन पदार्थ का अनुमान किया जाता है, वही आत्मा है (व्यापार)।
(ख) श्वास—प्रश्वास से शरीर फूलता है तथा संकुचित होता है। यह किसी चेतन पदार्थ के द्वारा ही किया जाता है। जैसे लोहार की भाथी (भास्त्रिका या धोंकनी) का फूलना और संकुचित होना (भास्त्रिका या धोंकनी)पूँâकने वाले प्राणी के व्यापार से होता है (प्राणापान)।
(ग) कुएँ में मोट का गिरना तथा उठना मोट खींचने के व्यापार से होता है। ठीक उसी प्रकार आँख की पलक का गिरना तथा उठना चेतन व्यक्ति का ही व्यापार है (निमेषोन्मेष)।
(घ) शरीर में घाव लगता है और दवा करने पर फिर भर जाता है। यह शरीर में स्थित आत्मा के द्वारा हो सकता है, जैसे घर में रहने वाला घर की मरम्मत करता है (जीवन)।
(ङ) मन को प्रेरित करने वाला भी आत्मा ही है। जैसे बालक अपनी इच्छा से गोली या गेंद इधर—उधर फेंकता है, उसी प्रकार आत्मा भी मन को अपनी इच्छा के अनुसार इधर—उधर दौड़ाया करता है (मनोगति)।
(च) मीठे आम को देखकर मुँह में पानी भर आता है। इसका कारण क्या है ? किसी रूपविशेष के साथ रसविशेष का अनुभव पहले हो चुका है और उसी की स्मृति वर्तमान दशा में हो रही है। अनुभव तथा स्मृति का आश्रय एक ही होना चाहिए। सब इन्द्रियों का अधिष्ठाता एक ही चेतन है और वही आत्मा है।
(छ) सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष तथा प्रयत्न गुण हैं, अत: इनका कोई आश्रय द्रव्य होना ही चाहिए। जड़ होने से शरीर वह आश्रय नहीं हो सकता, चेतन आत्मा ही इसका आश्रय होता है। इन गुणों के आश्रय होने से भी आत्मा की सिद्धि होती है।
जैन ग्रंथों में तो अत्यन्त विस्तारपूर्वक निम्नलिखित युक्तियों द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की गई है—
युक्ति १—स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तो माध्यम हैं, वे स्वयं नहीं जानती, क्योंकि वे चश्मा आदि उपकरणों के समान अचेतन हैं; अत: इन इन्द्रियों के माध्यम से जो कोई अन्य जानता—देखता है, वही आत्मा है।
युक्ति २—जिस प्रकार रथ की क्रियाओं का अधिष्ठाता सारथी होता है; उसी प्रकार इस शरीर की क्रियाओं का अधिष्ठाता आत्मा है अन्यथा शरीर तो साक्षात् अचेतन है। उदाहरणार्थ, हम देखते हैं कि जो शरीर वर्षों तक ठीक रहता है, वही आत्मा के शरीर से चले जाने पर कुछ ही घण्टों में सड़ने—गलने लगता है।
युक्ति ३—‘मैं सुखी, मैं दु:खी’ इत्यादि प्रकार से जो ‘अहं—प्रत्यय’ होता है, उससे भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है।
युक्ति ४—‘आत्मा’ शब्द (सार्थक) है तो ‘आत्मा’ के नाम का अर्थ भी अवश्य होना चाहिए। जिनका अस्तित्व नहीं होता, उनके वाचक शब्द भी नहीं होते।
युक्ति ५—‘अजीव’ शब्द से ही जीव अर्थात् आत्मा की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि जीव का निषेध जीव के अस्तित्व का अविनाभावी है अर्थात् यदि जीव की सत्ता न हो तो ‘अजीव’ शब्द ही नहीं बन सकता।
युक्ति ६—गुण (सुख, दु:ख, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि) गुणी के बिना नहीं रह सकते। चूँकि ज्ञान—दर्शन आदि गुण पाये जाते हैं, अत: उनका स्वामी (गुणी) भी होना ही चाहिए, वह गुणी आत्मा है।
युक्ति ७—हर क्रिया का भी कोई—न—कोई कर्ता अवश्य होता है, अत: जाननेरूप क्रिया का कर्ता भी अवश्य होना चाहिए और वही आत्मा है।
युक्ति ८—उपर्युक्त प्रमुख युक्तियों के अतिरिक्त स्याद्वादमंजरी, तत्त्वार्थवार्तिक आदि कतिपय ग्रंथों में एक अकाट्य युक्ति यह भी प्रस्तुत की गई है कि बताइए ‘यह आत्मा है’—ऐसा जो हमको अनुभवात्मक ज्ञान होता है, वह क्या है? संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय या सम्यग्ज्ञान ? कोई एक तो अवश्य होगा।
यदि संशय है तो भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। यदि विपर्यय है तो भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है क्योंकि सर्वत्र अप्रसिद्ध पदार्थ का विपर्यय नहीं होता। अनध्यवसाय तो हो नहीं सकता क्योंकि अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का स्पष्ट अनुभव करता है। तथा यदि सम्यग्ज्ञान है तब तो वह आत्मा के अस्तित्व का साधक है ही।
इस प्रकार अनेक अकाट्य युक्तियों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होने के बाद भी कुछ लोग कहते हैं कि आत्मा इस पौद्गलिक शरीर से भिन्न नहीं है अपितु इसी की एक विशिष्ट क्रिया चेतनारूप में प्रतीत होती है तथा उस चेतना का उत्पाद—विनाश भी शरीर के ही जन्म—मरण तक सीमित रहता है।
किन्तु यह मत भी किंचिदपि युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता, शरीर और चेतना में सर्वथा भेद है, दोनों के गुण—धर्म सर्वथा भिन्न—भिन्न हैं; अत: शरीर और चेतन—इन दोनों को भिन्न—भिन्न दो द्रव्य मानना ही उचित है।
इस प्रकार विविध युक्तियों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाने के उपरान्त यह स्वयमेव सिद्ध हुआ मान लेना चाहिए कि आत्मा भी सत् है, अस्तित्वमय है, एक स्वतन्त्र द्रव्य है; अत: उसमें भी वे सभी सामान्य गुण पाये जाते हैं, जो किसी भी सत् या सत्तारूप वस्तु में पाये जाते हैं।
आत्मा स्वभावत: अनादि—अनन्त है, उसकी सर्वथा न उत्पत्ति होती है और न ही नाश, किन्तु वह सर्वथा कूटस्थ भी नहीं है, उसमें सतत परिणमन भी पाया जाता है। अन्य वस्तुओं की भाँति वह भी नित्यानित्यात्मक है। उसमें निरन्तर उत्पाद (नई अवस्था का आगमन) और व्यय (पुरानी अवस्था का नाश) होता रहता है, फिर भी स्वभाव की अपेक्षा वह नित्य स्थायी भी बना रहता है।
आत्मा को सामान्य—विशेषात्मक भी कहा जा सकता है; उसमें यद्यपि अनन्तानन्त गुण—पर्यायें रहती हैं तथापि वह एक अखण्ड—अभेद रहता है। संख्यापेक्षा भी वे आत्माएँ अनन्त हैं।
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि आत्मा का अस्तित्व है और जगत् के अनन्तानन्त पदार्थों की भाँति वह भी एक अनादि अनन्त सामान्य—विशेषात्मक सत्तारूप वस्तु है।
आज का युग वैज्ञानिक युग है। लोग विज्ञान से अत्यधिक प्रभावित और चमत्कृत हैं। बात—बात पर विज्ञान की बात करते और पूछते हैं। अत: जब भी हम कोई दर्शनशास्त्र की बात करते हैं, तब भी वे तुरन्त ‘विज्ञान इस विषय में क्या कहता है’ अथवा ‘इसका वैज्ञानिक आधार/प्रमाण क्या है’—इत्यादि प्रकार की बातें करने लग जाते हैं।
विचारणीय है कि दर्शन और विज्ञान में क्या अन्तर है ? क्या दर्शन भी विज्ञान ही नहीं है ?
वास्तविकता यह है कि दर्शन भी विज्ञान ही है, दर्शन और विज्ञान में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है; क्योंकि दोनों ही तर्क, युक्ति या परीक्षा से प्राप्त निष्कर्षों को ही स्वीकार करने पर जोर देते हैं।
वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है कि जिसे आधुनिक युग में ‘विज्ञान’ कहते हैं, उसे ही प्राचीन युग में ‘दर्शन’ कहा जाता था, अत: दर्शन भी वस्तुत: विज्ञान ही है और विज्ञान भी वस्तुत: दर्शन ही है, दोनों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। मात्र ‘प्राचीन’ और ‘आधुनिक’ का ही इन दोनों में अन्तर आज हो गया है। ‘विज्ञान’ नाम भी वस्तुत: कोई नया नहीं है, दर्शन—ग्रंथों में पहले से ही अनेक स्थानों पर ‘विज्ञान’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे—जैनदर्शन को ‘वीतराग—विज्ञान’ शब्द से बहुत बार सम्बोधित किया गया है। यथा—
(क) मंगलमय मंगलकरण, वीतराग विज्ञान।
(ख) ‘तीन भुवन में सार, वीतराग—विज्ञानता।
(ग) ‘जय वीतराग—विज्ञान पूर।
(घ) ‘वन्दूँ श्री अरिहंत पद, वीतराग—विज्ञान।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि शास्त्रों में ‘दर्शन’ के लिए ‘विज्ञान’ शब्द का भी प्रयोग होता रहा है और उससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि दर्शन और विज्ञान में वस्तुत: कोई मौलिक अन्तर नहीं है।
डॉ. दरबारीलाल कोठिया ने धर्म और दर्शन का अन्तर इस प्रकार स्पष्ट किया है—
‘‘सब जीवों पर दया करो, किसी जीव की हिंसा न करो, सत्य बोलो, असत्य मत बोलो, आदि विधि और निषेध रूप आचार का नाम धर्म है। किन्तु जब इसमें ‘क्यों’ का सवाल उठता है तो उसके उत्तर में कहा जाता है कि जीवों पर दया करना कर्त्तव्य है, गुण (अच्छा) है, पुण्य है और इससे सुख मिलता है, किन्तु जीवों की हिंसा करना अकर्त्तव्य है, दोष है, पाप है और उससे दु:ख मिलता है; इसी तरह सत्य बोलना कर्त्तव्य है, असत्य बोलना दोष है, पाप है और उससे दु:ख प्राप्त होता है। इस प्रकार के विचार दर्शन कहे जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि धर्म तो सीधे—सीधे विधि—निषेध का उपदेश देता है, किन्तु दर्शन उस विधि—निषेध की अनेक तर्कों या प्रमाणों द्वारा भली—भाँति परीक्षा करता है, हमें सयुक्ति समझाता है कि वैसा ही विधि—निषेध क्यों समीचीन है, उससे भिन्न या विपरीत क्यों नहीं।
इस प्रकार धर्म को ठोस आधार देने का काम दर्शन करता है। दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि धर्म की अनेक प्रमाणों द्वारा युक्तिसंगत परीक्षा करना ही तो दर्शन है। दर्शनशास्त्र का उद्भव ही वस्तुत: इसलिए हुआ प्रतीत होता है कि निर्दिष्ट धर्म की पूर्णत: निष्पक्ष होकर सप्रमाण परीक्षा की जाए। स्पष्ट है कि यही कार्य आधुनिक विज्ञान का भी है, वह भी निर्दिष्ट विषय की पूर्णत: निष्पक्ष होकर सप्रमाण परीक्षा करता है। इससे सिद्ध होता है, कि दर्शन और विज्ञान में मूलत: कोई अन्तर नहीं है, दोनों वस्तुत: एक ही हैं।
इस प्रकार यदि देखा जाए तो दर्शन और विज्ञान दोनों पर्यायवाची हैं, एक ही विधा के दो नाम हैं, उनमें प्रकृतिगत कोई अन्तर नहीं है। अत: हमेशा हर बात को मात्र आधुनिक विज्ञान द्वारा समर्थित होने पर ही स्वीकार करने का आग्रह रखना उचित नहीं है। अपितु सर्वत्र तार्किकता या युक्तिसंगतता को ही विशेष महत्त्व देना उचित है, क्योंकि वही हमें अज्ञानता या अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाकर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कराने में समर्थ है।
दर्शन और विज्ञान में इस प्रकार कोई मौलिक अन्तर न होते हुए भी, आधुनिक विज्ञान और दर्शनशास्त्र में आज बड़ा अन्तर देखने में आता है। एक तो स्पष्ट अन्तर यह आ गया है कि आधुनिक विज्ञान मात्र मूर्तिक पदार्थों के विषय में ही अध्ययन—अनुसंधान करता है, किन्तु दर्शनशास्त्र मानता है कि इस जगत् में दो प्रकार के पदार्थ हैं—
१. मूर्तिक और २. अमूर्तिक।
तथा वह इन दोनों का ही अध्ययन प्रस्तुत करना अपना परम कर्तव्य समझता है। यही कारण है कि दर्शनशास्त्र के ग्रंथों में मूर्तिक और अमूर्तिक दोनों ही प्रकार के पदार्थों का सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण प्राप्त होता है।
दर्शनशास्त्र का मानना है कि जब जगत् में दो प्रकार के पदार्थ हैं—मूर्तिक और अमूर्तिक, तब दोनों का ही तो अध्ययन करना आवश्यक है, उनमें से किसी भी एक को छोड़ा वैâसे जा सकता है ? तथा यदि छोड़ दिया जाए तो वह अध्ययन पूर्ण अध्ययन नहीं माना जाएगा।
यदि कोई कहे कि अमूर्तिक पदार्थ (आत्मादि अप्रत्यक्ष पदार्थ) हमारी पकड़ में ही नहीं आते, हमें बिल्कुल ही प्रत्यक्ष नहीं होते, तो हम उनका वैज्ञानिक (निष्पक्ष एवं प्रामाणिक) अध्ययन वैâसे कर सकते हैं ? तो उसका उत्तर दर्शनशास्त्र यह देता है कि मात्र प्रत्यक्ष से ही निर्णय करने का आग्रह रखना संकीर्णता है। हर वस्तु का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष से ही नहीं होता, बहुत सी बातों का निर्णय हम लोक में भी अनुमानादि के द्वारा करते ही हैं।
अनुमानादि द्वारा ज्ञात पदार्थ भी प्रत्यक्षादि की भाँति असन्दिग्ध तथा समीचीन सिद्ध होते हैं। तथा जिस वस्तु का प्रत्यक्ष सम्भव ही नहीं है, उसका किया ही क्या जा सकता है ? यह तो नहीं किया जा सकता कि हमें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती तो उसका अभाव ही मान लिया जाए, क्योंकि तब तो फिर हमें अपने प्रपितामहादि अनेक सद्भावरूप वस्तुओं को भी अभावरूप मानना पड़ेगा। जो उचित नहीं होगा।
अत: जिस वस्तु की परीक्षा जिस विधि (प्रमाण) से सम्भव हो, वही विधि हमें उसकी परीक्षा हेतु अपनानी चाहिए। एक ही विधि से सबकी परीक्षा का आग्रह रखना वैज्ञानिक (समीचीन) नहीं कहा जा सकता। स्वर्ण को शुद्ध करने की विधि अलग होती है और वस्त्र को शुद्ध करने की अलग। दोनों को एक ही विधि से शुद्ध करने का आग्रह वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता।
वैसे तो विज्ञान भी स्वयं यह नहीं कहता कि मैं मात्र मूर्तिक वस्तुओं के विषय में ही अध्ययन करूँगा, अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में नहीं करूँगा, किन्तु यह उसकी मजबूरी/दुर्बलता है कि वह अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में ठीक से अध्ययन नहीं कर पा रहा है; यद्यपि वह कोशिश बहुत कर रहा है, सम्भव है कि भविष्य में किसी—न—किसी प्रकार से सफलता प्राप्त कर सकेगा।
वर्तमान में भी विज्ञान की अनेक शाखाएँ—उपशाखाएँ अमूर्तिक वस्तुओं का अध्ययन कर रही हैं। जैसे—मनोविज्ञान और जीवविज्ञान—ये दोनों विज्ञान की ही शाखाएँ हैं और बड़ी महत्त्वपूर्ण शाखाएँ हैं। ये दोनों प्राणियों की विविध मनोदशाओं और जैविक क्रियाओं का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत कर रही हैं, जो अमूर्तिक चैतन्य का ही अध्ययन है।
अत: सर्वथा यह समझना भी मिथ्या ही है कि आधुनिक विज्ञान मात्र मूर्तिक वस्तुओं के विषय में ही अध्ययन करता है, अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में अध्ययन नहीं करता है। अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में भी वह यथासम्भव कोशिश करता ही है परन्तु कुछ तो अभी उसमें भी अनेक कमियाँ हैं और कुछ उसके निष्कर्ष भी अधिक लोगों तक पहुँच नहीं पा रहे हैं, अत: उस ओर थोड़ा ध्यान देने की विशेष आवश्यकता है। यद्यपि यह भी सत्य है कि आधुनिक विज्ञान मूर्तिक वस्तुओं के विषय में ही अधिक अध्ययन करता है।
आधुनिक विज्ञान और दर्शनशास्त्र में बड़ा भारी अन्तर लोगों को इसलिए भी लगता है, क्योंकि आधुनिक विज्ञान तो प्राय: मूर्तिक (भौतिक) वस्तुओं के अध्ययन में ही डूबा हुआ है, जबकि दर्शनशास्त्र कहता है कि हमें अपने वास्तविक हित हेतु अमूर्तिक वस्तुओं—विशेषत: आत्मा, परमात्मा आदि के ज्ञान पर अधिक ध्यान देना चाहिए, मात्र मूर्तिक (भौतिक) वस्तुओं के ज्ञान में ही सारा समय व्यतीत करना बुद्धिमानी नहीं। जीवन छोटा है और ज्ञान का कोई अन्त नहीं है, अत: हमें वही शीघ्र सीख लेना चाहिए जिससे जन्म—मरण आदि दु:खों का विनाश हो।
हमारा प्रकरण यहाँ आधुनिक विज्ञान में मत के आत्मा और परमात्मा का स्वरूप स्पष्ट करना है। ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा और परमात्मा भी अमूर्तिक या अभौतिक (Non-matter) वस्तुएँ हैं जो किसी भी भौतिक उपकरण द्वारा पकड़ में आने वाली नहीं हैं, अत: आधुनिक विज्ञान उन्हें परखनली आदि में रखकर तो हमें नहीं दिखा सकता है, किन्तु ऐसे अनेक वैज्ञानिक तथ्य अवश्य प्रस्तुत करता है जिनसे आत्मा—परमात्मा के अस्तित्व और स्वरूप पर विशद प्रकाश पड़ता है।
आत्मा और परमात्मा भारतीय दर्शनों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है और इसलिए भारतीय जन—जीवन में प्रारम्भ से लेकर आज तक निरन्तर अत्यधिक चर्चित रहता आया है। बालक से लेकर वृद्ध तक और राजा से लेकर रंक तक सभी लोग यहाँ सदैव आत्मा और परमात्मा की चर्चा करते रहते हैं।
अत: आधुनिक विज्ञान ने भी इन विषयों पर गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने का अनेक बार प्रयास किया है। यह बात अलग है कि वह अभी तक इनके सम्बन्ध में अपने कोई स्पष्ट निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं कर पाया है, किन्तु इन विषयों की उसने उपेक्षा की हो अथवा इनकी ओर कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया हो—ऐसा नहीं है।
तथा अनेक घटनाओं और प्रयोगों के आधार पर वह इनके अस्तित्व की सम्भावना भी प्रकट कर चुका है। भले ही वह इनके स्वरूपादि को स्पष्टतया सिद्ध नहीं कर पा रहा हो, किन्तु अनेक जैविक क्रियाओं और मनोभावों के आधार पर वह यह भी सशक्त सम्भावना प्रस्तुत करता है कि इस शरीर में आत्मा जैसा कोई अन्य तत्त्व अवश्य ही होना चाहिए, अन्यथा जीवित और मृत शरीर में और क्या अन्तर हो सकता है।
जिस प्रकार हमें लगता है कि हम चश्मा आदि उपकरणों से देख रहे हैं किन्तु वस्तुत: चश्मा आदि से नहीं, आँख से देख रहे होते हैं, उसी प्रकार हम किसी अन्य ज्ञान तत्त्व से देख रहे होते हैं, जो मृत्यु हो जाने पर शरीर से निकल जाता है। यदि आँख ही देखती हो तो मृत शरीर क्यों नहीं देखता, अत: सिद्ध होता है कि आँख तो चश्मा आदि के समान बाह्य निमित्त मात्र है, मूल कारण कोई अन्य ज्ञान तत्त्व है। यह अन्य ज्ञान तत्त्व ही दर्शन—ग्रंथों में ‘आत्मा’ या ‘जीव’ कहा गया है।
आँख की देखना क्रिया की भाँति सारे ही शरीर की सुनना, सूँघना आदि सभी सैंकड़ों जैविक क्रियाएँ जिस तत्त्व के रहने पर चलती रहती हैं और जिसके न रहने पर (शरीर से बाहर निकल जाने पर, मृत्यु हो जाने पर) नहीं चलती हैं, रुक जाती हैं, वह अन्य चैतन्य तत्त्व ही ‘आत्मा’ है।
इसे मात्र वैज्ञानिक तथ्यों द्वारा इस प्रकार सिद्ध किया गया है—
१. पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ—पृथ्वी पहले तपता हुआ आग का गोला था। इसके पर्याप्त शीतल हो जाने पर अनुकूल वातावरण में कई प्रकार के जटिल प्रोटीन बनने लगे। इन जटिल प्रोटीनों के संघटन से कोशिका का निर्माण हुआ और अमीबा जैसे सूक्ष्म जीव अस्तित्व में आये। (जीवन की उत्पत्ति का यह सिद्धांत मात्र भौतिक विज्ञान पर आधारित है, जैन मान्यतानुसार जीव का अस्तित्व अनादि काल से है। —संपादक)
कई वैज्ञानिकों का मत है कि जीव तत्त्व का निर्माण जटिल रसायनों के संश्लेषण द्वारा नहीं हुआ है बल्कि यह किसी अन्य ग्रह से आया है। अन्य ग्रहों पर भी जीवन की पूर्ण सम्भावनाएँ हैं। यह जीव तत्त्व आत्मा ही है जो कि जड़ पदार्थों से निर्मित नहीं हो सकता है। जड़ पदार्थों से निर्मित तो मात्र शरीर है जिसका निर्माण पृथ्वी पर हुआ।
२. ब्रह्माण्ड का विस्तार—खगोल—वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है। इस बात को प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। वैज्ञानिकों का मत है कि ब्रह्माण्ड में संकुचन एवं विस्तरण होता रहता है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मात्र जड़ तत्त्व से ही निर्मित होता तो इसमें एक स्थिरता होनी चाहिए, इसमें संकुचन—विस्तरण नहीं होना चाहिए। फिर यह विस्तार क्यों हो रहा है ? यह इस बात की ओर इशारा करता है कि ब्रह्माण्ड मात्र जड़ पदार्थ से निर्मित नहीं है, बल्कि इसमें जड़ पदार्थ से भिन्न अन्य तत्त्व भी मौजूद है जिस पर भौतिकी के नियम लागू नहीं होते हैंं। जड़ से भिन्न यह तत्त्व आत्मा हो सकता है।
३. अंग—प्रत्यारोपण—अंग प्रत्यारोपण आज एक आम बात हो गई है। आँख, गुर्दा, हृदय आदि सभी अंग—प्रत्यंगों का प्रत्यारोपण किया जा सकता है। सैद्धान्तिक तौर पर मस्तिष्क का प्रत्यारोपण भी सम्भव है। किसी के शरीर से पूरे का पूरा खून निकाल कर किसी अन्य के खून को डाला जा सकता है। इन सबसे जुड़ी एक दिलचस्प बात यह है कि चाहे व्यक्ति के शरीर का पूरे का पूरा खून बदल दो, चाहे उसके गुर्दे, हृदय तथा मस्तिष्क को बदल दो; फिर भी वह व्यक्ति अपना वजूद, अपनी पहचान बनाये रखता है। उसका चित्त पहले जैसा बना रहता है।
अपने परिवारी जनों एवं मित्रों के प्रति उसका प्रेम, उसकी स्मरण—शक्ति यथावत् बनी रहती है। इससे सिद्ध होता है कि चाहे सारे अंग—प्रत्यंग बदल दिये जाएँ, चाहे पूरा खून बदल दिया जाए, फिर भी कुछ ऐसा अवश्य होता है जो व्यक्ति को अपनी मूल स्थिति से अलग नहीं होने देता है, उसे अपने पूर्व संस्कारों से युक्त बने रहने को बाध्य करता है। और निश्चित तौर पर यह चैतन्य युक्त आत्मा ही है।
ये तीनों ही तर्क गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करने योग्य हैं।
इसके अतिरिक्त आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत दो प्रकार के पदार्थों का निम्नलिखित वर्गीकरण भी जीव या आत्मा के अस्तित्व को अनिवार्यत: सिद्ध करता है—
१. सजीव पदार्थ (Living things)
२. निर्जीव पदार्थ (Non-living things)
इनके सम्बन्ध में डॉ. अनिल कुमार जैन ने ठीक ही लिखा है—
‘‘अधिकतर लोगों को सजीव और निर्जीव की पहचान करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। उदाहरण के तौर पर वे आसानी से यह बता सकते हैं कि मक्खी, घोड़ा और पेड़ सजीव हैं जो वृद्धि और प्रजनन जैसी कुछ क्रियाओं को करते हैं। इस प्रकार जीव (सजीव) तथा निर्जीव (अजीव) की पहचान तो की जा सकती है, लेकिन जीवन (त्ग्fा) क्या है—इसका सीधा उत्तर दे पाना कठिन है। जैव वैज्ञानिकों के पास जीव से सम्बन्धित विशद ज्ञान है, फिर भी वे जीवन को परिभाषित करने में कठिनाई महसूस करते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से जीव के लक्षणों का निरूपण करते हुए वे आगे और भी लिखते हैं—
‘‘पृथ्वी पर अनेकों प्रकार के जीव पाये जाते हैं। अब तक बीस लाख से अधिक प्रजातियों को खोजा जा चुका है। वे सूक्ष्म बैक्टेरिया से लेकर विशालकाय व्हेल मछली तक के अनेक प्रकार में पायी जाती हैं। ये जीव विभिन्न प्रकार के वातावरण में पाये जा सकते हैं। इनमें से कुछ गर्मी से तपते रेगिस्तानों में भी मिल सकते हैं तथा कुछ अन्य बर्फीले ध्रुवों पर भी। जीवों के खान—पान तथा रहन—सहन में भी विविधता पायी जाती है। इसके बावजूद भी सभी जीवों में कुछ समानताएँ होती हैं तथा वे ही जीव के लक्षण भी निर्धारित करती हैं। प्रत्येक जीव में एक प्रकार का रसायन पाया जाता है जो कि एक ही प्रकार की रासायनिक क्रिया भी करता है। ये रसायन एक यूनिट (ळहग्ू) में व्यवस्थित तरीके से रहते हैं जिसे कोशिका कहते हैं।
सभी जीवों में जो समान लक्षण पाये जाते हैं वे हैं—
(१) प्रजनन (reproduction),
(२) वृद्धि (growth),
(३) चयापचय (metabolism),
(४) हलन—चलन (movement),
(५) संवेदन (responsiveness),
(६) अनुकूलन (adaptation)।
लेकिन कुछ जीव ऐसे भी हैं जिनमें ये सब पूर्णत: नहीं पाये जाते जबकि कुछ निर्जीवों में भी इनमें से कुछ गुण देखने को मिल जाते हैं। फिर भी ये गुण/लक्षण जीव की मूल प्रकृति को रेखांकित अवश्य करते हैं।।
इसी प्रकार हम देखते हैं कि जीवविज्ञान (biology) और मनोविज्ञान (psychology) की प्राय: सभी खोजें कहीं—न—कहीं आत्मा के अस्तित्व को भी सिद्ध करती हैं तथा न केवल अस्तित्व को ही सिद्ध करती हैं, उसके स्वरूप को भी कुछ न कुछ स्पष्ट करती हैं। मनोविज्ञान ने क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, प्रार्थना, याचना आदि मनोभावों का जो सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है, उससे भी आत्मा का ही स्वरूप स्पष्ट होता है।
जीवविज्ञान (biology) और मनोविज्ञान (psychology) की भाँति वनस्पति—विज्ञान (botnoy) की खोजें भी जीव या आत्मा के स्वरूप पर विशद प्रकाश डालती हैं। महान् वैज्ञानिक डॉ० जगदीशचन्द्र बसु (१८५८—१९३७) ने तो स्पष्ट तौर पर अनेकानेक वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि पेड़—पौधों में जीव होता है, क्योंकि उनमें चेतना पाई जाती है।
डॉ. जगदीशचन्द्र बसु के बाद तो आधुनिक विज्ञान में पेड़—पौधों पर और भी अधिक खोजें हो चुकी हैं और वैज्ञानिक मान गये हैं कि पेड़—पौधों में भी स्पष्टरूप से जैविक क्रियाएँ और जैविक भावनाएँ अनुभव की जा सकती हैं। कुछ पौधे ऐसे होते हैं जो मनुष्य के छूने से मुरझा जाते हैं अथवा खिल जाते हैं—यह उनकी जैविक भावना ही प्रकट करता है।
कुछ व्यक्ति यह कहते हैं कि आजकल बहुत ही शक्तिशाली व संवेदनशील कम्प्यूटर बनने लगे हैं जो हमारे जटिल प्रश्नों का बहुत शीघ्रता से और बिल्कुल सही उत्तर देते हैं। इसलिए इन कम्प्यूटरों में ज्ञान होना चाहिए और यदि इनमें ज्ञान हैं, तो हमारे कथनानुसार इनमें आत्मा भी अवश्य होनी चाहिए।
यह ठीक है कि आजकल के शक्तिशाली कम्प्यूटर हमारे जटिल प्रश्नों का बहुत शीघ्रता से और बिल्कुल ठीक उत्तर देते हैं और इन कम्प्यूटरों के कारण विज्ञान की बहुत सी समस्याएँ सुलझाना सरल भी हो गया है; परन्तु न तो कम्प्यूटरों में चेतना है, न आत्मा है, न ज्ञान ही है। यह तो एक प्रकार की यान्त्रिक क्रिया मात्र है। एक ही कम्प्यूटर सब प्रकार के प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता।
भिन्न—भिन्न प्रकार के प्रश्नों के लिए भिन्न—भिन्न प्रकार के कम्प्यूटर बनाये जाते हैं। जिस प्रकार मनुष्य द्वारा बनाई हुई अन्य मशीनें मनुष्य की अपेक्षा शीघ्रता से कार्य सम्पन्न कर देती हैं, ठीक उसी प्रकार ये कम्प्यूटर भी कार्य करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि इन चमत्कारी कम्प्यूटरों का निर्माता आत्माधारी मनुष्य ही है।
दूसरी शंका यह उठती है कि वैज्ञानिकों ने परखनली में मनुष्य का निर्माण करने की दशा में सफलता प्राप्त कर ली है। इस प्रकार निर्माण किये गये मनुष्य में आत्मा कै आती है ?
इसके उत्तर में समझना है कि वैज्ञानिक बिल्कुल नयी विधि से मनुष्य का निर्माण नहीं कर रहे हैं ; अपितु वे तो कृत्रिमरूप से वैसी ही परिस्थितियाँ, वैसा ही वातावरण और वैसा ही स्थान बनाते हैं और उन्हीं विधियों का प्रयोग करते हैं, जैसी कि प्राकृतिक रूप से गर्भ—धारण व गर्भ—पोषण के लिये आवश्यक होती हैं। इन्हीं विधियों से परखनली में मनुष्य का निर्माण सम्भव हुआ है।
प्रारम्भ के कुछ सप्ताह के लिये परखनली का प्रयोग किया जाता है और उसके पश्चात् उस भ्रूण को स्त्री के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है और बालक गर्भाशय में ही बढ़ता है। पुरुष के जो शुक्र—कीट, स्त्री के गर्भाशय में प्राकृतिकरूप से प्रविष्ट होकर गर्भ धारण की क्रिया को सम्भव बनाते हैं, उन्हीं शुक्र—कीटों का प्रयोग परखनली में किया जाता है।
परखनली जड़ में से जीवन का निर्माण नहीं कर देती; अपितु जीवित शुक्र —कीट से जीवित भ्रूण बनाने (अर्थात् परखनली गर्भाशय का काम करती है) में माध्यम होती है। वास्तव में तो शुक्र—कीट स्वयं ही आत्मा सहित चेतन होते हैं और ये शुक्र—कीट ही अनुकूल परिस्थितियों में बढ़ते—बढ़ते भ्रूण और फिर बालक का रूप लेते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक विज्ञान भी किसी न किसी रूप में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है और न केवल अस्तित्व को ही स्वीकार करता है, उसके स्वरूप को भी बहुत स्पष्ट करता है जो बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि भारतीय दर्शन—ग्रंथों में बताया गया है।
इस प्रकार आधुनिक विज्ञान भले ही हमें यह नहीं बता पा रहा कि ईश्वर कौन है, कहाँ है, कैसा है, आदि; किन्तु इतना अवश्य सिद्ध कर रहा है कि वह रागी—द्वेषी और जगत् का कर्ता—धर्ता—हर्ता नहीं हो सकता। हम समझते हैं कि इस प्रकार की मिथ्या धारणा से मुक्ति दिलाकर भी आधुनिक विज्ञान ने हम पर बड़ा उपकार किया है।