१‘‘पंचपरमेष्ठियों को भावपूर्वक नमस्कार करके प्रभाकर भट्ट अपने परिणामों को निर्मल करके ही योगीन्द्रदेव से शुद्धात्मतत्त्व के जानने के लिए विनती करते हैं।’’ हे स्वामिन्! इस संसार में रहते हुए मेरा अनन्तकाल व्यतीत हो गया किन्तु मैंने कुछ भी सुख नहीं पाया, प्रत्युत् महान दु:ख ही पाया है। चतुर्गति दु:खों से संतप्त प्राणियों को दु:खों से छूटने के लिए परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करो। इस प्रकार प्रभाकर भट्ट के द्वारा प्रार्थना करने पर श्री योगीन्द्रदेव कहते हैं कि- हे प्रभाकर भट्ट! आत्मा के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
शरीर आदि पर्याय में लीन हुआ अज्ञानी जीव मिथ्यात्वपरिणाम से सहित हुआ अनेक प्रकार के कर्मों को बांधता है, जिससे संसार में परिभ्रमण करता है अर्थात् शरीर को ही आत्मा मान लेता है। परमात्मा की श्रद्धा से विमुख हुआ आठ मल, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से सहित रहता है। नरनारकादि विभाव पर्यायों में लीन, शुद्धात्मा के अनुभव से पराङ्मुख, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंच प्रकार के संसार में भटकता है।
पच्चीस मल दोषों से रहित सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हैं। यह अन्तरात्मा समझता है कि जिस प्रकार का निर्मल ज्ञानमय परमात्मा सिद्धालय में रहता है, उसी प्रकार की आत्मा देह में निवास करती है। आत्मा के वर्ण, रस, गंध, स्पर्श आदि नहीं है क्योंकि वे पुद्गल के गुण हैं। आत्मा में राग, द्वेष, अज्ञान आदि विभाव परिणति नहीं है क्योंकि वे कर्मोदय जनित हैं। वास्तव में आत्मा शुद्ध नय की अपेक्षा से शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार है।
जो निर्मल, केवल, शुद्ध और अव्यय है, वह परमात्मा हैं अथवा जिनके अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण प्रकट हो गये हैं, वे परमात्मा कहलाते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा इन आत्माओं का वर्णन-१प्रथम तीन गुणस्थान वाले जीव बहिरात्मा, चतुर्थ गुणस्थान वाले जघन्य अन्तरात्मा, पाँचवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक तरतम भाव से मध्यम अन्तरात्मा, बारहवें गुणस्थान में उत्तम अन्तरात्मा तथा तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव परमात्मा कहलाते हैं। २सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण-जो सम्यग्दृष्टि जीव पच्चीस मलदोष रहित सम्यक्त्व का पालन करते हैं, उनका वह आचरण सम्यक्त्वाचरण अथवा दर्शनाचार चारित्र कहलाता है, जो निर्दोष चारित्र के धारक हैं, उनका चारित्र संयमाचरण कहलाता है। जघन्य अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि अपनी शक्ति के अनुरूप व्रतादि ग्रहण करके मध्यम अन्तरात्मा होता है और वह देश चारित्र को ग्रहण कर लेता है पुन: मोक्ष की सिद्धि के लिए वह श्रावक मुनिव्रत को धारण करके भेद रत्नत्रय का धारी सराग चारित्र वाला मध्यम अन्तरात्मा कहलाता है। आगे वही धीरे-धीरे अभेद रत्नत्रय को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है क्योंकि भेद रत्नत्रय ही अभेद रत्नत्रय के लिए साधन है भेद रत्नत्रयरूप छठे-सातवें गुणस्थान के बिना अभेदरत्नत्रयरूप आगे के गुणस्थान हो नहीं सकते हैं।