आत्म-तत्व
द्वारा -आर्यिका सुदृष्टिमति माताजी
प्र. २४३ आत्मा का सच्चा हित क्या है? और क्यों?
उत्तर: आत्मा का यथार्थ हित स्वात्मानुभव की प्राप्ति करके आत्मानंद का विकास करना है और धीरे- धीरे बंधनों से मुक्त होकर परमात्म पद पाना है। इस वैराग्यमय कार्य में जितने भी राग (अनुराग) के कारण हैं, वे सब बाधक हैं। स्त्रियों का संबंध वास्तव में गृह-जंजाल का बीज है, मोह को पैदा कराने वाला है। पुत्र- पुत्रियों की संतति का उसके साथ अनेक हिंसादि पापों के निरन्तर कराने का निमित्त है। पुत्र व परिवार आदि मोह के कारण हैं। उनके निमित्त से बहुत से न करने योग्य कार्यों को मोही जीव कर बैठता है। शरीर का संबंध ही दुःख का हेतु है। क्षुधा तृष्णा तो इसके नित्य के रोग हैं। ज्वर, खाँसी आदि अनेक रोग इसके साथ लगे हुये हैं। जिस लक्ष्मी को पाकर ये प्राणी संतोष मानते हैं, उसके रहने का बहुत कम भरोसा है। पुण्य का क्षय होते ही राज्य, संपदा, सत्ता का कभी नाश हो जाता है। क्षणमात्र में धनवान प्राणी निर्धन हो जाता है। ऐसी दशा में कौनसा ऐसा पदार्थ इस जगत में है जो प्राणी के लिये सुख का कारण हो? वास्तव में क्षणमात्र चेतन व अचेतन पदार्थों का साथ रहने का भी तो भरोसा नहीं है। केवल इनके निमित्त से सुखी होना, मानना मात्र भ्रम है। इस संसार के भयानक वन में जिस किस शरीर का व्यावाहारिक आश्रय किया जाये, वे सब नाशवन्त प्रतीत होते हैं। तब उनसे स्थायी सुख कैसे हो सकता है? इसलिये आचार्य शिक्षा देते हैं कि हे आत्मन्! तू अपनी भूल को छोड़कर अपना मोह परपदार्थों से हटा। मात्र अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन हो जा, इसी से तेरा भला होगा।
प्र. २४४ : क्या ज्ञानदर्शन आदि भेद से चेतना अनेक प्रकार की कही है? ज्ञानदर्शन से भिन्न भअन्य कोई चेतना भेद है?
उत्तर : हाँ। चेतना ज्ञानादिक भेद की दृष्टि से अनेक प्रकार की है-
ज्ञान दर्शन आदि चैतन्य के भेद हैं ऐसा रा. वा. पृ. ११९ अ. सूत्र ८वाँ, १ में भी लिखा है। अतः उपर्युक्त दोनों जगह लिखित आदि शब्द से जाना जाता है कि ज्ञान, दर्शन, से भिन्न भी चेतना के भेद हैं ये भन्द भोली अपार लिखित सारिका भी है चैतन्य आत्मा का सामान्य असाधारण धर्म है, वह सुख, दुखस्खस्य भी होते हैं और ज्ञानदर्शन रूप भी। सुख-दुःख आदि भी चैतन्य हैं।
प्र. २४५। क्या चेतना के भेद शास्त्रों में भी हैं।
उत्तर : हाँ आत्मा चेतना रूप से परिणत होता है। चेतना तीन प्रकार की मानी गई हैं:- १) ज्ञानचेतना शास्त्रों में भी हैं?
ज्ञाता दृष्टा भाव से पदार्थों को मात्र जानना उसमें इष्टत्व और अनिष्टत्व की बुद्धि न करना। (२) कर्मचेतना भले बुरे की बुद्धि सहित परद्ब्यों में करने धरने के अभिमानयुक्त जाना सो कर्मचेतना। (३) कर्मफल चेतना- इन्दिय जन सुख-दुःख में तन्मय होकर मै “सुखी, मैं दुखी” ऐसा अनुभव करना कर्मफल चेतना है।
विशेष यह है कि ज्ञान- चेतना में ज्ञातृत्व भाव है, कर्म चेतना में कर्तृत्व भाव है, तथा कर्मफल चेतना में भोक्तृत्व भाव है |। (महा धवला पु. १ प्रस्ता. पृ. ७४ ) मिथ्यादृष्टि को कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है। ये बोभी चेतनाएँ संसार की कारण हैं। सब स्थावरों के कर्मफल चेतना है। त्रस जीवों के ज्ञान, कर्म व कर्मफल इन तीनों चेतनामय यथासम्भव होते हैं। तथा केवलज्ञानी ज्ञानचेतना का वेदन करते हैं। पूर्ण ज्ञानचेतना अर्हन्त के एवं आंशिक ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टि के भी होती है।
प्र. २४६: सारत: परम सूक्ष्म क्या समझना व करना?
उत्तर: परमार्थतः परद्रव्य और आत्मा की किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है। तब फिर उनमें कर्ता-कर्म संबंध कैसे हो सकता है। ज्ञानी यही समझे कि परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। मैं आत्मा हूँ। काला-पीला आदि नहीं हूँ। मैं वैतन्य द्रव्य हूँ। सनातन हूँ। अनंत गुणों का पिण्ड हूँ। असंख्यात प्रदेशी परन्तु शाश्वत अखंड हूँ तथा शक्ति से ईश्वर ही हूँ। ऐसे स्वयं स्व का विनिश्चिकरण करें एवं तत्पूर्वक आत्मज्ञायक वह स्वयं मैं विश्राम पावे। यही समझना व करना चाहिये।
जीव अनादिकाल से अन्य पदार्थ में स्वपने की बुद्धि के कारण ही परिभ्रमण करता है। यही बुद्धि अज्ञान है। शुद्धात्मा तत्व को लक्ष्य में रखें तो भ्रमणान्त अर्थात मोक्ष हो जाये। स्वतत्व को लक्ष्य में लेना ही ज्ञान का कारणरूप है।
प्र. २४७: जीव आदि सहित है या अनादि?
उत्तर: अनादि है।
प्र. २४८ : आत्मा-आत्मा को ही ध्याकरके परमात्मा कैसे हो जाता है?
उत्तर : ठीक है, जैसे वृक्ष अपने को ही घर्षण करके या घिस करके आप ही आग रूप हो जाता है, वैसे ही आत्मा भी निजात्मा के ध्यान द्वारा परमात्मा बन जाता है।
प्र. २४९ : शुद्धात्मा की प्राप्ति का उपाय क्या है?
उत्तर: जो मनुष्य शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति करना चाहता है, उन्हें इन्द्र बन भगवान का अभिषेक करने से, उनकी स्तुति, पूजा और जप करने से, मन्दिर की पूजा और उनके निर्माण से, आहार, औषध, अभय और शास्त्र चार प्रकार के दान से, शास्त्रों के अध्ययन से, इन्द्रियों के विजय से, ध्यान से, संयम से, व्रत से शील से तथा तीर्थ आदि क्षेत्रों में गमन करने से और उत्तम क्षमा आदि धर्मों के पालन करने से शुद्ध चिरूप क्की प्राप्ति होती है। यदि वास्तव में देखा जाये तो शुद्धचिद्रूप के स्मरण करने से शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति होती है। परन्तु भगवान का अभिषेक, उनकी स्तुति जप आदि भी शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति में कारण हैं क्योंकि अभिषेक
आदि के करने से शुद्धचिरूप की ओर दृष्टि जाती है। इसलिये शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के अभिलाषियों को अवश्य भगवान के अभिषेक आदि करना चाहिये।
देवं श्रुतं गुरुं तीर्थ, भजंतं च तदाकृतिं।
शुद्धचिद्रूप सद्ध्यान हेतुत्वाद भजते सुधीः ।।
अर्थ- देव, शास्त्र, गुरु, तीर्थ और मुनि इन सबकी प्रतिमा शुद्धचिद्रूप के ध्यान में कारण हैं, बिना इनकी पूजा-सेवा किये शुद्धचिद्रूप की ओर ध्यान जाना सर्वथा दुःसाध्य है। इसलिये शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के अभिलाषी विद्वान अवश्य देव आदि की सेवा उपासना करते हैं। (अपराजितेश्वर शतक पृ. १७६ से)
चिन्ता का अभाव, एकान्तस्थान, आसन्न, भव्यता, भेदविज्ञान, दूसरे पदार्थों में निर्मलता ये शुद्धचिरूप के ध्यान के कारण हैं। जिस प्रकार स्त्री-पुरुष के बिना पुत्र नहीं हो सकता है, उसी प्रकार बिना भेदविज्ञान के शुद्धचिद्रूप का ध्यान नहीं बन सकता है। जैसे बिना माता के पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है, उसी प्रकार कर्म द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त परिग्रहो में ममता के त्याग बिना शुद्धचिद्रूप का ध्यान होना असम्भव है।
प्र. २५० : आत्मसिद्धि का उपाय क्या है, वह कैसे प्राप्त होगी तथा कैसी भावना इसके लिये करना चाहिये?
उत्तर : इस कर्म से आत्मा को भिन्न करने के लिये इस तरह की भावना करना चाहिये कि तीनों शरीर के अन्दर स्थित आत्मा संसारी है। जब तीनों शरीर का अंत होता है तब आत्मा मुक्त हो जाती है। इसलिये शरीर भिन्न है और मैं भिन्न हूँ। इस तरह ध्यान का अभ्यास करने से शरीर का नाश होकर मुक्ति की प्राप्ति अर्थात् सिद्धात्मा की प्राप्ति होती है। लकड़ी में अग्नि है। उसे घर्षण करने पर उसी लकड़ी को जला देती है, इसी तरह आत्मा ध्यानाग्नि के बल से आत्मा का निरीक्षण करे तो तीनों शरीर जल जाते हैं। तब शुद्धात्मा की प्राप्ति हो जाती है। इसलिये ज्ञानी जीव को जानना चाहिये कि सुख-शान्ति प्राप्त करना है, तो धर्म को ग्रहण करने पर कर्म स्वमेव दूर होता है। अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्र. २५१ : आत्मा को नवदेवतामय कहते हैं, कैसे?
उत्तर : आचार्य कुन्द-कुन्द आत्मा को नवदेवतामय कहते हैं, एक आत्मा ९ भेद कैसे माना जाये? चिन्तन में आया शुद्धनयापेक्षा से आत्मा सिद्ध स्वरूप है। कर्मशत्रु को नाश करने में उद्यत साधुत्व प्राप्त आत्मा भी अरहंत कहा जा सकता है। ज्ञानागुण की क्षयोपशम दशा में आदान-प्रदान शिक्षादि देने वाला आत्मा, आचार्य है। पठन-पाठन में प्रयुक्त उपाध्याय है और साधनारत हुआ साधु है। एक ही आत्मा में ये पाँचों घटित हो जाते हैं। उपदेशामृत वर्षण काल में जिनवाणी, उपदेश, एक चैत्य, उपदेष्टा का शरीर चैत्यालय तथा ज्ञानास्वभाव में स्थित जिनधर्म हैं। इस प्रकार एक ही आत्मा में नवदेवता निहित हो जाते हैं।
प्र. २५२ : शुद्धात्मा की भावना का उपाय क्या है?
उत्तर : आदिनाथ भगवान से राजा भरत ने शुद्धात्म भावना का उपाय पूछा था और क्रम से भगवान ने बताया था। उसी के अनुसार जो मनुष्य शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति करना चाहते हैं, उन्हें जिनेंद्र का अभिषेक करने से, उनकी स्तुति-पूजा और जाप करने से, मन्दिर की पूजा और उसके निर्माण से, आहार, औषध अभय और चार प्रकार के दान देने से, शास्त्रों के अध्ययन से, इन्द्रियों के विजय से, ध्यान से, संयम से, व्रत से और उत्तम क्षमादि धर्मों के पालन करने से शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति होती है। यदि वास्तव में देखा जाये तो शुद्ध चिद्रूप के स्मरण करने से शुद्धचिरूप की प्राप्ति होती है। परन्तु भगवान का अभिषेक,उनकी स्तुति-जाप आदि भी शुद्धचिरूप की प्राप्ति में कारण है। क्योंकि अभिषेक आहि करने से शुद्धचिदूस की और दृष्टि जाती है। इसलिये शुद्धचिरूप की प्राप्ति के अभिलाषियों को अवश्य ही भगवान की स्तुति आदि करना चाहिये।
देव श्रुतं गुरुं शुद्धचिद्रूपं सद् ध्यान हेतुत्वाद भजते सुधीः ।।
देव, शास्त्र, गुरु तीर्थ और मुनि तथा इन सबकी प्रतिमा शुद्धचिरूप के ध्यान में कारण है। बिना इनकी पूजा सेवा किये शुद्धचिरूप की ओर ध्यान जाना सर्वथा दुःसाध्य है। इसलिये शुद्धचिरूप की प्राप्ति के अभिलाषी विद्वान अवश्य देवादि की सेवा उपासना करते हैं।
प्र. २५३ : क्या कठिन उपसर्ग, परिषह सहन किये बिना ही शुद्धात्मा की प्राप्ति हो सकती है?
उत्तर : नहीं। जैसे सोने के भीतर के मल को निकालने के लिये सोने को अग्नि में डाला जाता है, तभी वह शुद्ध होता है। यदि अग्नि से ही सोना डरे तो उसका भीतरी मल कैसे हटेगा? उसी तरह आत्मा में लगे कर्मरूपी मल को दूर करने के लिये तप तथा आत्मध्यानरूपी अग्नि की आवश्यकता है। यदि वह आत्मा कठिन तप रूपी ताप से भयभीत हो जाय तो क्या वह विशुद्ध हो सकता है? कदापि नहीं।
जैसे योद्धा शत्रु का सामना करते समय शत्रु को सामने देखते ही घबरा जाये तो उसे कैसे जीत सकता हैं? उसी प्रकार आत्मा के पीछे लगे हुये कर्मरूपी शत्रु का नाश करने के लिये यह आत्मा, तप, व्रत, नियम व संयमादि पालने में यदि कायर बन जाये तो क्या वह निर्जरा कर सकता है? कभी नहीं।
प्र. २५४ : आत्म-साधना का अभिप्राय क्या है?
उत्तर : चाणक्य नीति के अनुसार धर्म में अभिरुचि रखना, मुख से हमेशा मधुर वचन बोलना, चारों दानों में हमेशा उत्सुकता रखना, गुरुजनों के साथ हमेंशा विनम्रता रखना एवं उनकी आज्ञा मानना, चित्त में हमेशा गम्भीरता या शान्ति धारण करना, आचरण तथा शील में सदा रत रहकर मलिनता नहीं आने देना, गुणों में हमेंशा निर्मलता, रसिकता रखना, सच्चे शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना और जिनेन्द्र भगवान में भक्ति रखना, यह सभी आत्म-साधना है।
प्र.२५५ : क्या जीव अरूपी, (अमूर्त) है?
उत्तर: जीव मूर्त है ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि स्थूल शरीर प्रमाण एक जीव को कुल्हाड़ी से काटने पर या तो बहुत जीवों का प्रसंग आयेगा या जीव के अभाव का प्रसंग आयेगा। पर वैसा नहीं है। अतः हे आत्मन् ! जीव मूर्त नहीं, अमूर्त है ऐसा स्वीकार करना चाहिये। मात्र मूर्तता का उपचार कर्मप्रकृतियों से अनादि से बद्ध होने के कारण किया जाता है।
प्र. २५६ : शरीर और आत्मा में सर्वथा भेदवश पक्ष मानने में क्या बाधा आती है?
उत्तर : अनेकांत दृष्टि के प्रकाश में आत्मा और शरीर में कथंचित् भिन्नता है और कथंचित् अभिन्नता भी हैं। बंध की अपेक्षा से जीव और कमर्मों में एकता है किन्तु लक्षण की अपेक्षा दोनों में भिन्नता है। इसलिये जीव कर्मबंध की अपेक्षा कथंचित् मूर्तिक तथा लक्षण की अपेक्षा कथंचित् अमूर्तिक है।
जो एकान्तरूप से सर्वथा आत्मा में भेद मानते हैं वे भयंकर चक्कर में आ जाते हैं। किसी का प्राण लेने वाला हत्यारा सहज ही कह सकता है कि मैंने कुछ नहीं बिगाड़ा है। ऐसी स्थिति में अहिंसा धर्म की पुण्यबेल क्षणभर में सूख जायेगी शास्त्र में कहा है कि जो अविवेकी शरीर और आत्मा में सर्वथा भेद कहते हैं, उनके यहाँ शरीर के वध से किस प्रकार हिंसा उत्पन्न होगी?
प्र. २५७ : शरीर और आत्मा में सर्वथा अभेद मानने पर क्या दोष उत्पन्न होता है?
उत्तर: जिनके शास्त्र में शरीर और आत्मा में सर्वथा एकत्व माना गया है, उनके मत में शरीर का विनाश होने पर आत्मा का विनाश भी स्वीकार करना पड़ेगा।
प्र. २५८: जीव को सर्वथा नित्य अथवा अनित्य मानने में क्या दोष आता है?
उत्तर: जीव नित्य है तो अपरिणामी भी होगा। उसका नाश नहीं हो सकता। इसके विपरीत यदि जीव सर्वथा अनित्य है तो यह ऐसा क्षण-क्षण में नष्ट होने वाला जीव स्वयं नाश को प्राप्त होता है, उसकी हिंसा का दोष कभी भी नहीं लगेगा। अतः जीव के स्वरूप के विषय में एकान्त दृष्टि के स्थान में अनेकांत दृष्टि को स्थान देना सम्यक् होगा। दयाप्रेमी को जीव और शरीर में कथंचित् एकत्व, कथंचित् अनेकत्व भाव को अपने हृदय में स्थान देना उचित होगा।
प्र. २५९ : जिनसेनाचार्य की टीका में एक सुन्दर शंका की गई है। छद्मस्थों के सर्व पदार्थों का ज्ञान नहीं पाया जाता है, उनको आत्मा का ज्ञान कैसे होगा? आत्मा के परिज्ञान का अभाव होने पर आत्मा की भावना कैसे होगी? उसके अभाव में केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती?
उत्तर : परोक्ष प्रमाण श्रुतज्ञान के सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान होता है कैसे? व्याप्ति ज्ञान के द्वारा लोक तथा अलोक का ज्ञान छयस्थों को भी पाया जाता है। वह व्याप्ति ज्ञान परोक्षरूप से केवलज्ञान के विषय का ग्राहक कथंचित् आत्मा कहा जाता है। अथवा स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा आत्मा का ज्ञान होता है। इसके द्वारा भावना की जाती है। रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान रूप भावना के द्वारा केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इससे कोई दोष नहीं आता है। जो ज्ञान क्रम-क्रम से पदार्थों को जानता है, वह सम्पूर्ण जगत् के अनंत पदार्थों को नहीं जान सकता है। जो ज्ञान युगपत् सबको जानता है उससे ही सर्व पद की सिद्धि होती है।
प्र. २६० : आत्मा का लक्षण तो चेतन स्वभाव है, वह विभाव रूप कैसे होता है?
उत्तर: संसारी जीव के अनादिकाल से ज्ञानावरणादि कर्मों का संबंध है। उन कर्मों के संयोग से आत्मा की चैतन्य शक्ति निजस्वरूप से गिरी हुई है इसलिये संसारी आत्मा विभाव रूप होती है। जैसे कि कीच के संबंध से चेतना विभाव रूप हो गई है। इसी कारण संसारी जीव समस्त पदार्थों को जानने में असमर्थ है। क्षयोपशम की योग्यता के अनुसार कुछ पदार्थों को जानता है जब काललब्धि होती है। तब सम्यग्दर्शन का उदय होता है। जब ज्ञानावरणादि का संबंध नष्ट हो जाता है तब शुद्ध चैतन्य प्रकट होता है। उस चेतना के प्रकट होने से यह जीव त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को एक ही समय में प्रत्यक्ष जान कर निश्चयावस्था को प्राप्त होता है।
प्र. २६१ : यद्यपि आत्मा अमूर्त है, जो अमूर्त होता है, उसका आकाश की तरह हनन-विनाश घात नहीं हो सकता है, घात मूर्त शरीर का ही होता है ऐसा होने पर भी हिंसा मानी जाती है, उसका क्या कारण है?
उत्तर : उसका कारण यह है कि हिंसक द्वारा जीव को उसके आश्रयभूत शरीर से विमुक्त कर दिया जाता है। इस क्रिया का नाम हिंसा है। क्योंकि जीव का आश्रयभूत होने से यह शरीर उसे अत्यन्त प्रिय था। हिंसक ने उसे अपने हिंसा रूप कर्म द्वारा विनष्ट कर दिया। हिंसा का लक्षण भी यही क्रिया है, १० प्राणों का वियोग करना हिंसा है। दूसरी बात यह है कि आत्मा सर्वथा अमूर्त ही नहीं है क्योंकि कर्मबंध की अपेक्षा वह कथंचित्मू र्त मानी गई है। सर्वथा अमूर्त मानने पर ही गगनादिक की तरह उसमें हननादि रूप विकास नहीं हो सकता है। परन्तु ऐसी मान्यता एकान्त रूप से जैनधर्म में नहीं है। जब यह शरीर में अधिष्ठित प्रत्यता रूप से प्रतीत होता है तो फिर उसके विधात होने पर उसका भी घात माना जाता है।
प्र. २६२। आत्मा परमात्मा कब बनता है?
उत्तर: अब स्वयं वह बनना चाहता है।
प्र. २६३। कब चाहता है बनना?
उत्तर: अब उसे इसका ज्ञान होता है कि वह परमात्मा बन सकता है।
प्र. २६४: यह बोध कब होता है?
उत्तर। आत्मबोधक उपदेश सुनकर या तत्व परिज्ञान द्वारा होता है।
प्र. २६५ :उपदेश कहाँ मिलता है?
उतर: दिगम्बर- वीतरागी, जिनमुद्राधारी श्री गुरुओं के मुख से ही वह उपदेश प्राप्त होता है।
प्र. २६६: तत्वज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है?
उत्तर: आगम से, जिनवाणी शास्त्र से।
प्र. २६७: आगम कहाँ से आया?
उत्तर: आप्त सर्वया भगवान है। सर्वज्ञ, भगवान हितोपदेशी होते हैं। वीतराग की वाणी निष्पक्ष होने से पचार्य होती है। यथार्थता से तत्वज्ञान होता है। वस्तु स्वभाव की गम्यता से ही आत्मा का यथा तथ्य परिज्ञान होना सम्भव है। आत्मा भी एक तत्व है। तत्वज्ञान पाना ही जीवन पाना है। यही तो आत्मोपलब्धि है। स्वसंवेदन से वह ज्ञान होता है। वह अवगत होने पर ही जीवन का स्वरूप उपलब्ध होता है। आत्मन् । तू इसी को प्राप्त करने का प्रयास कर।
प्र. २६८ : कनकपाषाणादि दृष्टांतों से जीवकर्म का अनादि संबंध ही सिद्ध होता है। यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि दो पदार्थों का संबंध हमेशा से कैसा? वह तो किसी खास समय में जब दो पदार्थ मिले तभी हो सकता है?
उत्तर: संबंध दो प्रकार का होता है किन्हीं पदार्थों का तो सादि संबंध होता है। जैसा कि मकान बनाते समय ईंटों का संबंध सादि और किन्हीं पदार्थों का संबंध अनादि होता है। जैसे कि कनक पाषाण का आळवा जमीन में मिली हुई अनेक चीजों का अथवा बीज व वृक्ष का अथवा जगद्व्यापी महास्कन्ध का अथवा सुमेरुपर्वत का संबंध अनादि है। इसी प्रकार जीव व कर्म का संबंध भी अनादि है।
प्र. २६९ : प्रतिदिन क्या विचार करना चाहिये?
उत्तर: मैं कौन हूँ? मेरा धर्म (कर्तव्य) क्या है? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है? इत्यादि प्रश्नों का विचार करना चाहिये।
प्र. २७० : मैं कौन हूँ? इसका चिन्तन किसलिये करना चाहिये?
उत्तर: मैं कौन हैं? इसका विचार करने से निजतत्व का भान होगा। अनादि अविद्या का नाश, मिश्या अन बुद्धि का परिहार, जड़ चेतन का विभाजन, सम्यग्दृष्टि का उन्मेष, स्वस्वरूप परिज्ञान आदि ज्ञान होने से सोलर अवस्था पाने में प्रयत्न पुरुषार्थ जाग्रत होगा। अपनी भूल ज्ञात कर उसके सुधार का उद्यम और यावार्थ निजत्व की प्राप्ति सुलभ होती जायेगी।
प्र. २७१: मेरा धर्म क्या है? इसका चिन्तन किसलिये करना चाहिये?
उत्तर: जो उत्तम सुख में पहुंचाये वह धर्म है। इस प्रामाणिक सर्वज्ञप्रणीत प्रणाली चिंतन से सम्यग्ज्ञान होगा, ज्ञानी राग-द्वेष का परिहार करेगा। क्योंकि ये आत्मा के बंधक हैं, मधुर जहर हैं। संसार परिभ्रमण के मूल का विनाश होगा। इस प्रकार प्रबुद्ध हो अशुभ क्रियाओं का त्याग शुभक्रियाओं में प्रवृत्ति और शुद्ध परिणमन की उपलब्धि हो सकेगी।
प्र. २७२: मैं कहाँ से आया हूँ? यह किसलिये चिंतन करना चाहिये?
उत्तर: यह प्रश्न दुर्लभतम मनुष्य पर्याय प्राप्ति की ओर उन्मुख करेगा। उसे सार्थक बनाने की प्रेरणा मिलेगी। अर्थात् संसार शरीर भोगों से विरक्ति होगी। ज्ञान, वैराग्य, शील, संयम, त्याग की प्रवृत्ति जागृत होगी। मनुष्य दुष्प्राप्य वस्तु को जिस प्रकार अनेकों प्रयत्नों के द्वारा सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार अपनी पर्याय की दुर्लभता समझ ज्ञानी सम्यक् प्रकार से अपने अमूल्य रत्नत्रय की रक्षा का प्रयत्न करने में सतत सावधान हो सकेगा। अपनी बीती संसार-यात्रा का स्मरण करने से संवेग भाव होगा और उससे निर्वेद भावना पुष्ट होगी। फलतः निज की महिमा का महत्व समझ में आयेगा।
प्र. २७३ : मुझे कहाँ जाना है इसका चिन्तन किसलिये करना चाहिये?
उत्तर: यह प्रश्न विचार लक्ष्य निर्धारित करता है। भविष्य की रुपरेखा तैयार करता है। आत्म-विकास का पथ निर्धारित कर निष्कंटक बनाता है। लक्ष्यविहीन प्राणी अर्हनिश गमन क्रिया रत रहकर भी गंतव्य को नहीं पाता है। कीड़े-मकोड़े की भाँति यत्र-तत्र घूमता ही रहता है। संसार चक्र है। चक्र गोल होता है बिना निशान व चिन्ह के घूमने वाला कितनी बार घूमा उसे ज्ञात ही नहीं होता। ९९वे के फेर में पड़े मनुष्य की भाँति सुलझन की अपेक्षा करके भी उलझन में ही पड़ा रहता है। कोल्हू के बैल की भाँति घूमता हुआ दुःख उठाता है। परन्तु जो स्वर्ग मोक्ष का अभिलाषी तनुकूल आचरण किया करता है, वही उस अवस्था को पाता है।
प्र. २७४ : आत्मा और बंधन दोनों अलग-अलग कैसे हो?
उत्तर: प्रज्ञारूपी पैनी छैनी के द्वारा आत्मा और कर्मबंध को पृथक-पृथक किये बिना बंधन से छुटकारा नहीं हो सकता। उसके लिये आत्मा और कर्म के स्वरूप को जानना चाहिये। इनके स्वरूप की पहचान इनके लक्षण होते हैं। आत्मा का असाधारण लक्षण चैतन्य है। यह लक्षण आत्मा के सभी गुण पर्यायों में व्याप्त हैं। अतः आत्मा चैतन्य स्वरूप है, किन्तु बंध तो पुद्गल परमाणुओं का स्कन्ध है। इन दोनों का भेद प्रतीत होने से कर्म के उदय से होने वाले रागादि भावों को यह जीव अपना मानता है, यही भूल है। भेदविज्ञान होने पर जो चेतन स्वरूप आत्मा है, वह मैं हूँ शेष भाव मुझसे भिन्न हैं। इस प्रकार जानकर आत्मा में ही सतल रमण करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्र. २७५ : परम निज-तत्व क्या है?
उत्तर : जो अस्तित्वादि स्वभावरूप सामान्य और विशेष परस्पर में अविरुद्ध रूप से स्थित है वही परम निज तत्व है। जिसमें पर्याय उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है और नष्ट होकर पुनः उत्पन्न होती है तथा वर्तमान में भी रहती है वह परम निज-तत्व है। जो असत् न होते हुये भी नष्ट नहीं होता है और न उत्पन्न होता है तथा तीनों कालों में सत् रहता है, वह परम निज-तत्व है।
प्र. २७६: आत्मा का महान रोग क्या है?
उत्तर : संसार जो मुख्यतः भवभ्रमणरूप में कारण है, यह संसार जो चित्त को भ्रम उत्पन्न करने वाला,सपा की वना को लिये हुये तथा जन्ममरणादि की विक्रिया से युक्त है, वह आत्मा का महान रोग है। जो अनादिकाल से उसके साथ लगा हुआ है, सर्व प्राणियों के लिये बंध का प्रमुख कारण है। सर्व प्राणियो कायचा अनुभव सिद्ध (पर्यायस्य) आत्मा बना है।
प्र.२७७ परमतत्व कौन और उससे भिन्न क्या है?
उत्तर: यह जो विविक्त कर्म कलंक से रहित निर्भय और निरामय (निर्विकार) अंतरंग (अध्यात्म)अति है वह परमतत्व है उससे भिन्न दूसरा सब उपद्रव है।
प्र.२७८ । आत्मा की परमज्योति का स्वरूप बतलाओ?
उत्तर: जिसके विद्यमान न होने पर सब अंधकार है और विद्यमान होने पर सब उद्योत रूप है, अंधकार भी अोतरूय परिणत होता है वह आत्मा की परमज्योति है।
प्र. २७१। आत्मा के परमरूप की अनुभूति का मार्ग क्या है?
उत्तर: इन्द्रियों में अपने विषयों की प्रवृत्ति को रोककर साथ ही मन को भी निर्विकल्प करके जो कुछ क्षणमात्र के लिये अंतरंग में दिखलायी पड़ता है, वह आत्मा का रूप है जो कि शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है।
प्र.. २८०: अपने देह की अपनी आत्मा और स्त्री पुत्रादि पर के देह को पर की आत्मा समझकर यह जीव ओ प्रवृत्त होता है और उसे अपने को सुख-दुःख होना मानता है उसका क्या कारण है?
उत्तर: अपने देह व परदेह के अचेतनत्व को जानना है, यदि निश्चित रूप से यह जाना हो कि मेरा या दूसरा किसी भी जीत का शरीर चेतन नहीं है जड़ है, तो उसमें स्वात्मीय या परात्मीय बुद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि आत्मा वस्तुतः चेतनरूप अमूर्तिक हैं। अचेतन मूर्तिक पदार्थ स्वभाव से उसका अपना नहीं हो सकता। अपना मानना स्वरूप पररूप की अनभिज्ञता के कारण भूत है। भ्रान्ति है। इसके मिटने से बुद्धि का सुधार होता है तब कमों का आश्रव सहज ही रुक जाता है।
प्र . २८१ उपयोग से कषाय और मूर्तिक से अमूर्तिक की उत्पत्ति सम्भव है क्या?
उत्तर :क्रोध, मान, माया व लोभ ये चार कषायें हैं और ज्ञान और दर्शन ये दो मूल उपयोग हैं। इन दोनों में से किसी भी उपयोग से कषायों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। मूर्तिक तथा अमूर्तिक से मूर्तिक की उत्पत्ति नहीं बन सकती है। ये पदार्थों की उत्पत्ति विषयक वस्तुत्व के निर्देशक सिद्धांत हैं। अमूर्तिक आत्मा का उपयोग लक्षण है। लक्षण होने से ज्ञानदर्शन अमूर्तिक है और कषायें मूर्त पौद्गलिक कर्मजनित होने से मूर्तिक है। ऐसी स्थिति में शुद्धोपयोग रूप आत्मा का कषाय रूप परिणमन नहीं होता है।
प्र. २८२ । कषायरूप परिणमन किस जीव का होता है?
उत्तर :जो कषायसहित परिणामी जीव हैं, कषाय कर्म के उदय को अपना लिये हुये हैं, उसी का कषायरूप परिणमन होता है। जो कषायरहित हैं, कषाय कर्म के उदय को अपना लिये हुये नहीं है उसका कषायरूप परिणमन नहीं होता है। जैसे कि सिद्धों का नहीं होता। जिनके कषाय का कभी उदय ही नहीं किन्तु अस्तित्व भी नहीं। चूंकि इस कषायरूप परिणत न होने वाले जीव के न तो संसार हैं और न मोक्ष है। इसी से जो कर्म के सम्पर्क से विल्कुल अलग हो गया है, वह वस्तुतः परिणामी कहा गया है।
प्र. २८३ । उपयोग को भावेन्द्रिय में भी लिखा है और जीव का आत्मभूत लक्षण भी उपयोग है जो कि सिद्धों में भी पाया जाता है, दोनों में अंतर है? और यदि अंतर न माना जाये तो सिद्धों में भी भातेन्द्रिय का सद्भाव मानना पड़ेगा?
उत्तर : इस पर धवला टीकाकार ने बताया है कि क्षयोपशम से उत्पन्न हुये उपयोग को इन्द्रिय कहते हैं। किन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं पाया जाता है क्योंकि वह क्षायिक भाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है। अभिप्राय यह है कि भावेन्द्रिय में जो उपयोग किया है, वह भी यद्यपि आत्मा का ही परिणाम है, तो भी वहाँ कर्म का क्षयोपशम नहीं पाया जाता है क्योंकि वह क्षायिक भाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है। अभिप्राय यह है कि भावेन्द्रिय में जो उपयोग किया है, वह भी यद्यपि आत्मा का ही परिणाम है, तो भी वह कर्म की क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है और सिद्धों को भावेन्द्रिय न होने के कारण उनका उपयोग पूर्णतया ज्ञानदर्शन रूप होने से क्षायिक हैं। अतः वह इन्द्रियों में गर्भित नहीं हैं।
प्र. २८४: शुद्धोपयोग का लक्षण बतलाइये।
उत्तर : सम्यक् प्रकार से जीवादि पदार्थों को जानकर श्रद्धालु संयम और तप से संयुक्त, वैराग्य सम्पन्न या वीतरागी और सुख-दुःख में समभावी श्रमण शुद्धोपयोगी कहलाता है।
प्र. २८५: जीव और जीवन दो पृथक-पृथक हैं क्या?
उत्तर : जीव और जीवन दो पृथक-पृथक हैं भी और नहीं भी हैं। जीव का अर्थ प्राणी है। जो ज्ञान, दर्शन चेतना सम्पन्न है, वह जीव है। जीवन का अर्थ है कुछ अवधि प्रमाण जीव की पर्याय विशेष। यथा मनुष्य जीवन तिर्यञ्च जीवन आदि। जीव त्रिकाल अविछिन्न है। शाश्वत, नित्य है और क्षणिक है। परिवर्तनशील है और वर्तमान काल मात्र में रहने वाला है। द्रव्यार्थिक नय से जीव है और पर्यायार्थिक नय अपेक्षा से जीवन है। जीवन के निमित्त से जीव को भी नाना पर्यायों में भटकना पड़ता है। विविध कष्ट उठाना पड़ते हैं। नाना प्रकार के वेष, नाम और कायों को धारण करना पड़ता है। जीवन सीमित है, जीव असीम है। जीव में कोई विकार, परिवर्तन या बदलाव नहीं होता। परन्तु जीवन निरन्तर परिवर्तित, विकृत होता रहता है। जीवन की उत्पत्ति ही पर के निमित्त से होती है पर संयोगी ही जीवन है। जब तक पर संयोग रहेगा, जीवन रहेगा। परसंयोग समाप्त हुआ कि जीवन भी समाप्त हो जाता है। किन्तु जीव जो था, वही है और रहेगा, उसमें कोई संदेह नहीं है। संयोग दो पदार्थों में होता है, जीवन संयोगी है। किस-किस का संयोग है? जीव और कर्म का संयोग है। कर्मों का संयोग हटा कि मात्र शुद्ध जीव रह जायेगा। यही मैं हूँ। शरीर पृथक है।
प्र.२८६ : आत्मा है, कहाँ कैसे जाना जाये?
उत्तर: आत्मा कहाँ है? आत्मा शरीर में है। कैसे जाना जाये? अनुमान से और प्रत्यक्ष से भी। यथा काष्ठ में मिठास आदि रहता है। उसी प्रकार आत्मा शरीर में विद्यमान रहता है। निश्चेष्ट शरीर पड़ा रह जाता है। इससे विदित होता है कि शरीर, अवयव, इन्द्रियों को संचालित करने वाली कोई शक्ति विशेष अलग है जो आत्मा है। अग्नि की काड़ी लगाने से काष्ठ की अग्नि प्रकट हो प्रज्वलित हो उठती है। बिलौने से दूध घी में से पृथक प्राप्त होता है। पत्थर से पत्थर रगड़ने से अग्नि प्रकट होती है। तपाने से किटकालिमा, पाषाण से सुवर्ण निकलता है। सीप से मुक्ता, पुष्प से पराग (इत्र), पेलने पर इक्षु से रस साध्य है। यह सुनिर्णीत है।
चन्द्र किरणों का सम्पर्क होने से चंद्रकांत मणि से स्वमेव ही शीतल जल का प्रवाह प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार वीतराग, सर्वज्ञ हितोपदेशी देव का अंतर्दृष्टि से दर्शन करने पर आत्म-स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता हैं। आत्मा साध्य है। निर्मल शुद्धात्मा परमात्मा साधन है। परमात्मा का गुणानुराग, आत्मा के दुर्गुणों का प्रक्षालन करने में पूर्ण समर्थ है। जिनभक्ति एक मात्र दुर्गति का संहार करने में समर्थ है। प्रभु का साक्षात् दर्शन मात्र निकाचित कर्मबंधन शिथिल करने में पूर्ण समर्थ है। यही नहीं, सत्य श्रद्धा एवं भक्ति से किया हुआ जिन दर्शन और पूजन वही फल देता है, जो साक्षात् जिनेंद्र का दर्शन व पूजन फल देते हैं। तप वैराग्य हुआ जिन दर्शन और पूजना वही, शास्त्राध्ययन से, निर्विकल्प शांत भाव से, आगमाभ्यास करने से साध्य है। यह है सिद्धि स्वरूप सिद्धि की साधना, जिसके माध्यम से हम अपने निज स्वरूप के अति निकट पहुँचते जाते हैं। और अन्ततः स्वयं स्वतंत्र समर्थ हो परमात्मा कहलाते हैं।
प्र. २८७: शुद्धोपयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : ध्यान के अभ्यास काल में चित्त के चांचल्य को दूर करने के लिये शुभयोग का आचरण करना आवश्यक है। बाद में चित्त से क्षोभ दूर होने के उपरान्त आत्मा में स्थिर हो जाना उसे शुद्धोपयोग कहते हैं। (पृ.१६८)
प्र. २८८ : आत्म-अन्वेषण के लिये मार्ग क्या है?
उत्तर : मद गज यदि खो जाये तो उसके पद-चिन्हों को देखते हुये उसे ढूँढते हैं। परन्तु सामने ही वह मद गज दिखे तो फिर उन चिन्हों की आवश्यकता नहीं रहती है। अनेक शास्त्रों का अध्ययन मननादि आत्मान्वेषण के लिये मार्ग है, ध्यान के बल से आत्मा को देखने के बाद अनेक विकल्प व भ्रान्ति की क्या आवश्यकता है।
प्र. २८९ : परमात्म सिद्धि कैसे होती है?
उत्तर : आत्मसद्धि प्राप्त करना कोई कठिन नहीं है। आत्मा भिन्न है शरीर भिन्न है इस प्रकार के विवेक से अपने आत्मा ही उपादेय है बाकि सर्व पदार्थ हेय है। चेतन के साथ अचेतन मिश्रित होकर जब रहता है तब वह पर पदार्थ है। केवल पवित्र आत्मा ही स्वपदार्थ है। परवस्तुओं में जो रत हैं वे परसमयी है और जो आत्मा में निरत हैं वे स्वसमयी हैं, परवस्तुओं के अवलम्बन से बंध और अपनी आत्मा के अवलम्बन से मोक्ष हैं।
आप्त आगम और गुरु की उपासना करने से शरीर सुख की प्राप्ति होती है। कैवल्य सुख के लिये अपने आपको देखना चाहिये। अन्य भावों के द्वारा मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती। ध्यान के अभ्यास के समय पर वस्तुओं के अवलम्बन से काम लेना चाहिये। आत्मा आत्मा में स्थिर होने के बाद अन्य संग का परित्याग करना चाहिये।
प्र. २९० : आत्मविज्ञानी की महिमा बतलाओ।
उत्तर : प्रत्येक जीव ने अनेक भवों में बाह्य विज्ञान अनेक बार प्राप्त किया और खोया परन्तु अंतरंग विज्ञान की प्राप्ति एक बार भी नहीं हुई क्योंकि वह सामान्य विज्ञान नहीं है। यदि यह कहा जाय कि वह मुक्ति पद के लिये कारण है तो अनुचित नहीं है। वह मनोरथ को पूर्ण करता है। कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिंतामणि रत्न भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते हैं। लोक में कोई भी वस्तु उसके समान नहीं है। जिस राजा को यह अलौकिक विज्ञान प्राप्त होता है उसके विषय में कहना ही क्या है? अभी इस भूमण्डल के राजा हैं तो कल स्वर्ग के राजा होंगे और परसों मुक्ति साम्राज्य के अधिपति बनेंगे।
वह आत्मज्ञानी सम्पत्ति में मदोन्मत्त नहीं होगा। मानियों के अधीन न होगा। क्षुद्र हँसी की बातों से संतुष्ट न होगा। गम्भीरताहीन बातें न करेगा। विशेष क्या? वह मेरु पर्वत के समान धैर्यवान रहेगा। वह इन्द्रिय सुखों में आसक्त न होगा। देवेन्द्र की सम्पत्ति भी उसकी दृष्टि में तुच्छ रहेगी। इन्द्रियों का अनुभव करते हुये भी वह योगीकृति की अधिक कामना करता रहेगा। वह सांसारिक अनेक दुःखों के बीच रहने पर भी आभानुभव रूपी असूत के आस्ताव से अपने को अत्यन्त सुखी मानता है।
बारबार आत्मचिन्तन करने से उनके कों की सदा निर्जरा होती रहती है। मैं किसी भी तरह इन दुष्ट कर्मों को दूर कर अवश्य मुक्ति प्राप्त करूँगा। यह उसका दृढ निश्चय रहता है। सच बात तो यह है कि जो व्यक्ति बारबार देह और आस्था को भिन्न रूप में अनुभव कर स्वरूप को भोगता है, उसे कर्मबंध नहीं होता। वह तो रोगी होते हुये भी यथार्थ में योगी है।
प्र . २९१: आत्भविज्ञानी संसार की विकलताओं के मध्य में अपनी आत्मा को नहीं भूलता है, उदाहरण सहित बताओ।
उत्तर जिस प्रकार एक नर्तकी अपने मस्तक पर एक घड़े को धारण कर नर्तन कर रही है। नृत्य करते समय उह सायन, ताल, लय आदि को भंग नहीं होने देती है। इतना सब होते हुये भी उसकी मुख्य दृष्टि यह रहती है कि मस्तक का घड़ा नीचे नहीं गिर पड़े। इसी प्रकार आत्मविज्ञानी समस्त राजवैभव को संभालते हुने भी उसकी मुख्य दृष्टि मुक्ति में है।
जिस समय बालक आकाश में पतंग उड़ाते हैं, उस समय पतंग के डोर को अपने हाथ में रखते हैं। यदि उत्त होरे को हाथ में न रखे तो पतंग न जाने किधर उड़कर जायेगी। उसी प्रकार आत्मविज्ञानी अपनी बुद्धि को लोया मुक्ति में लगाता है। आत्मा अपनी चंचल परिणति से इधर-उधर विचरण न करें। अतएव आभविज्ञानी ने उसको सम्हालकर मुक्ति में लगाया है।
घटिकायंत्र को देखने के लिये जो व्यक्ति बैठा है, वह निद्रा आने पर दूसरों से कथा कहने के लिये प्रेरणा कर स्वयं इंकार करते हुये भी उस घटिकायंत्र से अपनी दृष्टि जिस प्रकार नहीं हटाता है, उसी प्रकार आत्भविज्ञानी भी संसार को अनेक विकलताओं के मध्य में अपनी आत्मा को नहीं भूलता है।
प्र.२९२: आभा अनुपम कैसे है?
उत्तर: संसार में उसकी तुलना करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं है। ज्ञान को सूर्य की उपमा देना ठीक नहीं है, वर्पण की उपमा देना भी ठीक नहीं है। सूर्य के अंधकार का नाश होता है। परन्तु अज्ञान का नाश कहीं होता। दर्पण में पदाथों का प्रतिबिम्ब पड़ता है वैसा प्रतिबिम्ब ज्ञान में नहीं पड़ता है। इस कारण ज्ञान व आत्मा का अनुपम रूप स्वरूप है।
प्र. २९३: आत्मा का दर्शन कब होता है?
उत्तर: यह शरीर जिनमन्दिर है। मन ही सिंहासन है। निर्मल आत्मा जिनेंद्र भगवान है। बाहर के अन्य विकल्पों को छोड़कर आँख मींचकर इस प्रकार देखें तो सचमुच में जिनदेव के अपने भीतर ही दर्शन देते हैं। जैसे कोई व्यक्ति किसी बात को भूलकर फिर सावधान हो पुनः उपयोग लगाकर उसी पदार्थ में चित्त स्थिर करता है। उसी प्रकार खोये हुये पदार्थ को ढूँढने के समान एकाग्रतापूर्वक ज्ञान दर्शन होता है। जैसे कोई विद्यार्थी अभ्यास किये गये पाठ को भूल गया हो और अध्यापक के पूछने पर वह बहुत दत्त चित्त होकर विचार करता है। उसी प्रकार ज्ञानदर्शन ही मेरा रूप है, ऐसा समझकर एकाग्रता से यदि शरीर के अंदर चित्त लगाये तो आत्मा का दर्शन होता है।
जिस प्रकार सुंदर छायाचित्र मूर्तिका रूप है, उसी प्रकार आत्मा का भी निजरूप है। इस प्रकार स्मर करते हुये आँख मीचकर आत्मा को देखे तो अवश्य ही आत्मा का दर्शन होता है।
प्राभृत शास्त्रों का उत्तम प्रकार से अध्ययन व मनन कर, शरीरस्य अवयवों को भूल्यों के समान वश में कर जिस समय त्रिलोकीनाथ भगवान का स्मरण करते हैं. उस समय आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। सूर्य चन्द्र स्वरूप नासिका रंध्र को बंद करके प्राण व अपान वायु को जिस समय ब्रहारंभ में (मस्तक पर) चढ़ाते हैं, उस समय शरीर के भीतर का अंधकार नष्ट होकर तेज:पुज आत्मा का दर्शन होता है।
यह कोई प्रयत्नकर एक ही दिन में सहसा इस आत्मा का दर्शन करना चाहे तो उसे नहीं देख सकता है। कोई सरल बात नहीं है। जब ये जटिल कर्म इससे दूर हट जाय तब कहीं यह आंत्मा प्रत्यक्ष होता है।
प्र. २९४ : आत्मज्ञानी की तीन आँखें होती हैं, कौनसी?
उत्तर: आत्मज्ञानी की तीन आँखें होती है अथवा तीन नेत्र है वही इस लोक में विजयी होता है। दो आँखों से तो वह लोक को देख सकता है परन्तु आत्मा को उन आँखों से नहीं देख सकता। उसके लिये तीसरे ज्ञानरूपी नेत्र की आवश्यकता है। उस ज्ञानरूपी नेत्र से वह आत्मा को देखता है। इसलिये त्रिनेत्री को ही सुख की सिद्धि होती है सबको नहीं।
प्र. २९५ : आत्मारूपी पारा अनादिकाल से मिथ्यात्वरूप कुधातुओं के संबंध से अशुद्ध रहा है, उसको विशुद्ध करने का अमोध साधन क्या है?
उत्तर: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र ही इसके शुद्धि का अमोध साधन हैं। अर्थात् इसे विशुद्ध करने के लिये सम्यकचारित्र अग्नि है। और सम्यग्ज्ञान उपाय है तथा सम्यग्दर्शन (चित्त की विशुद्धिः मूत रसोषधि (नींबू रस में पुटा हुआ सीरप) है अर्थात् उक्त तीनों की प्राप्ति से यह आत्मा रूपी सांसारिक समस्त व्याधियों को ध्वंस करने और मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है। पारा विशुद्ध होकर सांसारिक समस्त व्याधियो को ध्वंस करने और मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता हैं |
प्र. २९६ : ज्ञानवान होकर भी जो शुभ कार्य में प्रवृत्ति नहीं करता, उसकी क्या हानि होती है?
उत्तर: दुर्भगाभरणमिव देहखेदाब्रहमेव ज्ञानं स्वयमनारत:।
अर्थात् जो अनेक शास्त्रों का विद्वान होकर के भी शास्त्रविहित सदाचार, अहिंसा, सत्य भाषण आदि में प्रवृत्ति नहीं करता, उसका प्रचुर ज्ञान विधवा स्त्री के आभूषण धारण करने के समान शारीरिक क्लेश को उत्पन्न करने वाला तथा व्यर्थ ही है।
प्र. २९७ : आत्म-ध्यान का लक्षण बतालाइये?
उत्तर: आत्मा, मन, शरीर में वर्तमान प्राण वायु-कुम्भक (प्राणायाम की शक्ति से शरीर के मध्य में प्रविष्ट की जाने वाली घटाकार वायु) पूरक (उक्त विधि से पूर्ण शरीर में प्रविष्ट की जाने वाली हवा) और रेचक (उक्त विधि से शरीर के बाहर की जाने वाली वायु) तथा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु आदि तत्वों की समान और दृढ़ निश्चलता-स्थिरता को आत्मध्यान (धर्मध्यान) कहते हैं।
प्र. २९८: आत्मा के क्रीड़ा योग्य कौनसे हैं?
उत्तर: पाँच इन्द्रियाँ, उनके विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और मन, ज्ञान और शरीर ये सब आत्मा की क्रीड़ा के स्थान है।
प्र. २९९: आत्मा का स्वरूप बतलाओ?
उत्तर: यत्राहमित्युपचरितप्रत्ययः स आत्मा।
अर्थ- जिस पदार्थ से मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ और मैं इच्छावान हूँ आदि वास्वविक प्रत्यय ज्ञान हो वही आत्मा हैं अर्थात् में सुखी हूँ या दुःखी हूँ, इस प्रकार के ज्ञान द्वारा जो प्रत्येक प्राणी को स्व-संवेदन प्रत्यक्ष जाना जाये, वही शरीर, इन्द्रिय और मन से पृथक चैतन्यात्मक और अनादिनिधन आत्मद्रव्य है।
प्र. ३००। युक्तिपूर्वक आत्मद्रव्य की शरीरादि से पृथक सिद्धि बतलाओ?
उत्तर: यदि आत्मद्रव्य का पुनर्जन्म परलोक (स्वर्गादि में गमन न हो तो संसार में विद्वानों की जो पारलौकिक धार्मिक कर्तव्यों (प्राणिरक्षा, दान, तप और जपादि) में प्रवृत्ति होती है वह निष्फल होगी क्योंकि आत्मा का परलोकगमन न मानने से उन्हें आगे अन्म में उक्त पारलौकिक अनुष्ठानों को स्वर्गादि सुखरूप फल प्राप्त न होगा। विद्वानों की पारलौकिक दान पुण्य आदि धार्मिक अनुष्ठानों में प्रवृत्ति आत्मद्रव्य के परलोक गमन को सिद्ध करती है। विद्वान मनुष्यों का सत्कार्य सिद्धात पारलौकिक दान पुण्यादि में प्रवृत्ति निष्फल हो सकती किन्तु सफल ही होती है। इस नियमित सिद्धांत के अनुसार उनकी दीक्षा और व्रतादि में देखी जाने वाली सत्यवृत्ति आत्मद्रव्य का पुनर्जन्म-परलोक में गमन सिद्ध करती है।
प्र. ३०१: आत्मा को सम्यक्चारित्र कब होता है?
उत्तर: जब ज्ञान, राग-द्वेष की पराधीनता से रहित हुआ प्रवर्तता है, तब आत्मा को वह चारित्र हैं जो कर्म कालिमा नाशक है।
प्र. ३०२ : परद्रव्य की चिंता करने वाला और अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करने वालों को किस फल की प्राप्ति होती है?
उत्तर :परद्रव्यों की चिंता में मग्न रहने वाला आत्मा परद्रव्य जैसा हो जाता है और शुद्धात्मा के ध्यान में मग्न रहने वाला आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
प्र. ३०३ : रागादिक औदयिक भावों को आत्मा का स्वभाव मानने पर क्या आपत्ति है?
उत्तर: संसारी जीवों को जो राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष होते हैं वे सब औदयिक हैं, वे कर्मों के उदयवश होते हैं। यदि चेतन आत्मा के क्रोधादिक दोषों का होना स्वभाव माना जाये तो उन दोषों का मुक्त आत्मा होने का निषेध कैसे किया जा सकता है? अर्थात् नहीं किया जा सकता है, क्योंकि स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता।
प्र. ३०४ : निंदा स्तुति वचनों से रोग तोष को प्राप्त होना व्यर्थ है, क्यों?
उत्तर: सुने गये, निन्दा या स्तुति रुचि वाक्य आत्मा का कुछ नहीं करते क्योंकि, वाक्यों के मूर्तिक होने से अमूर्तिक आत्मा के साथ उनके संबंध का अभाव है। अतः निंदा-स्तुति वाक्यों को सुनकर वृथा ही जो रोष-तोष किया जाता है, वह व्यर्थ है।
प्र. ३०५ : आत्मा का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर: आत्मा यह संस्कृत अत धातु का प्रयोग है। अतः धातु निरंतर गमन अर्थ वाली है। अतः जो स्वयं अपने द्वारा अपने आप में सतत गमन करता रहता है, अपने स्वरूप को प्राप्त होता रहता है उसे आत्मा कहते हैं। अर्थात् आत्मा निरंतर गमनशील है। संस्कृत के अनुसार सभी गमनार्थक धातुएँ ज्ञानार्थक होती है। अतः वह आत्मा ज्ञान स्वभावी है।
प्र. ३०६ : वह आत्मा किस प्रकार के मनोजल में दिखाई देता है?
उत्तर: प्रशांत मनोजल में दिखाई देता है। जब मिथ्यात्व, रागादि और अज्ञान भाव से उपार्जित ज्ञानावरणादि कर्मोदयरूप पवन समूह के पराभूत या मंदीभूत होने पर निस्तरंग समुद्र के समान मन निश्चल या निराकुल हो जाता है तब दिखाई देता है।
प्र.३०७। शब्दकोष आत्मा के १० अर्थ बतलाओ।
उत्तर :चित्त (मन ) धृति (धैर्य), यत्न , धिषणा (बुद्धि) कलेवर (शारीर), परमात्मा, जीव, अर्क (सूर्य) हुताशन (अग्नि) और समीर (वायु, इन १० अर्थों में आत्मा प्रयुक्त होता है।
प्र. ३०८:क्या मुक्ति अवस्था में आत्मा का अभाव होता है?
उत्तर:नहीं | मुक्ति अवस्था में आत्मा का अभाव नहीं होता क्योंकि आत्मा सत्रस्वरूप है, जो वस्तु सत स्वरुपात कही। मुक्ति कभी नाश नहीं होता, भले ही उसकी पर्यायों में परिवर्तन होता है। जिस प्रकार निर्मल स्वरूप होती है, उस कधी स्थित रहती है, उसकी प्रवृत्ति जो विकृत रूप होती है अथवा उसके स्वभाव में आमाको निर्मला कातिल है उसका कारण मेघादि जनित आवृत्ति, आवरण है, उसी प्रकार निर्मल आत्मा मैं जिनमे से कार वा में विभाव परिणमनरूप विकार उत्पन्न होता है उसका कारण आठ कर्मों की आवृत्ति है। गधों के हित हो जाने पर जिस प्रकार चंद्रमा में चांदनी प्रस्फुटित होती है उसी प्रकार कमाँ के दूर हो जाने पर आत्मा में शुद्ध जटिल ज्ञान ज्योति स्फुटित होती है।
प्र. ३०९: भिन्न ज्ञानोपलब्धि से देह और आत्मा का भेद बतलाओ।
उत्तर: संसारी जीवों का देह के साथ अनादि संबंध है। स्थूल देह का संबंध कभी छूटता भी है। फिर सूक्ष्म देह जो तेजस और कार्माण नाम के शरीर है, उनका संबंध कभी भी नहीं छूटता है। इसी से उन्हें अनादिसंबंधेच इस सूत्र के द्वारा अनादि से संबंध को प्राप्त कहा है। इस अनादिसंबंध के कारण बहुधा देह और आत्मा कभी एक नहीं होते। वे सदा भिन्न रूप बने रहते हैं और इसका कारण यह है कि वे भिच ज्ञानों के द्वारा उपलब्ध होते हैं, जाने जाते हैं। इन्द्रियज्ञान से देह जाना जाता है और आत्मा वस्तुतः स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा ही साक्षात् जानने में आत्मा है इन्द्रियाँ उसे जानने में असमर्थ है।
प्र. ३१० : विषयानुभव और स्वात्मानुभव में उपोदय कौन है?
उत्तर : इन्द्रिय विषयों का अनुभवन जो स्थिर रहने वाला नहीं है और अपनी आत्मा का जो अनुभवन है यह अंतरंग वस्तु हैं, सदा स्थिर रहने वाला आध्यात्मिक सुख है। अतः इस तत्व को जानकर विषयानुभवन के त्यागपूर्वक स्वात्मानुभव में पूर्णतः स्थिर होना चाहिये, यही परम हित रूप है।
प्र. ३११ : आत्मा रागादि विकारों से दुःखी क्यों है?
उत्तर: मनुष्य राग भाव के कारण ही अपनी अभीष्ट इच्छाओं की पूर्ति न होने से क्रोध करता है, अपने को उच्च व बड़ा तथा अन्य को नीच समझकर दूसरों का तिरस्कार करता है। दूसरों की धन सम्पदा एवं ऐश्वर्य देखकर ईर्ष्याभाव करता है। सुन्दर रमणियों के अवलोकन से उसके हृदय में काम-तृष्णा जागृत हो उठती है। नाना प्रकार के सुन्दर वस्त्राभूषण, अलंकार और पुष्पमालाओ से अपने को सजाता है। तैलमर्दन, उबटन, साबुन आदि विभिन्न प्रकार के पदार्थों द्वारा अपने शरीर को स्वच्छ रखता है। इस प्रकार राग-द्वेष की अनात्मिक, वैभाविक भावनाओं के कारण मानव अशान्ति का अनुभव करता है।
प्र. ३१२ : क्या शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है?
उत्तर : आत्मा में परज्योति विद्यमान है। प्रत्येक चेतन में परमचेतन दो नहीं एक है। अशुद्ध से शुद्ध होने पर चेतन हो जाता है। कर्मावरण के छूटते ही आत्मा में परमात्म तत्व प्रादुर्भूत हो जाता है। अतः शुद्ध आत्मा का नाम ही परमात्मा है।
प्र. ३१३ : आत्मा को प्रबुद्ध बनाने वाली पाँच बातें कौनसी है?
उत्तर: आत्मा का स्वरूप क्या है, यह जानना, आत्मा को जानने के चिन्ह कौनसे यह समझना, अहित का त्याग करना, हित में प्रवृत्ति करना तथा हित-अहित के फल का चिंतन, ये पाँच बातें आत्मा को प्रबुद्ध बनाती है।
प्र. ३१४ : आत्मा को या संसार में विद्यमान वस्तुओं को जानने का उपाय बतलाओ।
उत्तर : आत्मा को या संसार में विद्यमान वस्तुओं को जानने के तीन उपाय हैं-
(१) प्रमाण, पूर्ण वस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। जो स्व और परद्रव्य का निश्चय
कराये, उसे प्रमाण कहते हैं। प्र यानी परम, श्रेष्ठ या समीचीन और माण यानी ज्ञान, प्रमाण का अर्थ हैं सम्यग्ज्ञान।
(२) नय प्रमाण के द्वारा गृहित वस्तु को जो एक अंश रूप जाने, उसे नय कहते हैं।
(३) सप्तभंगी प्रश्नकर्ता के प्रश्नवशात् अनेकांतस्वरूप वस्तु को सात प्रकार से प्रतिपादन की शैली सप्तभंगी कहलाती है। अथवा सात उत्तर वाक्यों के समुदाय का नाम सप्तभंगी है।
प्र. ३१५ : स्वर्ग में आत्म-कल्याण का क्या साधन है?
उत्तर : देवपर्याय में अप्रत्याख्यानावरण का उदय पाया जाता है। इससे वे तनिक भी संयम नहीं पाल सकते हैं। तब वे अपनी आत्मा की शान्ति हेतु क्या सामग्री वहाँ प्राप्त करते हैं? इस संबंध में एक उपयोगी बात याद आती है। देवपर्याय में अप्रत्याख्यानावरण का उदय पाया जाता है। इससे वे तनिक भी संयम नहीं पाल सकते हैं? तब वे अपनी आत्मा की शान्ति हेतु क्या सामग्री वहाँ प्राप्त करते हैं। इस संबंध में एक उपयोगी बात याद आती है। समाधिस्थ आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने एक बार कहा था-
हम लोगों को व्रती बनाते हैं। उससे वे लोग देवपर्याय में जाकर अपूर्व सुख भोगेंगे तो हमें इसका दोष लगेगा? हमने कहा था, महाराज इस विषय में आप ही शंका का समाधान कर सकते हैं। उन्होंने समाधान में कहा था, व्रती बनाने का हमारा यह भाव है, कि लोग पाप का परित्याग करके दुःख से बचें ताकि देवपर्याय पाकर तीर्थंकर भगवान के समवशरण में जाकर साक्षात् सर्वज्ञ वाणी सुनकर सम्यक्त्व प्राप्त करें। आत्मा, अनात्मा का रहस्य समझें। मिथ्या श्रद्धा का परित्याग करें। नंदीश्वर के जिनबिम्बों का दर्शन करें। स्वर्ग में जिनेंद्र भक्ति द्वारा आत्मा की मलिनता धोने का अपूर्व सुयोग प्राप्त होता है, वे देव अकृत्रिम जिन चैत्यालयों में जाकर रत्नत्रय प्रतिमाओं की अष्टद्रव्य से पूजा करते हैं। इस प्रकार व्रत धारण करने वाला सहज ही सागरों पर्यन्त दुःखों से छूटकर आत्म-कल्याण की महान सामग्री प्राप्त कर लेते हैं। आज ऐसे समर्थ अनुभवी पुरुष नहीं हैं जो वस्तु के रहस्यों को भली प्रकार प्रतिपादन करते हुये हमारी मोह- निद्रा को दूर कर सकें। इस समाधान के सिवाय आचार्य महाराज ने यह भी कहा था कि हमें धन तथा वैभव सम्पन्न, विद्या आदि से भूषित व्यक्तियों को देखकर एक प्रकार का खेद होता है और उन पर दया आती है कि ये लोग विषय भोगों में मस्त हो रहे हैं। ये आगामी भव की तनिक भी चिन्ता नहीं करते किन्तु यहाँ ही पुण्य की पूंजी समाप्त होने के पश्चात् इनकी आगामी भव में क्या स्थिति होगी?
प्र. ३१६ : आत्मा में जो बाह्य सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं, उसका कारण क्या है?
उत्तर: जीव को जो सुख और दुःख उत्पन्न होते हैं, उनमें निमित्त कारण मोह है। जिस समय यह मोह से परपदार्थों में राग और द्वेष करता है, उस समय स्व-पर के ज्ञान से रहित हो यह परपदार्थों को इष्ट या अनिष्ट मानता है और सुखी-दुःखी इष्ट अनिष्ट के संयोग-वियोग से सुखी-दुखी होता है।
प्र. ३१७ : अब आत्मा भोजन पहण नहीं करता तो फिर जीव को भूख क्यों लगती है?
उत्तर: वास्तव में आत्मा को भूख नहीं लगती है। वह सर्वया क्षुधा, तृषा की बाधा से रहित है। मरने शरीर रहा जाता है पर उसे भूख नहीं लगती तो भूख वास्तव में लगती किसे हैं? विचार करने पर प्रतीत गहरीर रह जाता है कर रहे दो हिस्से हैं। एक दृश्य-दूसरा अदृश्य। दृश्य भाग भौतिक जरीर है और अनुक्रय भाग आहेमा है। इस शरीर में आत्मा का आवद्ध होना ही इस बात का प्रमाण है कि आत्मा में विकृति आ गई है। इसकी अपनी शक्ति कमों के संस्कारों के कारण कुछ आच्छादित है। इसके आच्छादन का कारण केवल भौतिक ही नहीं है और न आध्यात्मिक। मूल बात यह है कि अनंत गुण वाली आत्मा में अनंत शक्तियों हैं। इन अनंत शक्तियों में एक शक्ति ऐसी भी हैं, जिससे पर में संयोग से यह विकृत परिणाम करने लगती हैं। राग-द्वेष इसी विकृत परिणति के परिणाम है, जिससे यह आत्मा अनादिकाल से कर्मों को अर्जित करता आ रहा है।
कमर्मों का एक मोटा आवरण आत्मा के ऊपर आकर सट गया है, जिससे यह आत्मा विकृत हो गया है। इस मोटे आवरण का नाम कार्माण शरीर है। इसमें मनुष्य द्वारा किये गये समस्त पूर्व कर्मों के फल देने की शक्ति विद्यमान है। भूख मनुष्य को इसी कारण से मालूम होती है। यह भूख वास्तव में ना तो आत्मा को लगती है और न जड़ शरीर को, बल्कि यह कार्माण शरीर के कारण उत्पन्न होती है। चेतन आत्मा को उससे कुछ भी लाभ नहीं है। यह भूख तो कर्म के उदय उपशम से लगती है।
प्र. ३१८: मेरा कौन सा काल है?
उत्तर: मेरा काल बालक है, युवा है, या वृद्ध है अथवा समय कैसा है? सुभिक्ष है, या दुर्भिक्ष है- रोगाक्रान्त है या निरोग है? अन्यायी राज्य है या न्यायवान राज्य है। चौथा काल है या पंचम दुखम काल हैं। मैं निश्चय से कालातीत हूँ।
प्र. ३१९ : मेरा अब कौनसा जन्म है?
उत्तर : मैं इस समय मानव हूँ। पशु हूँ, देव हूँ या नारकी हूँ, राजा हूँ या रंक हूँ। ये सब मेरी पर्यायें है।
प्र. ३२० : मैं अब किस तरह बर्ताव करूँ?
उत्तर : इसका विचार करते हुये अपना ध्येय बना देना चाहिये कि मैं क्या इस समय मुनिव्रत पाल सकता हूँ? या मैं गृहस्थ रहते हुये धर्म साधना कर सकता हूँ? या मैं गृहस्थ रहते हुये कौनसी प्रतिमा के व्रत पाल सकता हूँ? या मैं आजीविका के लिये क्या उपाय कर सकता हूँ? अथवा में परोपकार किस तरह कर सकता हूँ? संयमी जीवन उत्तम बर्ताव है।
प्र. ३२१ : इस जन्म में मेरा हितकारी कर्म क्या है?
उत्तर : मैं इस जन्म में मुनि होकर अमुक शास्त्र लिख सकता हूँ व अमुक देश, जिले में जाकर धर्म का प्रचार कर सकता हूँ अथवा में गृहस्थी में रहकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ को साध सकता हूँ और धन से अमुक-अमुक पुरुषार्थ कर सकता हूँ, ऐसा हितकारी कर्म करना चाहिये। हितकारी कर्म में मेरा स्वयं का हित है।
प्र. ३२२: परलोक में मेरा हित क्या है?
उत्तर : मैं यदि परलोक में साताकारी संबंध पाऊँ, जहाँ मैं सम्यग्दर्शन सहित तत्व विचार कर सकूँ। तीर्थकर केवली का दर्शन कर सकूँ। मुनिराजों के दर्शन करके उनकी सत्संगति से लाभ उठा सकूँ। ढाईद्वीप व तेरह द्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन कर सकूँ तो बहुत उत्तम है, जिससे मैं परम्परा से मोक्ष का स्वामी हो सकूँ।
प्र. ३२३: मेरा अपना क्या है?
उत्तर: मेरा अपना आत्मा है। सिवाय अपने आत्मा के कोई अपना नहीं है। मेरा द्रव्य अखण्ड गुणों का समूह है। असंख्यात प्रदेशी मेरा आत्मा है। मेरा काल मेरे ही गुणों का समय-समय शुद्ध परिणमन है। मेरा भाव मेरा शुद्ध ज्ञानानंदमय स्वभाव है। सिवाय इसके और कोई अपना नहीं है।
प्र. ३२४: मेरे से अन्य क्या है?
उत्तर: मेरे स्वभाव से व मेरी सत्ता से भिन्न सर्व ही अन्य आत्माएँ हैं। सर्व ही अणु व स्कन्ध रूप पुद्गल इव्य हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश तथा काल द्रव्य हैं। मेरी सत्ता में जो मोह के निमित्त से रागादि भाव होते हैं ये भी मेरे नहीं हैं। न किसी प्रकार का कर्म व नोकर्म का संयोग मेरा अपना हैं। वे सब पर हैं।
प्र. ३२५ : आत्मा का दर्शन कैसे हो सकता है?
उत्तर : जैसे विद्यार्थी भूला हुआ पाठ अध्यापक के पूछे जाने पर दत्त चित्त होकर विचार करता है। ऐसे ही शरीर के भीतर चित्त लगाने से आत्म-स्वरूप का दर्शन हो जाता है। जिस प्रकार छाया मूर्ति का रूप है। उसी प्रकार आत्मा का भी निजरूप है, ऐसा स्मरण करते हुये नेत्र बंद कर आत्मा को देखें तो अवश्य आत्मा का दर्शन होगा।
प्र. ३२६ : आत्मा में आत्मा की सिद्धि कैसे होती है?
उत्तर : भरत ऋषिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, तब इन्द्र महाराज ने स्वर्ग से आकर उनकी गंध कुटी की वर्णनातीत अत्यन्त रचना की। फिर प्रश्न किया कि हे स्वामी इस आत्मा में आत्मा की शुद्धि कैसे होती है? तब सर्वज्ञ भगवान भरत ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा उत्तर दिया कि हे देवेन्द्र आत्मसिद्धि करना कोई कल्पना नहीं है। आत्मा शरीर से भिन्न है। इसे इसी रूप में देखने से आत्मसिद्धि होती है। पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, सप्ततत्व, नवपदार्थों में आत्मा ही उपादेय है। चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थों में केवल पवित्र आत्मा ही उत्तम स्वपदार्थ है। (आप्त, आगम और गुरुओं की उपासना करने से शरीर सुख अर्थात् इन्द्र अहमिन्द्रादि का शरीर प्राप्त होता है। परन्तु आत्मसिद्धि तो स्व-पर ध्यान से ही होती है।
प्र. ३२७ : आत्मा का स्वरूप अनुपम है? कैसे?
उत्तर: यदि कोई मनुष्य मन्दिर में प्रवेश कर श्री जिनेन्द्र देव का अवलोकन न कर केवल दीवालों पर बने चित्र या अन्य कारीगरी, चंवर, छत्र, कलश, सिंहासन आदि को ही देखता रहे, तो वह मूखों में शिरोमणि समझा जायेगा। ऐसे ही कोई अपने भीतर आत्मा को न देख-जान कर अपने ही शरीर को आत्मा समझे और अपनी प्रशंसा करे तो वह मूर्ख ही है। आत्मा अमूर्तिक है। कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न या कामधेनु से आत्मा की समानता करना योग्य नहीं है क्योंकि ये तो क्रमशः जड़-पाषाण और निर्यंच है। आत्मा अनुपमेय है। विश्व में उसकी तुलना करने वाला अन्य कोई पदार्थ नहीं है। ऐसे ही ज्ञान को सूर्य का दर्पण की उपमा देना उचित नहीं है क्योंकि सूर्य से अंधकार का नाश होता है, अज्ञान का नहीं होता। दर्पण में पदार्थ का जैसा प्रतिबिम्ब पड़ता है वैसा प्रतिबिम्ब ज्ञान में नहीं पड़ता। अतएव ज्ञान अथवा आत्मा का अनुपम स्वरूप है।
प्र. ३२८ । क्या आत्मस्वरूप की पहचान एक मुहूर्त मात्र में हो सकती है?
उत्तर : हाँ, हो सकती है। चतुर से चतुर कारीगर भी एक मुहूर्त में नवीन भवन निर्माण नहीं कर सकता परन्तु आत्मस्वरूप की पहचान एक मुहूर्त मात्र में हो सकती है। आठ वर्ष का बालक एक मन का बोझ नहीं उठा सकता परन्तु यथार्थ समझ के द्वारा अज्ञान का नाश कर स्वद्रव्य में पुरुषार्थ कर केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है क्योंकि स्त में परिवर्तन करने के लिये आत्मा पूर्ण स्वतंत्र है। पर में परिवर्तन करने के लिये आत्मा में कोई सामर्थ्य नहीं है। आत्मा में सदैव इतना स्वाधीन पुरुषार्थ बल विद्यमान रहता है। यदि अनुकूल चलें, तो मोक्षधरा में पहुँच जाये और यदि प्रतिकूल चले तो दो घड़ी में सॉतवे नरक में जा निवास करें।
प्र. ३२९। स्वानुभव किसे कहते हैं?
उत्तर: जो आत्मा बुद्धिपूर्वक विकल्पों का उल्लंघन कर पदार्थों के आश्रय को छोड़कर ज्ञान का अवलम्बन लेकर स्वात्यध्यान में रमते हैं, ऐसे स्थिर विचारात्मक भाव को स्वानुभव कहते हैं। अर्थात् अपना मन-ज्ञान का उपयोग अपने चैतन्य पदार्थ पर लगता है, ऐसी अवस्था में मन आत्मा में स्थित होता है। स्वतः में संकल्पित शुद्ध ध्येय भाव को प्राप्त होता है। तब आत्मा-अनात्मा का राग-द्वेष का, ध्याता आदि का ध्यान, सब विकल्प आल दूर होकर आत्मा आत्मा में रत होता है। यही स्वानुभव है, यही साध्य है।
प्र. ३३० स्व-पर भेदविज्ञान कब हो सकता है?
उत्तर: जैसे कोई अज्ञानी प्राणी अज्ञान से अपने शत्रु को ही मित्र समझकर रात-दिन उसकी सेवा-चाकरी करने में लगा रहता है। उसका सदा हित करता रहता है। उसका हित करते हुये अपना अहित या हानि होने जाने का कोई ध्यान नहीं रखता है। उसके हित साधन में ही अपना सर्वस्व लगा देता है। परन्तु जिस समय उसे इस बात का परिज्ञान हो जाता है कि यह मेरा मित्र नहीं है किन्तु मेरा शत्रु है तब उसका उपकार करना त्याग देता है और फिर अपने ही हित में प्रवर्तन करने में सावधान हो जाता है।
उसी प्रकार यह आत्मा अज्ञान अवस्था में इस चिदानंद स्वभाव आत्माराम से भिन्न शरीरादि परपदार्थो के संयोग होने पर रात दिन उनके पालन-पोषण में सदा सावधान रहता है और उन्हें अपना समझते हुये उनके संरक्षण आदि कायर्यों में अनेक आपदाओं को भी ध्यान नहीं रखता है। जो कि मित्रादिक परपदार्थों में अपनी आत्म शुद्धि बदल दे। झूठी कल्पना बिल्कुल छोड़ दे कि वह मेरे नहीं है और न कभी मैं उनका हो सकता हूँ। इस तरह यह आत्मा मित्र विवेक ज्ञान का आश्रय कर अपना हित साधन करने में तत्पर हो जाये, तब ही सच्चा कल्याण होता है। जो जीव आरम्भ, परिग्रह से रहित सुगुरु के उपदेशानुसार, शास्त्राभ्यास रूप स्वात्मानुभव रूप स्व-पर के भेद को जानते हुये (कि यह चैतन्य स्वरूप आत्मा ही मेरा है) स्वयं बाह्य पदार्थ भिन है। यह बोध कर लेता है, तब तक ये सब जड़ पदार्थ है, पर है, वे मेरे कभी नहीं हुये और कभी मेरे नहीं हो सकते हैं इसका ज्ञान नहीं होता है। जब तक इस तरह का भेदविज्ञान नहीं होता तब स्व पर का भेदज्ञान नहीं हो सकता।
इस प्रकार के भेद विज्ञान में शास्त्राभ्यास से स्व-पर के लक्षणों की पहचान होती है और भेदविज्ञान की ज्योति जागृत हो जाती है। इसलिये मोक्षप्राप्ति की उत्कृष्ट इच्छा करने वाले पुरुषों को अवश्य ही स्व पर का विवेक जागृत करना चाहिये। ऐसे ही नित्य का अनुभव करता है वही ज्ञानी जन है। जो ज्ञान है आत्माराम है और आत्मा है सो ही ज्ञान है।
प्र. ३३१ : आत्म-कल्याण कब होगा?
उत्तर: चित्तवृत्ति को सब शंझटों से दूरकर उसे आत्मा सन्मुख करने से कल्याण होगा।
प्र. ३३२: आत्मा के अनेक गुणों में पूज्य का नाम बतलाओ।
उत्तर: सम्यग्दर्शन।
प्र. ३३३ : प्रकृति अनुभाग क्यों नहीं होती?
उत्तर: नहीं, क्योंकि प्रकृति योग के निमित्त से उत्पन्न होती है अतः उसकी कषाय से उत्पत्ति होने में विरोध आता है। भिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाले कार्यों में एकरुपता नहीं हो सकती, क्योंकि उसका निषेध है। दूसरे अनुभाग की वृद्धि प्रकृति की वृद्धि में निमित्त होती है क्योंकि उसके महान होने पर प्रकृति के कार्यरूप अज्ञानादिक वृद्धि देखी जाती है। इस कारण प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती।
प्र. ३३४ : स्वभाव किसे कहते हैं?
उत्तर: आंतरभाव को स्वभाव कहते हैं अर्थात् वस्तु या वस्तुस्थिति की उस व्यवस्था को उसका स्वभाव कहते हैं जो उसका भीतरी गुण है और परिस्थिति पर अवलंबित नहीं है।
प्र. ३३५ : शरीर आदि के साथ जीव का संबंध है या नहीं?
उत्तर: है, क्योंकि शरीर छेदे जाने पर जीव को दुःख की उपलब्धि होती है, इसलिये शरीर के साथ जीव का संबंध सिद्ध होता है।
प्र. ३३६ : यदि जीव और शरीर का एक क्षेत्रावगाह संबंध नहीं माना जाये तो क्या हानि होती है?
उत्तर: यदि जीव और शरीर में एक क्षेत्रावगाह संबंध नहीं माना जायेगा तो जीव के गमन करने पर शरीर को गमन नहीं करना चाहिये। उसी प्रकार औषधि का पीना जीव के आरोग्य का कारण नहीं होना चाहिये। क्योंकि औषधि शरीर के द्वारा पिलायी जाती है, यदि कहा जाय कि अन्य के द्वारा पी गई औषधि उससे भिन्न दूसरे के आरोग्य को उत्पन्न कर देता है सो भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार की कही भी उपलब्धि नहीं होती है। उसी प्रकार जीव के रुष्ट होने पर, शरीर में कंप, दाह, गले का सूखना, आँखों का लाल होना, भौहें चढ़ना, रोमांच होना, पसीना आना आदि कार्य नहीं होना चाहिये क्योंकि शरीर से जीव भिन्न है। तथा जब जीव की इच्छा से शरीर का गमन और आगमन होता है तब पैर हाथ सिर और अंगुलियों का शरीर के साथ संबंध नहीं है। तथा संपूर्ण जीव के केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतवीर्य और सम्यक्तव गुण आदि हो जाने चाहिये। जिस प्रकार सिद्धजीव कर्म व शरीर और कर्मों से पृथक्भूत रहते हुये भी अनंतज्ञानादि गुण नहीं पाये जाते हैं तो सिद्धों के भी नहीं होना चाहिये। सो भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा नहीं माना गया है। अतः इस प्रकार की अव्यवस्था न हो इसलिये जीव से कर्म अभिन्न अर्थात् एक क्षेत्रावगाह रूप संबंध को प्राप्त है ऐसा श्रद्धान करना चाहिये।
प्र. ३३७ : आत्म-कल्याण का मूल कारण क्या है?
उत्तर : आत्म-कल्याण का मूल कारण शास्त्र स्वाध्याय है। स्वाध्याय करना परम तप है। क्योंकि शास्त्रों का स्वाध्याय करने से अज्ञान अंधकार दूर होता है। मोह अंधकार कम होता है। सद्गुणों को ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है। दुर्व्यसन और पापकार्यों को त्याग देने की भावना हृदय में जागृत होती है। इस तरह आत्म-कल्याण का मूल कारण शास्त्र स्वाध्याय है। हर व्यक्ति को शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिये।
प्र. ३३८ : आत्मदर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर :जिस जीव की राग-द्वेष रूपी तरंगें शांत हो जाती हैं, समता धारा निश्छल निःतरंग हो जाती है उस जीव जगार जिस जीहोती है। जिस तरह बहते पवन की वजह से पानी की लहरों में अपना चेहरा दिखाई नही जीव को भारवाह राग-द्वेष रूपी लहरों में आत्मदर्शन नहीं हो सकता। स्व-स्वभाव में लीनता ही आत्मदर्शन हैं |
प्र. ३३९ : निमित्त नैमित्तिक संबंध दृष्टांत देकर समझाइये।
उत्तर :इस सबंध में दोनों निमित्त- नैमित्तिक में समान अवस्था होती है। जैसे गतिनामा नामकर्म का उदय होने से उसके अनुकूल आत्मा को उस गति में जाना ही पड़ेगा। यहाँ गतिनामा नामकर्म निमित्त है। तदरूप आत्मा का उस गति में जाना नैमित्तिक है। उसी तरह जितने अंश में आत्मा में रागादिक भाव होगा उतने ही अंश में कार्माण वर्गणा को कर्मरूप अवस्था धारण करना ही पड़ेगा। यहाँ आत्मा का रागादिक भाव निमित्त है और कार्माण वर्गणा का कर्मरूप अवस्था होना नैमित्तिक है।
प्र. ३५० : ज्ञेय-ज्ञायक संबंध में और निमित्त नैमित्तिक संबंध में क्या अंतर है?
उत्तर : ज्ञेय-ज्ञायक संबंध में ज्ञेय तथा ज्ञायक अलग क्षेत्र में रहते हैं। ज्ञेय में (जनुवा देने की- ज्ञान करवा देने की) शक्ति है, ज्ञायक में जानने की शक्ति है। यहाँ ज्ञेय कारण है, तद्रूप ज्ञान का पर्याय होना कार्य हैं। तो भी बंध-बंधक संबंध नहीं है मात्र निमित्त नैमित्तिक संबंध में दोनों एक क्षेत्र में रहते हैं। दोनों की विकारी अवस्था है एवं दोनों में परस्पर बंध-बंधक संबंध है। यह दोनों में अंतर है।
प्र. ३५१ : आत्मा में एक ही साथ में दो अवस्थाएँ कैसी हो सकती हैं?
उत्तर : आत्मा में विकारी अवस्था दो प्रकार की होती है- एक अबुद्धिपूर्वक, दूसरी बुद्धिपूर्वक। जिसे शास्त्रीय भाषा में औदायिक भाव तथा उदीरणा भाव कहा जाता है। औदायिक भाव कर्म के उदय अनुकूल ही होते हैं और कर्म का उदय होना काल द्रव्य के अधीन है, जिस कारण औदायिक भाव क्रमबद्ध ही होता है। परंतु उदीरणा भाव काल के अधीन नहीं है, अपितु आत्मा के पुरुषार्थ के अधीन है। इस कारण आत्मा जो भाव करे कर सकता है। उदीरणा भाव क्रमबद्ध नहीं, अक्रम है। इसलिये जीव की क्रमबद्ध तथा अक्रमबद्ध पर्याय हो सकती है।
प्र. ३४२ : अर्धनिमिष मात्र के लिये आत्मा के प्रति अनुराग करने वाले जीव को किस फल की प्राप्त होती है?
उत्तर : यदि अर्धनिमिष के लिये भी कोई भव्य प्राणी आत्मा के प्रति अनुराग करता है तो जिस प्रकार अग्नि की एक चिंगारी घास तथा लकड़ी के ढेर को भस्म कर देती है, उसी तरह जीव के सम्पूर्ण पाप क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं।
प्र. ३४३ : अहिंसा और संयम की साधना कौन कर सकता है?
उत्तर : आत्म तत्व की अनुभूति करने वाला ही अहिंसा व संयम की साधना कर सकता है।