—गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमित विद्विषे।
यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।१।।
श्री कुंदकुंददेव ने मूलाचार में मुनियों के अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन करते हुए ‘समता’ नाम की आवश्यक क्रिया का लक्षण लिखा है-
जीविदमरणे लाभा-लाभे संजोयविप्पओगे य।
बंधुरिसुहदुक्खादिसु, समदा सामाइयं णाम।।२३।।
इसकी टीका में श्री वसुनंदि आचार्य ने कहा है-
‘‘सामाइयं णाम-सामायिकं नाम भवति। जीवितमरणलाभालाभ-संयोगविप्रयोग-बन्ध्वरिसुखदुःखादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणाम: त्रिकाल-देववंदनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवति।’’
अभिप्राय यह है कि जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, बंधु-शत्रु और सुख-दुःख आदि में जो समान परिणाम का होना है और त्रिकाल में देववंदना करना है वह सामायिक व्रत है।इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि साधुओं के लिए त्रिकाल देववंदना करना वही ‘सामायिक विधि’ है।मैंने क्षुल्लिका अवस्था में सन् १९५४ में चारित्रसार का स्वाध्याय किया था, तब उसमें लिखी विधि के आधार से कृतिकर्मपूर्वक, देववन्दना-सामायिक करना प्रारंभ कर दिया था। जब सन् १९५५ में प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की कुंथलगिरि में सल्लेखना देखकर पुन: पूर्व में उन्हीं आचार्यश्री की आज्ञा प्राप्त की थी, उसी के अनुसार मैं जयपुर में आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के संघ में आई थी। संघ में आर्यिका दीक्षा प्राप्तकर मैं सदा इसी विधि से सामायिक करती थी। मेरे से अनेक आर्यिकाओं व मुनि श्री शिवसागर जी, क्षुल्लक श्री चिदानन्दसागर जी (आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी) एवं क्षुल्लक श्री सन्मतिसागर जी आदि भी इस विधि को ज्ञात कर इसी विधि से कृतिकर्मपूर्वक सामायिक करने लगे थे।यहाँ प्रसंगानुसार कृतिकर्म का लक्षण भी जानना आवश्यक है, अत: आप जानें-