प्रत्येक महाकाव्य मानवीय जीवन-मूल्यों की पाठशाला होता है। कारण यह है कि महान व्यक्ति अपने कार्य, व्यवहार और आचरण जीवन में ऐसे मूल्य स्थापित कर जाता है जिन पर चलकर समाज और भावी नागरिक अपने जीवन को सुखी और सफल बना लेते हैं- ऐसे व्यक्ति ही समाज में प्रणेता कहलाते हैं। समाज इन्हें ही अवतारी पुरुष अथवा भगवान की संज्ञा से पुरस्कृत करता है। महाकवि तुलसीदास के रामचरित मानस की भाँति आदिपुराण भी महापुरुष ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत के पावन चरित्र को लेकर लिखा गया महाकव्य है जिसमें सामाजिक व्यवहार के साथ-साथ धर्म और दर्शन, कला और विज्ञान, संस्कृति और इतिहास, राजनीति और लोक धर्म पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। यहाँ हम आदिपुराण में वर्णित जीवन-मूल्य पर प्रकाश डालेंगे। ‘‘सामान्यत: जीवन मूल्य व्यक्ति का वह आन्तरिक गुण है जो उसे विकास की ओर ले जाते हुए उसके जीवन को संरक्षित रखते हैं।’’ हिन्दी शब्द कोष, डॉ. धर्मेन्द्र शास्त्री, पृ. सं. २८० इसी क्रम में डॉ. शोभा दीक्षित अपने ग्रन्थ ‘साहित्य में जीवन-मूल्य’ में लिखती है कि ‘‘जीवन मे व्यक्ति की आत्मा संतुष्टि जिन गुणों के द्वारा होती है- वे गुण ही जीवन-मूल्य हैं।’’साहित्य में जीवन-मूल्य, डाू. शोभा दीक्षित, पृ. सं. ५८ स्पष्ट है कि जीवन-मूल्य कोई बाहरी वस्तु नहीं है, व्यक्ति की अन्तरात्मा का आन्तरिक गुण है, जिसे दूसरे शब्दों में हम सद्गुण भी कहते हैं। प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर ने बड़े संक्षिप्त और सारगर्भित शब्दों में जीवन-मूल्य की परिभाषा की है। उनके अनुसार- ‘‘व्यक्ति के सद्गुण और सद्व्यवहार ही जीवन मूल्य हैं।’’संस्कृति के चार अध्याय, कवि रामधारी सिंह दिनकर, पृ. सं. ३७२ संस्कृत के आचार्य धर्म के तत्त्वों को ही जीवन-मूल्य मानते हैं। मनुस्मृति में भगवान मनु ने लिखा है कि ‘‘धर्म ही मूल्य’’ है।
पश्चात्य विद्वानों में एच.एम. हडसन, डब्ल्यू.एम. अरवन तथा ई.डी. चाल्र्स ने भी जीवन मूल्यों पर अपनी विचारधारा प्रस्तुत की है- डॉ. एच.एम. हडसन के अनुसार -“Value may the defined as a conception or standard cultural or merely personal by which things are compared and approved and disapproved relative to one another held to be relatively desirable or undesirable more meritorious or less more or less correct.”Sociology : A Systamatic Introduction, H.M. Hudson, P.49 डॉ. डब्ल्यू एम. अरवर के अनुसार -“Value is that which satisfies the human desire”Fumdamwntal of Ethics, W.M.Arvan, P. 16 प्रोफेसर ई. डी. चाल्र्स के अनुसार – “Value is a conception, explicit or implicit or distinctive of an individul or characteristic of a group of the desirable which influenced the relationship from a variable modes, means and of action.”Memories of Human : Prog. E.D. Charles, P. 11 अत: स्पष्ट है कि जीवन सुख, शान्ति, ऐश्वर्य और यश की प्राप्ति के लिए व्यक्ति जिन सद्गुणों के माध्यम से समाज का हित चिन्तन करता है – वे सद्गुण ही जीवन-मूल्य कहलाते हैं। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में निम्न मूल्यों पर विचार पल्लवित किए हैं :-
१. मानवतावादी मूल्य
प्रत्येक चिंतनशील कवि और कलाकार अपनी कृति के मूल में मानवता के कल्याण का भाव लेकर ह कृति की संरचना करता है। उसकी कृति का मूल उद्देश्य मानव जाति का कल्याण है। अस्तु जन कल्याण का भाव ही मानवता है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी के शब्दों में – ‘‘मानवता उदात्त मन के संवेदनशील समाज सुधारक की अन्तश्चेतना का मुकुलित पुष्प है। व्यकित के मन की उदारता पुण्य फल है। यदि हम किसी गरीब और अभाव ग्रस्त व्यक्ति की तन से, मन से और धन से सेवा कर रहे हैं तो यह सच्ची मानव सेवा है; भगवान की पूजा है।’’ हरिजन, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, ३१ वाँ अंक, सन् १९३८ आदिपुराण में भी सब जातियों और धर्मों, वर्णों और सम्प्रदायों में सामजस्य और समन्वय स्थापित करने के लिए व्यक्ति के जीवन के लिए तीनों गुणों का होना अनिवार्य माना गया हैं
‘‘सत्येव दर्शने ज्ञानं चारित्रं च फलप्रदम् । ज्ञानं च दृष्टिसच्चर्यासांनिध्ये मुक्तिकारणम् ।।
आदिपुराण, भाग-१, पर्व २४, श्लोक सं. १२१-१२२, पृ. सं. ५८५
तापत्पर्य यह है कि सत्य, दर्शन, ज्ञान और चरित्र व्यक्ति को फल प्रदाता है। सम्यक् दर्शन और चारित्र से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। इनसे रहित ज्ञान से मुक्ति प्राप्त नहीं होती है।
२. राष्ट्रीय मूल्य
राष्ट्र के विकास और संरक्षण के लिए व्यक्ति जिन गुण धर्मों का नियमन और पालन करता है, ‘राष्ट्रीय मूल्य’ कहलाते हैं। ‘‘राष्ट्रीय प्रत्सेक जागरूक और चिन्तनशील व्यक्ति के व्यक्तित्त्व का अभिन्न अंग है। राष्ट्र के बोरव, सम्मान और स्वाभिमान के प्रति समर्पित भाव ही राष्ट्रीयता है। राष्ट्र की वायु, प्रकाश, जल, धरती और आकाश की अनन्त सम्पदा का उपयोग करते हुए राष्ट्र की प्राकृतिक धरोहर और सांस्कृतिक चेतना का संवद्र्धन और संरक्षण का दायित्व-बोध ही राष्ट्रीयता है।’’अज्ञेय के कथा साहित्य में जीवन मूल्य, डॉ. रीना, पृ. २२ आदिपुराण में भी राष्ट्रीय मूल्यों की अभिव्यकित है। प्रकृति की अनन्त सम्पदा और उसके अनन्त वैभव के संरक्षण औ विकास का भाव प्रस्तुत ग्रन्थ में परिलक्षित होता है। वन और वृक्ष, झील और निर्झर, सरि और सरोवर, सुगंध और समीर, फूल और शूल, रंग और भृंग, काग और कोयल, मोर और मैना, जंगल और जीव-जन्तु, पर्वत और प्रकृति के पारस्परिक सम्बन्ध और क्रिया जगत का जितना सुन्दर और भव्य चित्रण आदिपुराण में वर्णित है, उतनास अन्यत्र दुर्लभ है। यथा –
‘‘प्रत्यापणमसौ तत्र रत्नराशीन्निधीनिव । X X X X X X समौक्तिकं स्फुरद्रत्नं जनतोत्कलिकाकुलम् ।
रथा वणिक्पयाम्मोधिं पोता इव ललङ्घिरे ।। X X X X X X रथकव्यां परिक्षेड्डतबाह्यपरिच्छदम् ।।’’
आदिपुराण, भाग-२२, पर्व २७, श्लोक सं. १३८-१३९-१४२, पृ. सं. ३०
तात्पर्य ह है कि प्रत्येक दुकान निधियों से भरी पड़ी थी। प्रसिद्ध निधियों की संख्या नौ है, परन्तु वे संख्या में असंख्यात हैं। मोती, माणिक, पन्ना, पुखराज, नीलम, लहसुनिया, हीरा, गोमेद के अतिरिक्त सोना, चाँदी, जवाहरात आदि समृद्धि के प्रतीक हैं। हाथी और घोड़ों की सेना, गायों के चरवाहे के अतिरिक्त खाद्यान्न आदि सब उनके काल में राष्ट्रीय सम्पत्ति के अन्तर्गत आते थे।
३. नैतिकतावादी मूल्य
नैतिकता व्यक्ति का आन्तरिक गुण है, आत्मिक बल है। नैतिकता व्यक्ति को सामाजिक विकास और उन्नयन के लिए प्रेरित करती है, जिससे समाज में सुख, शान्ति और व्यवस्था की स्थापना होती है। नैतिकता संस्कृति की जननी है। नैतिकता के आचरण में ढलकर व्यक्ति का जीवन कुंदन बन जाता है। जीवन को सत्पथ पर ले जाने का कार्य संस्कृति ही करती है। अत: नैकिकता जीवन का मूलाधार है। व्यक्ति समाज मे व्यवस्था, समता और पवितत्रा बनाए रखने के लिए जिन नए नियमों का विकास और अनुपालन करता है, प्रथमत: वे धर्म की सीमा में परिगणित किए जाते हैं – सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य व्यकित के जीवन के शाश्वत नैतिक मूल्य हैं। परन्तु वृद्धों की सेवा, अतिथि सत्कार, पर नारी के प्रति पवित्र भाव, गरीबों के प्रति उदारता, असहाय के प्रति सहिष्णुता और सहयोग का भाव, नैतिकता के अन्तर्गत आता है। व्यक्ति के शोषण और उत्पीडन के पराड़मुख व्यक्ति के सहयोग और सममान का भाव ही नैतिकता है। आदिपुराण में कई प्रसंग ऐसे हैं जो नैतिकतावादी मूल्यों की प्रतिस्थापना करते हैं। नैतिकता व्यक्ति के आचरण व्यक्ति के आचरण का सद्गुण है। धर्म, नीति, न्याय, सत्य, अहिंसा, सहयोग, सहिष्णुता, त्याग, तप, दया, दान, अपनत्व, बंधुत्व, समन्वय और समता आदि ऐसे मानवीय गुण हैं जो नैतिकता की परिधि के अन्तर्गत आते हैं। आदिनाथ तथा भरत ने भी समाज में नैतिकतावादी आचरण को अपनाने की शिक्षा दी है।
४. सौन्दर्यपरक मूल्य
प्रकृति और पुरुष के जीवन में निहित वह अनन्त शक्ति, जो व्यक्ति के मन को अनन्त आनन्द की अनुभूति से संतृप्त करती है- सौन्दर्य कहलाती है। अत: अन्तर्मन का ऐसा सद् गुण जो चेतना के उज्ज्वलतम् भाव से सम्पूरित है- ‘सौन्दर्य’ कहलाता है। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी सौन्दर्य को मन की चेतना का उज्जवल वरदान कहा है-‘‘उज्जवल वरदान चेतना का, सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं। जिसमें अनन्त अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं।’’ कामायनी (लज्जा), जयशंकर प्रसाद, पृ. सं. ९२ वास्तव में सौन्दर्य किसी वस्तु अथवा व्यक्ति का ऐसा सदभुत आन्तरिक गुण है, जिसमें किसी भी प्राणी को सम्मोहित करने की असीम शक्ति निहित होती है। अस्तु सम्मोहन शक्ति ही सौन्दर्य है। नारी के सौन्दर्य की श्रेष्ठता का अनुपम प्रमाण है। रंग-रूप की उज्ज्वलता का प्रकाश हैं वाणी और नयन का सम्मोति भाव है। देय की तन्वगी काया का आकर्षक रूप है। इस प्रकार लावण्य सम्मोहन शक्ति है।
आदिपुराण, भाग-२, पर्व ४३, श्लोक सं. २९६, पृ. सं. ३८०
५. धार्मिक मूल्य
जीवन में शुचिता और पवित्रता बनाये रखने के लिए मानव जिन सर्वमान्य आचार-संहिता का जीवन में अनुपालन करता है, वे आर्दश नियम और आचार-संहिता ‘धर्म’ की परिभाषा के अन्तर्गत आते हैं। ‘धर्म’ जीवन को सुखी, संपन्न और सम्माननीय बनाने वाली जीवन शैली है। सामाजिक व्यवस्था, सुरक्षा और जीवन में समत्व स्थापित करने के लिए धर्म आवश्यक है। आदिपुराण में भी धर्म की व्याख्या और बताए गए हैं। धर्म वही है जिसका मूल दया हो और संपूर्ण प्राणियों पर अनुकम्पा करना ही दया है। दया की रक्षा के लिए क्षमा आवश्यक है। इन्द्रियों का दमन करना, क्षमा धारण करना, हिंसा नहीं करना, तप, दान, शील, ध्यान और वैराग्य ये दयारूप धर्म के चिह्न हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रका का त्याग सब सनातन धर्म कहलाते हैं।
आदिपुराण, भाग-१, पर्व ५, श्लोक सं. २१-२३, पृ. सं. ९२
भरत ने बताया कि गृहस्थों का चार प्रकार का धर्म होता है- दान देना, पूजा करना, शील का पालन करना और पर्व के दिन उपवास करना गृहस्थों का धर्म होता है।
‘‘दानं पूजां च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम् । धर्मश्वतुर्विध: सोऽयम्रान्नातो गृहमेधिनाम् ।।’’
आदिपुराण, भाग-२, पर्व ४९, श्लोक सं. १०४, पृ. सं. ३२५
भरत ने जैन धर्म की शिक्षाओं का निम्नवत् वर्णन किया है- व्रतों का धारण करना दीक्षा है। व्रत दो प्रकार हैं: १. महाव्रत २. अणुव्रत
१. महाव्रत : स्थूल एवं सूक्ष्म हिंसादि पापों का परित्याग महाव्रत है।
२. अणुव्रत :सूक्ष्म हिंसादि दोषों का निग्रह- अणुव्रत है। दीक्षा से सम्बन्ध रखने वाली क्रियाएं दीक्षान्वय क्रियाएं कहलाती हैं। इनकी संख्या ४८ है।
मूलत: क्रियाएं १२ हैं – १. शुद्धि, २. वृत्तालाभ, ३. स्थनलाभ, ४. गणग्रह, ५. पूजाराध्य, ६. पुण्ययज्ञ, ७. दृष्टचर्य, ८. उपयोगिता, ९. उपनीति, १०. व्रतचर्या, ११. व्रतावतरण, १२. विवाह। जीवन को चारों आश्रम की साधना अग्नि में तपा कर शुद्धि कर लेनस ही तप है। तप से मन और आत्मा प्रसन्न होती है। जीवन शुद्ध और पवित्र बनता है- तप से ही तृप्ति मिलती है। तृष्ति चार प्रकार की होती है- १. दिव्य तृप्ति २. विजय तृप्ति ३. परम तृप्ति और ४. अमृत तृप्ति तात्पर्य यह है कि जैनधर्म व्यक्ति को शुद्ध और सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
६. सांस्कृतिक मूल्य
धर्म द्वारा निर्देशित जीवन मूल्यों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुपालन करना सांस्कृतिक मूल्य है। धार्मिक संस्कारों को जीवन में अपनाने का आग्रह और अनुपालन ही सांस्कृतिक मूल्य है। बिना किसी चिंतन और विश्लेषण के पूर्वजों की जीवन शैली का आचरणबद्ध अनुपालन करना सांस्कृतिक मूल्यों की परिधि में आता है। यथा- हिन्दु समात में ‘गाय’ की पूजा करना हिन्दू समाज का सांस्कृतिक मूल्य है। गंगा का वंदन, पूजा और अर्चन जीवन का कल्याणकारी भाव है। पेड़ों की पूजा का विधान और जीवों की रक्षा का भाव हमारी सांस्कृतिक चेतना के ही विशिष्ट बिन्दु है। इसी भाँति मुस्लिम समाज में धूम्रपान और शराब सेवन को हेय समझते हैं। वहाँ पूजा और वंदन को कोई स्थान नहीं है- वे केवल ‘स्मरण’ को ही अल्लाह की इबादत मानते हैं। ईसई समाज में भी ईसा मसीह की प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना करना ही उनकी सबसे बड़ी भक्ति है। श्रद्धा और भक्ति का यह पवित्र भाव ही सांस्कृतिक मूल्य है। महावीर स्वामी ने भी समाज के उत्थान के लिए सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को धर्म का आवश्यक ओर अनिवार्य तत्त्व स्वीकार किया है। भरत की दक्षिण प्रदेश की विजय यात्रा के समय का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है। चोल, केरल और मध्य भारत को विज कर जब भरत वापिस लौटने लगे तो दक्षिण पथ के लोगों ने बड़े आदर पूर्ण मन से भरत का स्वागत किया। यह स्वागत और स्नेह उनकी आत्मीयता और सांस्कृतिक चेतना की सूचक है।
X X X X X X तमालवनीथीपु संवरन्त्यो यदृच्छया । मनोऽस्य जरारूढयौवना: केरलस्त्रियं: ।।’’
आदिपुराण, भाग-२, पर्व ३०, श्लोक सं. २६, ३४, पृ. सं. ८४
प्रस्तुत श्लोकों में केरल की सांस्कृति चेतना की संस्कृति का ही वर्णन किया है। न केवल, उत्सव, त्यौहार, अपितु श्रेष्ठ और योग्य महान व्यक्तियों का सर्वत स्वागत और सत्कार होता है, यही हमारे सांस्कृतिक मूल्य है।
७. व्यक्तिवादी मूल्य
प्रगति पथ की ओर अग्रसर होना व्यकित का आदिम स्वभाव है। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत, विकास, आनन्द और श्रेय की प्राप्ति के लिए जिन मूल्यों का प्रयोग करता है- वे मूल्य व्यकितवादी मूल्य कहलाते हैं। भरत के अपने व्यकितगत मूल्य थे जिनके अनुपालन से उन्होंने राष्ट्र और समाज की रक्षा की तथा सुरक्षा और सुव्यवस्था का राज्य स्थापित किया। एक दिन सभा में सिंहासन पर बैठे भरत ने राजाओं को धर्म का उपदेश दिया- कुल धर्म का पालन, बुद्धि का पालन, स्वयं की रक्षा, प्रजा की रक्षा करना और सामंजस्यता आदि धर्म के पांच स्वरूप हैं- कुलाम्नाय की रक्षा करना- तात्पर्य यह है कि कुल के आचरण, परम्परा और मर्यादा का पालन करना क्षत्रिय का धर्म है। संकट और आपदा के समय भी स्थित बुद्धि से न्याय और विवेक संगत निर्णय लेना-मत्यनुपालन (बुद्धि की रक्षा करना) धर्म है। दुष्ट पुरुषों का विग्रह और शिष्ट पुरुषों का अनुपालन समंजसत्व गुण है। राजा को दुष्ट गुणों से युक्त पुत्र अथवा शत्रु दोनों का निग्रह करना चाहिए। उसे समाज दृष्टि से, भेदभाव त्याग कर समभाव से न्याय करना चाहिए। सामंजस्य का अर्थ ही समाज दृष्टि है। दुष्ट और शिष्ट का भेद यही है कि जो व्यक्ति हिंसा और पाप कर्मों से निरत रहकर अधर्म करते हैं, दुष्ट कहलाते हैं और जो व्यक्ति अहिंसा और सत्य मार्ग के अनुगामी होते हैं; क्षमाशील और संतोषी होते हैं- शिष्ट कहलाते हैं। यथा –
आदिपुराण, भाग-२, पर्व ४२, श्लोक सं. १०१, २०३, पृ. सं. ३४८
निष्कर्ष यह है कि आचार्य जिनसेन ने भारतीय साहित्य में निहित जीवन मूल्यों की व्यापक रूप में व्याख्या की है। धर्म, संस्कृति, मानवता, राष्ट्रीयता और नैतिकता व्यक्तिगत जीवन स्तर को भव्य और उदात्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमका निभाते हैं। जीवन कोई बनी बनायी वस्तु नहीं है, जीव की जागृत अवस्था का नाम ही जीवन है। जीव अपने बौद्धिक विवेक से अपने जीवन के सुख और समृद्धि के लिए यश और ऐश्वर्य के लिए समाज में नित प्रति हो रहे परिवर्तन के परिपे्रक्ष्य में अपने जीवन का नया पथ निर्मित करता है। नये संस्कारों के मध्य विकसित जीवन ही मूल्य परक जीवन है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भरत और बाहुबलि तथा ऋषभदेव की चारित्रिक विभूतियों द्वारा कवि ने पाठक के समक्ष एक नया आर्दश स्थापित किया है।
डॉ. श्रीमती विभा जैन अनेकान्त अप्रेल-जून २०१३ पृ. ६१ से ६७